मैं फ़ातिमा हूँ यानी मैं मरकज़ ए इस्मत हूँ शरीका-ए-रेसालत हूँ शाह-ए-विलायत की हमसरी और विलायत की हिफ़ाज़त करने वाली हूँ मादर-ए-इमामत हूँ अल्लाह की हुज्जतों पर उसकी हुज्जत हूं,ख़ातिमुल अनबिया का बेटी और ख़ातिमुल-अइम्मा के लिए उस्वा-ए-हसना हूँ,मैं वही फ़ातिमा हूँ,जिसकी मुहब्बत अल्लाह और उसके रसूल की मुहब्बत है
ख़ुत्बा ए फिदक के दौरान हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा का यह जुमला ऐ लोगो! जान लो कि मैं फ़ातिमा हूँ और मेरे बाबा हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम हैं।
यह जुमला केवल उस जमाने के लिए ही नहीं बल्कि हमेशा इंसानियत को सोचने पर मजबूर करता है कि न तो यह मदीने से बाहर किसी अजनबी मजमे में कहा गया था, न ही अनजान लोगों के सामने, बल्कि ख़ुद मदीना मुनव्वरा में, रसूलुल्लाह स०अ०व०अ० की मस्जिद में, और सहाबा के जमघट में सिद्दीक़ा ताहिरा मअसूमा-ए-आलम हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने ऐसा क्यों फ़रमाया?
क्या वहाँ मौजूद लोग यह नहीं जानते थे कि आप कौन हैं?
बिल्कुल जानते थे।
लेकिन लगता है कि बीबी यह बताना चाह रही थीं कि जब भी मेरा नाम आए, मेरा ज़िक्र हो, तो सरसरी तौर पर मत गुज़र जाना — बल्कि ठहर कर सोचो, ग़ौर करो, तफ़क्कुर करो कि मैं कौन हूँ।
क्योंकि मोहब्बत और इताअत (आग्याकारी) मअरिफ़त (गहरी पहचान) पर निर्भर करती है।
जिसके पास जितनी मअरिफ़त होगी, उसकी इताअत भी उतनी ही होगी।
इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का यह फ़रमान भी ध्यान में रहे,हज़रत फ़ातिमा (सलामतुल्लाह अलैहा) को फ़ातिमा इसलिए कहा गया क्योंकि लोग उनकी वास्तविक मअरिफ़त से महरूम हैं।
दूसरी जगह आपने ही फ़रमाया,जिसने हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा को उनकी सही मअरिफ़त के साथ पहचाना, उसने शबे क़दर को पा लिया।
इन रिवायतों को देखकर किसी के मन में यह सवाल आ सकता है कि जब पूर्ण मअरिफ़त हासिल करना संभव ही नहीं, तो कोशिश बेकार है?
लेकिन ऐसे मौक़ों पर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम की यह हदीस सहारा देती है,अगर सब पा नहीं सकते, तो सब छोड़ भी मत दो।
जैसा कि मशहूर फ़ारसी कहावत है: “अगर समुद्र का सारा पानी नहीं ले सकते, तो प्यास बुझाने भर तो ले ही लो।
अतः ज़रूरत इस बात की है कि हम कोशिश करें।
जितना दिल का ज़र्फ़ (विस्तार) होगा, जितनी मानसिक ऊँचाई होगी, उतनी ही मअरिफ़त हासिल होगी।
अब जब हम हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के इन शब्दों पर ग़ौर करते हैं लोगों! जान लो कि मैं फ़ातिमा हूँ" तो स्पष्ट होता है कि शहज़ादी यह समझाना चाहती हैं: “अगर मेरी मअरिफ़त चाहते हो, तो पहले अल्लाह की मअरिफ़त हासिल करो, तौहीद के अक़ीदे को मज़बूत करो; फिर मेरे पिता ख़ातिमुल-अनबिया हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम की मअरिफ़त हासिल करो।
