कुछ लोगों का यह ख्याल है कि हिजाब औरत के लिए एक क़ैद और कमजोरी का प्रतीक है, जबकि कुरान के नजरिए से हिजाब न तो महिला का व्यक्तिगत अधिकार है, न पुरुष या परिवार से जुड़ा कोई मामला। बल्कि हिजाब एक "इलाही हक़" है, जिसका पालन करना महिला की इज्जत और सम्मान की रक्षा तथा खुदा के हुक्म की इताअत का प्रतीक है।
आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमोली ने अपनी एक रचना मे "हिजाब: एक इलाही हक़" शीर्षक के तहत एक महत्वपूर्ण बिंदु प्रस्तुत किया है, जिसका सारांश निम्नलिखित है:
शुबाह
कुछ लोगों का मानना है कि हिजाब महिला के लिए एक क़ैद है, एक ऐसी दीवार जो परिवार या पति ने उस पर थोप दी है, इसलिए वे इसे महिला की कमजोरी और सीमितता का प्रतीक मानते हैं।
जवाब
कुरान पाक के नजरिए से यह सोच पूरी तरह गलत है।
महिला को यह सच्चाई समझनी चाहिए कि:
उसका हिजाब केवल व्यक्तिगत इच्छा का मामला नहीं है कि वह कहे: "मैं अपने अधिकार से दस्तबरदार होती हूँ।"
यह पुरुष का अधिकार भी नहीं है कि वह अनुमति दे या सहमत हो जाए।
यह परिवार का अधिकार भी नहीं है कि वह सामूहिक रूप से फैसला करे।
बल्कि, हिजाब एक "इलाही हक़" है। यह खुदा का आदेश और उसकी अमानत (जिम्मेदारी) है, जिसका पालन सभी पर वाजिब (अनिवार्य) है।
स्रोत: किताब "ज़न दर आइने जलाल व जमाल", पेज 437, आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमोली