पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम का प्रसिद्ध कथन है कि मैं तुम्हारे मध्य दो मूल्यवान चीज़ें छोड़कर जा रहा हूं एक क़ुरआन और दूसरे अपने अहलेबैत।
जब तक तुम इन दोनों को थामे रहोगे गुमराह नहीं होगे और ये दोनों कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं होगें यहां तक कि दोनों हौज़े कौसर पर मेरे पास आयेंगे।
पैग़म्बरे इस्लाम ने पवित्र कुरआन के बाद जो अहलेबैत से जुड़े रहने पर बल दिया है उसका एक कारण यह है कि महान ईश्वर और पैग़म्बरे इस्लाम की इच्छा यह है कि लोग पवित्र क़ुरआन को सीखने और सीधे रास्ते पर चलने के लिए अहलेबैत को आदर्श बनाए और उनका अनुसरण करें। इस आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम ने जिन हस्तियों को आदर्श बनाने और उनके अनुसरण की बात कही है उनका स्थान बहुत ऊंचा है। जिस समय सत्य-असत्य का पता न चले और असत्य, सत्य के रूप में दिखाई दे तो सत्य-असत्य को पहचानने का बेहतरीन मार्ग कुरआन और अहलेबैत हैं। इस आधार पर इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम जामेअ कबीरा नामक प्रसिद्ध ज़ियारत में इमामों को ईश्वरीय कृपा का स्रोत, ज्ञान के खज़ाने, सच्चाई के मार्गदर्शक और अंधकार का चेराग़ कहते हैं।
हज़रत इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की एक प्रसिद्ध उपाधि हादी है। उन्होंने अपने पिता हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद ३४ वर्षों तक लोगों के मार्गदर्शन का ईश्वरीय दायित्व संभाला। इमाम हादी अलैहिस्सलाम के लोगों के मार्गदर्शन के काल में ६ अब्बासी शासकों का शासन था। इसी प्रकार इमाम हादी अलैहिस्सलाम के मार्गदर्शन के लगभग १३ वर्ष पवित्र नगर मदीने में गुज़रे। यह वह काल था जब अब्बासी शासकों के मध्य सत्ता की खींचतान चल रही थी और इमाम ने इस अवसर का लाभ उठाकर इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया। ज्ञान के प्यासे लोग हर ओर से इमाम के पास आते थे और ज्ञान के अथाह सागर के प्रतिमूर्ति से अपनी प्यास बुझाते थे। इमाम हादी अलैहिस्सलाम के चाहने वाले और उनके अनुयाइ ईरान, इराक़ और मिस्र जैसे विभिन्न देशों व क्षेत्रों से उनकी सेवा में उपस्थित होकर या पत्रों के माध्यम से अपनी समस्याओं व कठिनाइयों को इमाम के समक्ष रखते थे और उनका समाधान मालूम करते थे।
इसी तरह इमाम के प्रतिनिधि लोगों के मध्य थे और धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक मामलों के समाधान में वे लोगों और इमाम के मध्य संपर्क साधन थे।
पवित्र नगर मदीना में इमाम हादी अलैहिस्सलाम का दीनःदुखियों और वंचितों से भी गहरा संबंध था और जिन लोगों को आर्थिक समस्याओं का सामना होता था और उन्हें कहीं कोई सहारा नहीं मिलता था तो लोग उन्हें इमाम के घर की ओर जाने के लिए कहते थे और इमाम उन लोगों की सहायता करते थे। जो ख़ुम्स, ज़कात अर्थात विशेष धार्मिक राशि इमाम को दी जाती थी अधिकतर वे उसे वंचितों की सहायता से विशेष करते थे।
