मनासिके हज

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मनासिके हज

शरई तौर पर हज से मुराद ख़ास आमाल का मजमूआ है और हज उन अरकान में से एक रुक्न है जिस पर इस्लाम की बुनियाद रख़ी गई है। जैसा कि इमाम मोहम्मद बाक़र अलैहिस्सलाम से रिवायत हैः-

(बोनियल इस्लामो अला ख़मसिन, अलस्सलाते वज़्ज़काते वस्सौमे वल हज्जे वल विलायत)

इस्लाम की बुनियाद पाँच चीज़ों पर रख़ी गई हैः नमाज़, ज़कात, रोज़ा, हज और विलायत, हज चाहे वाजिब हो या मुसतहब, बहुत बड़ी फ़ज़ीलत और कसीर अज्र रखता है यानी बहुत सवाब रखता है और इस की फ़ज़ीलत के बारे में पैग़म्बरे अकरम (स.) और अहलेबैत (अलैहिम्मुस्सलाम) से बहुत ज़्यादा रिवायात वारिद हुई हैं जैसा कि इमाम जाफ़रे सादिक़ से रिवायत हैः

(अल हाज्जो वल मोतमेरो वफ़ादल्लाहो अन साअलूहो आताहुम व इन दुआओहू इजाबोहुम व इन शिफ़ाऊ शिफ़ाअहुम व इन सकातू इब्तेदाअहुम व याऊज़ूना बिद्दिरहमो अलफ़िन अलफ़िन दिरहमिन)

हज और उमरा करने वाले अल्लाह का गिरोह हैं अगर अल्लाह से सवाल करें तो उन्हें अता करता है और उसे पुकारें तो उन्हें अता करता है, अगर शिफ़ाअत करें तो उन्की शिफ़ाअत को क़बूल करता है अगर चुप रहें तो ख़ुद ही इक़दार करता है और इन्हें एक दिरहम के बदले हज़ारों हज़ार दिरहम दिये जाते हैं।

वुजूबे हज के मुनकिर और तारिके हज का हुक्मः-

हज का वाजिब होना किताब और सुन्नत के ज़रिये साबित है और यह ज़रूरीयाते दीन में से है और जिस बन्दे में उसकी आइन्दा बयान होने वाली शर्ते कामिल हों और उसे उस के वुजूब का भी इल्म हो उसका उसे अंजाम न देना गुनाहे कबीरा है। अल्लाहताला अपनी मोहकम किताब में फ़रमाता हैः-

(व लिल्लाहे अलन नासे हज्जल बैते मन इस्तेताऐ अलैही सबीला व मन कफ़ारा फ़ा इन्नल्लाहा ग़नीयुन अनिल आलामीन)

और लोगों पर वाजिब है कि सिर्फ़ ख़ुदा के लिये ख़ाना-ए-काबा का हज करें जिन्हें वहां तक पहुचने की इस्तेताअत, सलाहियत हो (और जिस ने हज की क़ुदरत रख़ते हुए इंकार किया तो) याद रख़िये कि (ख़ुदा सारे जहान से बेनियाज़ है)

और इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम से रिवायत हैः-

जो शख़्स इस दुनिया से इस हाल में चल बसे कि जिस ने हज्जुल इस्लाम अंजाम न दिया हो जब कि कोई हाजत उस के लिये रुकावट न बने ऐसी बीमारी में भी मुबतला न हो जिस के साथ हज को अंजाम देने की सलाहियत न रखता हो। और कोई भी हाकिम रुकावट न बने तो वह यहूदी या नसरानी हो कर मरेगा।

हज की क़िस्में :-

जो हज मुकल्लफ़ अंजाम देता है या तो उसे अपनी तरफ़ से अंजाम देता है या किसी और की तरफ़ से इस दूसरे को नियाबती हज कहते हैं और पहला या वाजिब है या मुसतहब, और वाजिब हज या बज़ाते ख़ुद शरीअत में वाजिब होता है तो इसे हज्जुल इस्लाम कहते हैं और या किसी और सबब की वजह से वाजिब होता है, जैसे नज़र करने की वजह से या हज को बातिल कर देने की वजह से और हज्जुल इस्लाम और नियाबती हज में से हर एक की अपनी अपनी शर्तें और अहकाम हैं कि जिन्हें हम पहले बाब में दो फ़सलों के ज़िम्न में ज़िक्र करेंगे।

हज की और भी तीन क़िसमें हैं :- हज्जे तमत्तो, हज्जे एफ़राद हज्जे क़ेरान

हज्जे तमत्तो उन लोगों का फ़रीज़ा है कि जिन का वतन मक्के से 16 फ़रसख़ तक़रीबन 10 किलो मीटर दूर है और हज्जे एफ़राद और हज्जे क़ेरान उन लोगों का फ़रीज़ा है कि जिन का वतन या तो ख़ुद मक्के में है या 10 किलो मीटर से कम फ़ासले पर है, और हज्जे तमत्तो, हज्जे क़ेरान और हज्जे एफ़राद से बाज़ आमाल व मनासिक के ऐतेबार से मुख़तलिफ़ है और उसे हम दूसरे बाब में चन्द फ़सलों के ज़िम्न में बयान करेंगे।

हज्जुल इस्लामः

मसअला नः1

जो शख़्स हज की इस्तेताअत रखता हो उस पर शरीअत के ऐतेबार से पूरी उम्र में सिर्फ़ एक मरतबा हज वाजिब होता है और उसे हज्जुल इस्लाम कहा जाता है।

मसअला नः2

हज्जुल इस्लाम का वुजूब फ़ौरी है यानी जिस साल इस्तेताअत हासिल हो जाऐ उसी साल हज पर जाना वाजिब है और किसी उज़्र के बग़ैर ताख़ीर जाएज़ नहीं है और अगर ताख़ीर करे तो गुनाहगार है और हज उस के ज़िम्मे साबित हो जायेगा और उसे अगले साल अंजाम देना वाजिब है।

मसअला नः3

अगर इस्तेताअत वाले साल हज को अंजाम देना बाज़ इक़दामात पर मौक़ूफ़ हो, जैसे सफ़र करना और हज के वसाएल व असबाब, मोहय्या करना तो उस पर वाजिब है कि उन लवाज़ेमात को हासिल करने के लिये इस तरह इक़दाम व कोशिश करे कि उसे उसी साल हज पर जाने का इतमेनान हो। और अगर उस में कोताही करे और हज को अंजाम न दे गुनाहगार है और हज उसे के ज़िम्मे साबित और मुस्तक़िर हो जायेगा और उस पर उसे बजा लाना वाजिब है चाहे इस्तेताअत बाक़ी न रहे।

हज्जुल इस्लाम के वाजिब होने की शर्तें-

हज्जुल इस्लाम नीचे दी हुईं शर्तों के साथ वाजिब होता हैः

पहली शर्तः मजनू (पागल) पर हज वाजिब नहीं है।

दूसरी शर्तः बालिग़ हो यानी नाबालिग़ पर हज वाजिब नहीं है चाहे वह बुलूग़ के क़रीब ही क्यों न हो और अगर नाबालिग़ बच्चा हज बजा लाये तो अगर्चे उस का हज सही है लेकिन यह हज्जुल इस्लाम के लिये काफ़ी नहीं है।

मसअला नः4

अगर्चे एहराम बांधकर मशअर में वुक़ूफ़ के वक़्त बालिग़ हो जाये और हज की इस्तेताअत भी रखता हो तो उस का यह हज हज्जुल इस्लाम के लिये काफ़ी है।

मसअला नः5

वह बच्चा जो एहराम बांधे हुए है अगर वह काम जो एहराम की हालत में हराम हैं उस में से किसी काम का मुर्तकिब हो जाये, मिसाल के तौर पर अगर वह काम शिकार हो तो उस का कफ़्फ़ारा उस के वली पर होगा और इस के अलावा किसी दूसरे कफ़्फ़ारों के सिलसिले में ज़ाहिर यह है कि वह न तो उस के वली पर वाजिब होगा और न ही उस बच्चे के माल में।

मसअला नः6

बच्चे के हज में क़ुरबानी की क़ीमत उस के वली पर वाजिब है।

मसअला नः7

वाजिब हज में शौहर की इजाज़त शर्त नहीं है पस बीवी पर हज वाजिब है अगर्चे शौहर सफ़र पर राज़ी न हो।

मसअला नः8

जो शख़्स हज्जुल इस्लाम बजालाने की इस्तेताअत रखता है उस के लिये वालिदैन की इजाज़त शर्त नहीं है।

तीसरी शर्तः इस्तेताअत और यह नीचे दिये गऐ उमूर पर मुशतमिल है।

1- माली इस्तेताअत

2- जिसमानी इस्तेताअत

3- (सरबी इस्तेताअत) यानी रास्ते का बाअमन और खुला होना।

4- ज़मानी इस्तेताअत

हर एक की तफ़सील यह नीचे है।

1- माली इस्तेताअत

यह कई तरह के उमूर पर मुशतमिल है

1- सामाने सफ़र और ज़रीया (सवारी)

2- सफ़र के दौरान अपने अहलो अयाल के एख़राजात

3- ज़रूरीयाते ज़िन्दगी

4- वापस पलटने की इस्तेताअत

नीचे दीए गये मसअलों की रौशनी में इन की तफ़सील बयान करते हैं।

1- सामाने सफ़र और ज़रीया (सवारी)

सामाने सफ़र से मुराद हर वह चीज़ है कि जिस की सफ़र में ज़रूरत होती है, जैसे ख़ाने पीने की चीज़ें और उस सफ़र की दूसरी ज़रूरियात और ज़रीये से मुराद ऐसी सवारी है जिस के ज़रीये सफ़र किया जाये।

मसअला नः9

जिस शख़्स के पास सामाने सफ़र है और न सवारी है और न उन्हें हासिल करने के लिये पैसा है तो उस पर हज वाजिब नहीं है अगर्चे वह कमा कर या किसी और ज़रीये से उन्हें हासिल कर सकता हो।

मसअला नः10

अगर पलटने का इरादा हो तो शर्त है कि उसके पास अपने वतन या फिर किसी दूसरी मंज़िले मक़सूद तक वापस पलट जाने के एख़राजात हों।

मसअला नः11

अगर उस के पास हज के एख़राजात न हों लेकिन उस ने हज के एख़राजात या उनकी तकमील की मेक़दार के बराबर किसी शख़्स से क़र्ज़ वापस लेना हो और उस क़र्ज़ की अदाऐगी का वक़्त आ चुका हो और मक़रूज़ मालदार हो और क़र्ज़ चाहने वाले के लिये क़र्ज़ का मुतालेबा करने में कोई हर्ज भी न हो तो क़र्ज़ का मुतालेबा करना वाजिब है।

मसअला नः12

अगर औरत का महर उस के शौहर के ज़िम्मे हो और वह उस के हज के एख़राजात के लिये काफ़ी हो और अगर शौहर तंगदस्त हो तो यह उस से महर का मुतालेबा नहीं कर सकती और मुसतती भी नहीं होगी लेकिन अगर शौहर मालदार है और महर का मुतालेबा करने में औरत का कोई नुक़साम भी न हो तो उस पर महर का मुतालेबा करना वाजिब है ताकि उस के ज़रीये हज कर सके लेकिन अगर महर का मुतालेबा करने में औरत का कोई नुक़सान हो मसलन, लड़ाई झगड़ा और तलाक़ का सबब हो तो औरत पर मुतालेबा करना वाजिब नहीं है और औरत मुसतती भी नहीं होगी।

मसअला नः13

जिस शख़्स के पास हज के एख़राजात नहीं हैं लेकिन वह क़र्ज़ लेकर आसानी से अदा कर सकता हो तो उस पर वाजिब नहीं कि वह क़र्ज़ लेकर अपने आप को मुसतती बनाये लेकिन अगर क़र्ज़ लेले तो उस पर हज वाजिब हो जायेगा।

मसअला नः14

जो शख़्स मक़रूज़ है और उस के पास हज के एख़राजात से इतना इज़ाफ़ी माल न हो कि जिस से वह अपना क़र्ज़ अदा कर सके तो अगर क़र्ज़ की अदाऐगी का वक़्त मख़सूस हो और उसे इतमेनान है कि वह इस वक्त अपना क़र्ज़ अदा करने पर क़ादिर होगा तो उस पर वाजिब है कि उन्हीं एख़राजात के ज़रीये हज बजालाये। और यही हुक्म है कि क़र्ज़ की अदाऐगी का वक़्त आ चुका हो लेकिन अगर क़र्ज़ लेने वाला बाद में लेने पर राज़ी हो और मक़रूज़ को इतमेनान हो कि जब क़र्ज़ ख़्वाह मुतालेबा करेगा उस वक़्त क़र्ज़ की अदाऐगी पर क़ादिर होगा तो मज़कूरा तो सूरतों के अलावा उस पर हज वाजिब नहीं है।

मसअला नः15

जिस शख़्स को शादी करने की ज़रूरत है इस तरह कि अगर शादी न करे तो उसे मुश्किल न का सामना करना पड़ेगा और उस के लिये शादी करना मुमकिन भी हो तो उस पर हज वाजिब नहीं होगा मगर यह कि उस के पास हज के एख़राजात के अलावा शादी करने का इन्तेज़ाम भी हो।

मसअला नः14

अगर इस्तेताअत वाले साल में उसे हज के सफ़र के लिये सवारी न मिलती हो मगर उस की राएज उजरत से ज़्यादा हो तो अगर यह शख़्स ज़्यादा माल देने पर क़ादिर हो और यह उस के हक़ में ज़्यादती भी न हो तो उस पर ज़ाएद माल का देने वाजिब है ताकि हज बजाला सके सिर्फ़ मेहगाई और किराए का बढ़ जाना इस्तेताअत के लिये मुज़िर नहीं है। लेकिन अगर यह ज़्यादा माल देने पर क़ादिर नहीं है या यह कि यह उस के हक़ में ज़्यादती हो तो वाजिब नहीं है और यह मुसतती भी नहीं होगा और यही हुक्म हज के सफ़र की दूसरी ज़रूरीयात के ख़रीदने या उन को किराए पर लेने का है और यही हुक्म है अगर हज के एख़राजात के लिये कोई चीज़ बेचना चाहता है लेकिन उसे ख़रीदार सिर्फ़ वह मिलता है जो उसे उस की राएज क़ीमत से कम पर ख़रीदता है।

मसअला नः 17

अगर कोई शख़्स यह समझता हो कि अगर वह अपनी मोजूदा माली हेसियत के साथ हज पर जाना चाहे तो वह इस तरह हज के लिये इस्तेताअत नहीं रखता जैसे दूसरे लोग हज बजालाते हैं लेकिन उसे ऐहतेमाल है कि तलाश व जुसतजू करने से उसे ऐसा रास्ता मिल जाऐगा कि यह अपनी मोजूदा माली हैसीयत के साथ ही हज के लिये मुसतती हो जायेगा तो उस पर तलाश व जुसतजू करना वाजिब नहीं है क्यों कि इस्तेताअत का मतलब यह है कि यह हज के लिये उसी तरह इस्तेताअत रखता हो जो दूसरे लोगों के लिये मामूल है। हां ज़ाहिर यह है कि अगर उसे अपने मुसतती होने में शक हो और जानना चाहता हो कि इस्तेताअत है या नहीं तो उस पर वाजिब है कि अपनी माली हैसीयत के बारे में जुसतजू करे।

