इमाम हमेशा मौजूद रहता है। जिस तरह अल्लाह की हिकमत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि इंसानों की हिदायत के लिए पैग़म्बरों को भेजा जाये इसी तरह उस की हिकमत यह भी तक़ाज़ा करती है कि पैग़म्बरों के बाद भी इंसान की हिदायत के लिए अल्लाह की तरफ़ से हर दौर में एक इमाम हो जो अल्लाह के दीन और पैग़म्बरों की शरीयत की तहरीफ़ से महफ़ूज़ रखे, हर ज़माने की ज़रूरतों से आगाह करे और लोगों को अल्लाह के दीन और पैग़म्बरों के आईन की तरफ़ बुलाये। अगर ऐसा न हो तो इंसान की ख़िल्क़त का मक़सद जो कि तकामुल और सआदत है फ़ौत हो जायेगा, इंसान की हिदायत के रास्ते बन्द हो जायेंगे, पैग़म्बरों की शरीयत रायगाँ चली जाये गी और इंसान चारो तरफ़ भटकता फ़िरे गा।
इसी वजह से हमारा अक़ीदह यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के बाद हर ज़माने में एक इमाम मौजूद रहा है। “या अय्युहा अल्लज़ीना आमिनू इत्तक़ु अल्लाह व कूनू माअस्सादीक़ीन ”[126] यानी ऐ ईमान लाने वालो अल्लाह से डरो और सादेक़ीन के साथ हो जाओ।
यह आयत किसी एक ख़ास ज़माने से मख़सूस नही है और बग़ैर किसी शर्त के सादेक़ीन की पैरवी का हुक्म इस बात पर दलालत करता है कि हर ज़माने के लिए एक मासूम इमाम होता है जिसकी पैरवी ज़रूरी है। बहुत से सुन्नी शिया उलमा ने अपनी तफ़्सीरों में इस बात की तरफ़ इशारा भी किया है। [127]
45- हक़ीक़ते इमामत
इमामत तन्हा ज़ाहिरी तौर पर हुकूमत करने का मंसब नही है बल्कि यह एक बहुत बलन्दो बाला रूहानी व मअनवी मंसब है। हुकूमते इस्लामी की रहबरी के इलावा दीनो दुनिया के तमाम उमूर में लोगो की हिदायत करना भी इमाम की ज़िम्मेदारी में शामिल है। इमाम लोगों की रूही व फ़िक्री हिदायत करते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की शरीयत को हर तरह की तहरीफ़ से बचाता है और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को जिन मक़ासिद के तहत मंबूस किया गया था उनको मुहक़्क़क़ करता है।
यह वह बलन्द मंसब है,जो अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को नबूवत व रिसालत की मनाज़िल तय करने के बाद, मुताद्दिद इम्तेहान ले कर अता किया और यह वह मंसब है जिस के लिए हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने दुआ की थी कि पालने वाले यह मंसब मेरी औलाद को भी अता करना और उन को इस दुआ का जवाब यह मिला कि यह मंसब ज़ालिमों और गुनाहगारों को नही मिल सकता। “व इज़ इबतला इब्राहीमा रब्बहु बिकलिमातिन फ़अतम्मा हुन्ना क़ाला इन्नी जाइलुका लिन्नासि इमामन क़ाला व मिन ज़ुर्रियति क़ाला ला यना3लु अहदि अज़्ज़ालिमीना ”[128] यानी उस वक़्त को याद करो जब इब्राहीम के रब ने चन्द कलमात के ज़रिये उनका इम्तेहान लिया और जब उन्होंने वह इम्तेहान तमाम कर दिया तो उन से कहा गया कि हम ने तुम को लोगों का इमाम बना दिया,जनाबे इब्राहीम ने अर्ज़ किया और मेरी औलाद ? (यानी मेरी औलाद को भी इमाम बनाना) अल्लाह ने फ़रमाया कि मेरा यह मंसब (इमामत) ज़ालिमों तक नही पहुँचता ( यानी आप की ज़ुर्रियत में से सिर्फ़ मासूमीन को हासिल हो गा।
ज़ाहिर है कि इतना अज़ीम मंसब सिर्फ़ ज़ाहिरी हुकूमत तक महदूद नही है,और अगर इमामत की इस तरह तफ़्सीर न की जाये तो मज़कूरह आयत का कोई मफ़हूम ही बीक़ी नही रह जायेगा।
