
رضوی
यमन के विभिन्न क्षेत्रों में अमेरिकी हमले
बुधवार की सुबह सवेरे यमनी सूत्रों ने जानकारी दी है कि अमेरिका की आतंकवादी सेना ने यमन की राजधानी सना और इब प्रांत के कई इलाकों पर हमला किया है।
बुधवार की सुबह-सवेरे यमनी सूत्रों ने जानकारी दी है कि अमेरिका की आतंकवादी सेना ने यमन की राजधानी सना और इब प्रांत के कई इलाकों पर हमला किया है।
यमनी न्यूज़ चैनल 'अलमसीरा' के मुताबिक, अमेरिकी युद्धक विमानों ने इब प्रांत के बादान जिले में 'जबल अलशमाही' नामक क्षेत्र को निशाना बनाया, जहां संचार नेटवर्क पर चार बार हमले किए गए।
कुछ देर बाद अलमसीरा के रिपोर्टर ने बताया कि सना भी अमेरिकी हमलों का शिकार बना जहां कम से कम 10 जोरदार धमाकों की आवाज सुनी गई।
गौरतलब है कि 15 मार्च से अमेरिकी सरकार, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आदेश पर ज़ायोनी (इस्राइली) शासन से जुड़े जहाजों की सुरक्षा के नाम पर यमन पर हवाई हमले तेज कर चुकी है।
यमनी अधिकारियों का कहना है कि अमेरिका की ओर से सैन्य ठिकानों को निशाना बनाने का दावा एक बहाना मात्र है, असल में उनके हमले रिहायशी इलाकों और गैर-सैनिक स्थानों पर हो रहे हैं, जिसमें आम नागरिकों की जानें जा रही हैं।
दुश्मन की समस्या परमाणु बम या हथियार नहीं है, बल्कि ईरान की तरक्की और प्रगति है
मदरसा ए इल्मिया हज़रत नरजिस स.अ. सारी की तालीमी उमूर की सरपरस्त ने कहा, वहाबियत, अहले सुन्नत का एक भटका हुआ फिरक़ा है जो तवस्सुल और शफ़ाअत को शिर्क समझता है।
मदरसा ए इल्मिया हज़रत नरजिस स.ल. सारी के शैक्षणिक कार्यों की सरपरस्त माननीया सकीना रिज़ाई ने 'तख़रीब-ए-क़बूर-ए-अइम्मा-ए-मज़लूम-ए-बक़ीअ.के अवसर पर बीते दिन छात्राओं की एक सभा को संबोधित करते हुए वहाबियत की अकीदती गुमराहियों की ओर इशारा किया और इस दुखद घटना के ऐतिहासिक, अकीदती और सियासी पहलुओं पर रौशनी डाली।
उन्होंने कहा वहाबियत अहले सुन्नत का एक भटका हुआ फिरका है, जो केवल दो ही काम नहीं कर सका एक, क़ुरआन को मिटाना और दूसरा, काबा को गिराना। लेकिन इसने बक़ीअ के इमामों की क़ब्रों पर हमला करके शिया अकीदे को निशाना बनाने की कोशिश की।
यह गिरोह तवस्सुल (सिफ़ारिश) और शफ़ाअत (सिफ़ारिश व मदद) को शिर्क (अल्लाह के साथ किसी और को जोड़ना) समझता है, जबकि शिया अकीदे के अनुसार इमामों की क़ब्रों की ज़ियारत और उनसे तवस्सुल का मक़सद यही है कि उन्हें अल्लाह के दरबार में अपना सिफ़ारिशी बनाएं क्योंकि वे अल्लाह के नेक और मक़र्रब (क़रीबी) बंदे हैं।
माननीया सकीना रिज़ाई ने क़ब्रों की ज़ियारत से जुड़े कुछ सतही और नासमझी वाले व्यवहारों की आलोचना करते हुए कहा — कभी-कभी कुछ लोगों की ग़फ़लत या नासमझी इस्लाम के दुश्मनों को मौका दे देती है, जबकि इस्लाम एक मुकम्मल (सम्पूर्ण) दीन है जो इंसानी जिंदगी के व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और इल्मी (शैक्षणिक) हर पहलू को शामिल करता है।
उन्होंने ईरान के शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम की चर्चा करते हुए कहा दुश्मनों की समस्या परमाणु बम या हथियार नहीं है, बल्कि ईरान की तरक्की है क्योंकि वे जानते हैं कि इल्म (ज्ञान) और खुदमुख्तारी (आत्मनिर्भरता) हमें ताकतवर बनाती है।
ग़ज़्जा में भुखमरी को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहां, ग़ाज़ा में तत्काल युद्ध विराम होना चाहिए इसराइल इस वक्त गाजा में भुखमरी को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कहाः पिछले दो दिनों में व्यापक इज़रायली बमबारी और ज़मीनी हमलों के कारण, व्यापक स्तर पर विनाश हुआ है और रफ़ह से 1 लाख से अधिक फ़िलिस्तीनियों को विस्थापित होना पड़ा है, जिनमें से अधिकांश इससे पहले भी कई बार और बहुत कम साधनों के साथ विस्थापित हो चुके हैं।