2- सफ़र की मुद्दत में अपने ऐहलो अयाल के अख़राजातः-

मसअला नः 18

माली इस्तेताअत में यह शर्त है कि हज के वापस आने तक अपने ऐहलो अयाल के एख़राजात रखता हो।

मसअला नः 19

ऐहलो अयाल से मुराद वह लोग हैं कि जिन्हें उरफ़े आम में ऐहलो अयाल शुमार किया जाता है। अगरचे शरअन उस पर उन का ख़रचा वाजिब भी न हो।

3- ज़रूरीयाते ज़िन्दगीः-

मसअला नः 20

शर्त है कि उस के पास ज़रूरीयाते ज़िन्दगी और वह चीज़ें हों कि जिन की उसे उरफ़न अपनी हैसियत के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करने के लिये ज़रूरत है अलबत्ता यह शर्त नहीं है कि बेऐनेही वह चीज़े उस के पास मौजूद हों बल्कि काफ़ी है कि उसके पास रक़म वग़ैरा हो कि जिसे अपनी ज़रूरीयाते ज़िन्दगी में ख़र्च करना मुमकिन हो।

मसअला नः 21

उरफ़े आम में लोगों की हैसियत मुख़तलिफ़ होती है चुनांचे रहने के लिये घर का मालिक होना जो ज़रूरीयाते ज़िन्दगी में से है या यह उर्फ़ में उसकी हैसीयत के मुताबिक़ है या किराय के, या आरिये पर लिये हुऐ या वक़्फ़ किये हुए घर में रहना उस के लिये हर्ज का बाएस हो तो उस के लिये इस्तेताअत के साबित होने के लिये घर का मालिक होना शर्त है।

मसअला नः 22

अगर हज के लिये काफ़ी माल रखता हो लेकिन उसे उसकी ऐसी लाज़मी ज़रूरत है कि जिस में उसे ख़र्च करना चाहता है जैसे घर मोहय्या करना इलाज करना या ज़रूरीयाते ज़िन्दगी को फ़राहम करना तो यह मुसतती नहीं है और उस पर हज वाजिब नहीं है।

मसअला नः 23

यह शर्त नहीं है कि जो हज कर रहा है उसके पास ख़ुद ज़ादे सफ़र और सवारी हो बल्कि काफ़ी है कि उसके पास इतनी रक़म हो कि जिसे ज़ाते सफ़र और सवारी में ख़र्च करना मुमकिन हो।

मसअला नः 24

अगर किसी के पास ज़रूरीयाते ज़िन्दगी घर, घरेलू सामान, सवारी, सनअती औज़ार वग़ैरा जैसी चीज़ें हैं जो क़ीमत के लिहाज़ से उस की हैसीयत से बालातर हैं चुनांचे अगर यह कर सकता हो कि उन्हें बेच कर उन की क़ीमत के कुछ हिस्से से अपनी ज़रूरीयाते ज़िन्दगी ख़रीदले और बाक़ी क़ीमत को हज के लिये ख़र्च करे और उस में उस के लिये हर्ज, कमी, या मुश्किल न भी न हो और क़ीमत का फ़र्क़ हज के एख़राजात पूरा कर सकें और मेक़दार के बराबर हो तो उस पर ऐसा करना वाजिब है और यह मुसतती शुमार होगा।

मसअला नः 25

अगर मुकल्लफ़ अपनी ज़मीन या कोई और चीज़ बेचे ताकि उस की क़ीमत से घर ख़रीदे तो अगर उसे घर के मालिक होने की ज़रूरत हो या यह कि उर्फ़ के लिहाज़ से उसकी हैसीयत के मुताबिक़ हो तो ज़मीन की क़ीमत लेने से मुसतती नहीं होगा अगरचे वह हज के एख़राजात या उन की तकमील की मेक़दार हो।

मसअला नः 26

जिस शख़्स को अपनी मिलकियत में से कुछ चीज़ों की ज़रूरत न रहे मसलन उसे अपनी किताबों की ज़रूरत न रहे और उन की क़ीमत से माली इस्तेताअत मुकम्मल होती हो या यह माली इस्तेताअत के लिये काफ़ी हो तो दीगर शर्तें मौजूद होती की सूरत में उस पर हज वाजिब है।

4- किफ़ाया की तरफ़ रुजू करनाः

मसअला नः 27

माली इस्तेताअत में किफ़ायत की तरफ़ रुजू करना शर्त है इस बात का ज़िक्र ज़रूरी है कि यह शर्त हज्जे बदल में ज़रूरी नहीं है जैसा कि इस की तफ़सील जलदी ही आयेगी (इस से मुराद यह है कि हज से वापसी के बाद उसके पास ऐसी तिजारत, ज़राअत, सनअत, मुलाज़ेमत, बाग़, या दुकान वग़ैरा जैसे आमदनी के ज़रीये हों कि जिन की आमदनी उर्फ़ में उस की हैसीयत के मुताबिक़ उसके और उसके ऐहलो अयाल के एख़राजात के लिये काफ़ी हो और इस सिलसिले में दीनी उलूम के तुल्लाब (ख़ुदा वन्दे आलम उन का हामी हो) केलिये काफ़ी है कि वापसी के बाद उन्हें वह वज़ीफ़ा दिया जाऐ जो होज़ा-ए-इलमिया में उन के दरमियान तक़सीम किया जाता है।

मसअला नः 28

औरत के लिये भी किफ़ाया की तरफ़ रुजू करना शर्त है इस बिना पर अगर उसका शौहर हो और यह उसकी ज़िन्दगी में हज की इस्तेताअत रखती हो तो उसके लिये किफ़ाया की तरफ़ रुजू करना वह नक़शा है जिसकी वह अपने शौहर के ज़िम्मे में मालिक है लेकिन अगर उसका शौहर नहीं है तो हज के लिये उसक मुसतती होने के लिये हज के एख़राजात के साथ शर्त है कि उसके पास ऐसा कोई आमदनी का ज़रीया हो जो उसकी हैसीयत के मुताबिक़ उसकी ज़िन्दगी के लिये काफ़ी हो वरना यह हज के लिये मुसतती नहीं होगी।

मसअला नः 29

जिस शख़्स के पास सामाने सफ़र और सवारी न हो लेकिन कोई और शख़्स उसे दे और उसे यूं कहे ति तू हज बजाला और तेरा और तेरे ऐहलो अयाल के एख़राजात मेरे ज़िम्मे है तो उस पर वाजिब है और उसे क़बूल करना भी वाजिब है और इस हज को हज्जे बदली कहा जायेगा और इस में किफ़ायत की तरफ़ रुजू करना शर्त नहीं है और ख़ुद सामाने सफ़र और सवारी का देने भी ज़रूरी नहीं है बल्कि क़ीमत का देना भी काफ़ी है।

लेकिन अगर उसे हज के लिये माल न दे बल्कि सिर्फ़ उसे माल हिबा (हदीया) करे तो अगर वह हिबा को क़बूल कर ले तो उस पर हज वाजिब है लेकिन उस पर उस माल को क़बूल करना वाजिब नहीं है पस इस लिये जाएज़ है कि उसे क़बूल न करे और अपने आप को मुसतती न बनाये।

मसअला नः 30

हज्जे बदली, हज्जुल इस्लाम से काफ़ी है और अगर उस के बाद मुसतती हो जाये तो दोबारह हज वाजिब नहीं है।

मसअला नः 31

जिस शख़्स को किसी इदारे या किसी शख़्स की तरफ़ से हज पर जाने की दावत दी जाती है अगर उस दावत के मुक़ाबले में उस पर किसी काम को अंजाम देने की शर्त लगाई जाये तो उस हज पर हज्जे बदली का उनवान सिद्क़ नहीं आता।

माली इस्तेताअत के उमूमी मसाइलः-

मसअला नः 32

जिस वक़्त हज पर जाने के लिये माल ख़र्च करना वाजिब होता है उसके आने के बाद मुसतती के लिये अपने आप को इस्तेताअत से ख़ारिज करना जाएज़ नहीं है बल्कि बहतर यह है कि उस वक़्त से पहले भी अपने आप को इस्तेताअत से ख़ारिज न करे।

मसअला नः 33

माली इस्तेताअत में शर्त नहीं है कि वह मुकल्लफ़ के शहर में हासिल हो बल्कि उसका मीक़ात में हासिल हो जाना काफ़ी है पस जो शख़्स मीक़ात तक पहुंच कर मुसतती हो जाये उस पर हज वाजिब है और यह हज्जुल इस्लाम से काफ़ी है।

मसअला नः 34

माली इस्तेताअत उस शख़्स के लिये भी शर्त है जो मीक़ात तक पहुंच कर हज पर क़ादिर हो जाये पस जो शख़्स मीक़ात तक पहुंच कर हज पर क़ादिर हो जाये जैसे क़ाफ़लों में काम करने वाले लोग अगर उन में इस्तेताअत की दीगर शर्तें भी हों जैसे ऐहलो अयाल का नफ़्क़ा, ज़रूरीयाते ज़िन्दगी और उस की हैसीयत के मुताबिक़ जिन चीज़ों की उसे अपनी ज़िन्दगी में ज़रूरत होती है और किफ़ाया की तरफ़ रुजू तो उस पर हज वाजिब है और यह हज्जुल इस्लाम से काफ़ी है। वरना उस का हज मुसतहब्बी होगा और अगर बाद में इस्तेताअत हासिल हो जाये तो उस पर हज्जुल इस्लाम वाजिब होगा।

मसअला नः 35

अगर किसी शख़्स को हज के रास्ते में ख़िदमत के लिये इतनी उजरत के साथ अजीर बनाया जाये कि जिस से वह मुसतती हो जाये तो इजारे को क़बूल करने के बाद उस पर हज वाजिब है अलबत्ता यह उस सूरत में है जब आमाले हज को बजा लाना इस ख़िदमत के साथ न हो जो उसकी डय्वटी है वरना यह उसके साथ मुसतती नहीं होगा जैसा कि अदमे ठहराओ और वुक़ू की सूरत में उस पर इजारे को क़बूल करना वाजिब नहीं है।

मसअला नः 36

जो शख़्स माली इस्तेताअत न रखता हो और नियाबती हज के लिये अजीर बने फिर इजारे के बाद माले इजारा के अलावा किसी और माल के साथ मुसतती हो जाऐ तो उस पर वाजिब है कि उस साल अपने लिये हज्जुल इस्लाम बजालाये और अगर इजारा इसी साल के लिये हो तो बातिल है वरना इजारे वाला हज अगले साल बजालाये।

मसअला नः 37

अगर मुसतती शख़्स ग़फ़लत की वजह से या जान बूझ कर मुसतहब हज की नियत कर ले अगरचे आमाले हज की आज़माइश की वजह से ताकि अगले साल उसे बहतर तरीक़े से अंजाम दे सके या इस लिये कि वह अपने आप को मुसतती नहीं समझता फिर उसके लिये ज़ाहिर हो जाये कि वह मुसतती था तो उसे उस हज के हज्जुल इस्लाम से काफ़ी होने में इशकाल है पस एहतियात की बिना पर उस पर अगले साल हज को बजा लाना वाजिब है। मगर यह कि उसने शारे मुक़द्दस के इस हुक्म की इताअत का फ़ैसला किया हो जो उस वक़्त है इस वहम के साथ कि वो हुक्म, हुक्मे इस्तेहबाबी है तो फिर उसका हज, हज्जुल इस्लाम से काफ़ी है।

जिसमानी इस्तेताअतः-

जिसमानी इस्तेताअत से यह मुराद है कि जिसमानी लिहाज़ से हज को अंजाम देने की ताक़त रखता हो पस उस मरीज़ और बूढ़े पर हज वाजिब नहीं है जो हज पर जा नहीं सकते या जिन के लिये जाने में कोई मुश्किल न हो।

मसअला नः 38

जिसमानी इस्तेताअत का बाक़ी रहना शर्त है पस अगर रास्ते के दरमियान ऐहराम से पहले कोई बीमार हो जाये तो अगर उसका हज पर जाना इस्तेताअत वाले साल में हो और बीमारी उस से सफ़र को जारी रखने की सलाहियत को सल्ब करले तो उस से ज़ाहिर होगा कि उसमें जिसमानी इस्तेताअत नहीं थी और ऐसे शख़्स पर हज के लिये किसी को नाएब बनाना वाजिब नहीं है लेकिन अगर हज उस पर लाज़िम होने के बाद हज पर जा रहा हो और बीमारी की वजह से सफ़र को जारी रखने से आजिज़ हो जाये और आने वाले सालों में भी बग़ैर मुशक़्क़त के हज पर क़ादिर होने की उम्मीद न हो तो उस पर वाजिब है कि किसी और को नाएब बनाये और अगर उसे उम्मीद हो तो उस पर हज बजालाने का वुजूब साक़ित नहीं होगा। और अगर ऐहराम के बाद बीमार हो तो उसके अपने ख़ास ऐहकाम है।

सरबी इस्तेताअतः-

इस से मुराद यह है कि हज पर जाने का रास्ता खुला और पुर अमन हो पस उस शख़्स पर हज वाजिब नहीं है कि जिस के लिये रास्ता बन्द हो उस के लिये मीक़ात या आमाले हज की तकमील तक पहुंचना मुमकिन न हो इसी तरह उस शख़्स पर भी हज वाजिब नहीं है कि जिस के लिये रास्ता खुला हो लेकिन अमन न हो चुनांचे उस रास्ते में उसे अपनी जान, बदन, इज़्ज़त या माल का ख़तरा हो।

मसअला नः 39

जिस शख़्स के पास हज के एख़राजात हों और वह हज पर जाने के लिये तैयार हो जाये जैसा कि हज के लिये अपना नाम लिखवादे लेकिन चूंके उसके नाम क़ुरा नहीं निकला इस लिये उस साल वह हज पर न जा सका तो यह शख़्स मुसतती नहीं है और उस पर हज वाजिब नहीं है लेकिन अगर आने वाले सालों में हज करना उस साल अपना नाम लिख़वाने और माल देने पर मोक़ूफ़ हो तो एहतियात की बिना पर उस काम को अंजाम दे।

ज़मानी इस्तेताअतः-

इस से मुराद यह है कि ऐसे वक़्त में इस्तेताअत हासिल हो जिस में हज बजा लाना मुमकिन हे पस उस शख़्स पर हज वाजिब नहीं है जिस पर इस तरह वक़्त तंग हो जाये कि वह हज बजाना ला सकता हो या सख़्त मुश्किल न और सख़्त हर्ज के साथ बजालाये।

नियाबती हजः-

नाएब और मनूब अनहो की शर्तों को बयान करने के से पहले हज की वसीयत और उस के लिये नाएब बनाने के कुछ मवारिद और उन के ऐहकाम का ज़िक्र करते हैं।