हमारा अक़ीदह है कि तमाम उलुल अज़्म पैग़म्बर मंसबे इमामत पर फ़ाइज़ थे। उन्होंने अपनी जिस रिसालत का इबलाग़ किया उस को अपने अमल के ज़रिये मुहक़्क़क़ किया, वह लोगों के मानवी व माद्दी और ज़ाहिरी व बातिनी रहबर रहे। मख़सूसन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) अपनी नबूवत के आग़ाज़ से ही इमामत के अज़ीम मंसब पर भी फ़ाइज़ थे लिहाज़ उन के कामों को सिर्फ़ अल्लाह के पैग़ाम को पहुँचाने तक ही महदूद नही किया जा सकता।
हमारा अक़ादह है कि पैग़म्बर (स.) के बाद सिलसिला-ए- इमामत आप की मासूम नस्ल में बाक़ी रहा। मस्ल-ए- इमामत के सिलसिले में ऊपर जो वज़ाहत की गई उस से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इस मंसाबे इमामत पर फ़ाइज़ होने के लिए शर्ते बहुत अहम हैं यानी असमत व इल्मो दानिश, तमाम मआरिफ़े दीनी का इहाता, हर ज़मान व मकान में इंसानों व उन की ज़रूरतों की शनाख़्त।
46- इमाम गुनाह व ख़ता से मासूम होता है
इमाम के लिए ज़रूरी है कि वह ख़ता व गुनाह से मासूम हो,क्यों कि ग़ैरे मासूम न बतौरे कामिल मौरिदे एतेमाद बन सकता है और न ही उस से उसूले दीन व फ़रूए दीन को हासिल किया जा सकता है। इसी वजह से हमारा अक़ीदह है कि इमाम का “क़ौल ” “फ़ेअल ” व “तक़रीर ”हुज्जत है और दलीले शरई शुमार होते हैं। “तक़रीर” से मुराद यह है कि इमाम के सामने कोई काम अंजाम दिया जाये और इमाम उस काम को देखने के बाद उस से मना न करे तो इमाम की यह ख़ामोशी इमाम की ताईद शुमार होती है।
47- इमाम शरियत का पासदार होता है।
हमारा अक़ीदह है कि इमाम अपने पास से कोई क़ानून या शरियत पेश नही करता बल्कि इमाम का काम पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की शरियत की हिफ़ाज़त, दीन की तबलीग़ व तालीम और लोगों को इस की तरफ़ हिदायत करना है।
48- इमाम इस्लाम को सबसे ज़्यादा जानने वाला होता है।
हमारा अक़ीदह है कि इमाम इस्लाम के तमाम उसूल व फ़रूए, अहकाम, क़वानीन, क़ुरआने करीम के मअना व तफ़्सीर का मुकम्मल तौर पर आलिम होता है, और यह तमाम उलूम इमाम को अल्लाह की तरफ़ से हासिल होते हैं और पैग़म्बरे इस्लाम के वसीले से उन तक पहुँचते हैं।
हाँ ऐसा ही इल्म मुकम्मल तौर पर मौरिदे एतेमाद बन सकता है और इस के ज़रिये ही इस्लाम के हक़ाइक़ को समझा जा सकता है।
49- इमाम को मनसूस होना चाहिए
हमारा अक़ीदह है कि इमाम (पैगम्बरे इस्लाम स. का जानशीन) मनसूस होना चाहिए। यानी इमाम का ताय्युन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की नस व तस्रीह के ज़रिये हो और इसी तरह हर इमाम की नस व तस्रीह अपने बाद वाले इमाम के लिए हो। दूसरे अल्फ़ाज़ में इमाम का ताय्युन भी पैग़म्बर की तरह अल्लाह की तरफ़ से (पैग़म्बर के ज़रिये) होता है। जैसा कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की इमामत के सिलसिले में क़ुरआने करीम में बयान किया गया है। “इन्नी जाइलुका लिन्नासि इमामन ” यानी मैनें तुम को लोगों का इमाम बनाया।
इस के इलावा असमत और इल्म का वह बलन्द दर्जा (जो किसी ख़ता व ग़लती के बग़ैर तमाम अहकाम व तालीमात इलाही का इहाता किये हो) ऐसी चीज़ें हैं जिन से अल्लाह व उस के पैग़म्बर के इलावा कोई आगाह नही है।
इस बिना पर हम आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्सलाम की इमामत को लोगों के इंतेख़ाब के ज़रिये नही मानते।
50- आइम्मा पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़रिये मुऐय्यन हुए है।
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने अपने बाद के लिए इमामों को मुऐय्यन फ़रमाया है और एक मक़ाम पर बतौरे उमूम मोर्रफ़ी कराई है।
सही मुस्लिम मे रिवायत है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने मक्के और मदीने के दरमियान “खुम” नामी सरज़मीन पर तवक़्क़ुफ़ किया, एक ख़ुत्बा बयान किया और उस के बाद फ़रमायाकि “मैं जल्द ही तुम लोगों के दरमियान से जाने वाला हूँ इन्नी तारिकुन फ़ीकुम अस्सक़लैन,अव्वलुहुमा किताबल्लाहि फ़ीहि अलहुदा व अन्नूर ........व अहला बैती, उज़क्किर कुम अल्लाहा फ़ी अहलि बैति ” [129] यानी मैं तुम लोगों के दरमियान दो गराँ क़द्र चीज़े छोड़ कर जा रहा हूँ इन में से एक अल्लाह की किताब है जिस में नूर और हिदायत है.....और दूसरे मेरे अहले बैत हैं मैं तुम को वसीयत करता हूँ कि ख़ुदारा मेरे अहले बैत को फ़रामोश न करना (इस जुम्ले को तीन बार तकरार किया)
यही मतलब सही तिरमिज़ी में भी बयान हुआ है और उसमें सराहत के ,साथ बयान किया गया है कि पैग़म्बरे इसलाम ने फ़रमाया कि अगर इन दोनों के दामन से वाबस्ता रहे तो हर गिज़ गुमराह नही होंगे। [130] यह हदीस सुनने दारमी, ख़साइसे निसाई,मुस्नदे अहमद व दिगर मशहूर किताबों में नक़्ल हुई है। इस हदीस में कोई तरदीद नही है और हदीसे तवातुर शुमार होती है कोई भी मुसलमान इस हदीस से इंकार नही कर सकता। रिवायात में मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने इस हदीस को सिर्फ़ एक बार ही नही बल्कि मुताद्दिद मर्तबा मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर बयान फ़रमाया।
ज़ाहिर है कि पैग़म्बरे इस्लाम के तमाम अहले बैत तो क़ुरआन के साथ यह बलन्द व बाला मक़ाम हासिल नही कर सकते लिहाज़ा यह इशारा फ़क़त पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ज़ुर्रियत से आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमु अस्सलाम की तरफ़ ही है। (कुछ ज़ईफ़ व मशकूक हदीसों में अहला बैती की जगह सुन्नती इस्तेमाल हुआ है।)
हम एक दूसरी हदीस के ज़रिये जो सही बुख़ारी, सही मुस्लिम, सही तिरमिज़ी, सही अबी दाऊद व मुसनदे हंबल जैसी मशहूर किताबों में नक़्ल हुई है इस्तेनाद करते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि “ला यज़ालु अद्दीनु क़ाइमन हत्ता तक़ूमा अस्साअता अव यकूनु अलैकुम इस्नता अशरा ख़लीफ़तन कुल्लुहुम मिन क़ुरैश ”[131] यानी दीने इस्लाम क़ियामत तक बाक़ी रहेगा यहाँ तक कि बारह ख़लीफ़ा तुम पर हुकूमत करेंगे और यह सब के सब क़ुरैश से होंगे।
हमारा अक़ीदह है कि इन रिवायतों के लिए उस अक़ीदेह के अलावा जो शिया इमामियह का बारह इमामों के बारे में पाया जाता है कोई दूसरी तफ़्सीर क़ाबिले क़बूल नही है। ग़ौर करो कि क्या इस के अलावा भी और कोई तफ़्सीर हो सकती है।
51- हज़रत अली अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के ज़रिये नस्ब हुए।