कभी इमाम निर्धनों को इतना धन देते थे कि वे उससे कोई काम करें और आर्थिक स्वाधीनता के साथ अपने सम्मान की रक्षा करें। जो लोग यात्रा के दौरान रास्ते में फंस जाते थे तो इमाम हादी अलैहिस्सलाम उनकी भी सहायता करते थे और इमाम ने कभी भी पवित्र नगर मदीना में किसी को भूखा सोने या किसी अनाथ को किसी अभिभावन के न होने के कारण आंसू बहाने का अवसर नही दिया।
पवित्र नगर मदीना में इमाम हादी अलैहिस्सलाम की लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि मदीने के गवर्नर में इस बात की क्षमता नहीं थी कि वह इमाम पर अपना कोई दृष्टिकोण थोप सके। इमाम हादी अलैहिस्सलाम का आध्यात्मिक व सामाजिक प्रभाव इस बात का कारण बना कि बुरैहा नाम का एक व्यक्ति जिस अब्बासी शासकों की ओर से मक्का और मदीना की निगरानी का काम सौंपा गया था। वह अब्बासी शासक मुतवक्किल के नाम पत्र में इस प्रकार लिखता है” अगर तुझे हरमैन शरीफ़ैन यानी मक्का और मदीना चाहिये तो अली बिन मोहम्मद यानी इमाम हादी को इन दोनों नगरों से बाहर कर दे इसलिए कि उन्होंने लोगों को अपनी ओर बुलाया है।“
अंततः २३३ हिजरी क़मरी में इमाम हादी अलैहिस्सलाम को अपने बेटे इमाम हसन अस्करी अलैहिस्लाम और परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ मदीना छोड़कर इराक़ के सामर्रा नगर में रहने पर विवश किया गया। उस समय सामर्रा अब्बासी शासकों की सरकार का केन्द्र था। अब्बासी शासकों की ओर से यहिया बिन हरसमा नाम के एक व्यक्ति को इमाम हादी अलैहिस्सलाम को मदीने से सामर्रा लाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। वह तीन सौ सैनिकों के साथ मदीने गया। हरसमा कहता है मैं मदीने गया। शहर में दाखिल हो गया। लोग बहुत दुःखी और परेशान थे। धीरे-२ यह अप्रसन्नता इतनी अधिक हो गयी कि चीख-पुकार की आवाज़ आने लगी। वे इमाम हादी के जीवन के प्रति चिंतित थे। उन्होंने लोगों के साथ बड़ी भलाई की थी और लोग अपने पास इमाम की मौजूदगी को ईश्वरीय कृपा व बरकत का कारण समझते थे। मैंने लोगों को शांत रहने के लिए कहा और मैंने सौगंध खाई कि इमाम के साथ किसी प्रकार का हिंसात्मक व्यवहार नहीं किया जायेगा।“ इतिहास में आया है कि इस यात्रा के दौरान यहिया बिन हरसमा इमाम का श्रद्धालु बन गया और वह दिल से इमाम को चाहने लगा।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि अमवी और अब्बासी शासकों ने इमामों के स्थान को लोगों के दिलों से हटाने के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं था जो न किया हो परंतु कभी भी वे ज्ञान, जानकारी और इमामों की आध्यात्मिक श्रेष्ठता को प्रभावित न कर सके। उमवी और अब्बासी शासकों ने पूरी मानवता विशेषकर मुसलमानों पर यह अत्याचार किया कि उन्होंने इस्लामी समाज में अहलेबैत के ज्ञान को फैलने नहीं दिया और इस दिशा में वे रुकावट बने रहे। यह कार्य इमाम हादी और उनके बेटे इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम के काल में अधिक था। इसके बावजूद इमाम हादी अलैहिस्सलाम लोगों के मार्गदर्शन के लिए हर समय व अवसर से लाभ उठाने का प्रयास करते थे।