मसअला नः 40

जिस पर हज वाजिब हो जाये फिर वह बुढ़ापे या बीमारी की वजह से हज पर जाने से आजिज़ हो या उसके लिये हज पर जाने में कोई हर्ज हो और बग़ैर हज के क़ादिर होने से मायूस हो यहां तक कि आने वाले सालों में भी तो उस पर नाएब बनाना वाजिब है लेकिन जिस पर हज लाज़िम हो तो उस पर नाएब बनाना वाजिब नहीं है।

मसअला नः 41

नाएब हज को अंजाम देदे तो मनूब अनहो जो हज को अंजाम देने से माज़ूर था उस से हज का वुजूब साक़ित हो जायेगा और उस पर दोबारह हज बजा लाना वाजिब नहीं है अगरचे नाएब के अंजाम देने के बाद उस का उज़्र ख़त्म भी हो जाये। हां अगर नाएब के अमल के दौरान उसका उज़्र ख़त्म हो जाये तो फिर मनूब अनहो पर हज को अदा करना वाजिब है और ऐसी हालत में उस के लिये नाएब का हज काफ़ी नहीं है।

मसअला नः 42

जिस शख़्स पर हज लाज़िम है अगर वह रास्ते में मर जाये तो अगर वह ऐहराम और हरम में दाख़िल होने के बाद मरे तो यह हज्जुल इस्लाम के लिये काफ़ी है और अगर ऐहराम से पहले मर जाये तो उसके लिये यह काफ़ी नहीं है और अगर ऐहराम के बाद लेकिन हरम में दाख़िल होने से पहले मरे तो ऐहतीयाते वाजिब की बिना पर यह काफ़ी नहीं है।

मसअला नः 43

जो शख़्स मर जाये और उसके ज़िम्मे हज लाज़िम हो चुका हो तो अगर उसका इतना तरका हो जो हज के लिये काफ़ी हो अगरचे मीक़ात से, तो उस की तरफ़ से अस्ल तरके से हज के लिये नाएब बनाना वाजिब है मगर यह कि उसने तरके के तीसरे हिस्से से हज के एख़राजात निकालने की वसीयत की हो तो यह उसी तीसरे हिस्से से निकाले जायेंगे और यह मुसतहब वसीयत पर मुक़द्दम होंगे और अगर यह तीसरा हिस्सा काफ़ी न हो तो बाक़ी को अस्ल तरके से लिया जायेगा।

मसअला नः 44

जिन हालात में नाएब बनाना जाएज़ है उन में यह काम फ़ौरन वाजिब है चाहे यह नियाबत ज़िन्दा की तरफ़ से हो या मुर्दे की तरफ़ से।

मसअला नः 45

ज़िन्दा शख़्स पर शहर से नाएब बनाना वाजिब नहीं है बल्कि मीक़ात से नाएब बना देना काफ़ी है अगर मीक़ात से नाएब बनाना मुमकिन हो वरना अपने वतन या किसी दूसरे शहर से अपने हज के लिये नाएब बनाये इसी तरह वह मय्यत कि जिस के ज़िम्मे हज लाज़िम हो चुका है उसकी तरफ़ से मीक़ात से हज काफ़ी है और अगर नाएब बनाना मुमकिन न हो मगर मय्यत के वतन से या किसी दूसरे शहर से तो यह वाजिब है और हज के एख़राजात अस्ल तरके से निकाले जायेंगे हां अगर उस ने अपने शहर से हज कराने की वसीयत की हो तो वसीयत पर अमल करना वाजिब है और मीक़ात की उजरत से ज़ाएद को तरके के तीसरे हिस्से से निकाले जायेंगे।

मसअला नः 46

अगर वसीयत करे कि उसकी तरफ़ से हज के मुसतहब्बात अदा किये जायें तो उस के एख़राजात तरके के तीसरे हिस्से से निकाले जायेंगे।

मसअला नः 47

जब वसी को मय्यत पर हज के वाजिब होने का इल्म हो जाये और उसके अदा करने में शक हो तो मय्यत की तरफ़ से नाएब बनाना वाजिब है लेकिन अगर इसतक़रार का इल्म न हो और उसने उसकी वसीयत भी न की हो तो उन पर कोई चीज़ वाजिब नहीं है।

नाएब की शर्तेः-

1- बुलूग़, एहतियात की बिना पर, पस नाबालिग़ का हज अपने ग़ैर की तरफ़ से हज्जुल इस्लाम के तौर पर काफ़ी नहीं है बल्कि किसी भी वाजिब हज के तौर पर।

2- अक़्ल, पस मजनू का हज काफ़ी नहीं है, चाहे वह दायमी हो या उसे जुनून के दौरे पड़ते हों अलबत्ता अगर जुनून के जौरे की हालत में हज अंजाम दे।

3- ईमान, एहतियात की बिना पर, पस मोमिन की तरफ़ से ग़ैर मोमिन का हज काफ़ी नहीं है।

4- उसका हज के आमाल और ऐहकाम से इस तरह वाक़िफ़ होना कि आमाले हज को सहीह तौर पर अंजाम देने पर क़ादिर हो अगरचे इस तरह कि हर अमल के वक़्त मोअल्लिम की राहनुमाई के साथ उसे अंजाम दे।

5- उसी साल में ख़ुद उसके ज़िम्मे वाजिब हज के साथ मशग़ूल न हो हां अगर उसे अपने ऊपर हज के वुजूब का इल्म न हो तो उसे नियाबती हज के सहीह होने का क़ाएल होना बईद नहीं है।

6- हज के बाज़ आमाल तर्क करने में माज़ूर न हो, इस शर्त को और इसके ऐहकाम की वज़ाहत आमाले हज में पेश की जायेगी।

मसअला नः 48

नाएब बनाने के काफ़ी होने में शर्त है कि नाएब मनूब अनहो की तरफ़ से हज के बजालाने का वुसूक़ हो लेकिन यह जान लेने के बाद कि उस ने हज अंजाम देदिया है इस बात का वुसूक़ शर्त नहीं है कि उस ने हज को सहीह तौर पर अंजान दिया है।

मनूब अनहो की शर्तेः-

1- इस्लाम, पस काफिर की तरफ़ से हज काफ़ी नहीं है।

2- मनूब अनहो मर चुका हो या बीमारी या बुढ़ापे की वजह से ख़ुद हज बजालाने पर क़ादिर न हो या ख़ुद हज बजालाने में उसके लिये हर्ज हो और आने वाले सालों में भी बग़ैर हर्ज के हज पर क़ादिर होने की उम्मीद न रखता हो अलबत्ता अगर नियाबत वाजिब हज में हो, लेकिन मुसतहब हज में ग़ैर की तरफ़ सेनाएब बन्ना बिलकुल सहीह है।

कुछ मसअलेः-

मसअला नः 49

नाएब और मनूब अनहो के दरमियान हम जिन्स होना शर्त नहीं है पस औरत मर्द की तरफ़ से और मर्द औरत की तरफ़ से नाएब बन सकते हैं।

मसअला नः 50

(सरूरा) जिस ने हज न किया हो (सरूरा और ग़ैर सरूरा की तरफ़ से नाएब बन सकता है चाहे नाएब या मनूब अनहो मर्द हो या औरत)

मसअला नः 51

मनूब अनहो में न बुलूग़ शर्त है और न अक़्ल।

मसअला नः 52

नियाबती हज के सहीह होने में नियाबत का क़स्द और मनूब अनहो को मोअय्यन करना शर्त है अगरचे इजमाली तौर पर लेकिन नाम का ज़िक्र करना शर्त नहीं है।

मसअला नः 53

उस बन्दे को अजीर बनाना सहीह नहीं है कि जिस के पास, हज्जे तमत्तो के आमाल को मुकम्मल करने का वक़्त न हो और उस वजह से उसके हज का फ़रीज़ा अफ़राद की तरफ़ उदूल करना हो हां अगर अजीर बनाये और इत्तेफ़ाक़ से वक़्त तंग हो जाये तो उस पर उदूल करना वाजिब है और यह हज्जे तमत्तो के लिये काफ़ी है और उजरत का भी हक़दार होगा।

मसअला नः 54

अगर अजीर ऐहराम और हरम में दाख़िल होने के बाद मर जाये तो पूरी उजरत का हक़दार होगा अलबत्ता अगर इजारा मनूब अनहो के ज़िम्मे को बरी करने के लिये हो जैसा कि अगर अजारा मुतलक़ हो और आमाल को अंजाम देने के साथ मुफ़ीद न हो तो ज़ाहिर हाल यही होता है।

मसअला नः 55

अगर मोअय्यन उजरत के साथ हज के लिये अजीर बनाया जाये और वह उजरत हज के एख़राजात से कम पड़ जाये तो अजीर पर हज के आमाल को मुकम्मल करना वाजिब नहीं है जैसे कि वह हज के एख़राजात से ज़्यादा हो तो उसका वापस लेना जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 56

नाएब पर वाजिब है कि जिन मवारिद में उसके हज के मनूब अनहो से काफ़ी न होने का हुक्म लगाया जाये, नाएब बनाने वाले को उजरत वापस कर दे अलबत्ता अगर इजारा उसी साल के साथ मशरूत हो वरना उस पर वाजिब है कि बाद में मनूब अनहो की तरफ़ से हज बजालाये।

मसअला नः 57

जो शख़्स हज के कुछ आमाल अंजाम देने से माज़ूर है उसे नाएब बनाना जाएज़ नहीं है और माज़ूर वह शख़्स है जो मुख़तार फ़रीज़े को अंदाम न दे सकता हो मसलन लतबिया या नमाज़े तवाफ़ को सहीह तौर पर अंजान न दे सकता हो या तवाफ़ और सअई में ख़ुद चलने की ताक़त न रखता हो या रमी-ए-जमरात पर क़ादिर न हो, इस तरह कि उस से हज के बाज़ माल में नुक़्स पैदा होता हो, पस अगर उज़्र उस नुक़्स तक न पहुंचाये जैसे बाज़ तुरूके ऐहराम के इरतेकाब में माज़ूर हो तो उस की नियाबत सहीह है।

मसअला नः 58

अगर नियाबती हज के दौरान उज़्र का तारी होना नाएब के आमाल में नुक़्स का सबब बने तो इजारे का बातिल हो जाना बईद नहीं है और इस सूरत में ऐहतीयाते वाजिब यह है कि उज्र और मनूब अनहो की तरफ़ से दोबारह हज बजालाने पर मुसालेहत करें।

मसअला नः 59

जो लोग मशअरुल हराम में इख़्तियारी वुक़ूफ़ से माज़ूर हैं उन्हें नाएब बनाना सहीह नहीं है लिहाज़ा अगर उन्हें इस तरह नाएब बनाया जाये तो वह इस पर उजरत के मुसतहक़ नहीं होंगे जैसे क़ाफ़िलों के ख़ादिम जो कमज़ोर लोगों के साथ रहने और क़ाफ़ले के कुछ काम अंजाम देने पर मजबूर होते हैं लिहाज़ा तुलू-ए-फ़ज्र से पहले ही मशअर से मेना की तरफ़ निकल जाते हैं पस अगर ऐसे लोगों को नियाबती हज के लिये अजीर बनाया जाये तो उन पर इख़्तियारी वुक़ूफ़ और हज को बजा लाना वाजिब है।

मसअला नः 60

माज़ूर नाएब के हज के काफ़ी न होने में कोई फ़र्क़ नहीं है कि वह अजीर हो या मुफ़्त में हज को अंजाम दे रहा हो और काफ़ी न होने में कोई फ़र्क़ नहीं है कि ख़ुद नाएब अपने माज़ूर होने से जाहिल हो या मनूब अनहो से जाहिल हो और इसी तरह है अगर उन में से कोई एक इस बात से लाइल्म हो कि यह ऐसा उज़्र है कि जिस के साथ नाएब बनाना जाएज़ नहीं होता जैसा कि इस बात से अंजान हो कि मशअरुल हराम में वुक़ूफ़े इज़तेरारी पर इक्तेफ़ा करना सहीह नहीं है।

मसअला नः 61

नाएब पर वाजिब है कि वह तक़लीद या इजतेहाद के लिहाज़ से अपने फ़रीज़े पर अमल करे।

मसअला नः 62

अगर नाएब ऐहारम और हरम में दाख़िल होने के बाद मर जाये जो तो यह मनूब अनहो से काफ़ी है और अगर ऐहारम के बाद और हरम में दाख़िल होने से पहले मरे तो ऐहतीयाते वाजिब की बिना पर काफ़ी नहीं है और इस हुक्म के लिहाज़ से कोई फ़र्क़ नहीं है कि नाएब मुफ़्त में काम अंजाम दे या अजीर हो या उस की नियाबत हज्जुल इस्लाम में हो या किसी और हज में।

मसअला नः 63

जिस शख़्स ने अपनी तरफ़ से हज्जुल इस्लाम अंजाम नहीं दिया उस के लिये ऐहतीयाते मुसतहब यह है कि नियाबती हज के आमाल मुकम्मल करने के बाद जब तक मक्के में है अपने लिये उमरा-ए-मुफ़रेदा बजालाये अगर यह कर सकता हो।

मसअला नः 64

नियाबती हज के आमाल से फ़ारिग़ होने के बाद नाएब के लिये अपनी तरफ़ से और ग़ैर की तरफ़ से तवाफ़ करना जाएज़ है इसी तरह उस के लिये उमरा-ए-मुफ़रेदा बजा लाना भी जाएज़ है।

मसअला नः 65

जैसा कि हज के लिये नाएब में एहतियात की बिना ईमान शर्त है इसी तरह आमाले हज में से हर उस काम में भी शर्त है कि जिस में नियाबत सहीह है जैसे तवाफ़, रमी, क़ुर्बानी।

मसअला नः 66

नाएब पर वाजिब है कि वह आमाले हज में मनूब अनहो की तरफ़ से नियाबत का क़स्द करे और उस पर वाजिब है कि मनूब अनहो की तरफ़ से तवाफ़े निसा अंजाम दे।

हज और उमरे के अक़सामः-

बयान हो चुका है कि हज की तीन क़िसमें हैं हज्जे तमत्तो, यह उन लोगों का फ़रीज़ा है जिसके अहल, मक्के से सोलाह फ़रसख़, अड़तालीस मील तक़रीबन नव्वे किलो मीटर दूर हों और हज्जे क़ेरान व हज्जे एफ़राद, यह दोनों उन का फ़रीज़ा हैं जिन के अहल मक्के में हों या मज़कूरा मसाफ़त से कम फ़ासले पर हों। हज्जे तमत्तो, क़ेरान और एफ़राद से इस लिये अलग हैं कि यह एक इबादत है जो उमरे और हज से मुरक्कब है और इस में उमरा हज से पहले होता है और उमरा और हज के दरमियान कुछ मुद्दत का फ़ासला होता है कि जिन में इंसान उमरे के ऐहकाम से बाहर आ जाता है और जो कुछ मोहरिम के लिये हराम होता है हज का ऐहराम बांधने से पहले उस के लिये हलाल हो जाता है इस लिये उसे हज्जे तमत्तो का नाम देने मुनासिब है पस उमरा हज्जे तमत्तो का एक हिस्सा है और उसका नाम उमरा-ए-तमत्तो है और हज दूसरा हिस्सा है और इन दोनों को एक साल में अंजान देना ज़रूरी होता है। जबकि हज्जे क़ेरान और हज्जे एफ़राद में से हर एक इबादत है जो सिर्फ़ हज से इबारत है और उमरा इन दोनों से एक दूसरी मुसतक़िल इबादत है कि जिसे उमरा-ए-मुफ़रेदा कहा जाता है इसी लिये बाज़ औक़ात उमरा-ए-मुफ़रेदा एक साल में अंजाम पाता है और हज्जे एफ़राद व क़ेरान, दूसरे साल में, और उमरा-ए-मुफ़रेदा हो या तमत्तो, इस के मुशतर्का ऐहकाम हैं कि जिन्हें हम हज और उमरा-ए-तमत्तो और हज्जे क़ेरान व एफ़राद, इनके उमरे और इन के दरमियान फ़र्क़ को बयान करने से पहले ज़िक्र करते हैं।

कुछ मसअलेः-

मसअला नः 67

उमरा, हज की तरह कभी वाजिब होता है और कभी मुसतहब।

मसअला नः 68

उमरा भी हज की तरह अस्ल शरीअत में और उम्र भर में एक मरतबा वाजिब होता है कि जिस में हज वाली इस्तेताअत हो और यह भी हज की तरह फ़ौरन वाजिब होता है। और इस के वाजिब होने में हज की इस्तेताअत शर्त नहीं है बल्कि सिर्फ़ उमरे की इस्तेताअत काफ़ी है अगरचे हज के लिये इस्तेताअत न भी हो जैसा कि उस के बरख़िलाफ़ भी इसी तरह है पस जो शख़्स सिर्फ़ हज के लिये इस्तेताअत रखता हो उस पर हज वाजिब है न उमरा, यह उस शख़्स के लिये है कि जिस के अहल मक्के में हों या मक्के से अड़तालीस मील से कम फ़ासले पर हों और रहे वह लोग जो मक्के से दूर हैं कि जिन का फ़रीज़ा हज्जे तमत्तो है तो उन में हज की इस्तेताअत से हट कर सिर्फ़ उमरे की इस्तेताअत नहीं है और इसी तरह इस के बरअक्स क्योंकि हज्जे तमत्तो इन दोनों से मुरक्कब है और इन दोनों का एक ही साल में अंजाम पाना ज़रूरी है।

मसअला नः 69

मुकल्लफ़ के लिये मक्के में बग़ैर ऐहराम के दाख़िल होना जाएज़ नहीं है पस जो शख़्स हज के महीने के अलावा दाख़िल होना चाहे उस पर उमरा-ए-मुफ़रेदा का ऐहराम बांधना वाजिब है और इस हुक्म से दो चीज़ें अलग हैं। उमरों

(अ) जिसका काम ऐसा हो कि जिस की वजह से उसका मक्के में आना जाना ज़्यादा है।

(ब) जो शख़्स हज्जे तमत्तो या उमरा-ए-मुफ़रेदा के आमाल कामिल करने के बाद मक्के से ख़ारिज हो जाये तो उसके लिये पहले वाले उमरे के आमाल बजालाने से एक महीने तक बग़ैर ऐहराम के मक्के में दोबारह दाख़िल होना जाएज़ है।

मसअला नः 70

हज की तरह उमरे को भी मुक़र्रर करना मुसतहब है और दो उमरों के दरमियान कोई मोअय्यन फ़ासला करना शर्त नहीं है अगरचे एहतियात यह है कि अगर अपने लिये दो उमरे बजालाये तो उन के दरमियान एक माह का फ़ासला करे और अगर दो शख़्सों की तरफ़ से हों या एक अपनी तरफ़ से और दूसरा किसी और की तरफ़ से हो तो मज़कूरा फ़ासला मोतबर नहीं है इस बिना पर अगर दूसरा उमरा नियाबत के साथ हो तो नाएब के लिये उस पर उजरत लेना जाएज़ है और यह मनूब अनहो के वाजिब उमरा-ए-मुफ़रेदा से काफ़ी है अगर उस पर वाजिब हो।

हज्जे तमत्तो और उमरा-ए-तमत्तो की सूरतः-

हज्जे तमत्तो दो कामों से मुरक्कब है एक उमरा, और यह हज से पहले होता है और दूसरा हज, और हर एक के मख़सूस आमाल हैं।

उमरा-ए-तमत्तो के आमाल नीचे दिये गये हैः-

1- किसी मीक़ात से ऐहराम बांधना।

2- तवाफ़े काबा।

3- नमाज़े तवाफ़।

4- सफ़ा और मरवा के दरमियान सअई।

5- तक़सीर।

हज्जे तमत्तो के आमाल नीचे दिये गये हैः-

1- मक्के से ऐहराम बांधना।

2- नवीं ज़िलहिज्जा के ज़ोहर से ग़ुरूब तक अरफ़ात में वुक़ूफ़ करना।

3- दस ज़िलहिज्जा की रात सूरज के तुलू होने तक मशअरुल हराम में वुक़ूफ़ करना।

4- ईद वाले दिन दस ज़िलहिज्जा को जुम्रा-ए-उक़बा को कंकरीयां मारना।

5- क़ुर्बानी।

6- हल्क़ या तक़सीर।

7- ग्यारहवीं की रात मेना में गुज़ारना।

8- ग्यारहवीं के दिन तीनों जमरात को कंकरीयां मारना।

9- बारह ज़िलहिज्जा की रात मेना में रहना।

10-बारहवीं के दिन तीनों जमरात को कंकरीयां मारना।

11-तवाफ़े हज।

12-नमाज़े तवाफ़।

13-सअई।

14-तवाफ़े निसा।

15-नमाज़े तवाफ़।

हज्जे एफ़राद और उमरा-ए-मुफ़रेदाः-

कैफ़ियत के लिहाज़ से हज्जे एफ़राद, हज्जे तमत्तो से मुख़तलिफ़ नहीं है मगर यह कि क़ुर्बानी, हज्जे तमत्तो में वाजिब है और हज्जे एफ़राद में मुसतहब। उमरा-ए-मुफ़रेदा में उमरा-ए-तमत्तो की तरह है लेकिन कुछ उमूर में, कि जिन्हें हम नीचे दिये गये मसअलों में बयान कर रहे हैं।

मसअला नः 71

उमरा-ए-तमत्तो में तक़सीर भी ज़रूरी है जब कि उमरा-ए-मुफ़रेदा में तक़सीर और हल्क़ के दरमियान इख़्तियार है अलबत्ता यह मर्दों के लिये है, लेकिन औरतों के लिये हर सूरत में तक़सीर ही ज़रूरी है।

मसअला नः 72

उमरा-ए-तमत्तो में तवाफ़े निसा और उस की नमाज़ वाजिब नहीं है, अगरचे एहतियात यह है कि तवाफ़े निसा और उसकी नमाज़ को रिजा की नियत से अंजाम दे लेकिन यह दोनों उमरा-ए-मुफ़रेदा में वाजिब हैं।

मसअला नः 73

उमरा-ए-तमत्तो सिर्फ़ हज के महीने में हो सकता है और वह शव्वाल, ज़िक़ाद और ज़िलहिज हैं जबकि उमरा-ए-मुफ़रेदा तमाम महीनों में हो सकता है।

मसअला नः 74

उमरा-ए-तमत्तो में ज़रूरी है कि ऐहराम उन मोक़ों में से एक से बांधा जाये कि जिन का ज़िक्र आने वाला है। लेकिन उमरा-ए-मुफ़रेदा का मीक़ात अदनल हिल है इस लिये जो मक्के के अन्दर है अगरचे उसके लिये उन मोक़ों में से एक से ऐहराम बांधना भी जाएज़ है लेकिन जो शख़्स मक्के से बाहर है और उमरा-ए-मुफ़रेदा बजा लाना चाहता है वह उन्हीं एक मवाक़ियत में ऐहराम बांधेगा।

हज्जे क़ेरानः-

शक्ल के लिहाज़ से हज्जे क़ेरान हज्जे एफ़राद की तरह है मगर हज्जे क़ेराम में वाजिब है कि ऐहराम के वक़्त क़ुर्बानी, अपने साथ रखे पस इस लिये उस पर अपनी क़ुर्बानी को ज़िब्ह करना वाजिब है, जैसा कि हज्जे क़ेरान में ऐहराम तलबिया के साथ भी हो जाता है और अशआर या तक़लीद के साथ भी, जबकि हज्जे एफ़राद में ऐहराम सिर्फ़ तलबिया के साथ हो सकता है।

हज्जे तमत्तो के उमूमी ऐहकामः-

हज्जे तमत्तो में कुछ चीज़ें शर्त हैः-

1- नियत, और वह यह कि उमरे के ऐहराम के शुरु से ही हज्जे तमत्तो का क़स्द करे वरना सहीह नहीं है।

2- हज और उमरा दोनों हज के महीने में हों।

3- हज और उमरा दोनों एक साल में हों।

4- हज और उमरा दोनों को एक शख़्स और एक शख़्स की तरफ़ से अंजाम दिया जाये लिहाज़ा एक एक मय्यत की तरफ़ से हज्जे तमत्तो के लिये लोगों को अजीर बनाया जाये एक को हज के लिये और दूसरे को उमरे के लिये तो यह मय्यत के लिये काफ़ी नहीं है।

मसअला नः 75

जिस शख़्स का फ़रीज़ा हज्जे तमत्तो है उसके लिये इख़्तियारी सूरत में एफ़राद या क़ेरान की तरफ़ रुजू करना जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 76

जिस शख़्स का फ़रीज़ा हज्जे तमत्तो है और उसे इल्म है कि वक़्त इतना तंग है कि उमरे को मुकम्मल कर के हज बजाला सकता है उमरे में दाख़िल होने से पहले यह इल्म रखता हो या उस के बाद उसे उसका इल्म हो तो उस पर वाजिब है कि हज्जे तमत्तो से हज्जे एफ़राद की तरफ़ रुजू करे और आमाले हज को मुकम्मल करने के बाद उमरा-ए-मुफ़रेदा बजालाये।

मसअला नः 77

जो औरत हज्जे तमत्तो बजा लाना चाहती है अगर मीक़ात में ऐहराम बांधते वक़्त हैज़ की हालत में हो तो अगर यह एहतेमाल हो कि वह ऐसे वक़्त में पाक हो जायेगी कि जिस में ग़ुस्ल, तवाफ़, नमाज़े तवाफ़, सअई और तक़सीर फिर हज के लिये ऐहराम और अरफ़े वाले दिन ज़वाल तक आमाल बजालाने की वुसअत मौजूद हो तो उमरा-ए-तमत्तो का ऐहराम बांधे पस अगर ऐसे वक़्त में पाक हो जाये जो उमरे को मुकम्मल करने और हज बजालाने की वुसअत रखता हो तो ठीक है वरना अपने उमरे को हज्जे एफ़राद की तरफ़ पलटादे और उस के बाद उमरा-ए-मुफ़रेदा बजालाये और यही हज्जे तमत्तो के लिये काफ़ी है या यह कि मेना से पलटने तक नमाज़ और नमाज़े तवाफ़ बजानालाये और सअई और तक़सीर बजालाये और इस के ज़रीये उमरे के ऐहकाम से ख़ारिज हो जाये फिर हज्जे तमत्तो का ऐहराम बांध कर अरफ़े और मशअरुल हराम के फ़राइज़ अंजाम दे और मेना के आमाल से फ़ारिग़ होने के बाद आमाले हज मुकम्मल करने के लिये मक्का आये और तवाफ़े उमरा और उस की नमाज़ की क़ज़ा करे तवाफ़े हज, उस की नमाज़ और सअई अंजाम देने से पहले या उसके बाद और यह हज्जे तमत्तो के लिये काफ़ी है और उस पर और कोई चीज़ वाजिब नहीं है।

पहली फ़स्ल

मवाक़ियतः-

यह वह मक़ामात हैं कि जिन्हें ऐहराम के लिये मोअय्यन किया गया है जो नीचे दिये गये हैं।

पहलाः- मस्जिदे शजरा, यह मदीने के क़रीब ज़ुल हलीफ़ा के इलाक़े में वाक़े है और यह ऐहले मदीना और उन लोगों का मीक़ात है जो मदीने के रास्ते हज करना चाहते हैं।

मसअला नः 78

ऐहराम को मस्जिदे शजरा से जोहफ़ा तक मोअख़्ख़र करना जाएज़ नहीं है मगर ज़रूरत की ख़ातिर मसलन अगर बीमारी, कमज़ोरी, वग़ैरा जैसा कोई उज़र हो।

मसअला नः 79

मस्जिदे शजरा के बाहर से ऐहराम बांधना काफ़ी नही है, हां उन तमाम जगहों से काफ़ी है जिन्हें मस्जिद का हिस्सा शुमार किया जाता है यहां तक कि वह हिस्सा जो नया बनाया गया है।

मसअला नः 80

उज़्र रखने वाली औरत पर वाजिब है कि मस्जिद में उबूर की हालत में ऐहराम बांधे अलबत्ता अगर मस्जिद में ठहरना लाज़िम न आये लेकिन अगर मस्जिद में ठहरना लाज़िम आये अगरचे भीड़ वग़ैरा की वजह से और ऐहराम को उज़्र के दूर होने तक मोअख़्ख़र न कर सकती हो तो उस के लिये ज़रूरी है कि वह जोहफ़ा या उसके मुक़ाबिल मक़ाम से ऐहराम बांधे, अलबत्ता उस के लिये मीक़ात से पहले किसी भी मोअय्यन जगह से नज़र के ज़रिये ऐहराम बांधना भी जाएज़ है।

मसअला नः 81

अगर शौहर बीवी के पास हाज़िर न हो तो बीवी का मीक़ात से पहले ऐहराम बांधने की नज़र का सहीह होना शौहर की इजाज़त के साथ मशरूत नहीं है लेकिन अगर शौहर हाज़िर हो तो ऐहतीयाते वाजिब यह है कि उस से इजाज़त हासिल करे पस अगर इस सूरत में नज़र करे तो उसकी नज़र मुनअक़िद नहीं होगी।

दूसराः- वादिये अक़ीक़ः यह ऐहले इराक़ व नज्द और जो लोग उमरे के लिये इस से गुज़रते हैं उन का मीक़ात है और उसके तीन हिस्से हैं (1) मसलख़, यह पहले हिस्से के नाम है (2) ग़ुमरा, यह दूसरे हिस्से का नाम है (3) ज़ाते इर्क़, यह आख़री हिस्से का नाम है इन सब जगहों से ऐहराम बांधना काफ़ी है।

तीसराः- जोहफ़ा, यह ऐहले शाम, मिस्र, शुमाली अफ़रीक़ा और उन लोगों का मीक़ात है जो उमरे के लिये उस से गुज़रते हैं। और उस में मौजूद मस्जिद वग़ैरा सब मक़ामात से ऐहराम बांधना काफ़ी है।