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने बहुत से मौक़ों पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम को (अल्लाह के हुक्म से)अपने जानशीन की शक्ल में पहचनवाया है। ख़ास तौर पर आखरी हज से लौटते वक़्त ग़दीरे ख़ुम में असहाब के अज़ीम मजमें में एक ख़ुत्बा बयान फ़रमाया जिसका मशहूर जुम्ला है कि “अय्युहा अन्नास अलस्तु औवला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम क़ालू बला ,क़ाला मन कुन्तु मौलाहु फ़अलीयुन मौलाहु ”[132] यानी ऐ लोगो क्या मैं तुम्हारे नफ़्सों पर तुम से ज़्यादा हक़्क़े तसर्रुफ़ नही रखता हूँ? सबने एक जुट हो कर कहा हाँ आप हमारे नफ़्सों पर हम से ज़्यादा हक़ रखते हैं। पैग़म्बर (स.) ने फ़रमाया बस जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं।
क्योँ कि हमारा मक़सद इस अक़ीदेह की दलीलें बयान करना या इस के बारे में बहस करना नही है इस लिए बस इतना कहते हैं कि न इस हदीस से सादगी के साथ गुज़रा जा सकता है और न ही यहाँ पर उस विलायत से दोस्ती व सीधी सादी मुहब्बत को मुराद लिया जा सकता है जिसको पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने इतने बड़े इंतज़ाम और तकीद के साथ बयान फ़रमाया हो।
क्या यह वही चीज़ नही है जिसको इब्ने असीर ने कामिल में लिखा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने इब्तदा-ए- कार में जब आयते “व अनज़िर अशीरतकल अक़रबीना ” (यानी अपने क़रीबी रिश्तेदारों को डराओ।) नाज़िल हुई तो अपने रिश्तेदारों को जमा किया और उनके सामने इस्लाम को पेश किया और इसके बाद फ़रमाया “अय्युकुम युवाज़िरुनी अला हाज़ल अम्रि अला अन यकूना अख़ी व वसीय्यी व ख़लीफ़ती फ़ी कुम ” यानी तुम में से कौन हौ जो इस काम में मेरी मदद करे ताकि वह तुम्हारे दरमियान मेरा भाई,वसी व ख़लीफ़ा बने।
किसी ने भी पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के इस सवाल का जवाब नही दिया,बस अली (अ)ही थे जिन्होंने कहा कि “अना या नबी अल्लाह अकूनु वज़ीरुका अलैहि” यानी ऐ अल्लाह के नबी इस काम में मैं आपकी मदद करूँगा।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया “इन्ना हज़ा अख़ी व वसिय्यी व ख़लीफ़ती फ़ा कुम ”[133] यानी यह नौ जवान (अली अ.) तुम्हारे दरमियान मेरा भाई,मेरा वसी व मेरा ख़लीफ़ा है।
क्या यह वही मतलब नही है जिस के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम अपनी उम्र के आख़री हिस्से में चाहते थे कि इसकी दूबारा ताकीद करें,और जैसा कि सही बुख़ारी में है कि आपने फ़रमाया “इतूनी अकतुबु लकुम किताबन लन तज़िल्लू बअदी अबदन”[134] यानी कलम व काग़ज़ लाओ मैं तुम्हारे लिए कुछ लिख दूँ ताकि तुम मेरे बाद हर गिज़ गुमराह न हो सको। हदीस के आख़िर में बयान हुआ है कि कुछ लोगों ने इस काम में पैग़म्बर (स.)की मुख़ालेफ़त की यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)को तौहीन आमेज़ बातें कहीँ और आप जो लिखना चाहते थे वह आपको लिखने नही दिया गया।
हम इस बात की फिर तकरार करते हैं कि हमारा मक़सद मामूली से इस्तदलाल के साथ अक़ाइद को बयान करना है। न कि इस के बारे में पूरी बहस करना वरना यह दूसरी शक्ल इख़्तियार कर लेगी।
52- हर इमाम की अपने से बाद वाले इमाम के लिए ताकीद