गुटेरेस ने 23 मार्च को चिकित्सा और आपातकालीन काफ़िले पर इज़रायली सेना के हमले की आलोचना की, जिसके परिणामस्वरूप ग़ज़ा में 15 चिकित्सा और सहायता कर्मचारियों की मौत हो गई, उन्होंने कहाः अक्तूबर 2023 से, ग़ज़ा में कम से कम 408 सहायता कर्मचारी मारे गए हैं, जिनमें से 280 संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारी थे।
दूसरी ओर, ईरानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता इस्माइल बक़ाई ने गुरुवार को भोजन के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के प्रतिवेदक की हालिया रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए, जिसमें ज़ायोनी शासन पर नरसंहार के साधन के रूप में भूख और अकाल थोपने की अपनी नीति को रोकने के लिए दबाव डालने का आह्वान किया गया है
ग़ज़ा में मानवाधिकारों के घोर और व्यवस्थित उल्लंघन के संबंध में ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी और फ्रांस सहित मानवाधिकारों के समर्थन का दावा करने वाले कुछ पश्चिमी देशों की निष्क्रियता पर खेद व्यक्त किया और इसे मानवाधिकारों और क़ानून के शासन के संबंध में इन देशों की ईमानदारी की कमी का स्पष्ट संकेत माना।
इज़रायल के जघन्य अपराधों को रोकने और उनका सामना करने के लिए सभी सरकारों की साझा ज़िम्मेदारी पर बल देते हुए, बक़ाई ने दुनिया के सभी देशों, विशेष रूप से इस्लामी देशों से उत्पीड़ित फ़िलिस्तीनियों के साथ मौखिक और व्यावहारिक एकजुटता दिखाने और असहाय फ़िलिस्तीनी महिलाओं और बच्चों की निरंतर हत्याओं को रोकने का आह्वान किया।
फ़िलिस्तीन शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र राहत एवं कार्य एजेंसी (यूएनआरडब्ल्यूए) के प्रमुख फ़िलिप लाज़ारिनी ने पिछले शुक्रवार को एक बयान में कहा कि तीन सप्ताह से ग़ज़ा में कोई मानवीय सहायता नहीं पहुंची है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मानवता अब अपने सबसे अंधकारमय दौर से गुज़र रही है।
इज़रायली शासन ने 7 अक्टूबर, 2023 को ग़ज़ा पट्टी के विरुद्ध विनाशकारी युद्ध छेड़ दिया था, जिसमें 50,000 से अधिक लोग शहीद हो चुके हैं और हज़ारों लोग घायल हैं।
इजरायल ने ग़ज़्ज़ा यूनिवर्सिटी नष्ट करके भविष्य के कई सुकरात और इबने सीना को खत्म कर दिया
इजराइल ने ग़ज़्ज़ा के इस्लामिक यूनिवर्सिटी के मुख्य सभागार को नष्ट कर दिया है तथा उसे राख में बदल दिया है। इसकी काली दीवारों में बड़ी दरारें हैं। सीटों की पंक्तियाँ टेढ़ी-मेढ़ी और मुड़ी हुई हैं। इस यूनिवर्सिटी के नष्ट होने से भविष्य के कई सुक़रात और इबने सीना को खत्म कर दिया गया।
इजरायल ने ग़ज़्ज़ा के इस्लामिक यूनिवर्सिटी के मुख्य सभागार को नष्ट कर दिया है, जिससे कई भावी सुकरात और एविसेना नष्ट हो गए हैं। इसकी काली दीवारों में बड़ी दरारें हैं। सीटों की पंक्तियाँ टेढ़ी-मेढ़ी और मुड़ी हुई हैं। अब वह मंच, जहां कभी हर्षोल्लासपूर्ण स्नातक समारोह हुआ करता था, विस्थापित फिलिस्तीनियों के तंबुओं से भर गया है। जब मार्च में इजरायल ने पुनः शत्रुता शुरू की, तो यह शिविर उत्तरी गाजा के सैकड़ों परिवारों के लिए शरणस्थल बन गया। इनमें से एक परिवार, छह बच्चों की मां, मनाल जैन ने एक फाइलिंग कैबिनेट को अस्थायी चूल्हे में बदल दिया है, जहां वह पिटा ब्रेड बनाती है और अन्य परिवारों को बेचती है। उनके बच्चे और अन्य रिश्तेदार एक कक्षा में गद्दे पर आटा गूँथते हैं। उनके अस्तित्व का संघर्ष और भी कठिन हो गया है, क्योंकि इजरायल ने एक महीने से अधिक समय से गाजा में भोजन, ईंधन, दवाइयां और अन्य सभी आपूर्तियां रोक दी हैं, जिससे सहायता एजेंसियों के सीमित भंडार पर दबाव बढ़ रहा है, जिस पर लगभग पूरी आबादी निर्भर है।