चौथाः- यलमलमः यह एक पहाड़ का नाम है, यह ऐहले यमन और उन लोगों का मीक़ात है जो उस से गुज़रते हैं इसके सब हिस्सों से ऐहराम बांधना काफ़ी है।

पांचवाः- क़रनुल मनाज़िल यह ऐहले ताएफ़ और उन लोगों का मीक़ात है जो उमरे के लिये उस से गुज़रते हैं और उस में मस्जिद से ऐहराम बांधना काफ़ी है।

ज़िक्र किये गये मक़ामात के बिल मुक़ाबिल मक़ामः-

जो शख़्स ज़िक्र किये गये मक़ामात में से किसी से न गुज़रे और ऐसी जगह पर पहुंच जाये जो उन में से किसी के बिल मुक़ाबिल हो तो वहीं से ऐहराम बांधे और बिल मुक़ाबिल से मुराद यह है कि मक्के के रास्ते में ऐसी जगह पर पहुंच जाये कि मीक़ात उस के दायें या बायें हो अगर यह उस जगह से आगे बढ़े तो मीक़ात उसे पीछे क़रार पाये।

ज़िक्र किये गये मक़ामात वह हैं कि जिन से उमरा-ए-तमत्तो करने वाले के लिये ऐहराम बांधना ज़रूरी है।

हज्जे तमत्तो व क़ेरान व एफ़राद के मक़ामात नीचे दिये गये हैं।

पहलाः-

मक्काः यह हज्जे तमत्तो का मीक़ात है।

दूसराः-

मुकल्लफ़ की रहने की जगहः यह उस शख़्स का मीक़ात है कि जिस की रिहाइशगाह मीक़ात और मक्के के दरमियान है बल्कि यह ऐहले मक्का का भी मीक़ात है और उन पर वाजिब नहीं है कि मज़कूरा मक़ामात में से किसी एक पर आयें।

चन्द मसअलेः-

मसअला नः 82

अगर उन मक़ामात और उनकी बिलमुक़ाबिल जगह का इल्म न हो तो यह बय्येना शरईया के साथ साबित हो जाते हैं यानी दो आदिल गवाह उस की गवाही दें या उस शिया के साथ भी साबित हो जाते हैं जो मुजिबे इतमेनान हो और जुस्तजू कर के इल्म हासिल करना वाजिब नहीं है और अगर न इल्म हो और न गवाह और न शिया तो उन मक़ामात को जानने वाले शख़्स की बात से हासिल होने वाला ज़न व गुमान काफ़ी है।

मसअला नः 83

मीक़ात से पहले ऐहराम बांधना सहीह नही है मगर यह कि मीक़ात से पहले किसी मोअय्यन जगह से ऐहराम बांधने की नज़र कर ले जैसा कि मदीना या अपने शहर से ऐहराम बांधने की नज़र करे तो उस का ऐहराम सहीह है।

मसअला नः 84

अगर जान बूझ कर या ग़फ़लत या लाइल्मी की जगह से बग़ैर ऐहराम के मीक़ात से गुज़र जाये तो उस पर वाजिब है कि ऐहराम के लिये मीक़ात की तरफ़ पलटे।

मसअला नः 85

अगर ग़फ़लत, भूल चूक या मसअले का इल्म न होने की वजह से मीक़ात से आगे गुज़र जाये और वक़्त की तंगी या किसी और उज़्र की वजह से मीक़ात तक पलट भी न सकता हो लेकिन अभी तक हरम में दाख़िल न हुआ हो तो ऐहतियाते वाजिब यह है कि जिस क़दर मुमकिन हो मीक़ात की सिम्त की तरफ़ पलटे और वहां से ऐहराम बांधे और अगर हरम में दाख़िल हो चुका हो तो अगर उस से बाहर निकलना मुमकिन हो तो उस पर यह वाजिब है कि बाहर से ऐहराम बांधेगा और अगर हरम से बाहर निकलना मुमकिन न हो तो हरम में भी जिस जगह हो वहीं से हराम बांधे।

मसअला नः 86

अपने इख़्तियार के साथ ऐहराम को मीक़ात से मोअख़्ख़र करना जाएज़ नहीं है चाहे उस से आगे दूसरा मीक़ात हो या न हो।

मसअला नः 87

जिस शख़्स को मज़कूरा मोक़ों में से किसी एक से ऐहराम बांधने से मना कर दिया जाये तो उस के लिये दूसरे मीक़ात से ऐहराम बांधना जाएज़ है।

मसअला नः 88

जद्दा मवाक़ियत में से नहीं है और न यह मवाक़ियत के बिल मुक़ाबिल है लेज़ा इख़्तियारी सूरत में जद्दा से ऐहराम बांधना सहीह नहीं है बल्कि ऐहराम बांधने के लिये किसी मीक़ात की तरफ़ जाना ज़रूरी है मगर यह कि उस पर इख़्तियार न रखता हो तो फिर जद्दा से नज़र कर के ऐहराम बांधे।

मसअला नः 89

अगर मीक़ात से आगे गुज़र जाने के बाद मोहरिम मुतवज्जेह हो कि उसने सहीह ऐहराम नहीं बांधा पस अगर मीक़ात तक पलट सकता हो तो यह वाजिब है और न पलट सकता हो मगर मक्के के रास्ते से तो अदनलहल से उमरा-ए-मुफ़रेदा का ऐहराम बांध कर मक्के में दाख़िल हो और आमाल बजालाने के बाद उमरा-ए-तमत्तो के ऐहराम के लिये किसी मीक़ात पर जाये।

मसअला नः 90

ज़ाहिर यह है कि अगर हज के फ़ौत न होने का इतमेनान हो तो उमरा-ए-तमत्तो के ऐहराम से ख़ारिज होने के बाद और हज बजालाने से पहले मक्के से निकलना जाएज़ है अगरचे ऐहतियाते मुस्तहब यह है कि ज़रूरत व हाजत के बग़ैर न निकले जैसा कि इस सूरत में एहतियात यह है कि निकलने से पहले मक्का में हज का ऐहराम बांध ले मगर यह कि इस काम में उस के लिये हर्ज हो तो फिर अपनी ज़रूरत के लिये बग़ैर ऐहराम के बाहर जा सकता है और जो शख़्स इस एहतियात पर अमल करना चाहे और एक या चन्द मरतबा मक्का से निकलने पर मजबूर हो जैसे क़ाफ़िलों के काम करने वाले तो वह मक्का में दाख़िल होने के लिये पहले उमरा-ए-मुफ़रेदा का ऐहराम बांध लें और उमरा-ए-तमत्तो को उस वक़्त तक मोअख़्ख़र कर दें कि जिस में आमाले हज से पहले उमरा-ए-तमत्तो को अंजाम देना मुमकिन हो फिर मीक़ात से उमरा-ए-तमत्तो के लिये ऐहराम बांध लें पस जब उमरे से फ़ारिग़ हो जायें तो मक्के से हज के लिये ऐहराम बांध लें।

मसअला नः 91

उमरा-ए-तमत्तो और हज के दरमियान मक्के से ख़ारिज होने का मेआर मोजूदा शहरे मक्के से ख़ारिज होना है पस ऐसी जगह जाना कि जो इस वक़्त मक्के का हिस्सा शुमार होती है अगरचे माज़ी में वह मक्का से बाहर थी मक्के से ख़ारिज होना शुमार नहीं होगा।

मसअला नः 92

अगर उमरा-ए-तमत्तो को अंजाम देने के बाद मक्के से बग़ैर ऐहराम के बाहर चला जाये तो अगर उसी महीने में वापस पलट आये कि जिस में उसने उमरे को अंजाम दिया है तो बग़ैर ऐहराम के वापस पलटे लेकिन अगर उमरा करने वाले महीने के अलावा पलटे जैसा कि ज़िक़ाद में उमरा बजाला कर बाहर चला जाये फिर ज़िलहिज में वापस पलटे तो उस पर वाजिब है कि मक्के में दाख़िल होने के लिये उमरे का ऐहराम बांधे और हज के साथ मुत्तसिल उमरा-ए-तमत्तो, दूसरा उमरा होगा।

मसअला नः 93

ऐहतियाते वाजिब यह है कि उमरा-ए-तमत्तो और हज के दरमियान उमरा-ए-मुफ़रेदा को अंजाम न दे लेकिन अगर बजालाये तो उस से उस के साबेक़ा उमरे को कोई नुक़सान नहीं होगा और उस के हज में भी कोई हर्ज नहीं है।

दूसरी फ़स्ल

ऐहरामः-

मसअला नः 94

ऐहराम के मसअलों की चार क़िसमें हैः-

1- वह आमाल जो ऐहराम की हालत में या ऐहराम के लिये वाजिब हैं।

2- वह आमाल जो ऐहराम की हालत में मुस्तहब हैं।

3- वह आमाल जो ऐहराम की हालत में हराम हैं।

4- वह आमाल जो ऐहराम की हालत में मकरूह हैं।

1-ऐहराम के वाजिबात

पहलाः नियत

और इस में चन्द उमूर मोताबर हैं।

अ) इरादा (क़स्द) यानी हज या उमरे के आमाल को बजालाने का क़स्द करना पस जो शख़्स उमरा-ए-तमत्तो का ऐहराम बांधना चाहे वह ऐहराम के वक़्त उमरा-ए-तमत्तो अंजाम देने का क़स्द करे।

मसअला नः 95

क़स्द में आमाल की तफ़सीली शक्ल को दिल से गुज़ारना मोतबर नहीं है बल्कि इजमाली शक्ल काफ़ी है पस उस के लिये जाएज़ है कि इजमाली तौर पर वाजिब आमाल को अंजाम देने का क़स्द करे फिर उन में से एक एक को तरतीब के साथ बजालाये।

मसअला नः 96

ऐहराम के सहीह होने में मोहर्रेमाते ऐहराम को तर्क करने का क़स्द करना मोताबर नहीं है बल्कि बाज़ मोहर्रेमात के इरतेकाब का अज़्म भी उसकी दुरुसती को नुक़सान नहीं पहुंचाता है हां इन मोहर्रेमात के अंजाम देने का क़स्द करना कि जिन से हज या उमरा बातिल हो जाता है जैसे जिमा। बाज़ मोक़ों में, तो वह आमाल के अंजाम देने के क़स्द के साथ जमा नहीं हो सकता बल्कि यह ऐहराम के क़स्द के मुनाफ़ी है।

ब) क़ुरबत और अल्लाह ताला के लिये इख़लास, क्योंकि उमरा, हज और उन का हर अमल इबादत है पस हर एक को सहीह तौर पर अंजाम देने के लिये अल्लाह की क़ुरबत का क़स्द करना ज़रूरी है।

ज) इस बात का अज़्म कि ऐहराम उमरे के लिये है या हज के लिये और फिर यह कि हज, हज्जे तमत्तो है या क़ेरान या एफ़राद, और यह कि उसका अपना है या किसी और की तरफ़ से और यह कि यह हज्जे इस्लाम है यानज़र का हज या मुस्तहब्बी हज।

मसअला नः 97

अगर मसअले से ला इल्मी या ग़फ़लत की वजह से उमरे के बदले में हज की नियत कर ले तो उस का ऐहराम सहीह है मसलन अगर उमरा-ए-तमत्तो के लिये ऐहराम बांधते वक़्त कहे हज्जे तमत्तो के लिये ऐहराम बांध रहा हूं क़ुरबतन इल्ल लाह लेकिन उसी अमल का क़स्द रखता हो जिसे लोग अंदाम दे रहे हैं यह समझते हुए कि उसके अमल का नाम हज है तो उसका ऐहराम सहीह है।

मसअला नः 98

नियत में ज़बान से बोलना या दिल में गुज़ारना शर्त नहीं है बल्कि सिर्फ़ फ़ैल के अमल से नियत हो जाती है।

मसअला नः 99

नियत का ऐहराम के हमराह होना शर्त है पस पहले वाली नियत काफ़ी नहीं है बल्कि यह कि ऐहराम के वक़्त तक जारी कहे।

दूसराः- तलबीया

मसअला नः 100

ऐहराम की हालत में तलबीया ऐसे ही है जैसे नमाज़ में तकबीरतुल ऐहराम पस जब हाजी तलबीया कह दे तो मोहरिम हो जायेगा और उमरा-ए-तमत्तो के ऐहराम शुरु हो जायेंगे और यह तलबीया दर हक़ीक़त ख़ुदा-ए-रहीम की तरफ़ से मुकल्लेफ़ीन को हज की दावत का क़बूल करना है इसी लिये उसे पूरे ख़ुशुअ व ख़ुज़ूअ के साथ बजा लाना चाहिये और तलबीया की सूरत इस तरह है।

लब्बेक अल्लाहुम्मा लब्बेक, लब्ब ला शरीकालका लब्बेक, अगर इस मेक़दार पर इकतेफ़ा करे तो उसका ऐहराम सहीह है और ऐहतियाते मुस्तहब यह है कि मज़कूरा चार तलबियों के बाद यूं कहेःइन्नल हम्दा वन नेमता लका वल मुलका ला शरीका लका लब्बेक, और अगर मज़ीद एहतियात करना चाहे तो यह भी कहेः लब्बेक अल्लाहुम्मा लब्बेक, इन्नल हम्दा वन नेमता लका वल मुलका, ला शरीका लका लब्बेक, और मुस्तहब है कि इसके साथ इन जुमलों का भी इज़ाफ़ा करेःलब्बेक ज़ल मेआरिज लब्बेक, लब्बेक दाऐयन इला दारिस्सलाम लब्बेक, लब्बेक हल तलबीका लब्बेक, लब्बेक ज़ल जलाले वल इकरामे लब्बेक, लब्बेक तबदी वल मआदे इलैका लब्बेक, लब्बेक तसतग़नी व यफ़तक़रली लब्बेक, लब्बेक मरहूबन व मरग़ूबन ली लब्बेक, लब्बेक ज़ल नेमाऐ वल फ़ज़लिल हुसनिल जमीले लब्बेक, लब्बेक किशाफ़ल कुरबिल ऐज़ामे लब्बेक, लब्बेक अब्दोका वबना अब्दतोका लब्बेक, लब्बेक या करीमो लब्बेक।

मसअला नः 101

एक मरतबा तलबिया कहना वाजिब है लेकिन जितना मुमकिन हो उस का तकरार करना मुस्तहब है।

मसअला नः 102

तलबिया की वाजिब तादाद को अरबी क़यदों के मुताबिक़ सहीह तौर पर अदा करना वाजिब है पस सहीह तौर पर क़ादिर होते हुए अगरचे सीख कर या किसी दूसरे के दोहराने से। ग़लत काफ़ी नहीं है पस अगर वक़्त की तंगी की वजह से सीखने पर क़ादिर न हो और किसी दूसरे के दोहराने के साथ भी सहीह तरीक़े से पढ़ने पर क़ादिर न हो तो जिस तरह से मुमकिन हो अदा करे और एहतियात यह है कि उस के साथ साथ नाएब भी बनाये।

मसअला नः 103

जो शख़्स जान बूझ कर तलबिया को तर्क कर दे तो उस का हुक्म उस शख़्स वाला हुक्म है जो जान बूझ कर मीक़ात से ऐहराम को तर्क कर दे जो कि गुज़र चुका है।