हमारा अक़ीदह है कि बारह इमामों में से हर इमाम इमाम के लिए उन से पहले इमाम ने ताकीद फ़रमाई है। इन में से पहले इमाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम उनके बाद उन के दोनों बेटे हज़रत इमाम हसने मुजतबा (अ.)व हज़रत इमाम हुसैन सैय्यदुश शौहदा (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत इमाम अली बिन हुसैन(अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम जअफ़र सादिक़ (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम अली रिज़ा (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत अली नक़ी (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत महदी अलैहिस्सलाम हैं और उन के लिए हमारा अक़ीदह है कि वह ज़िन्दा हैं।
अलबत्ता हज़रत महदी (अज.)के वुजूद के -जो कि इस दुनिया को अद्ल व इंसाफ़ से भरेंगे जिस तरह यह ज़ुल्म व सितम से भर चुकी होगी- सिर्फ़ हम ही मोतक़िद नही हैं बल्कि उन पर तमाम मुस्लमानों का अक़ीदह है। कुछ सुन्नी उलमा ने महदी (अज)की रिवायतों के मुतावातिर होने के बारे में किताबें भी लिखी हैं। यहाँ तक कि कुछ साल पहले “राबिततुल आलमुल इस्लामी” की तरफ़ से शाये होने वाले एक रिसाले में हज़रत महदी के वुजूद से मरबूत पूछे गये एक सवाल के जवाब में लिखा गया कि महदी (अज)का ज़हूर मुसल्लम है। और इसके लिए हज़रत महदी (अज)से मरबूत पैग़म्बर (स.)की हदीसों को बहुत सी मशहूर किताबों से नक़्ल किया।[135] कुछ लोग हज़रत महदी अलैहिस्सलाम के बारे में यह अक़ीदह रखते हैं कि वह आख़िरी ज़माने में पैदा होंगे।
लेकिन हमारा अक़ीदह है कि वह बीरहवें इमाम हैं और अभी तक ज़िन्दा हैं और जब अल्लाह चाहेगा वह उस के हुक्म से ज़मीन को ज़ुल्म व सितम से पाक करने व अदले इलाही की हुकूमत क़ाइम करने के लिए क़ियाम करेंगे।
53- हज़रत अली अलैहिस्सलाम तमाम सहाबा से अफ़ज़ल थे।
हमारा अक़ीदह है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम तमाम सहाबा से अफ़ज़ल थे और पैग़म्बरे इस्लाम के बाद उम्मते इस्लामी में उनको औलवियत हासिल थी। लेकिन इन सब के बावुजूद उन के बारे में हर तरह के ग़ुलू को हराम मानते हैं। हमारा अक़ीदह है कि जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़ुदाई या इस से मुशाबेह किसी दूसरी चीज़ के क़ाइल हैं वह काफ़िर हैं और इस्लाम से ख़ारिज हैं और हम उन के अक़ीदे से बेज़ार हैं। अफ़सोस है कि उन का नाम शियों के नाम के साथ लिया जाता है जिस से बहुत से इस बारे में बहुत सी ग़लत फ़हमियाँ पैदा हो गई हैं। जबकि उलमा-ए-शिया इमामियह ने अपनी किताबों में इस गिरोह को ख़ारिज अज़ इस्लाम ऐलान किया है।
54- सहाबा अक़्ल व तारीख़ की दावरी में
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के असहाब में बहुत से लोग बड़े फ़िदाकार बुज़ुर्ग मर्तबा व बाशख़्सियत थे। क़ुरआने करीम व इस्लामी रिवायतों में उनकी फ़ज़ीलतो का ज़िक्र मौजूद हैं।लेकिन इस का मतलब यह नही है कि पैग़म्बर इस्लाम (स.)के तमाम साथियों को मासूम मान लिया जाये और उनके तमाम आमाल को सही तस्लीम कर लिया जाये। क्योँ कि क़ुरआने करीम ने बहुत सी आयतों में (जैसे सूरए बराअत की आयतें,सूरए नूर व सूरए मुनाफ़ेक़ून की आयतें) मुनाफ़ेक़ीन के बारे में बाते की हैं जबकि यह मुनाफ़ेक़ीन ज़ाहेरन पैग़म्बर इस्लाम(स.)के असहाब ही शुमार होते थे जबकि क़ुरआने करीम ने उनकी बहुत मज़म्मत की है। कुछ असहाब ऐसे थे जिन्होने पैग़म्बरे इस्लाम के बाद मुस्लमानों के दरमियान जंग की आग को भड़काया,इमामे वक़्त व ख़लीफ़ा से अपनी बैअत को तोड़ा और हज़ारों मुसलमानों का खून बहाया। क्या इन सब के बावुजूद भी हम सब सहाबा को हर तरह से पाक व मुनज़्जह मान सकते हैं ?