ध्यान देने योग्य बात है कि ग़ज़्ज़ा का इस्लामिक विश्वविद्यालय, जो इस क्षेत्र के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है, में युद्ध से पहले लगभग 17,000 छात्र थे, जो चिकित्सा और रसायन विज्ञान से लेकर साहित्य और वाणिज्य तक हर क्षेत्र में अध्ययन कर रहे थे। इसके 60 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी महिलाएं थीं। परिसर पर इज़रायली हवाई हमलों और ज़मीनी सैन्य छापों ने तबाही मचा दी है। हमलों में कम से कम 10 विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और डीन मारे गए हैं, जिनमें विश्वविद्यालय के अध्यक्ष और प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी सुफियान तैयब भी शामिल हैं, जो अपने घर पर बमबारी में अपने परिवार के साथ मारे गए थे; साथ ही विश्वविद्यालय के सबसे प्रमुख प्रोफेसरों में से एक, रिफात अल-अरीज, जो एक अंग्रेजी शिक्षक थे और गाजा में युवा लेखकों के लिए कार्यशालाएं आयोजित करते थे।
सेना ने जनवरी 2024 में नियंत्रित विस्फोट के जरिए इसरा विश्वविद्यालय की मुख्य इमारतों को ध्वस्त कर दिया। इस क्षेत्र में कोई विश्वविद्यालय संचालित नहीं है, यद्यपि इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ गाजा सहित कुछ विश्वविद्यालय सीमित ऑनलाइन पाठ्यक्रम चला रहे हैं।
अल्लामा ज़ीशान हैदर जवादी उर्दू ज़बान के अल्लामा मजलिसी थे,
नई दिल्ली में “जलसा-ए-तौकीर-ए-तकरीम” नामक अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक सत्र में अल्लामा ज़ीशान हैदर जवादी ताबा सराह की 25वीं बरसी पर श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
नई दिल्ली की एक रिपोर्ट के अनुसार/ इस्लामी विचारक और पवित्र कुरान के मुफ़स्सिर अल्लामा सय्यद जीशान हैदर जवादी ताबा सराह की 25वीं बरसी के अवसर पर, विलायत फाउंडेशन, अल्लामा जवादी के कार्यों के प्रकाशन और संरक्षण संस्थान और तंजीमुल मुकातिब द्वारा ऐवान-ए-ग़ालिब, नई दिल्ली में “जलसा-ए-तौकीर-ए-तकरीम” नामक एक अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक सम्मेलन का आयोजन किया गया।
बैठक की अध्यक्षता हजरत आयतुल्लाह मोहसिन क़ुमी ने की। विशेष अतिथियों में भारत के सर्वोच्च नेता के पूर्व प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अका महदी महदवी (म द), और भारत मे सर्वोच्च नेता के नए प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अब्दुल मजीद हकीम इलाही (म), हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद कमाल हुसैनी, तथा ऑस्ट्रेलिया के शिया उलेमा काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना सय्यद अबुल कासिम रिजवी शामिल थे, जो न केवल विशेष अतिथि के रूप में शामिल हुए, बल्कि भाषण भी दिया।
आस्ट्रेलिया के मेलबर्न स्थित इमाम जुमा ने अल्लामा जवादी को उर्दू का अल्लामा मजलिसी घोषित किया और उन्होंने अपना भाषण सूर ए यासीन की आयत न 21 से शुरू करते हुए कहा कि अल्लामा जीशान हैदर जवादी के समय में काम में बरकत थी, कर्म में बरकत थी, कलम में बरकत थी, आंदोलन में बरकत थी। अल्लामा बहुत धन्य थे। उनका जीवन 22 रजब को शुरू हुआ और आशूरा के दिन मजलिस के बाद उन्होंने अंतिम सांस ली। ऐसा जीवन जिसका सपना केवल मनुष्य ही देख सकता है। अल्लाह ने उनके आमाल को स्वीकार किया और उन्हें 63 वर्ष का जीवन प्रदान किया।
उन्होंने आगे कहा कि यह हम सभी के लिए गर्व की बात है, जैसा कि फिराक गोरखपुरी ने कहा, जिन्होंने अल्लामा जवादी के कार्यकाल को देखा और उनके भाषणों से लाभ उठाया।
आने वाली पीढ़ियाँ आप पर गर्व करेंगी, हम अस्र
जब भी उनको ध्यान आएगा कि तुमने फ़िराक को देखा है।
अल्लामा एक जीनीयस थे, वे एक living legend थे, उनकी छवि हर जगह है, वे क़ौम के सम्मान और गरिमा थे।
14 देशों के नागरिकों के लिए सऊदी अरब ने उमराह वीज़ा पर प्रतिबंध लगाया
सऊदी अरब ने 14 देशों के लिए वीज़ा जारी करना निलंबित कर दिया है, जिससे तीखी प्रतिक्रिया समाने आ रही है।
सऊदी अरब ने इंडोनेशिया, अल्जीरिया, मिस्र, नाइजीरिया, इथियोपिया, ट्यूनीशिया, भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान सहित 14 देशों के नागरिकों के लिए उमराह, पारिवारिक यात्रा और व्यावसायिक वीजा जारी करने को 2025 हज सीजन के अंत तक निलंबित कर दिया है।
वीज़ा जारी करने पर अचानक रोक लगाने का उद्देश्य अनधिकृत प्रवेश को रोकना और आगामी धार्मिक समारोहों के दौरान भीड़ को नियंत्रित करना है।
सऊदी अधिकारियों ने घोषणा की है कि यह प्रतिबंध एक अस्थायी उपाय है और सुरक्षा तथा रसद दक्षता सुनिश्चित करने के लिए उठाया गया है, विशेष रूप से 2024 में हुई एक दुखद घटना के बाद, जिसमें भीड़भाड़ और अत्यधिक गर्मी के कारण एक हजार से अधिक लोग मारे गए थे।
यह नए प्रतिबंध जो जून 2025 के मध्य तक लागू रहेंगे, हाल के वर्षों में सऊदी अरब द्वारा लगाए गए सबसे सख्त वीज़ा उपायों में से एक हैं।
इस कदम से एशिया और अफ्रीका के लाखों तीर्थयात्रियों और यात्रियों के लिए गंभीर व्यवधान उत्पन्न हो गया है, तथा दुनिया भर में यात्रा योजनाएं, उड़ान बुकिंग और धार्मिक तीर्थयात्राएं पहले से ही बाधित हो रही हैं। स्थानीय मीडिया सूत्रों और राजनयिक चैनलों के अनुसार, यह निलंबन एक अस्थायी उपाय है और हज सीजन के अंत तक जारी रहेगा।
सऊदी अधिकारियों ने स्पष्ट किया है कि यह वीज़ा प्रतिबंध कोई दंडात्मक उपाय नहीं है, बल्कि सार्वजनिक सुरक्षा बनाए रखने के लिए एक निवारक प्रतिक्रिया है, विशेष रूप से 2024 के हज आपदा के बाद, जिसमें भीड़भाड़ और अत्यधिक गर्मी के कारण एक हजार से अधिक तीर्थयात्रियों की मृत्यु हो गई थी।
10 ब्रिटिश नागरिकों पर ग़ज़्ज़ा में युद्ध अपराध का आरोप लगा
फिलीस्तीनी मानवाधिकार केंद्र ने इस बात पर जोर दिया कि इजरायली हमलों को आत्मरक्षा कहना फिलीस्तीनी नागरिकों को मारने का लाइसेंस है। ब्रिटिश सरकार को भी कानून का शासन कायम रखना चाहिए।
एक प्रमुख वकील और कानूनी जांच दल ने ब्रिटिश राजधानी लंदन में मेट्रोपॉलिटन पुलिस को एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें 10 ब्रिटिश नागरिकों पर घेरे गए गाजा पट्टी में युद्ध अपराधों में शामिल होने का आरोप लगाया गया। सोमवार को प्रस्तुत की गई 240 पृष्ठों की रिपोर्ट, प्रमुख ब्रिटिश मानवाधिकार वकील माइकल मैन्सफील्ड के.सी. और हेग स्थित शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा तैयार की गई थी, तथा इसे मेट्रोपॉलिटन पुलिस आतंकवाद-रोधी कमान की युद्ध अपराध टीम के समक्ष प्रस्तुत किया गया। यह अनुरोध फिलीस्तीनी मानवाधिकार केंद्र और ब्रिटेन स्थित पब्लिक इंटरेस्ट लॉ सेंटर (पीआईएलसी) द्वारा किया गया था, जो गाजा और ब्रिटेन में फिलीस्तीनियों का प्रतिनिधित्व करता है।
यह अपनी तरह की पहली रिपोर्ट है जो गाजा में गंभीर अपराधों में ब्रिटिश नागरिकों की कथित संलिप्तता के बारे में विस्तृत, पूर्ण शोध और ठोस सबूत उपलब्ध कराती है। इसमें विशेष रूप से 10 ब्रिटिश संदिग्धों की पहचान की गई है तथा इजरायली सेना द्वारा किए गए "युद्ध अपराधों और मानवता के विरुद्ध अपराधों" में उनकी संलिप्तता के साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं। रिपोर्ट में ब्रिटिश नागरिकों की जांच की मांग की गई है, जिसका उद्देश्य गिरफ्तारी वारंट जारी करना तथा ब्रिटिश अदालतों में उन पर मुकदमा चलाना है। यह कदम अंतर्राष्ट्रीय कानूनी समूह ग्लोबल 195 की स्थापना और अपील के बाद उठाया गया है, जो फिलिस्तीन में कथित युद्ध अपराधों के लिए जवाबदेही की मांग कर रहा है।
रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले कानूनी टीम ने स्कॉटलैंड यार्ड के बाहर पत्रकारों से बात की। पीआईएलसी के कानूनी निदेशक पॉल हेरॉन ने कहा कि यह रिपोर्ट छह महीने की अवधि में एकत्र किये गए व्यापक साक्ष्य पर आधारित है। हमने मेट्रोपॉलिटन पुलिस की युद्ध अपराध टीम को सौंपी अपनी याचिका में पूर्ण एवं शीघ्र जांच तथा आपराधिक मुकदमा चलाने की मांग की है। उन्होंने कहा कि युद्ध अपराधों और मानवता के खिलाफ अपराधों में हत्या, जानबूझकर फिलिस्तीनियों को बहुत दर्द पहुंचाना, गंभीर चोट पहुंचाना और उनके साथ क्रूर व्यवहार करना, नागरिकों पर हमले, जबरन स्थानांतरण और निर्वासन, मानवीय कर्मियों पर हमले और फिलिस्तीनी लोगों के खिलाफ इजरायली सेना की कार्रवाई से संबंधित उत्पीड़न शामिल हैं। उन्होंने कहा कि चूंकि इजरायल पिछले 14 दिनों से गाजा में अपना नया आक्रमण जारी रखे हुए है, इसलिए यह अनुरोध इससे अधिक सामयिक नहीं हो सकता था।