मसअला नः 104

जो शख़्स तलबिया को सहीह तौर पर अंजाम न दे और उज़्र भी न रखता हो तो उसका हुक्म वही है जो जान बूझ कर तलबिया को तर्क करने का हुक्म है।

मसअला नः 105

मक्के के घरों को देखते ही अगरचे उन नये घरों को जो इस वक़्त मक्के का हिस्सा शुमार किये जाते हैं तलबिया को तर्क कर देना वाजिब है एहतियात की बिना पर, और इसी तरह रोज़े अरफ़ा के ज़वाल के वक़्त तलबिया को रोक देना वाजिब है।

मसअला नः 106

हज्जे तमत्तो, उमरा-ए-तमत्तो, हज्जे एफ़राद, और उमरा-ए-मुफ़रेदा के लिये ऐहराम मुनअक़िद नहीं हो सकता मगर तलबिया के साथ लेकिन हज्जे क़ेरान के लिये ऐहराम तलबिया के साथ भी हो सकता है और अशआर या तक़लीद के साथ भी और अशआर सिर्फ़ क़ेरान के ऊँट के साथ मुख़तस है लेकिन तक़लीद ऊँट को भी शामिल है और क़ेरान के दीगर जानवरों को भी।

मसअला नः 107

अशआर है ऊँट की कूहान के अगले हिस्से में नेज़ा मार कर उसे ख़ून के साथ लथेड़ना ताकि पता चले कि यह क़ुर्बानी है और तक़लीद यह है कि क़ुर्बानी की गरदन में धागा या जूता लटका दिया जाये ताकि पता चले कि यह क़ुर्बानी है।

तीसराः दो कपड़ों का पहन्ना।

यह तेहबन्द और चादर है पस मोहरिम पर जिस लिबास का पहन्ना हराम है उसे उतार कर उन्हें पहन लेगा पहले तहेबन्द बांध कर जूसरे कपड़ो को शाने पर डाल लेगा।

मसअला नः 108

ऐहतियाते वाजिब यह है कि दोनों कपड़ों को ऐहराम और तलबिया की नियत से पहले पहन ले।

मसअला नः 109

तहेबन्द में शर्त नहीं है कि वह नाफ़ और घुटनों को छुपाने वाला हो बल्कि उसका राएज सूरत में होना काफ़ी है।

मसअला नः 110

तहेबन्द का गर्दन में बांधना जाएज़ नहीं है लेकिन उसको पिन और संग वग़ैरा के साथ बांधने से कोई हर्ज नहीं है इसी तरह उसे धागे के साथ बांधने से भी कोई हर्ज नहीं है। अगर चादर के अगले हिस्से को बांधना राएज हो (इसी तरह उसे सूई और पिन के साथ बांधने से भी कोई हर्ज नहीं है)

मसअला नः 111

ऐहतियाते वाजिब यह है कि दोनों कपड़ों को क़ुरबतन की नियत से पहने।

मसअला नः 112

उन दो कपड़ों में वह सब शर्तें मोतबर हैं जो नमाज़ी के लिबास में मोताबर हैं पस ख़ालिस रेशम, हराम गोश्त जानवर से बनाया गया, ग़स्बी और ऐसी निजासत के साथ नजिस शुदा लिबास काफ़ी नहीं है कि जो नमाज़ में भी माफ़ नहीं है।

मसअला नः 113

तहेबन्द में शर्त है कि उस से जिल्द नज़र न आये लेकिन चादर में यह शर्त नहीं है जब तक चादर के नाम से ख़ारिज न हो।

मसअला नः 114

दो कपड़ो के पहन्ने वुजूब मर्द के साथ मुख़तस है और औरत के लिये अपने कपड़ों में ऐहराम बांधना जाएज़ है चाहे वह सिले हुऐ हों या न सिले हों, अलबत्ता नमाज़ी के लिबास के गुज़िशता शर्तों की रिआयत करने के साथ।

मसअला नः 115

शर्त है कि औरत के ऐहराम का लिबास ख़ालिस रेशम का न हो।

मसअला नः 116

दोनों कपड़ों में यह शर्त नहीं है कि वह बने हुऐ हों, और न बने हुऐ में यह शर्त है कि वह कोटन या ऊन वग़ैरा के बने हों बल्कि चमड़े नाएलोन या पलास्ट के लिबास में भी ऐहराम बांधना काफ़ी है अलबत्ता उन पर कपड़ा होना सादिक़ आये और उन के पहन्ने का रिवाज हो।

मसअला नः 117

अगर ऐहराम बांधने के इरादे के वक़्त जान बूझ कर सिला हुआ लिबास न उतारे तो उसका ऐहराम सहीह नहीं है पस ऐहतियाते वाजिब यह है कि उसे उतारने के बाद दोबारहह नियत करे और तलबिया कहे।

मसअला नः 118

अगर सर्दी वग़ैरा की वजह से सिला हुआ लिबास पहन्ने पर मजबूर हो तो क़मीज़ वग़ैरा जैसे राएज लिबास से इस्तेफ़ादा करना जाएज़ है लेकिन उस का पहन्ना जाएज़ नहीं है बल्कि उसके अगले और पिछले हिस्से या उपरी और निचली हिस्से को उलटा कर के अपने ऊपर औढ़ले।

मसअला नः 119

मोहरिम के लिये हमाम में जाने, ऐहराम को तबदील करने या धोने वग़ैरा के लिये ऐहराम के कपड़ों का उतारना जाएज़ है।

मसअला नः 120

मोहरिम के लिये सर्दी वग़ैरा से बचने के लिये जो से ज़्यादा कपड़ों का ओढ़ना जाएज़ है पस दो या दो से ज़्यादा कपड़ों को अपने शानों के ऊपर या कमर के चारों तरफ़ ओढ़ले।

मसअला नः 121

अगर ऐहराम का लिबास नजिस हो जाये तो ऐहतियाते वाजिब यह है कि उसे पाक करे या तबदील करे।

मसअला नः 122

ऐहराम की हालत में हदसे असग़र या अकबर से पाक होना शर्त नहीं है पस जवाबत और हैज़ की हालत में ऐहराम बांधना जाएज़ है हां ऐहराम से पहले ग़ुस्ल करना मुस्तहबे मोअक्केदा है और उस मुस्तहब ग़ुस्ल को ग़ुस्ले ऐहराम कहा जाता है और एहतियात यह है कि उसे तर्क न करे।

ऐहराम के मुस्तहब्बातः-

मसअला नः 123

मुस्तहब है ऐहराम से पहले बदन का पाक होना, इज़ाफ़ी बालों का साफ़ करना, नाख़ून काटना, और मिसवाक करना भी मुस्तहब है ऐहराम से पहले ग़ुस्ल करना, मीक़ात में या मीक़ात तक पहुंचने से पहले, मसलन मदीने में। और एक क़ोल के मुताबिक़ एहतियात यह है कि उस ग़ुस्ल को तर्क न किया जाये और मुस्तहब है कि नमाज़े ज़ोहर या और फ़रीज़ा-ए-नमाज़ या दो रकअत नमाज़े नाफ़ला के बाद ऐहराम बांधे बाज़ हदीसों में छे रकअत नमाज़े नाफ़ला वारिद हुई है और इस की ज़्यादा फ़ज़ीलत है और ज़िक़ाद की पहली तारीख़ से अपने सर और दाढ़ी के बालों को बढ़ाना भी मुस्तहब है।

ऐहराम रे मकरूहातः-

मसअला नः 124

सियाह, मैले कुचेले और धारी दार कपड़े में ऐहराम बांधना मकरूह है और बहतर यह है कि ऐहराम के लिबास का रंग सफ़ैद हो और ज़र्द बिस्तर या तकीये पर सोना मकरूह है इसी तरह ऐहराम से पहले मेहदी लगाना मकरूह है अलबत्ता उसका रंग ऐहराम की हालत में भी बाक़ी रहे। अगर उसे कोई पुकारे तो लब्बेक के साथ जवाब देना मकरूह है और हमाम में दाख़िल होना और मदन को थेली वग़ैरा के साथ धोना भी मकरूह है।

ऐहराम के मोहर्रेमातः-

मसअला नः 125

ऐहराम के शुरु से लेकर जब तक ऐहराम में है मोहरिम के लिये चन्द चीज़ों से परहेज़ करना वाजिब है उन चीज़ों को मोहर्रेमाते ऐहराम कहा जाता है।

मसअला नः 126

मोहर्रेमाते ऐहराम बाराह चीज़ें है इन में से बाज़ सिर्फ़ मर्द पर हराम हैं, पहले हम उन्हें इजमाली तौर पर ज़िक्र करते हैं फिर इन में से हर एक को तफ़सील के साथ बयान करेंगे और इन में से हर एक पर मुतरत्तिब होने वाले ऐहकाम बयान करेंगे।

ऐहराम के मोहर्रेमात नीचे दिये गये हैं।

1- सिले हुए लिबास का पहन्ना।

2- ऐसी चीज़ का पहन्ना जो पावं के उपर वाले सारे हिस्से को छुपा ले।

3- मर्द का अपने सर को और औरत का अपने चेहरे को ढापना।

4- सर पर साया करना।

5- ख़ुशबू का इस्तेमाल करना।

6- आयने में देख़ना।

7- मेहदी का इस्तेमाल करना।

8- बदन पर तेल लगाना।

9- बदन के बालों को साफ़ करना।

10- सुरमा लगाना।

11- नाख़ून काटना।

12- बाराह अंगूठी पहन्ना।

13- बदन से ख़ून निकालना।

14- फ़ुसूख़ (यानी गाली देना झूट बोलना फ़ख़्र करना)

15- जिदाल (यानी ला वल्लाह बला वल्लाह कहना)

16- बदन पर मौजूद कीड़ों को मारना।

17- हरम के दरख़तों और पोधों को उख़ाड़ना।

18- असलहा उठाना।

19- ख़ुशकी के जानवरों का शिकार करना।

20- जिमा करना और शेहवत को भड़काने वाला हर काम जो शेहवत के साथ हो। देखना बोसा लेना और छूना।

21- निकाह करना।

22- इसतमना करना।

मसअला नः 127

इन में से बाज़ मोहर्रेमात वैसे भी हराम हैं अगरचे मोहरिम न हो लेकिन ऐहराम की हालत में इन का गुनाह ज़्यादा है।

मोहर्रेमाते ऐहराम के ऐहकामः-

1- सिले हुए लिबास का पहन्ना।

मसअला नः 128

ऐहराम की हालत में मर्द पर सिले हुए कपड़ो का पहन्ना हराम है और इस से मुराद वह लिबास है कि जिस में गर्दन, हाथ, पावं दाख़िल हो जायें जैसे कमीज़, शलवार, कोट, जेकिट, नीचे का लिबास अबा और क़बा वगैरा और इसी तरह बटन लगे हुए कपड़े।

मसअला नः 129

बयान किये हुए मसअले के बारे में फ़र्क़ नहीं है कि वह लिबास सिला हुआ हो या बना हुआ हो या इस तरह का कुछ और हो।

मसअला नः 130

कमर बन्द वह थैली कि जिस में पैसे रखे जाते हैं और घड़ी के पटे वग़ैरा के पहन्ने में कोई हर्ज नहीं है कि जिन्हें लिबास शुमार नहीं किया जाता अगरचे यह सिले हुए भी हों फिर भी कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 131

सिले हुए बिस्तर या उस लिबास पर बैठने और सोने में कोई हर्ज नहीं है कि जिस का पहन्ना हराम है जैसे कि इन का बिस्तर बना ने से भी कोई रुकावट नहीं है।

मसअला नः 132

लेहाफ़ और असतर वग़ैरा को शाने पर रखने में कोई हर्ज नहीं है अगरचे इस के अतराफ़ सिले हुए हों जैसे कि ऐहराम के कपड़ों के अतराफ़ के सिले हुए होने से भी कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 133

अगर जान बूझ कर सिला हुआ लिबास पहने तो एक भेड़ का कफ़्फ़ारा देना वाजिब है और अगर सिले हुए मुताअद्दिद (यानी कई तरह के) कपड़े पहने जैसे कि पैंट और कोट पहने या कमीज़ और अन्दुरुनी लिबास पहने तो उस पर हर एक के लिये अलग कफ़्फ़ारा होगा।

मसअला नः 134

अगर सर्दी वग़ैरा की वजह से इन कपड़ों के पहन्ने पर मजबूर हो जाये कि जिन्हें पहन्ना हराम है तो गुनाह नहीं है लेकिन एहतियात यह है कि एक गोसफ़न्द कफ़्फ़ारे में दे।

मसअला नः 135

औरतों के लिये हर क़िस्म का सिला हुआ लिबास पहन्ना जाएज़ है और इस में कोई कफ़्फ़ारा नहीं है हां इन के लिये दास्ताने पहन्ना जाएज़ नहीं है।

2- उस चीज़ का पहन्ना जो पावं के ऊपर वाले पूरे हिस्से को छुपाले।

मसअला नः 136

मर्द पर ऐहराम की हालत में मोज़ों और जुराब का पहन्ना हराम है और ऐहतियाते वाजिब की बिना पर हर उस चीज़ के पहन्ने से परहेज़ करना है जो पावं के ऊपर वाले पूरे हिस्से को छुपा ले और मोज़े वग़ैरा।

मसअला नः 137

उस चौड़ी पट्टी वाले जूते के पहन्ने में कोई हर्ज नहीं है कि जो पावं के पूरे ऊपर वाले हिस्से को नहीं ढाँपता।

मसअला नः 138

बैठने या सोने की हालत में पावं पर लेहाफ़ वग़ैरा रखने में कोई हर्ज नहीं है और इसी तरह अगर ऐहराम का लिबास पावं पर आ पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 139

अगर मोहरिम ऐसे जूते वग़ैरा पहन्ने पर मजबूर हो जो कि पावं के पूरे ऊपर वाले हिस्से को ढाँप लेता है तो उस के लिये जाएज़ है लेकिन उस हालत में ऐहतियाते वाजिब यह है कि उस के ऊपर वाले हिस्से को चीर दे।

मसअला नः 140

अगर बयान किये गये मसअले में मज़कूर मोज़ा और जुराब वग़ैरा पहने तो कफ़्फ़ारा नहीं है अगरचे जुराब के सिलसिले में ऐहतियाते मुस्तहब यह है कि एक दुम्बे का कफ़्फ़ारा देना है।

मसअला नः 141

(मज़कूरा हुक्म) मोज़े और जुराब वग़ैरा पहन्ने की हुरमत (मर्दों के साथ मुख़्तस है लेकिन औरतों के लिये भी ऐहतियाते मुस्तहब यह है कि इसी रिआयत करना है)

3- मर्द का अपने सर और औरतों का अपने चेहरे को छुपाना है।

मसअला नः 142

मर्द के लिये टोपी, अमामे, रुमाल, और तौलिया वग़ैरा के साथ अपने सर को छिपाना जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 143

