Brandeis University के अध्ययनकर्ता अपने अध्ययन में इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि ईरान के ख़िलाफ़ अमेरिकी प्रतिबंध का उल्टा असर निकला है।
अमेरिका के वाशिंग्टन पोस्ट समाचार पत्र में एक मशहूर लेखक फ़रीद ज़करिया ने एक लेख लिखा है जिसका शीर्षक है" ईरान के मुक़ाबले में अमेरिका की विफ़ल नीति को वास्तव में स्ट्रैटेजी नहीं कहा जा सकता" इस लेख में उन्होंने ईरान के मुक़ाबले में अमेरिकी नीति की विफ़लता के कारणों की समीक्षा की है।
उन्होंने अपने लेख में इस बिन्दु की ओर संकेत किया है कि ईरान के मुक़ाबले में वाशिंग्टन की नीति एकजुट स्ट्रैटेजी के बजाये दबाव डालने वाले दृष्टिकोण में परिवर्तित हो गयी है।
हालिया वर्षों में ईरान के मुक़ाबले में अमेरिकी स्ट्रैटेजी की विफ़लता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस नीति के विफ़ल होने का कारण यह है कि एक एकजुट स्ट्रैटेजी के बजाये वह दबाव डालने की अधिकतम नीति हो गयी है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मई 2018 में ईरान के साथ होने वाले परमाणु समझौते से निकल गये थे उसके बाद से उन्होंने ईरान के ख़िलाफ़ अधिकतम दबाव की नीति अपनाई।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के ज़माने में 370 प्रतिबंध थे जो डोनाल्ड ट्रंप के ज़माने में बढ़कर 1500 हो गये। इस प्रकार ईरान विश्व के उस देश में परिवर्तित हो गया जिस पर सबसे अधिक प्रतिबंध हैं। यह उस हालत में है जब परमाणु वार्ता की दूसरी शक्तियां जैसे यूरोपीय देश, रूस और चीन अमेरिका की इस नीति के विरोधी थे।
अमेरिका ने दोबारा ईरान के ख़िलाफ़ प्रतिबंध लगाकर व्यवहारिक रूप से इन देशों को ईरान के साथ व्यापार करने से रोक दिया किन्तु अमेरिका की इस नीति का नतीजा क्या हुआ? ईरान परमाणु सीमितता से आज़ाद हुआ था उसने बड़ी तेज़ी से अपने परमाणु कार्यक्रम में प्रगति की। परमाणु ऊर्जा की अंतरराष्ट्रीय एजेन्सी IAEA के अनुसार जिस समय परमाणु समझौता हुआ था उसकी अपेक्षा इस समय ईरान के पास उससे 30 गुना अधिक संवर्द्धित यूरेनियम है।
जिस समय परमाणु समझौता हुआ था उस समय परमाणु हथियार बनाने के लिए जिस मात्रा में संवर्धित यूरेनियम की आवश्यकता थी उसके लिए एक वर्ष समय की आवश्यकता थी परंतु अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन ने पिछले महीने एलान किया है कि ईरान परमाणु हथियार बनाने से एक या दो हफ़्ते की दूरी पर है।
दूसरी ओर ईरान ने विदेशी दबावों को बर्दाश्त करने के साथ क्षेत्रीय गुटों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत किया है। इन गुटों में लेबनान का हिज़्बुल्लाह, ग़ज़ा में हमास, यमन में हूसी और इराक़ एवं सीरिया में प्रतिरोधक गुट हैं। इन गुटों के प्रतिरोध के कारण इस्राईल को लंबी और ख़तरे से भरी लड़ाई का सामना है। लालसागर से इस्राईल जाने वाले लगभग 70 प्रतिशत जहानों की आवाजाही में विघ्न उत्पन्न हो गया है और ईरान ने इराक़ और सीरिया को अपने साथ कर लिया है। हम किसी भी दृष्टि से देखें ईरान के संबंध में वाशिंग्टन की नीति विफ़ल व नाकाम हो गयी है।
ईरान के ख़िलाफ़ अधिकतम दबाव की नाकामी का कारण क्या है? Brandeis University के एक अन्य अध्ययनकर्ता हादी काहिलज़ादे अपने अध्ययन में इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अमेरिका ने जो प्रतिबंध लगाया है उसका ईरान के मध्यम वर्ग पर उल्टा असर पड़ा है। बहुत से ईरानी आरंभ से ही परमाणु वार्ता के पक्ष में नहीं थे और उनका मानना था कि इसका कोई लाभ नहीं है और जब अमेरिका एकपक्षीय रूप से परमाणु समझौते से निकल गया तो उन्होंने इसे अपने दृष्टिकोण की सच्चाई और हक़्क़ानियत के रूप में देखा। इसी प्रकार यह विषय इस बात का कारण बना कि ईरानियों ने अपने दरवाज़ों को चीनी निवेशकों के लिए खोल दिया।
परिणाम स्वरूप वाशिंग्टन ने ईरान के मुक़ाबले में अधिकतम दबाव की जो नीति अपनाई है नाकामी और विफ़लता के सिवा उसका कोई अन्य परिणाम नहीं निकला है। दबाव के तरीक़ों व माध्यमों पर ध्यान देने के बजाये अमेरिका और उसके घटकों को एक ऐसी अपनाये जाने की ज़रूरत है जिसमें ईरान को एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार कर लिये जाने की ज़रूरत है और वे ऐसी नीति अपनायें जो तनावों को कम करने का कारण बने। संभव है कि ऐसी नीति का अपनाया जाना तनाव के कम होने का कारण न बने परंतु लंबे समय तक चलने वाले युद्ध और क्षेत्र में ख़ूनी हिंसा की रोकथाम का कारण ज़रूर करेगी