फिलीस्तीनी मानवाधिकार केंद्र (पीसीएचआर) के निदेशक राजी सोरानी ने इस बात पर जोर दिया कि इजरायली हमलों को आत्मरक्षा कहना फिलीस्तीनी नागरिकों को मारने का लाइसेंस है। इजरायली हमलों में अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप की मिलीभगत का आरोप लगाते हुए सोरानी ने कहा कि अभी भी इजरायल को हथियार भेजे जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश सरकार को कानून का शासन कायम रखना चाहिए।
हालांकि, यूके लॉयर्स फॉर इजराइल (यूकेएलएफआई) के जोनाथन टर्नर ने कहा कि यह रिपोर्ट महज एक "प्रचार स्टंट" है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि कथित अपराध अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय के अभियोजक के मुख्य आरोपों से भिन्न हैं, जिसमें कहा गया था कि इजरायल ने युद्ध के हथियार के रूप में भुखमरी का इस्तेमाल किया।" इजरायल समर्थक एनजीओ मॉनिटर के कानूनी सलाहकार ऐनी हर्ज़बर्ग ने दावा किया कि यह रिपोर्ट ब्रिटेन में रहने वाले यहूदियों को डराने का एक प्रयास है।
क्या पैग़म्बरे इस्लाम पर सलाम पढ़ना शिर्क है?
आज के युग में यह वहाबी टोला और उसके साथियों ने क़सम खा रखी है कि मुसलमानों की हर आस्था और उनके हर विश्वास पर टिप्पणी अवश्य करेंगे चाहे वह सही हो या न हो, और कितने आश्चर्य की बात है कि यह सब करने के बाद भी यह वहाबी अपने आप को मुसलमान कहते हैं,
इनके इन्हीं बेबुनियाद ऐतेराज़ों में से एक पैग़म्बर और औलिया पर सलाम पढ़ना है, यह कहते हैं कि अगर कोई मुसलमान पैग़म्बर पर सलाम भेज रहा है तो यह अनेकेश्वरवाद है और वह शिर्क कर रहा है, (जब्कि यह लोग भूल जाते हैं कि हर मुसलमान अपनी नमाज़ों में कम से कम पांच समय पैग़म्बर पर अवश्य सलाम भेजता है)
अगरचे इन हबाबियों के सामने क़ुरआन की आयतों का पढ़ना ऐसा ही है जैसे भैंस के आगे बीन बजाना, लेकिन फिर भी हम यहां पर क़ुरआन से वह दलीले प्रस्तुत करने जा रहे हैं जो यह बताती हैं कि न केवल यह शिर्क नहीं है बल्कि यही सच्चा इस्लाम है, और यह दलीले देने का हमारा मक़सद केवल यही है कि अगर हमारा कोई मुसलमान भाई मुसलमानों की सूरत रखने वाले इन वहाबियों की ज़हरीली बातों से प्रभावित हो गया हो, या जिसको इस बारे में जानकारी न हो उसके सामने वास्तविक्ता रौशन हो जाए।
क्या पैग़म्बरे इस्लाम और नेक बंदों पर सलाम पढ़ना शिर्क है?
अगर ऐसा है तो ईश्वर न करें सारे मुसलमान...
क्या क़ुरआन नहीं फरमा रहा हैः
وَسَلَامٌ عَلَيْهِ يَوْمَ وُلِدَ وَيَوْمَ يَمُوتُ وَيَوْمَ يُبْعَثُ حَيًّا (सुरा मरयम आयत 15)
और सलाम हो यहया पर जिस दिन वह पैदा हुए और जब मरेगें और जिस दिन दोबारा जीवित किए जाएंगे
سَلَامٌ عَلَىٰ مُوسَىٰ وَهَارُونَ
(अलसाफ़्फ़ात आयत 120)
सलाम हो मूसा और हारून पर
فَسَلَامٌ لَّكَ مِنْ أَصْحَابِ الْيَمِينِ
(अलवाक़ेआ आयत 91)
तो सलाम हो तुम पर कि तुम असहाबे यमीन में से हो
यह आयतें साफ़ बता रही हैं कि नबियों पर सलाम करना कोई शिर्क नहीं है तो अगर एक आम नबी पर सलाम करना क़ुरआन के अनुसार शिर्क नहीं है तो वह पैग़म्बर जो सबसे बड़ा नबी है, वह नबी जिसको ईश्वर ने ख़ुद अपना हबीब कहा है उसपर सलाम करना शिर्क कैसे हो सकता है?।
अब अगर इन आयतों को देखने के बाद भी कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि सलाम भेजना शिर्क नहीं है तो उससे हमारा प्रश्न है कि
क्या क़ुरआन हमको शिर्क करना सिखा रहा है?