दूसरे अलफ़ाज़ में जंग करने वाले दोनों गिरोहों को किस तरह पाक मान जा सकता है(मसलन जंगे जमल व जंगे सिफ़्फ़ीन के दोनों गिरोहों को पाक नही माना जा सकता) क्योँ कि यह तज़ाद है और यह हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है। वह लोग जो इस की तौजीह में “इज्तेहाद” को मोज़ू बनाते हैं और उस पर तकिया करते हुए कहते हैं कि दोनों गिरोहों में से एक हक़ पर था और दूसरा ग़लती पर लेकिन चूँकि दोनों ने अपने अपने इज्तेहाद से काम लिया लिहाज़ा अल्लाह के नज़दीक दोनो माज़ूर ही नही बल्कि सवाब के हक़दार हैं,हम इस क़ौल को तसलीम नही करते।
इज्तेहाद को बहाना बना कर पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के जानशीन से बैअत तोड़ कर,आतिशे जंग को भड़का कर बेगुनाहों का खून किस तरह बहाया जा सकता है। अगर इन तमाम ख़ूँरेज़ियों की इज्तेहाद के ज़रिये तौजीह की जा सकती है तो फ़िर कौनसा काम बचता है जिसकी तौजीह नही हो सकती।
हम वाज़ेह तौर पर कहते हैं कि हमारा अक़ीदह यह है कि तमाम इंसान यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (सल.)के असहाब भी अपने आमाल के तहत हैं और क़ुरआने करीम की कसौटी “इन्ना अकरमा कुम इन्दा अल्लाहि अतक़ा कुम”[136](यानी तुम में अल्लाह के नज़दीक वह गरामी है जो तक़वे में ज़्यादा है।)उन पर भी सादिक़ आती है। लिहाज़ा हमें उनका मक़ाम उनके आमाल के मुताबिक़ तैय करना चाहिए और इस तरह हमें मंतक़ी तौर पर उन के बारे में कोई फ़ैसला करना चाहिए। लिहाज़ा हमें कहना चाहिए कि वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के ज़माने में मुख़लिस असहाब की सफ़ में थे और पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के बाद भी इस्लाम की हिफ़ाज़त की कोशिश करते रहे और क़ुरआन के साथ किये गये अपने पैमान को वफ़ा करते रहे उन्हें अच्छा मान ना चाहिए और उनकी इज़्ज़त करनी चाहिए।
और वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के ज़माने में मुनाफ़ेक़ीन की सफ़ में थे और हमेशा ऐसे काम अंजाम देते थे जिन से पैग़म्बरे इस्लाम (स.)का दिल रंजीदा होता था। या जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के बाद अपने रास्ते को बदल दिया और ऐसे काम अंजाम दिये जो इस्लाम और मुसलमानों के नुक़्सान दे साबित हुए,ऐसे लोगों से मुहब्बत न की जाये। क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “ला तजिदु क़ौमन युमिनूना बिल्लाहि वअलयौमिल आख़िरि युआद्दूना मन हाद्दा अल्लाहा व रसूलहु व लव कानू आबाअहुम अव अबनाअहुम अव इख़वानहुम अव अशीरतहुम ऊलाइका कतबा फ़ी क़ुलूबिहिम अलईमाना”[137] यानी तुम्हें कोई ऐसी क़ौम नही मिलेगी जो अल्लाह व आख़िरत पर ईमान लेआने के बाद अल्लाह व उसके रसूल की नाफ़रमानी करने वालों से मुब्बत करती हो,चाहे वह (नाफ़रमानी करने वाले)उनके बाप दादा,बेटे,भाई या ख़ानदान वाले ही क्य़ोँ न हो,यह वह लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान को लिख दिया है।
