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सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनाई के बयान की रौशनी में रोज़े के स्टेप

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’’یَا أَیُّهَا الَّذِینَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَیكُمُ الصِّیَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذَینَ مِن قَبلِكُم‘‘

 

इस आयत में यह कहा गया है कि अल्लाह नें ईमान वालों पर रोज़ा वाजिब किया है जिस तरह इस्लाम से पहले वाली क़ौमों पर वाजिब किया गया था। जब से इन्सान है और जब तक इन्सान रहेगा बहुत से चीज़ें उसकी ज़रूरत हैं जिनमें से एक इबादत है जिसका एक तरीक़ा नमाज़ है और एक रोज़ा जो रमज़ान के पवित्र महीने में लागू किया गया है।

रोज़ा, जिसे अल्लाह की तरफ़ से एक ज़िम्मेदारी कहा गया है, ख़ुदा की एक नेमत है, एक बहुत ही अच्छा मौक़ा है उन लोगों के लिये जिन्हें रोज़ा रखने की तौफ़ीक़ होती है हालांकि इसमें कुछ कठिनाइयां भी हैं और इन्सान बिना कठिनाइयों के आगे नहीं बढ़ सकता। रोज़े में थोड़ी सी कठिनाइयों को सहन कर के इन्सान को जो लाभ मिलता है वह इतना ज़्यादा है कि उसके सामने यह कठिनाइयां कुछ भी नहीं हैं। यानी यूँ समझ लीजिए कि इन्सान थोड़ा सा ख़र्च करता है लेकिन बहुत ज़्यादा पाता है। रोज़े के तीन स्टेप बयान किये गए हैं और हर एक स्टेप के लिये कुछ शर्तें हैं, जिनमें जो शर्तें होंगी वह उसी स्टेप तक पहुँचेगा।

पहला स्टेप- भूख और प्यास और दूसरी चीज़ों का रोज़ा

रोज़े का पहला स्टेप यही आम रोज़ा है यानी खाने पीने और रोज़े को तोड़ने वाली दूसरी चीज़ों से बचना। इस रोज़े के भी काफ़ी फ़ायदे हैं। यह एक एम्तेहान भी है और एक पाठ भी। यह हमें आज़माता भी है और सिखाता भी है। रोज़े के इस स्टेप के बारे में मासूम इमामों की बहुत सी हदीसें हैं जैसे एक हदीस में इमाम जाफ़र सादिक़ अ. फ़रमाते हैं-

 

’’لِیَستَوِى بِهِ الغَنِىُّ وَ الفَقِیرُ‘‘

 

ख़ुदा नें रोज़े को इसलिये वाजिब किया है ताकि इन दिनों में ग़रीब और पैसे वाले बराबर हो जाएं। आम दिनों में ग़रीब इन्सान सब कुछ नहीं खा-पी सकता, बहुत सी चीज़ों के खाने पीने का दिल चाहता है लेकिन वह नहीं खा पाता, लेकिन पैसे वाले आदमी ग़रीब की इस सिचुवेशन को नहीं समझता और नाहि समझ सकता है क्योंकि उसके पास तो सब कुछ है, जो चाहता है, जब चाहता है खाता पीता है लेकिन रोज़े की हालत में यह दोनों बराबर हैं। एक हदीस में इमाम रज़ा अ. फ़रमाते हैं-

 

’’لِكَى یَعرِفُوا اَلَم الجُوعِ وَ العَطَشِ وَ یَستَدِلُّوا عَلىٰ فَقرِ الآخِرَهِ‘‘

 

रोज़े को इसलिये वाजिब किया गया है ताकि इन्सान इस दुनिया में भूख और प्यास का एहसास करे और क़यामत की भूख और प्यास के बारे में विचार करे। क़यामत में इन्सान बहुत भूखा और प्यासा होगा और इसी भूख की हालत में उसे ख़ुदा के सामने एक एक चीज़ का हिसाब देना होगा। रोज़े के लिये ज़रूरी है कि रमज़ान में भूख और प्यास को महसूस करे और क़यामत की भूख और प्यास के बारे में सोचे। इमाम रज़ा अ. एक दूसरी हदीस में इसी चीज़ को बयान करते हुए फ़रमाते हैं-

 

’’صَابِراً عَلىٰ مَا اَصَابَهُ مِنَ الجُوعِ وَ العَطَشِ‘‘

 