क्या शिया पैग़म्बर और अहलेबैत की ज़ियारत के समय इसके अतिरिक्त कुछ और कहते हैं कि
सलाम हो पैग़म्बर और एबादे सालेहीन पर।
अब हम इन वहाबियों जो कि भेड़ की खाल में छिपे भेड़िये हैं से कुछ प्रश्न करते हैं
वहाबियत जो ज़ियारत का विरोध करती है उसकी दलील क्या है?
क्या यह लोग भी यज़ीद की भाति पैग़म्बर के अहलेबैत को इस्लाम के बाहर मानते हैं?
क्या यह लोग शहीदों को जिन्हें क़ुरआन जीवित मानता है विश्वास नहीं रखते हैं?
क्या यह लोग पैग़म्बर की शहीदों से भी कम मानते हैं?
क्या यह लोग क़ुरआन की इन आयतें पर ईमान नहीं रखते हैं?
क्या यह लोग भी मैटेरियालिस्टों की भाति मौत को समाप्त हो जाना मानते हैं?
यह लोग क़ुरआन के इस वाक्य السلام علیک ایها النبی.. के बारे में क्या कहेंगे?
क्या नमाज़ में السلام علیک ایها النبی.. बेकार हैं?
कुरआने करीम मे इमामो के नाम
ने इस मे हर चीज़ को बयान किया है जैसा कि कुरआने करीम मे इरशाद हुआ हैः
” وَ نَزَّلْنا عَلَیْکَ الْکِتابَ تِبْیاناً لِکُلِّ شَیْءٍ
हमने आप पर किताब नाजिल की है जिस मे हर चीज़ की वज़ाहत मौजूद है।
(सूराऐ नहल आयत न. 89)
ما فَرَّطْنا فِی الْکِتابِ مِنْ شَیْءٍ“
हमने किताब मे किसी चीज़ के बयान मे कोई कमी नही की।
(सूराऐ इनआम आयत न. 38)
और नहजुल बलाग़ा मे भी इस बात का ज़िक्र हुआ हैः
وفی القرآن نباٴ ما قبلکم وخبر ما بعدکم و حکم ما بینکم
किताबे खुदा मे गुज़रे और आने वाले ज़माने की खबरे और ज़रूरत के अहकाम मौजूद है।
अहले सुन्नत ने भी मशहूर सहाबी इब्ने मसऊद से नक्ल किया है कि वो कहते है कुरआने करीम मे अव्वलीन व आखेरीन का इल्म है।
इस के बावजूद हम मुख्तलिफ जुज़ई अहकाम को देखते है कि जो कुरआने करीम मे नही मिलते है जैसे नमाज़ की रकअतो की तादाद, ज़कात की जिंस और निसाब, मनासिके हज, सफा व मरवा मे सई की तादाद, तवाफ की तादाद और इस्लामी हदो, क़ज़ावत के मामलात और शराएत और इमामो के नाम वग़ैरा।
बाज़ अहलेसुन्नत या वहाबी इन बातो की तरफ तवज्जो किये बिना जो कुरआने करीम मे बयान नही हुई है, इस मसले को पेश करते है कि हज़रत अली (अ.स.) का नाम कुरआने करीम मे क्यो नही आया।
और इस तरह वो कोशिश करते है कि इस मसले से शियो के विलायत और इमामत के दावे के खिलाफ इस्तेफादा करें।
लेकिन ये इस मकाले से ये बात साबित होती है कि हर चीज़ का नाम कुरआन मे नही है इसी लिऐ अहले सुन्नत का ये दावा ग़लत है कि अगर तुम्हारे इमाम हकीकी है तो उनका नाम कुरआन मे क्यो नही आया है।
क़ुरआन मे तहरीफ नही हुई
क़ुरआन की फेरबदल से सुरक्षा
पैगम्बरों और र्इश्वरीय दूतो के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यह आवश्यक था कि र्इश्वरीय संदेश सही अवस्था और बिना किसी फेर-बदल के लोगों तक पहुँचाऐ ताकि लोग अपना लोक-परलोक बनाने के लिए उससे लाभ उठा सकें।
इस आधार पर, लोगों तक पहुँचने से पूर्व तक क़ुरआने करीम का हर प्रकार के परिर्वतन से सुरक्षित रहना अन्य सभी र्इश्वरीय पुस्तकों की भाँति चर्चा का विषय नही है किंतु जैसा कि हमे मालूम है अन्य र्इश्वरीय किताबें लोगों के हाथों में आने के बाद थोड़ी बहुत बदल दी गयीं या कुछ दिनों बाद उन्हे पुर्ण रूप से भूला दिया गया जैसा कि हज़रत नूह और हजरत इब्राहीम (अ.स) की किताबों का कोर्इ पता नही हैं और हज़रत मूसा व हज़रत र्इसा (अ.स) की किताबो के मूल रूप को बदल दिया गया हैं।