जब उनकी मअरिफ़त होगी तो उनकी सीरत और हदीस की महानता भी तुम्हें समझ आ जाएगी।
जब हम इसी रोशनी में सीरते नबवी की तरफ देखते हैं, तो शहज़ादी की शख़्सियत राह-ए-मअरिफ़त” की एक चमकदार मशाल बनकर सामने आती है।
रसूलुल्लाह ने फ़रमाया,मैं ने अपनी बेटी का नाम फ़ातिमा रखा क्योंकि अल्लाह ने उसे और उसके चाहने वालों को जहन्नम की आग से सुरक्षित किया है।र'वायतों में "फ़ातिमा" नाम के कई और मतलब भी मिलते हैं
हर ऐब से पाक,जहन्नम से सुरक्षित
दुश्मनों का उनकी मोहब्बत से महरूम होना
उनकी औलाद और शियों का नजात पाना
यानि बीबी मुहाजिर और अंसार को यह याद दिला रही थीं,जिस फ़ातिमा से तुम सुन रहे हो, वह हर ऐब से पाक है; उस पर और उसके चाहने वालों पर जहन्नम की आग हराम है।
और इसका साफ मतलब यह है कि जिन्होंने उनका विरोध किया, वे न सिर्फ़ हज़रत फ़ातिमा सलामतुल्लाह अलैहा के दुश्मन थे, बल्कि रसूलुल्लाह स०अ०व०अ० और दीन के भी दुश्मन थे।
इसी तरह अगर हम हदीसे किसा की रोशनी में हजरत फातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के इस जुमले पर ग़ौर करें तो यही नतीजा निकलेगा के आप बताना चाहती हैं कि अल्लाह ने फरिश्तों और आसमानों में रहने वालों से अहले बैत अलैहिमुस्सलाम की जिस शख्सियत के ज़रिए पहचान कराई वह आप (हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा) हैं! ये फ़ातिमा हैं, उनके पिता, उनके पति और उनके बेटे हैं।
और हदीस-ए-किसा में इस जुमले से पहले यह भी है कि आसमान, ज़मीन, सूरज, चाँद, समंदर सब कुछ पंजतन की मोहब्बत में पैदा किया गया है।
इसलिए यह समझना चाहिए कि जो शख्सियत कायनात की तख़्लीक़ की वजह हो, वह केवल एक बाग़ के छिन जाने के लिए दरबार में नहीं जायेगी, बल्कि एक बहुत बड़े मक़सद के लिए, और वह था: उम्मत का इत्तेहाद (एकता)।
जैसा कि आपने फ़रमाया,ख़ुदा की कसम! अगर लोग हक़ को उसके हक़दारों को दे देते और इतरत-ए-रसूल की पैरवी करते, तो अल्लाह के बारे में दो लोग भी अलग-अलग राय न रखते… और ख़िलाफ़त (हुकूमत) सही लोगों में चलती रहती, यहाँ तक कि हमारे क़ाएम (इमाम-ए-ज़माना अलैहिस्सलाम) का ज़ुहूर होता।
मैं फ़ातिमा हूँ” यानी मैं मरकज़-ए-इस्मत हूँ शरीका-ए-रेसालत हूँ शाह-ए-विलायत की हमसरी और विलायत की हिफ़ाज़त करने वाली हूँ मादर-ए-इमामत हूँ अल्लाह की हुज्जतों पर उसकी हुज्जत हूं!
ख़ातिमुल-अनबिया का बेटी और ख़ातिमुल-अइम्मा के लिए उस्वा-ए-हसना (उत्तम आदर्श) हूँ,मैं वही फ़ातिमा हूँ:
जिसकी मुहब्बत अल्लाह और उसके रसूल की मुहब्बत है
जिसकी नाराज़गी अल्लाह और उसके रसूल की नाराज़गी है ,जिसकी दोस्ती अल्लाह की दोस्ती है
जिसकी दुश्मनी अल्लाह और उसके रसूल की दुश्मनी है
जान लो मैं फ़ातिमा हूँ
यानि ,अगर चाहते हो कि अल्लाह तुमसे राज़ी हो जाए, तो मुझे राज़ी करो। क्योंकि मेरी नाराज़गी अल्लाह के ग़ज़ब और उसके अज़ाब का कारण है।