इमाम हादी अलैहिस्सलाम २० वर्ष ९ महीने सामर्रा में रहे। यह नगर बग़दाद के उत्तर में १३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। चूंकि इमाम हादी अलैहिस्सलाम को मदीने से सामर्रा लाने का मुतवक्किल का लक्ष्य इमाम पर नज़र रखना और उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से दूर रखना था इसलिए उसने इमाम को ऐसे स्थान पर रखा जो उसके लक्ष्य के अनुसार था। इसी कारण उसने इमाम को उस घर में रखा जो सैनिक छावनी और विशेष सैनिकों के मोहल्ले में था। जिस मकान में इमाम रखा गया वह कारावास से कम न था। क्योंकि सेवकों और दरबारियों के रूप में जासूसों को इमाम की निगरानी के लिए लगा दिया था और वे इमाम की समस्त गतिविधियों पर पैनी नज़र रखते और उसे नियंत्रित करते थे और सारी रिपोर्ट ख़लीफा को देते थे। इमाम हादी अलैहिस्सलाम को सामर्रा में बहुत कठिनाई में रखा गया और उन्होंने बहुत सारी कठिनाइयों का सामना किया परंतु उन्होंने कभी भी अत्याचारियों से कोई समझौता नहीं किया और जितने दिन गुज़र रहे थे लोगों के मध्य इमाम का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था। इमाम हादी अलैहिस्सलाम के जन्म दिवस की पावन बेला पर एक बार फिर आप सबको हार्धिक बधाई प्रस्तुत करते हैं और कार्यक्रम का समापन उनके कुछ कथनों से कर रहे हैं।
परिपूर्णता के शिखर को तय करने की एक महत्वपूर्ण शैली ज्ञान की प्राप्ति है और इंसान ज्ञान के बिना कुछ नहीं कर सकता। इमाम हादी अलैहिस्सलाम का मानना था कि उच्च मानवीय उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। क्योंकि जानकारी और ज्ञान की प्राप्ति के बिना कोई राही अपने उद्देश्य तक नहीं पहुंचता है। इमाम हादी अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” ज्ञानी और ज्ञान प्राप्त करने वाले दोनों मार्गदर्शन में भागीदार हैं।”
अगर समाज के विद्वान और बुद्धिजीवी प्रयास न करें और समाज के सामान्य लोग भी ज्ञान प्राप्त न करें तो लोगों की सोच और सांस्कृतिक सतह पर कोई प्रगति नहीं होगी। इमाम हादी अलैहिस्सलाम की दृष्टि में ईश्वर के अच्छे व भले बंदों की एक विशेषता लोगों की ग़लतियों को माफ़ कर देना है। अय्यूब बिन नूह कहता है इमाम हादी अलैहिस्सलाम ने हमारे एक साथी के नाम पत्र में, जो एक व्यक्ति की अप्रसन्नता का कारण बना था, इस प्रकार लिखा कि जाओ अमुक व्यक्ति से माफी मांगों और कहो कि अगर ईश्वर किसी बंदे की भलाई चाहता है तो उसे वह हालत प्रदान करता है कि जब भी उससे माफी मांगे जाये तो वह उसे स्वीकार करता है और तू भी मेरी ग़लती को स्वीकार कर।“
अच्छे दोस्तों को सुरक्षित रखने के लिए उनके बारे में कड़ाई से काम नहीं लिया जाना चाहिये बल्कि उनकी ग़लतियों के संबंध में नर्मी से काम लिया जाना चाहिये और उनकी अनदेखी कर देनी चाहिये। क्योंकि अगर इंसान छोटी -छोटी बात पर अपने दोस्तों से कड़ाई से पेश आने लगे तो धीरे- धीरे वह अकेला हो जायेगा और उसके विरोधियों की संख्या अधिक हो जायेगी जबकि अच्छे दोस्त इंसान के जीवन में भुजा समान होते हैं। इस आधार पर जीवन में सफल होने के लिए इंसान को चाहिये कि वह अच्छे दोस्तों की सुरक्षा करे और छोटी सी ग़लती पर उनसे नाता न तोड़े और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की जीवन शैली दूसरों की ग़लतियों की अनदेखी व उन्हें माफ कर देना रही है।