रोज़े के द्वारा इन्सान को भूख और प्यास को सहन करने की एक्सर साइज़ कराई जाती है। जिन लोगों नें कभी भूख और प्यास को महसूस न किया हो, उनके अन्दर सहन करने की ताक़त नहीं होती लेकिन जो भूख और प्यास से सामना कर चुका हो वह उसे अच्छी तरह समझता है और उसे सहन करने की ताक़त भी रखता है। रमज़ानुल मुबारक में सभी रोज़ेदारों को सहन की यह ताक़त दी जाती है। इमाम . आगे फ़रमाते हैं

 

’’وَ رَائِضاً لَهُم عَلىٰ اَدَاءِ مَا كَلَّفَهُم‘‘

 

यानी रमज़ान के महीने में खाने पीने और दूसरी चीज़ों से परहेज़ इन्सान को इस चीज़ के लिये तैयार करता है कि जीवन की दूसरी ज़िम्मेदारियों को आसानी से पूरा करना सीख ले। यह एक तरह की तपस्या है हालांकि जाएज़ और शरई तपस्या, वरना बहुत सी तपस्याएं ऐसी हैं जिनकी इस्लाम आज्ञा नहीं देता और उनका खण्डन करता है। इन हदीसों से समझ में आता है कि रोज़े का पहला स्टेप यह है कि इन्सान के अन्दर उन लोगों के लिये हमदर्दी का एहसास जागे जो रमज़ान के दिनों में भी भूखे प्यासे रहते हैं, जिनके पास दो समय की रोटी भी नहीं होती। दुनिया की यह भूख और प्यास इन्सान को क़यामत की भूख और प्यास दिलाती है जब कोई किसी का न होगा। इन्सान कठिनाइयों और सख़्त हालात से लड़ना और उन्हें सहन करना सीखे। रोज़े की सख़्ती को सहन कर के इन्सान दूसरी वाजिब चीज़ों पर अमल करना और हराम चीज़ों से बचने की प्रैक्टिस करे। इसके अलावा बहुत सी हदीसों और मेडिकल साइंस के अनुसार रोज़े से इन्सान को तन्दुरुस्ती भी मिलती है और जब इन्सान का जिस्म रोज़े की वजह से तंदुरुस्त और हल्का हो जाता है तो उसका दिल और उसकी रूह भी नूरानी हो जाती है।

दूसरा स्टेप- गुनाहों से दूरी

रोज़े का दूसरा स्टेप गुनाहों से परहेज़ है। यानी आँखों, कानों, ज़बान यहाँ तक कि गोश्त और खाल को गुनाहों से बचाना। हज़रत अली अ. एक हदीस में फ़रमाते हैं-

 

’’ اَلصِّیَامُ اِجتِنَابُ المَحَارَمِ كَمَا یُمتَنَعُ الرَّجُلُ مِنَ الطَّعَامِ وَ الشَّرَابِ‘‘

 

जिस तरह रोज़े में खाने पीने और दूसरी हलाल चीज़ों से बचते हो उसी तरह गुनाहों से भी बचो. यह भूख और प्यास से आगे का स्टेप है। बहुत से जवान जब मेरे पास आते हैं तो मुझसे कहते हैं कि उनकी दुआ करों कि वह गुनाह न करें, गुनाहों से दूरी की दुआ करना अच्छी चीज़ है और हम सब के लिये दुआ करते हैं लेकिन अस्ल चीज़ इन्सान का अपना इरादा है। इन्सान पक्का इरादा करे कि वह गुनाह नहीं करेगा, जब इरादा कर लिया तो काम आसान हो जाएगा। रमज़ानुल मुबारक में इन्सान इसकी प्रकटिस कर सकता है। यह बहुत अच्छा मौक़ा है इसका। बीबी फ़ातिमा स. की एक हदीस है जिसमें आप फ़रमाती हैं-

 

’’مَا یَصنَعُ الصَّائِم ُ بِصِیَامِهِ إِذَا لَم یَصُن لِسَانُهُ وَ سَمعُهُ وَ بَصَرُهُ وَ جَوارِحُهُ‘‘

 