हाँ हमारा अक़ीदह यही है कि वह लोग जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.)को उनकी ज़िन्दगी में या शहादत के बाद अज़ीयतें पहुँचाईँ है क़ाबिले तारीफ़ नही हैं।
लेकिन यह हर गिज़ नही भूलना चाहिए कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के कुछ आसहाब ने इस्लाम की तरक़्क़ी की राह में में बहुत क़ुरबानियाँ दी हैं और वह अल्लाह की तरफ़ से मदह के हक़ दार क़रार पायें हैं। इसी तरह वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के बाद इस दुनिया में आयें या जो क़ियामत तक पैदा होगें अगर वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के सच्चे असहाब की राह पर चले तो वह भी लायक़े तारीफ़ हैं। क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “अस्साबिक़ूना अलअव्वलूना मीन अलमुहाजीरीना व अलअनसारि व अल्ल़ज़ीना अत्तबऊ हुम बिएहसानिन रज़िया अल्लाहु अनहुम व रज़ू अनहु ”[138] यानी मुहाजेरीन व अनसार में से पहली बार आगे बढ़ने वाले और वह लोग जिन्होंने उनकी नेकियों में उनकी पैरवी की अल्लाह उन से राज़ी हो गया और वह अल्लाह से राज़ी हो गये।
यह पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के असहाब के बारे में हमारे अक़ीदेह का निचौड़ है।
55- आइम्मा-ए-अहले बैत (अ.) का इल्म पैग़म्बर (स.) का इल्म है।
मुतावातिर रिवायात की बिना पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने क़ुरआन व अहलेबैत अलैहिमुस् सलाम के बारे में हमें जो हुक्म दिया हैं कि इन दोंनों के दामन से वाबस्ता रहना ताकि हिदायत पर रहो इस की बिना पर और इस बिना पर कि हम आइम्मा-ए- अहले बैत अलैहिमुस् सलाम को मासूम मानते हैं और उनके तमाम आमाल व अहादीस हमारे लिए संद व हुज्जत हैं ,इसी तरह उनकी तक़रीर भी (यानी उनके सामने कोई काम अंजाम दिया गया हो और उन्होंने उस से मना न किया हो) क़ुरआने करीम व पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की सीरत के बाद हमारे लिए फ़िक़्ह का मंबा है।
और जब भी हम इस नुक्ते पर तवज्जोह करते हैं कि बहुत सी मोतेबर रिवायतों की बिना पर आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम ने फ़रमाया है कि हम जो कुछ बयान करते हैं सब कुछ पैग़म्बरे इस्लाम(स.)का बयान किया हुआ है जो हमारे बाप दादाओं के ज़रिये हम तक पहुँचा है। इस से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इनकी रिवायतें पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायतें हैं। और हम सब जानते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)से नक़्ल की गई मौरिदे ऐतेमाद व सिक़ा शख़्स की रिवायतें तमाम उलमा-ए- इस्लाम के नज़दीक क़ाबिले क़बूल हैं।
इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने जाबिर से फ़रमाया है कि “या जाबिरु इन्ना लव कुन्ना नुहद्दिसुकुम बिरायना व हुवा अना लकुन्ना मीनल हासीकीना,व लाकिन्ना नुहद्दिसु कुम बिअहादीसा नकनिज़ुहा अन रसूलि अल्लाहि (स.)”[139] यानी ऐ जाबिर अगर हम अपनी मर्ज़ी से हवा-ए- नफ़्स के तौर पर कोई हदीस तुम से बयान करें तो हलाक होने वालों में से हो जायेंगे। लेकिन हम तुम से वह हदीसें बयान करते हैं जो हम ने पैग़म्बरे इस्लाम (सल.)