इस बात के दृष्टिगत, यह प्रश्न उठता हैं कि हमें यह कैसे ज्ञात है कि अंतिम र्इश्वरीय संदेश के नाम पर जो किताब हमारे हाथो में है यह वही क़ुरआन है जिसे पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) पर उतारा गया था और आज तक उसमे किसी भी प्रकार का फेर-बदल नही किया गया और न ही उसमे कोर्इ चीज़ बढार्इ या घटार्इ गई।
जबकि जिन लोगों को इस्लामी इतिहास का थोड़ा भी ज्ञान होगा और क़ुरआन की सुरक्षा पर पैगम्बर इस्लाम और उन के उत्तराधिकारयों द्वारा दिए जाने वाले विशेष ध्यान के बारे मे पता होगा तथा मुसलमानो के मध्य क़ुरआन की सुरक्षा के बारे में पाई जाने वाली संवेदनशीलता की जानकारी होगी तो वह इस किताब में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना का इन्कार बड़ी सरलता से कर देगा। क्योकि इतिहासिक तथ्यो के अनुसार केवल एक ही युध्द में क़ुरआन को पूरी तरह से याद कर लेने वाले सत्तर लोग शहीद हुए थे। इससे क़ुरआन के स्मंरण की परपंरा का पता चलता है जो निश्चित रूप से क़ुरआन की सुरक्षा में अत्याधिक प्रभावी है। इस प्रकार गत चौदह सौ वर्षो के दौरान क़ुरआन की सुरक्षा में किए गये उपाय, उस की आयतो और शब्दो की गिनती आदि जैसे काम भी इस संवेदनशीलता के सूचक हैं। किंतु इस प्रकार के विश्वस्त ऐतिहासिक प्रमाणो से हटकर भी बौध्दिक व ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित एक तर्क द्रवारा क़ुरआन की सुरक्षा को सिध्द किया जा सकता है अर्थात सबसे पहले क़ुरआन में किसी विषय की वृध्दि को बौध्दिक तर्क द्रवारा सिध्द किया जा सकता है और जब यह सिध्द हो जाए कि वर्तमान क़ुरआन ईश्वर की ओर से भेजा गया है तो उसकी आयतो को प्रमाण बना कर सिध्द किया जा सकता है कि उसमे से कोई वस्तु कम भी नही हुई है।
इस प्रकार से हम क़ुरआन मे फेर-बदल न होने को दो अलग- अलग भागो मे सिध्द करेगें।
1.क़ुरआन में कुछ बढाया नही गया हैं
इस विषय पर मुसलमानों के सभी गुट सहमत हैं बल्कि विश्व के सभी जानकार लोगों ने भी इसकी पुष्टि की है और कोई भी ऐसी घटना नही घटी हैं जिस के अन्तर्गत क़ुरआन में जबरदस्ती कुछ बढाना पड़ा हो और इस प्रकार की संभावना का कोई प्रमाण भी मौजूद नही है।किंतु इसी के साथ क़ुरआन में किसी वस्तु के बढ़ाए जाने की संभावना को बौध्दिक तर्क से भी इस प्रकार रद्द किया जा सकता हैः
अगर यह मान लिया जाए कि कोई एक पूरा विषय क़ुरआन में बढ़ा दिया गया हैं तो फिर उसका अर्थ यह होगा कि क़ुरआन जैसी रचना दूसरे के लिए संभव है किंतु यह संभावना क़ुरआन के चमत्कारी पहलू और क़ुरआन का जवाब लाने में मनुष्य की अक्षमता से मेल नही खाती। और यह अगर मान लिया जाए कि कोई एक शब्द या एक छोटी-सी आयत उसमे बढा दी गयी हैं तो उसका अर्थ यह होगा कि क़ुरआन की व्यवस्था व ढॉचा बिगढ़ गया जिस का अर्थ होगा कि क़ुरआन में वाक्यों के मध्य तालमेल का जो चमत्कारी पहलू था वह समाप्त हो गया है और इस दशा में यह भी सिध्द हो जाएगा कि क़ुरआन में शब्दो की बनावट और व्यवस्था का जवाब लाना संभव हैं क्योंकि क़ुरआनी शब्दो का एक चमत्कार शब्दों का चयन तथा उनके मध्य संबंध भी है और उन में किसी भी प्रकार का परिवर्तन, उसके खराब होने का कारण बन जाऐगा।
तो फिर जिस तर्क के अंतर्गत क़ुरआन के मौजिज़ा होने को सिध्द किया गया था उसका सुरक्षित रहना भी उन्ही तर्को व प्रमाणो के आधार पर सिध्द होता है किंतु जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि क़ुरआन से किसी एक सूरे को इस प्रकार से नही निकाला गया है कि दूसरी आयतों पर उसका कोई प्रभाव ना पड़े तो इसके लिए एक अन्य तर्क की आवश्यकता है।
