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शुक्रिये व क़द्रदानी का जज़्बा

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قرآن کریم : لئن شكرتم لأزيدنكم

अगर तुम ने शुक्र अदा किया तो मैं यक़ीनन नेमतों को ज़्यादा कर दूँगा।

सूरए इब्राहीम आयत न. 127

इंसान को समाजी एतेबार से एक दूसरे की मदद की ज़रूरत होती है। अगर कुल की सूरत में समाज मौजूद है तो उसके जुज़ की शक्ल में फ़र्द का वुजूद भी ज़रूरी है लिहाज़ा जुज़ (फ़र्द) अपने वुजूद व ज़िन्दगी बसर करने में कुल (समाज) का मोहताज है। समाजी ऐतबार से भी समाज का हर फ़र्द दिगर तमाम अफ़राद का मोहताज होता है। इस बिना पर तमाम मेयारों को नज़र अंदाज़ करते हुए यह कहा जासकता है कि एक इंसान ज़िन्दगी बसर करने के लिए समाज के दूसरे तमाम अफ़राद का मोहताज होता है और चूँकि वह उनका मोहताज है इस लिए उसे उनके वुजूद और ख़िदमात का शुक्रिया अदा करना चाहिए। मिसाल के तौर पर तमाम लोगों को उस्तादों की ज़रूरत होती है, सबको ड्राईवरों की ज़रूरत होती है और इसी तरह तमाम लोगों को समाज के मुख़तलिफ़ गिरोहों की ज़रूरतें पड़ती हैं, इस हिसाब से समाज के तमाम अफ़राद को काम करने वाले तमाम ही गिरोहों का शुक्रिया अदा करना चाहिए।

हर घराने को उस्ताद का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने उनके बच्चों को तालीम दी और उनकी तरबीयत की। सफ़ाई करने वाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए  कि अगर वह न होता तो सब जगह गंदगी के ढेर नज़र आते और इसी तरह हिफ़ाज़त करने और पहरा देने वालों का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए कि अगर वह न होते तो अम्नियत न होती और कोई आराम की नींद सोने की हिम्मत न करता और सारे लोग ख़ुद ही पहरा देते। मामूली से ग़ौर व फ़िक्र के बाद यह बात सामने आती है कि हर फ़र्द की ज़िन्दगी समाज के दूसरे अफ़राद की बेदरेग़ मेहनतों का नतीजा है। मुमकिन है यहाँ पर कोई एतेराज़ करे कि हर फ़र्द को चाहिए कि वह अपनी ज़िम्मेदारी को निभाये, ताकि उसकी ज़िम्मेदारी की वजह से दूसरे अफ़राद भी अपनी ज़िम्मेदारी निभायें। इस तरह एक दूसरे का शुक्रिया अदा करने और एहसान मंद होने की कोई ज़रूरत नही है। उनके जवाब में कहा जा सकता है कि हाँ आपकी बात सही है कि

तरक़्क़ी याफ़्ता समाज में शुक्रिया अदा करने और एहसानमंद होने की कोई ज़रूरत नही है और हर शख़्स के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी ज़िम्मेदारियों को बेहतरीन तरीक़े से निभाये और किसी से कोई तवक़्क़ो न रखे। लेकिन वह समाज जिसके अफ़राद में यह शायस्तगी न पाई जाती हो और जिन्हें जन्नत में जाने और जहन्नम से बचने के लिए, शौक़, ख़ौफ़ और धमकियों की ज़रूरत पेश आती हो, उनसे यह  तवक़्क़ो कैसे की जा सकती है कि वह दुनियवी ज़िन्दगी में अपनी ज़िम्मेदारियों को बेहतरीन तरह से अँजाम दे सकते हैं। इस बुनियाद पर यह कहा जा सकता है कि ऐसे  समाज में लोगों के अमल पर उनका शुक्रिया अदा करना ही इस बात का सबब बनेगा कि काम करने वाले अपने कामों को ज़्यादा मेहनत व लगन से अंजाम दें और अपने कामों से फ़रार न करें। मिसाल के तौर पर एक ड्राईवर जिसकी ज़िम्मेदारी हमें एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना है अगर हम अपनी मंज़िल पर उतरते वक़्त उसका शुक्रिया अदा कर दें तो हमारा यह शुक्रिये का एक जुमला, उसकी पूरे दिन की थकन को दूर करने का सबब बनेगा और वह अपने इस फ़रीज़े को और ज़्यादा खुशी के साथ अंजाम देगा।

