मिस्र और विश्व के प्रतिष्ठित इस्लामी धार्मिक संस्थान अलअज़हर विश्व विद्यालय के प्रमुख ने मिस्र के नील टीवी से बात करते हुए शिया-सुन्नी मतभेदों के बारे में बड़ी अहम बातें कही हैं।
अहमद तैयब से चैनल के पत्रकार ने पूछा कि क्या उनकी नज़र में शियों की आस्थाओं में को समस्या नहीं हैं? तो उन्होंने कहा कि कोई समस्या नहीं है, 50 साल पहले शैख़ शलतूत ने फ़तवा दिया था कि शिया मत, इस्लाम का पांचवां मत है और अन्य मतों की तरह है। पत्रकार ने पूछा कि हमारे युवा शिया हो रहे हैं, हम क्या करें? तो अहमद तैयब ने कहा कि हो जाएं, जब कोई व्यक्ति हनफ़ी से मालेकी हो जाए तो हमें कोई समस्या नहीं होती उसी तरह से अगर ये युवा भी चौथे मत से पांचवें मत में जा रहे हैं। नील चैनल के पत्रकार ने पूछा कि कहा जाता है कि शियों का क़ुरआन भिन्न है, तो शैख़ ने कहा कि ये बूढ़ी औरतों की बकवास है, शियों के क़ुरआन और हमारे क़ुरआन में कोई अंतर नहीं है यहां तकि उनकी लिखाई भी हमारी लिखाई की तरह है।
पत्रकार ने पूछा कि एक अरब देश के 23 धर्मगुरुओं ने फ़तवा दिया है कि शिया काफ़िर हैं, इस बारे में आप क्या कहते हैं? तो अलअज़हर विश्व विद्यालय के प्रमुख ने कहा कि ये मतभेद विदेश षड्यंत्रों का भाग है ताकि शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच मतभेद पैदा किए जा सकें। पत्रकार ने कहा कि मैं एक गंभीर प्रश्न पूछना चाहता हूं और वह यह है कि शिया अबू बक्र व उमर को नहीं मानते, एेसे में आप उन्हें किस प्रकार मुसलमान कह सकते हैं? शैख़ अहमद तैयब ने उत्तर में कहा कि ठीक है वे नहीं मानते लेकिन क्या अबू बक्र व उमर को मानना, इस्लामी आस्थाओं का भाग है? अबू बक्र व उमर का मामला एेतिहासिक है और इतिहास का धार्मिक आस्थाओं से कोई लेना देना नहीं है। इस उत्तर पर हतप्रभ हो जाने वाले पत्रकार ने पूछा कि शिया कहते हैं कि उनके इमाम एक हज़ार साले से ज़िंदा हैं, क्या एेसा हो सकता है? उन्होंने कहा कि एेसा संभव है लेकिन इसे मानना हमारे लिए आवश्यक नहीं है। नील चैनल के पत्रकार ने अंतिम प्रश्न पूछा कि क्या यह संभव है कि आठ साल का बच्चा इमाम हो? शियों का मानना है कि उनके बारहवें इमाम आठ साल में इमाम बन गए थे। अलअज़हर विश्व विद्यालय के प्रमुख ने अहमद तैयब ने कहा कि जब हज़रत ईसा झूले में पैग़म्बर हो सकते हैं तो एक आठ साल के बच्चे का इमाम होना विचित्र नहीं है अलबत्ता हमारे लिए ज़रूरी नहीं है कि हम इस बात पर आस्था रखें लेकिन इस आस्था से इस्लाम को कोई नुक़सान नहीं पहुंचता और जो यह आस्था रखता है वह इस्लाम के दायरे से बाहर नहीं है।