ऐहतियाते वाजिब यह है कि मर्द अपने सर के ऊपर कोई ऐसी चीज़ न रखे और न लगाये जो उस के सर को छिपा ले जैसे मेहंदी, साबुन के झाग या अपने सर के ऊपर सामान उठाना वग़ैरा।

मसअला नः 144

कान सर का हिस्सा है पस मर्द के लिये ऐहराम की हालत में इन्हें छिपाना जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 145

सर के बाज़ हिस्से को इस तरह छिपाना कि उसे उर्फ़ में सर का छिपाना कहा जाये जाएज़ नहीं है जैसे एक छोटी सी टोपी अपने सर के दरमियान में रखे वर्ना कोई हर्ज नहीं है जैसे क़ुरआन वग़ैरा को अपने सर के ऊपर रख़ ले या अपने सर के बाज़ हिस्से को तौलिया के साथ ख़ुश्क करे अगरचे एहतियात की बिना पर इस से भी गुरैज़ करना है।

मसअला नः 146

मोहरिम के लिये अपने सर को पानी में डुबोये जाएज़ नहीं है और ज़ाहिर यह है कि इस मसअले में मर्द और औरत के दर्मियाम फ़र्क नहीं है लेकिन अगर ढ़ुबोये तो कफ़्फ़ारा नहीं है।

मसअला नः 147

ऐहतियाते वाजिब की बिना हर सर के ढ़ापने का कफ़्फ़ारा एक भेड़ है।

मसअला नः 148

अगर ग़फ़लत, भूल कर या ला इल्मी की वजह से सर को ढ़ापे तो कफ़्फ़ारा नहीं है।

मसअला नः 149

औरतों के लिये ऐहराम की हालत में इस तरह चेहरे को ढ़ापना जाएज़ नहीं है कि जैसे कि वह हिजाब या चेहरे को छुपाने के लिये करती है, इस बिना पर चेहरे के बाज़ हिस्से को ढ़ापना कि जिस पर चेहरे का ढ़ापना सिद्क़ आये जैसे पर्दे या छुपाने के लिये रुख़सारों को नाक, मूह और ठोरी समीत ढ़ापना तो यह पूरे चेहरे को ढ़ापने की तरह है पस यह भी जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 150

ऐहराम की हालत में औरतों के लिये मास्क का इस्तेमाल जाएज़ है।

मसअला नः 151

चेहरे के ऊपर, नीचे, या दोनों अतराफ़ को इतनी मेक़दार में ढ़ापे कि जितना राएज घुंगट के ज़रीये होता है और जिस तरह औरतें नमाज़ के वक़्त सर को ढ़ापने के लिये करती हैं जिस पर चेहरे को ढ़ापना सिद्क़ नहीं आता हर्ज नहीं रखता चाहे यह नमाज़ में हो या ग़ैर नमाज़ में।

मसअला नः 152

चेहरे को फ़ंख़े वग़ैरा (जैसे रिसाला, काग़ज़) के साथ ढ़ापना हराम है। हां चेहरे पर हाथ रखने में कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 153

मोहरिम औरतों के लिये अपनी चादर को अपने चेहरे पर इस तरह डालना जाएज़ है कि वह उस की नाक के ऊपर वाले किनारे के बिल मुक़ाबिल तक उस के चेहरे के बाज़ हिस्से और उस की पेशानी को ढ़ापले लेकिन एहतियात की बिना पर इस से परहेज़ करना चाहिये अगरचे अजनबी के देख़ने की जगह में न हो।

मसअला नः 154

साबिक़ा मसअले में ऐहवत यह है कि मज़कूरा पर्दे को इस तरह न छोड़ दे कि वह उस के चेहरे को छू रहा हो।

मसअला नः 155

चेहरे को ढ़ापने में कफ्फ़ारा नहीं होता अगरचे यह ऐहवत है।

4- मर्दों के लिये साया करना।

मसअला नः 156

मर्द के लिये ऐहराम की हालत में चलते हुए और मंज़िले तय करते हुए जैसे मीक़ात और मक्के के दरमियान चलना और मक्के व अरफ़ात के दरमियान चलना वग़ैरा (साया करना जाएज़ नहीं है। हां अगर रास्ते में कहीं रुक जायें या मंज़िले मक़सूद तक पहंच जायें जैसे घर या होटल में दाख़िल हो जायें तो साया करने में कोई हर्ज नहीं है। सफ़र के दौरान छत वाली गाड़ी में सवार होना जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 157

ऐहवते वुजूबी यह है कि मोहरिम मक्का पहंचने के बाद और आमाले उमरा बजा लाने से पहले मुताहर्रिक साय से परहेज़ करे जैसे छत वाली गाड़ी पर सवार होना या छतरी का इस्तेमाल करना और इसी तरह हज का ऐहराम बांधने के बाद अरफ़ात और मज़दलफ़ा की तरफ़ जाते हुए अलबत्ता अगर दिन के वक़्त सफ़र करे और मज़दलफ़ा से मेना की तरफ़ जाते हुए और इसी तरह अरफ़ात और मेना के अन्दर चलते हुए।

मसअला नः 158

साबेक़ा दो मसअलों में मज़कूर हुक्म दिन में साया करने के साथ मुख़तस है इस बिना पर रात के वक़्त छत वाली गाड़ी में सवार होने में कोई हर्ज नहीं है। अगरचे एहतियात यह है कि साय से फ़ायदा न उठाये।

मसअला नः 159

बारानी और ठंडी रातों में ऐहवत यह है कि छत वाली गाड़ी वग़ैरा में सवार हो कर अपने ऊपर साया न करे।

मसअला नः 160

दीवार, दरख़्त और इन जैसी चीज़ों का साया इस्तेमाल करने में कोई हर्ज नहीं है चाहे दिन के दौरान भी, इसी तरह साबित याता जैसे कि सुरंग या पुल के निचे से गुज़रना।

मसअला नः 161

मोहरिम पर साया करने की हुरमत मर्दों के साथ मुख़तस है पस औरतों के लिये यह हर सूरत में जाएज़ है।

मसअला नः 162

साया करने का कफ़्फ़ारा एक दुम्बा है।

मसअला नः 163

अगर बीमार या और किसी उज़्र की वजह से साया करने पर मजबूर हो तो ऐसा करना जाएज़ है लेकिन एक दुम्बा कफ़्फ़ारे में देने वाजिब है।

मसअला नः 164

ऐहराम में साया करने का कफ़्फ़ारा एक मरतबा वाजिब है अगरचे बार बार साया करे पस अगर उमरे के कफ़्फ़ारे में एक से ज़्यादा मरतबा साया करे तो उस पर एक से ज़्यादा कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है और इसी तरह हज के ऐहराम में।

5- ख़ुशबू का इस्तेमालः

मसअला नः 165

ऐहराम की हालत में हर तरह की खुशबू का इस्तेमाल करना हराम है जैसे कसतूरी, अग्र की लकड़ी, गुलाब का पानी और दूसरी ख़ुशबूऐं।

मसअला नः 166

उस लिबास का पहन्ना जाएज़ नहीं है कि जीसे पहले से मोअत्तर किया गया है जब कि उस से इत्र की ख़ुशबू आ रही हो।

मसअला नः 167

ऐहवत की बिना पर ख़ुशबू दार साबुन का इस्तेमाल करना जाएज़ नहीं है और इसी तरह ख़ुशबू दार शेमपु भी।

मसअला नः 168

ऐहवते वुजूबी ख़ुशबूदार चीज़ों के सूंघने से परहेज़ करना है अगरचे उस पर ख़ुशबू का उनवान सुद्क़ न करता हो जैसे कि गुलाब का फ़ूल या ख़ुशबूदार सबज़ियों और फ़लों का सूंघना।

मसअला नः 169

मोहरिम के लिये ऐसा ख़ाना ख़ाना जाएज़ नहीं है कि जिस में ज़ाफ़रान डाला गया हो।

मसअला नः 170

सैब और मालटे जैसे ख़ुशबूदार फ़लों के ख़ाने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन ऐहवते वुजूबी यह है कि इन्हें सूंघने से परहेज़ करे।

मसअला नः 171

अगर ख़ुशबू को जान बूझ कर इस्तेमाल करे तो ऐहवते वुजूबी यह है कि कफ़्फ़ारे में एक दुम्बा दे अगरचे वह ख़ाने में हो जैसे ज़ाफ़रान या ख़ाने में न हो।

मसअला नः 172

मोहरिम के लिये बदबू से अपनी नाक को रोकना जाएज़ नहीं है हां बदबू वाली जगह से निकल जाने में कोई हर्ज नहीं है और इसी तरह उस जगह से उबूर करना।

6- आयने में देख़नाः-

मसअला नः 173

ऐहराम की हालत में ज़ीनत के लिये आयने में देख़ना हराम है लेकिन अगर किसी और वजह से देख़े जैसे गाड़ी का ड्राईवर गाड़ी चलाते वक़्त आयने में देख़े तो कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 174

साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ पानी या दूसरी उन सैक़ल की हुई चीज़ों में देख़ना कि जिन में तसवीर नज़र आती है आयने में देख़ने का हुक्म रखती हैं पस अगर ज़ीनत की ग़र्ज़ से हो तो जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 175

अगर ऐसे कमरे में रहता हो कि जिस में आयना है और उस को इल्म हो कि भूल कर उस की नज़र आयने पर पड़ जायेगी तो आयने को अपनी जगह पर क़रार रखने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन बेहतर यह है कि आयने को अपने कमरे से निकाल दे या उसे ढ़ांप दे।

मसअला नः 176

चशमा पहन्ने में कोई हर्ज नहीं है अगर यह ज़ीनत के लिये न हो।

मसअला नः 177

ऐहराम की हालत में तसवीर उतारने में कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 178

आयने में देख़ने का कफ़्फ़ारा नहीं है लेकिन ऐहवते वुजूबी यह है कि उस में देख़ने के बाद तलबिया कहे।

7- अंगूठी पहन्नाः-

मसअला नः 179

ऐहवते वुजूबी यह है कि मोहरिम अंगूठी के पहन्ने से परहेज़ करे अलबत्ता अगर उसे ज़ीनत शुमार किया जाये।

मसअला नः 180

अगर अंगूठी ज़ीनत के लिये न हो बल्कि मुस्तहब की वजह से पहने या किसी दूसरी ग़र्ज़ से तो उसे पहन्ने में कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 181

ऐहराम की हालत में अंगूठी पहन्ने का कफ़्फ़ारा नहीं है।

8- मेंहदी और रंग का इस्तेमाल करना

मसअला नः 182

ऐहवते वुजूबी यह है कि अगर ज़ीनत शुमार हो तो मोहरिम मेंहदी के इस्तेमाल और बालों को रंगने से परहेज़ करे बल्कि हर उस चीज़ से परहेज़ करे जिसे ज़ीनत शुमार किया जाता है।

मसअला नः 183

अगर ऐहराम से पहले अपने हाथों और पैरों पर मेंहदी लगायें या अपने बालों को रंग कर के और ऐहराम के वक़्त तक इन का असर बाक़ी रहे तो इस में कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 184

मेंहदी और रंग के इस्तेमाल करने में कोई कफ़्फ़ारा नहीं है।

9- बदन पर तेल लगाना।

मसअला नः 185

मोहरिम के लिये अपने बदन और बालों पर तेल लगाना जाएज़ नहीं है चाहे वह तेल ख़ूबसूरती के लिये इस्तेमाल किया जाता हो या न किया जाता हो और चाहे ख़ुशबूदार हो या न हो।

मसअला नः 186

अगर ख़ुशबूदार तेल की ख़ुशबू ऐहराम के वक़्त तक बाक़ी रहे तो ऐहराम से पहले भी ऐसा तेल लगाना हराम है।

मसअला नः 187

तेल, घी, के ख़ाने में कोई हर्ज नहीं है अलबत्ता अगर उस में ख़ुशबू न हो।

मसअला नः 188

अगर तेल लगाने पर मजबूर हो जैसे कि इलाज के ग़र्ज़ से हो या धूप के नुक़सान से बचने के लिये या उस पसीने से बचने के लिये जो बदन के जलने का सबब बनता है तो कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 189

ख़ुशबू वाला तेल लगाने का कफ़्फ़ारा ऐहवत की बिना पर एक दुम्बा है और अगर ख़ुशबू वाला न हो तो एक फ़क़ीर को ख़ाना ख़िलाना है अगरचे इन सब मवारिद में कफ़्फ़ारे का वाजिब न होना बईद नहीं है।

10- बदन के बालों को साफ़ करना।

मसअला नः 190

मोहरिम के लिये सर और गर्दन के बालों को साफ़ करना हराम है और उस में कम और ज़्यादा बालों के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है हत्ता कि एक बाल भी, इसी तरह फ़र्क़ नहीं है कि काट कर साफ़ करे या नोच कर भी कोई फ़र्क़ नहीं है अपने सर और बदन के बाल साफ़ करे या किसी और के सर और गर्दन के बाल साफ़ करे।

मसअला नः 191

वुज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम की हालत में बालों के गिरने की वजह से उस पर कोई चीज़ नहीं है अलबत्ता साफ़ करने की ग़र्ज़ से न हो।

मसअला नः 192

अगर बालों को साफ़ करने पर मजबूर हो जैसे कि आँख के बाल जो उस की अज़ीयत का सबब हों या सर के बाल जो दर्द का सबब हों तो कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 193

अगर मोहरिम जान बूझ कर बग़ैर ज़रूरत के अपना सर मूंढ़ ले तो उस पर एक दुम्बे का कफ़्फ़ारा है लेकिन अगर ग़फ़लत, भूले या मसअले की ला इल्मी की वजह से हो तो कोई कफ़्फ़ारा नहीं है।

मसअला नः 194

अगर अपना सर मूंढ़ने पर मजबूर हो तो उसका कफ़्फ़ारा बारह मुद ताआम (खाना) है जो छे मसाकीन को दिया जायेगा या तीन दिन के रोज़े या एक भेड़ है।

मसअला नः 195

अगर मोहरिम क़ैंची या मशीन के साथ अपने सर के बाल काटे तो ऐहवते वुजूबी की बिना पर एक गोसफ़न्द का कफ़्फ़ारा देगा।

मसअला नः 196

अगर अपने चेहरे पर हाथ लगाये पस एक या ज़्यादा बाल गिर जायें तो ऐहतियाते मुस्तहब यह है कि एक मुठ्ठी गनदुम, आटा या इन जैसी किसी चीज़ का फ़क़ीर को सदक़ा दे।

11- सुरमा लगानाः-

मसअला नः 197

अगर ज़ीनत शुमार किया जाये तो मोहरिम के लिये सुरमा लगाना जाएज़ नहीं है इसी तरह पल्कों पर मसकारा लगाना जैसे कि औरतें ज़ीनत के लिये लगाती हैं और उस में सियाह और ग़ैरे सियाह रंग के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है।

12- नाख़ून तराशनाः-

मसअला नः 198

मोहरिम के लिये नाख़ून काटना हराम है और इस में हाथों और पावं के नाख़ूनों के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है और न पूरे और कुछ नाख़ूनों के काटने में और न उन के काटने, तराशने, और उख़ाड़ने के दरमियान चाहे यह क़ैची के साथ हो या छुरी के साथ या किसी और चीज़ से।