तरक़्क़ी याफ़्ता व मोहज़्ज़ब समाजों में छोटी छोटी और मामूली मामूली बातों पर शुक्रिया अदा करने का रिवाज है, लेकिन पिछड़े समाज़ों में मन्ज़र इसके बिल्कुल उलटा है, वहाँ शुक्रिया अदा करने के बजाए हमेशा एतेराज़ किये जाते हैं। उनकी मंतिक़ यही होती है कि उसकी ज़िम्मेदारी है लिहाज़ा उसे अदा करना चाहिए। अगर ड्राईवर है तो ड्राईवरी करनी चाहिए, मुहाफ़िज़ है तो उसे पहरा देना चाहिए और अगर सफ़ाई करने वाला है तो उसे सफ़ाई करना चाहिए।

ज़ाहिर है कि जो लोग समाज़ी एतेबार से बहुत ऊँची सतह पर नही है अगर उन्हें उनके कामों पर शौक़ न दिलाया जाये या उनकी हौसला अफ़ज़ाई न की जाये तो इससे उनके ऊपर बुरा असर पड़ेगा।

मिसाल : अगर घरेलू ज़िन्दगी में मर्द, अपनी बीवी की बेदरेग़ ज़हमतों के बदले में एक बार भी उसका शुक्रिया अदा न करे, या इसके बरअक्स अगर बीवी, शौहर की बेशुमार ज़हमतों के बदले एक बार भी ज़बान पर शुक्रिये के अलफ़ाज़ न लाये तो ऐसे घर में कुछ मुद्दत के बाद अगर लडाई झगड़ा न भी हुआ तो मुहब्बत व ख़ुलूस यक़ीनी तौर रुख़सत हो जायेगा, हर तरफ़ बेरौनक़ी नज़र आयेगी और ऐसी फ़ज़ा में सिर्फ़ घुटन की ज़िन्दगी ही बाक़ी रह जायेगी।

हमें यह बात कभी नही भूलनी चाहिए कि हर अज़ीम व तख़लीकी काम का आमिल, शौक़ व रग़बत पैदा करना होता है। जबकि रोज़ाना की ज़िम्मेदारों को निभाने में यह ख़ल्लाक़ियत नज़र नही आती ।  

राग़िब ने अपनी किताब मुफ़रेदात में शुक्र के मअना इस तरह बयान किये है:

الشكر تصور النعمة و اظهارها

शुक्र का मतलब यह है कि इंसान पहले मरहले में नेमत को समझ कर उसकी तारीफ़ करे फिर दूसरे मरहले में उसका इज़हार करे।

इसके बाद राग़िब लिखते हैं कि शुक्र की तीन क़िस्में हैं:

الشكر علي ثلثة اضرب شكر القلب و هو تصور النعمة و شكر باللسان و هو ثناء علي النعم وشكر لساير الجوارح  و هو مكافات النعمة بقدر استحقاقها .

शुक्र तीन तरह का होता है 1- शुक्रे क़ल्बी, यानी नेमत को जानना और उसे पहचानना है। 2- शुक्रे जबानी,  यानी नेमत अता करने वाले की तारीफ़ करना है। 3- शुक्र जवारेही, यानी इंसान का अपनी क़ुदरत के मुताबिक़ उसका शुक्र अदा करना है। दूसरे लफ़्ज़ों में शुक्र का तीसरा मरहला यह है कि हमारे आज़ा व जवारेह उस नेमत से जो फ़ायदा उठाते हैं, उसके बदले में जिस क़दर हो सके उसका शुक्र अदा करें। जैसे किसी फल का शुक्र यह है कि उसे खालिया जाये न यह कि उसे ज़ाये कर दिया जाये, क्योकि यह नेमत इंसान के लिए पैदा की गई है।

हमने सुना है कि कुछ मुहज़्ज़ब मुल्कों में जब लोग आपस में मिलते हैं तो हमेशा एक दूसरे का शुक्रिया अदा करते हैं। हम यह दावा नही करना चाहते कि ऐसे मुल्कों में हर तरह की तहज़ीब पाई जाती है, मुमकिन है उन्ही मुल्कों में दूसरी तरह की बुराईयाँ भी पायी जाती हों लेकिन उनका यह अमल यानी शुक्रिया अदा करना, जो वहाँ के समाज में आम है, एक अच्छा अमल है। इससे समाज में रहने वाले अफ़राद के अदब, अख़लाक़, ख़ुलूस और मुहब्बत में इज़ाफ़ा होता है।

इस्लाम की तालीमात में एक बाब शुक्रिये का भी पाया जाता है, जिसमें यह बताया जाता है कि तमाम बन्दों की ज़िम्मेदारी है कि वह अल्लाह से मिलने वाली नेमतों के बदले उसका शुक्र अदा करें।

ज़ाहिर है कि जैसे जैसे लोगों में शुक्रिये का जज़्बा बढ़ता जायेगा वैसे वैसे उनके पास अल्लाह की नेमतों में इज़ाफ़ा होता जायेगा।

शुक्रिये के बाब में जो एक अहम व दिलचस्प नुक्ता बयान किया गया है वह यह है कि वली ए नेअमत ख़ुदा है और तमाम नेमतें उसी से हासिल होती हैं, लेकिन चूँकि दुनिया के निज़ाम की बुनियाद इल्लत व असबाब पर मुनहसिर है, इस लिए हर नेमत किसी इंसान के ज़रीये ही दूसरे इंसान तक पहुँचेगी।

हम इंसानों का फ़रीज़ा यह है कि नेमतों को अल्लाह की इनायत समझे और उसका शुक्र अदा करे, लेकिन चूँकि अल्लाह की इस नेअमत व रहमत के पहुँचने में इंसान वसीला बना है, लिहाज़ा उसका भी शुक्रिया अदा करना चाहिए लेकिन सिर्फ़ इसी हद तक कि वह अल्लाह की नेअमत पहुँचाने में वसीला बना है।

हमें इस नुक्ते पर भी तवज्जो देनी चाहिए कि उस इंसान का शुक्रिया इस तरह न किया जाये कि अल्लाह के बजाए वही वली ए नेमत समझा जाये। हमें इस बात पर भी तवज्जो देनी चाहिए कि इस तरह के मसाइल में गफ़लत के तहत यह दावा नही करना चाहिए कि यह तो अल्लाह का रहमों करम था कि यह नेमत हमें नसीब हुई। बल्कि हमें उस इंसान का शुक्रिया इन अलफ़ाज़ में अदा करना चाहिए कि अल्लाह की यह नेमत आपके हाथो से हम तक पहुँची है लिहाज़ा अल्लाह के फ़ैज़ का वसीला बनने की वजह से हम आपका शुक्रिया अदा करते हैं।

इस्लामी रिवायातों में मिलता है कि जिसने मख़लूक़ का शुक्र अदा नही किया, उसने ख़ालिक़ का भी शुक्र अदा नही किया।

من لم يشكرالمخلوق لم يشكر الخالق

एक हदीस में पैग़म्बरे अकरम (स) से इस तरह नक़्ल हुआ है: क़ियामत के दिन एक शख़्स को अल्लाह के सामने पेश किया जायेगा, कुछ देर बाद अल्लाह का हुक्म होगा कि इसे जहन्नम में डाल दिया जाये। वह शख़्स इस हुक्म के पर कहेगा: ख़ुदाया मैं तो तेरे क़ुरआन की तिलावत कर के उस पर अमल करता था, उसके जवाब में कहा जायेगा: सही है कि तू क़ुरआन पढ़ा करता था मगर तूने उन नेअमतों का शुक्र अदा नही किया जो मैने तुझ पर नाज़िल की थीं। वह जवाब में वह कहेगा: ख़ुदाया मैने तो तेरी तमाम नेमतों का शुक्र अदा किया है, तब ख़िताब होगा:

الا انك لم تشكر من اجريت لك نعمتي علي يديه و قد اليت علي نفسي  ان لا اقبل شكر عبد بنعمة  انعمتها عليه حتي يشكر من ساقها من خلقي اليه

हाँ मगर तूने उनका शुक्र अदा नही किया जिनके ज़रिये से मेरी नेमतें तुझ तक पहुचती थीं।

और मैने अपने लिए लाज़िम कर लिया है कि उस इंसान के शुक्र को क़बूल नही करूगा जो मेरी नेअमत पहुँचाने वाले इंसान का शुक्र अदा न करे।

माँ बाप को चाहिए कि घर में अपने बच्चो के अन्दर तदरीजन शुक्रिये का जज़्बा पैदा करें और उन्हे यह समझायें कि अगर कोई तुम्हारे लिए किसी काम को अंजाम दो तो अगरचे नेमत देने वाला ख़ुदा है, लेकिन चूँकि वह ज़रिया बना है, इसलिए उसका भी शुक्र अदा करना चाहिए। अगर बच्चों में बचपन से ही यह जज़्बा पैदा हो जाये और बड़े उसकी ताईद करें और दूसरी तरफ़ वह ख़ुद अपने घर में बुज़ुर्गों को एक दूसरे का शुक्रिया अदा करते देखें तो वह मुस्तक़िबल में समाजी ज़िन्दगी में शुक्रिया अदा करने वाले अफ़राद बनेगे।
 

 

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