से ख़ज़ाने की तरह जमा की हैं।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की एक हदीस में मिलता है कि किसी आप से सवाल किया आपने उसको उसके सवाल का जवाब अता किया वह इमाम से अपने नज़रिये को बदलने के लिए कहने लगा और आप से बहस करने लगा तो इमाम ने उस से फ़रमाया कि इन वातों को छोड़ “मा अजबतुका फ़ीहि मिन शैइन फ़हुवा अन रसूलिल्लाहि ” यानी मैने जो जवाब तुझ को दिया है इस में बहस की गुँजाइश नही है क्योँ कि यह रसूलुल्लाह(स.)का बयान फ़रमाया हुआ है। [140]
अहम व क़ाबिले तवज्जोह बात यह है कि हमारे पास हदीस की काफ़ी,तहज़ीब,इस्तबसार व मन ला यहज़ुरुहु अलफ़क़ीह बग़ैरह जैसी मोतबर किताबें मौजूद हैं। लेकिन इन किताबों के मोतबर होने का मतलब यह नही है कि जो रिवायतें इन में मौजूद हैं हम उन सब को क़बूल करते हैं। बल्कि इन रिवायतों को परखने के लिए हमारे पास इल्मे रिजाल की किताबें मौजूद है जिन में रावियों के तमाम हालात व सिलसिला-ए-सनद बयान किये गये हैं। हमारी नज़र में वही रिवायत क़ाबिले क़बूल है जिस की सनद में तमाम रावी क़ाबिले ऐतेमाद व सिक़ह हों। इस बिना पर अगर कोई रिवायत इन किताबों में भी हो और उसमें यह शर्तें न पाई जाती हों ते वह हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है।
इस के अलावा ऐसा भी मुमकिन है कि किसी रिवायत का सिलसिला-ए-सनद सही हो लेकिन हमारे बुज़ुर्ग उलमा व फ़क़ीहों ने शुरू से ही उस को नज़र अंदाज़ करते हुए उस से परहेज़ किया हो (शायद उस में कुछ और कमज़ोरियाँ देखी हों)हम ऐसी रिवायतों को “मोरज़ अन्हा ”कहते हैं और ऐसी रिवायतों का हमारे यहाँ कोई एतेबार नही है।
यहाँ से यह बात रौशन हो जाती है कि जो लोग हमारे अक़ीदों को सिर्फ़ इन किताबों में मौजूद किसी रिवायत या रिवायतों का सहारा ले कर समझने की कोशिश करते हैं,इस बात की तहक़ीक़ किये बिना कि इस रिवायत की सनद सही है या ग़लत,तो उनका यह तरीका-ए-कार ग़लत है।
दूसरे लफ़्ज़ों में इस्लाम के कुछ मशहूर फ़्रिक़ों में कुछ किताबें पाई जाती हैं जिनको सही के नाम से जाना जाता है,जिनके लिखने वालों ने इन में बयान रिवायतों के सही होने की ज़मानत ली है और दूसरे लोग भी उनको सही ही समझते हैं। लेकिन हमारे यहाँ मोतबर किताबों का मतलब यह हर गिज़ नही है,बल्कि यह वह किताबें है जिनके लिखने वाले मोरिदे एतेमाद व बरजस्ता शख़्सियत के मालिक थे,लेकिन इन में बयान की गई रिवायात का सही होना इल्मे रिजाल की किताबों में मज़कूर रावियों के हालात की तहक़ीक़ पर मुनहसिर है।
ऊपर बयान की गई बात से हमारे अक़ाअइद के बारे में उठने वाले बहुत से सवालों के जवाब ख़ुद मिल गये होगें। क्योँ कि इस तरह की ग़फ़लत के सबब हमारे अक़ाइद को तशख़ीस देने में बहुत सी ग़लतियाँ की जाती हैं।
बहर हाल क़ुरआने करीम की आयात,पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायात के बाद आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम की अहादीस हमारी नज़र में मोतबर है इस शर्त के साथ कि इन अहादीस का इमामों से सादिर होने मोतबर तरीक़ों से साबित हो।