- क़ुरआन से कुछ कम नही हुआ हैं
शिया और सुन्नी समुदाय के बड़े बड़े धर्म गुरूओं ने इस बात पर बल दिया है कि जिस तरह से क़ुरआन में कोई चीज़ बढ़ाई नही गयी है उसी तरह से उसमें से किसी वस्तु को कम भी नही किया गया है। और इस बात को सिध्द करने के लिए उन्होने बहुत से प्रमाण पेश किये हैं किंतु खेद की बात है कि कुछ गढ़े हुए कथनों तथा कुछ सही कथनों की गलत समझ के आधार पर कुछ लोगों ने यह संभावना प्रकट की है बल्कि बल दिया है कि क़ुरआन से कुछ आयतों को हटा दिया गया है।
किंतु क़ुरआन में किसी भी प्रकार के फेर बदल न होने के बारे में ठोस ऐतिहासिक प्रमाणों के अतिरिक्त स्वंय क़ुरआन द्वारा भी उसमें से किसी वस्तु के कम होने को सिध्द किया जा सकता हैं।
अर्थात जब यह सिध्द हो गया कि इस समय मौजूद क़ुरआन ईश्वर का संदेश है और उसमें कोई चीज़ बढ़ाई नही गयी है तो फिर क़ुरआन की आयतें ठोस प्रमाण हो जाएगी। और क़ुरआन की आयतों से यह सिध्द होता है कि ईश्वर ने अन्य ईश्वरीय किताबों को विपरीत कि जिन्हे लोगों को सौंप दिया गया था, क़ुरआन की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी स्वंय ली हैं।
उदाहरण स्वरूप सुरए हिज्र की आयत 9 में कहा गया हैः
إِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ وَإِنَّا لَهُ لَحَافِظُونَ
निश्चित रूप से स्मरण(1) को उतारा है और हम ही उसकी सुरक्षा करने वाले हैं।
यह आयत दो भागों पर आधारित है। पहला यह कि हम ने क़ुरआन को उतारा है जिससे यह सिध्द होता है कि क़ुरआन ईश्वरीय संदेश है और जब उसे उतारा जा रहा था तो उसमें किसी प्रकार का फेर-बदल नही हुआ और दूसरा भाग वह है जिस में कहा गया हैं वह अरबी व्याकरण की दृष्टि से निरतरंता को दर्शाता है अर्थात ईश्वर सदैव क़ुरआन की सुरक्षा करने वाला हैं।
यह आयत हाँलाकि क़ुरआन में किसी वस्तु की वृध्दि न होने को भी प्रमाणित करती है किंतु इस आयत को क़ुरआन मे किसी प्रकार की कमी के न होने के लिऐ प्रयोग करना इस आशय से है कि अगर क़ुरआन मे किसी विषय के बढ़ाऐ न जाने के लिऐ इस आयत को प्रयोग किया जाऐगा तो हो सकता है यह कल्पना की जाऐ कि स्वंय यही आयत बढ़ाई हुई हो सकती है इस लिऐ हमने क़ुरआन मे किसी वस्तु के बढ़ाऐ न जाने को दूसरे तर्को और प्रमाणो से सिध्द किया है और इस आयत को क़ुरआन मे किसी वस्तु के कम न होने को सिध्द करने के लिऐ प्रयोग किया है। इस प्रकार से क़ुरआन मे हर प्रकार के फेरबदल की संभावना समाप्त हो जाती है।
अंत मे इस ओर संकेत भी आवश्यक है कि क़ुरआन के परिवर्तन व बदलाव के सुरक्षित होने का अर्थ ये नही है कि जहाँ भी क़ुरआन की कोई प्रति होगी वह निश्चित रूप से सही और हर प्रकार की लिपि की ग़लती से भी सुरक्षित होगी या ये कि निश्चित रूप उसकी आयतो और सूरो का क्रम भी बिल्कुल सही होगा तथा उसके अर्थो की किसी भी रूप मे ग़लत व्याख्या नही की गई होगी।
बल्कि इसका अर्थ ये है कि क़ुरआन कुछ इस प्रकार से मानव समाज मे बाक़ी रहेगा कि वास्तविकता के खोजी उसकी सभी आयतो को उसी प्रकार से प्राप्त कर सकते है जैसे वह ईश्वर द्वारा भेजी गई थी।इस आधार पर क़ुरआन की किसी प्रति में मानवीय गलतियों का होना हमारी इस चर्चा के विपरीत नही हैं।
(1) यहाँ पर क़ुरआन के लिऐ ज़िक्र का शब्द प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ स्मरण और आशय क़ुरआन है।