उस इन्सान को रोज़ा रखने से क्या फ़ायदा मिलेगा उसनें अपनी ज़बान, कानों, आँखों और दूसरी चीज़ों को गुनाहों से नहीं बचाया। एक हदीस में है कि एक औरत नें रसूले अकरम स. के सामने अपनी नौकरानी का अपमान किया, रसूलुल्लाह नें उसकी तरफ़ खाने की कोई चीज़ बढ़ाई और कहा- लो इसे खा लो। औरत नें कहा- मेरा रोज़ा है। आपने उससे कहा-

 

’’كیَفَ تَكُونِینَ صَائِمَۃ وَ قَد سَبَبتِ جَارِیَتِكَ‘‘

 

अब तुम्हारा रोज़ा कहाँ रहा, तुमनें अभी अपनी नौकरानी को गाली दी है।

 

’’ إنَّ الصَّومَ لَیسَ مِن الطَّعَامِ وَ الشَّرَابِ‘‘

 

रोज़ा केवल खाना पीना छोड़ देने का नाम नहीं है।

 

’’وَ إِنَّمَا جَعَلَ‌اللَّهُ ذَلِكَ حِجَاباً عَن سِوَاهُمَا مِنَ الفَوَاحِشِ مِنَ الفِعلِ وَ القَولِ‘‘

 

ख़ुदा ने रोज़े को इन्सान और गुनाहों के बीच पर्दा बनाया है। ख़ुदा चाहता है कि इन्सान गुनाहों की तरफ़ न जाए, और दूसरों का अपमान करना और उनक गाली देना भी एक गुनाह है। या दूसरों से दुश्मनी करना और दिल में उनके लिये बैर रखना, यह भी एक गुनाह है।

तीसरा स्टेप- असावधानी से बचना

रोज़े का तीसरा स्टेप हर उस चीज़ से बचना है जिसके कारण इन्सान ख़ुदा को भूल जाता है। यह रज़े का महत्वपूर्ण स्टेप है। हदीस में है कि एक बार रसूले अकरम स. नें ख़ुदा से पूछा-

 

’’یَا رَبِّ وَ مَا مِیرَاثُ الصَّومِ‘‘

 

रोज़े का क्या फ़ायदा है? ख़ुदा नें जवाब दिया-

 

’’اَلصَّومُ یُورِثُ الحِكمَةَ وَ الحِكمَةُ تُورِثُ المَعرِفَةَ وَ المَعرِفَةُ تُورِثُ الیَقِینَ فَإِذَا استَیقَنَ العَبدُ لاَ یُبَالِى كَیفَ أَصبَحَ بِعُسرٍ أَم بِیُسرٍ‘‘

 

रोज़े से इन्सान के दिल से ज्ञान और विद्या के चश्मे फूटते हैं, जब दिल में ज्ञान और विद्या आ जाती है तो उसके ज़रिये मारेफ़त (निरीक्षण) की रौशनी पैदा होती है। जब मारेफ़त की रौशनी आ जाए तो दिल में वह यक़ीन पैदा होता है जिसकी इच्छा जनाबे इब्राहीम किया करते थे। जब इन्सान यक़ीन हासिल कर लेता है तो जीवन की सारी कठिनाइयां उसके लिये आसान हो जाती हैं और सारी घटनाओं से आसानी से गुज़र जाता है। इससे समझ सकते हैं कि यक़ीन कितना महत्व रकता है। एक इन्सान जो इन्सानियत की सबसे आख़िरी मंज़िल और चोटी को सर करना चाहता है, उसके रास्ते में बहुत सी कठिनाइयां और एम्तेहान होते हैं, उन घटनाओं को आसान बनाने और हर एम्तेहान में सफल होने के लिये उसे जिस चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है वह है यक़ीन। यक़ीन कैसे हासिल होता है? यक़ीन तक पहुँचने का एक ज़रिया रोज़ा है। उस तक पहुँचने के लिये रोज़ा रखने वाले को हर उस चीज़ से सावधान रहना चाहिये जिसके कारण वह ख़ुदा को भूल जाता है ज़रा सी असावधानी रोज़े के इस स्टेप तक के लिये हांक है। ख़ुश क़िस्मत हैं वह लोग जो रोज़े के इस स्टेप तक पहुँच जाते हैं। हमें भी ख़ुदा से दुआ करनी चाहिये, कोशिश करनी चाहिये और हिम्मत करनी चाहिये ख़ुद को यहाँ तक पहुँचाने के लिये।

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