मसअला नः 199

अगर नाख़ून काटने पर मजबूर हो जाये तो उस में कोई हर्ज नहीं है जैसे कि अगर नाख़ून का कुछ हिस्सा टूट जाये और बाक़ी हिस्सा तकलीफ़ का सबब हो।

मसअला नः 200

किसी दूसरे के नाख़ून काटने में कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 201

ऐहराम की हालत में नाख़ून काटने का कफ़्फ़ारा नीचे दिया गया है।

1- अगर अपने हाथ, पावं का एक नाख़ून काटे तो हर एक के बदले एक मुठ्ठी ताआम (खाना) कफ़्फ़ारा देगा।

2- अगर हाथ पावं के सब नाख़ून काटे तो एक भेड़ कफ़्फ़ारा देगा।

3- अगर एक ही बार में हाथ और पावं दोनों के पूरे नाख़ून काटे तो एक दुम्बा कफ़्फ़ारे में देगा और अगर हाथ के नाख़ून एक बार में और पावं के नाख़ून दूसरी बार में काटे तो दो गोसफ़न्द कफ़्फ़ारे में देने होंगे।

13- बदन से ख़ून निकालना।

मसअला नः 202

ऐहवते वुजूबी यह है कि मोहरिम कोई भी ऐसा काम न करे जिस से उस के बदन से ख़ून निकल आये।

मसअला नः 203

ऐहराम की हालत में टीका लगाने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन अगर उस की वजह से बदन से ख़ून निकल आता है तो ऐहवते वुजूबी यह है कि उस से परहेज़ किया जाये मगर ज़रूरत के मोक़े पर।

मसअला नः 204

ऐहवते वुजूबी यह है कि दाढ़ निकालने से परहेज़ किया जाये अलबत्ता अगर यह ख़ून निकलने का सबब बने मगर ज़रूरत और ऐहतियाज की सूरत में।

मसअला नः 205

बदन से ख़ून निकालने की सूरत में कफ़्फ़ारा नहीं है अगरचे एक दुम्बा कफ़्फ़ारे में देना मुस्तहब है।

14- फ़ुसूख़ः-

मसअला नः 206

फ़ुसूख़ के मायनी हैं झूट बोलना, गालियां देना, और दूसरों के मुक़ाबिल फ़ख्र करना इस बिना पर ऐहराम की हालत में झूट बोलने और गाली देने की हुरमत ग़ैर ऐहराम की हालत से ज़्यादा है।

मसअला नः 207

फ़ुसूख़ में कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं होता लेकिन इस्तेग़फ़ार करना वाजिब है।

15- जेदालः-

मसअला नः 208

दूसरों के साथ जेदाल करना अगर लफ़्ज़े अल्लाह के साथ क़सम ख़ाने पर मुशतमिल हो तो मोहरिम पर हराम है जैसे दूसरों के साथ निज़ा करते हुऐ ला वल्लाह या बला वल्लाह कहना।

मसअला नः 209

ऐहवते वुजूबी यह है कि इस लफ़्ज़ के साथ क़सम ख़ाने पर परहेज़ किया जाये कि जैसे दीगर ज़बानों में लफ़्ज़े अल्लाह का तरजुमा शुमार किया जाता है जैसे फ़ारसी में लफ़्ज़े ख़ुदा है और इसी तरह ऐहवते वुजूबी यह है कि झगड़ते वक़्त अल्लाह ताला के दीगर नामों के साथ क़सम ख़ाने से परहेज़ किया जाये जैसे रहमान, रहीम, क़ादिर वग़ैरा।

मसअला नः 210

अल्लाह ताला के अलावा दीगर मुक़द्दस चीज़ों की क़सम ख़ाना ऐहराम के मोहर्रेमात में से नहीं है।

मसअला नः 211

अगर सच्ची क़सम ख़ायें तो पहली और दूसरी मरतबा में इस्तेग़फ़ार वाजिब है और इस पर कफ़्फ़ारा नहीं है लेकिन अगर दो मरतबा से ज़्यादा करें तो कफ़्फ़ारे में एक दुम्बा देना वाजिब है।

मसअला नः 212

अगर झूठी क़सम ख़ायें तो पहली और दूसरी मरतबा में एक दुम्बा कफ़्फ़ारे में देना वाजिब है लेकिन ऐहवत यह है कि दूसरी मरतबा में दो गोसफ़न्द दे और अगर दो मरतबा से ज़्यादा करे तो कफ़्फ़ारे में एक गाय देना वाजिब है।

16- बदन पर कीड़ों का मारना।

मसअला नः 213

ऐहवत की बिना पर ऐहराम की हालत में जूं मारना जाएज़ नहीं है और इसी तरह दीगर कीड़ों जैसे पिसू वग़ैरा।

17- हरम के पोधों और पेड़ों को काटनाः-

मसअला नः 214

हरम में उगने वाले दरख़तों और घांस को तोड़ना काटना हराम है और इस में मोहरिम और ग़ैर मोहरिम के दरमियान की फ़र्क़ नहीं है।

मसअला नः 215

मज़कूरा हुक्म से वह मुस्तसना है जो जलने के वजह से टूट जाये या जानवरों को चारा डालने के लिये काटा जाये।

मसअला नः 216

हरम से घांस काटने पर कफ़्फ़ारा नहीं है बल्कि उस पर इस्तेग़फ़ार वाजिब है लेकिन अगर उस दरख़्त को काटे कि जिस का काटना हराम है तो ऐहवते वुजूबी यह है कि एक गाय कफ़्फ़ारे में दे।

18- अस्लहा उठानाः-

मसअला नः 217

मोहरिम के लिये असलहा उठाना जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 218

अगर अपनी जान व माल या किसी दूसरे की जान की हिफ़ाज़त के लिये अस्लहा उठाने की ज़रूरत हो तो यह जाएज़ है।

19- ज़मीनी जानवरों का शिकार करनाः-

मसअला नः 219

ऐहराम की हालत में ज़मीनी जानवरों का शिकार करना हराम है मगर जब उस की तरफ़ से तकलीफ़ पोहचाने का ख़ौफ़ हो। इसी तरह परिन्दों और टिड्डी का शिकार करना भी हराम है।

मसअला नः 220

मोहरिम के लिये शिकार का गोश्त ख़ाना हराम है चाहे उस ने ख़ुद से शिकार किया हो या किसी और ने किया हो चाहे शिकार करने वाला मोहरिम हो या न हो।

मसअला नः 221

दरयाई जानवों का शिकार करने में कोई हर्ज नहीं है जैसे मछली का शिकार करने और उन के ख़ाने में कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 222

पालतू जानवरों के ज़िबाह करने और ख़ाने में कोई हर्ज नहीं है जैसे दुम्बा मुर्ग़ा वग़ैरा।

मसअला नः 223

हरम के दायरे के अन्दर जानवरों का शिकार करना जाएज़ नहीं है चाहे मोहरिम हो या मोहरिम न हो। ऐहराम की हालत में शिकार करने और उस के कफ़्फ़ारे के ऐहकाम बहुत ज़्यादा हैं और चूंकि मोजूदा दौर में यह पेश नहीं आते इस लिये हम इन से चश्म पोशी करते हैं।

20- जिमाः-

मसअला नः 224

ऐहराम की हालत में जिमा और बीवी से हर क़िस्म की लज़्ज़त हासिल करना हराम है जैसे उस के बदन को छूना उस की तरफ़ शहवत की निगाह से देख़ना और उसे बोसा देना।

मसअला नः 225

मियां बीवी में से हर एक का दूसरे की तरफ़ देख़ना और उस के हाथ को छूना जाएज़ है अगर शहवत और लज़्ज़त से न हो तो।

मसअला नः 226

इंसान के मेहरम जैसे बाप, मां, भाई, बहन, और चचा, फूफी, वग़ैरा ऐहराम की हालत में भी मेहरम ही रहते हैं।

मसअला नः 227

बीवी के साथ जिमा करने का कफ़्फ़ारा एक ऊंट है और बाज़ मवारिद में हज बातिल हो जाता है और इस की तफ़सील फ़िक़्ह की मुफ़स्सल किताबों में मज़कूर है।

मसअला नः 228

दीगर लज़्ज़ात में से हर एक के लिये एक कफ़्फ़ारा है जिन की तफ़सील फ़िक़्ह की किताबों में मज़कूर है।

21- अक़्दे निकाहः-

मसअला नः 229

ऐहराम की हालत में अपने लिये या किसी और के लिये अक़्द करना हराम है हत्ता अगर वह ग़ैरे मोहरिम हो अंजाम पाने वाला ऐसा अक़्द बातिल है।

मसअला नः 230

अक़्द की हुरमत और इस के बातिल हो जाने में अक़्द दायमी और आरज़ी के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है।

22- इस्तमनाः-

मसअला नः 231

ऐहराम की हालत में इस्तमना करना हराम है और इस का हुक्म जिमा वाला हुक्म है। और उस से मुराद यह है कि इंसान अपने साथ ऐसा काम करे कि जिस से उस की शहवत पर उभर जाये यहां तक कि उस की मनी निकल आये।

मोहर्रेमात के कफ़्फ़ारे के ऐहकामः-

मसअला नः 232

अगर ग़फ़लत की वजह से या भूल कर ऐहराम के मोहर्रेमात में से किसी का इरतेकाब करे कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है मगर मगर शिकार के मामले में, क्योंकि इस में हर हाल में कफ़्फ़ारा वाजिब है।

मसअला नः 233

उमरे में शिकार के कफ़्फ़ारे के ज़िबाह करने का मक़ाम मक्का है और हज में मेना है और ऐहवत यह है कि दीगर कफ़्फ़ारों में भी इसी तरतीब के मुताबिक़ अमल किया जाये लेकिन अगर मक्का या मेना में कफ़्फ़ारा ज़िबाह न करे तो किसी दूसरी जगह ज़िबाह कर देना काफ़ी है कि हज से लोटने के बाद शहर में भी।

मसअला नः 234

जिस पर कफ़्फ़ारा वाजिब हो उस के लिये उस के गोश्त में से कुछ ख़ाना जाएज़ नहीं है लेकिन हज्जे वाजिब या मुस्तहब या नज़र की क़ुर्बानी के गोश्त को ख़ाने में कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 235

मोहर्रेमाते ऐहराम का कफ़्फ़ारा फ़क़ीर को देना वाजिब है मक्का की तरफ़ जाना।

मसअला नः 236

मीक़ात से ऐहराम बांध कर हुज्जाज उमरे के बाक़ी आमाल की अंजाम दही के लिये मक्का जाते हैं और मक्का पहुंचने से पहले हरम का इलाक़ा शुरु हो जाता है और हरम के इलाक़े में दाख़िल होने के लिये इस तरह मक्का और मस्जिदुल हराम में दाख़िल होने के लिये बहुत सारी दुआऐं और मुनाजात ज़िक्र हुई हैं। हम इन में से बाज़ का ज़िक्र करते हैं। जो शख़्स इन सब आदाब और मुस्तहब्बात पर अमल करना चाहता है वह मुफ़स्सल किताबों की तरफ़ रुजू करे।

हरम में दाख़िल होने की दुआः-

मसअला नः 237

हरम में दाख़िल होते वक़्त यह दुआ मुस्तहब हैः अल्लाह हुम्मा इन्नका क़ुलता भी किताबे कल मुनज़ले व क़ौलोकल हक़्क़े..........................बेरहमते का या अरहमर राहेमीन।

मसअला नः 238

मस्जिदुल हराम में दाख़िल होते वक़्त नीचे दिये गये आमाल मुस्तहब हैं।

1- मुकल्लफ़ के लिये मुस्तहब है कि मस्जिदुल हराम में दाख़िल होने के लिये ग़ुस्ल करे।

2- मुस्तहब है कि मस्जिदुल हराम में दाख़िल होते वक़्त वह दुआऐं पढ़ें जो हदीसों में वारिद हुई हैं।

तवाफ़ की शर्तेः

तवाफ़ में चन्द चीज़ें शर्त हैं।

पहलाः- नियत

दूसराः- हदस से पाक होना।

तीसराः- ख़बस से पाक होना।

चौथेः- मर्दों के लिये ख़तना।

पाचवाः- शरमगाह को छुपाना।

छटाः- मवालात।

यानी उमरा या हज के तवाफ़ को क़ुर्बतन इलल्लाह बजालाने का इरादा करे पस उस इरादे के बग़ैर अगरचे बाज़ चक्करों में तवाफ़ काफ़ी नहीं है।

मसअला नः 239

नियत में क़ुरबत और अल्लाह ताला के लिये इख़लास शर्त है पस अमल को बजा लायेगा अल्लाह ताला के हुक्म की इताअत करने के लिये लिहाज़ा अगर रिआया के लिये अंजाम दे तो ना फ़रमानी का मुर्तकिब होगा। और उस का अमल बातिल है।

मसअला नः 240

नियत में इस बात की ताईन करना शर्त है कि यह उमरा-ए-मुफ़रेदा का तवाफ़ है या उमरा-ए-तमत्तो का, या हज का, फिर आया हज्जे इस्लाम का तवाफ़ है, या हज्जे इस्तहबाबी का, या नज़्र वाले हज का, और अगर हज में नाएब हो तो उस का भी क़स्द करे।

मसअला नः 241

नियत का बोलना या उसे दिल से गुज़ारना वाजिब नहीं है बल्कि उमरे के तवाफ़ को अल्लाह ताला और उस के हुक्म की इताअत करने के लिये बजा लाना काफ़ी है और तवाफ़ की हालत में ज़िक्र, ख़ुशु, हुज़ूरे क़ल्ब और इस सिलसिले में वारिद होने वाली दुआ को तसलसुल के साथ पढ़ने की पाबन्दी करनी चाहिये।

दूसरी शर्तः- हदसे अकबर और असग़र से पाक होनाः

मसअला नः 242

वाजिब तवाफ़ की हालत में जनाबत, हैज़, निफ़ास, से पाक होना वाजिब है तवाफ़ के लिये वुज़ू भी वाजिब है।

वज़ाहतः- वाजिब तवाफ़ वह तवाफ़ है जो उमरा और हज के आमाल का जुज़ होता है इसी लिये मुस्तहब हज व उमरे में भी तवाफ़ को वाजिब शुमार किया जाता है।

मसअला नः 243

अगर हदसे अकबर या असग़र वाला शख़्स तवाफ़ करे तो उस का तवाफ़ सहीह नहीं है अगरचे वह जाहिल हो या उस ने भूल कर ऐसा किया हो बल्कि उस पर तवाफ़ और उस की नमाज़ का तकरार करना वाजिब है। हत्ता कि अगर तहारत के न होने की तरफ़ तवज्जोह उमरा या हज के आमाल से फ़ारिग़ होने के बाद हो।

मसअला नः 244

मुस्तहब तवाफ़ में वुज़ू शर्त नहीं है लेकिन ऐहवत की बिना पर जनाबत, हैज़, निफ़ास, की हालत में तवाफ़ हुक्मे वज़ई के एतेबार से सहीह नहीं है और उस के साथ साथ हुक्मे तकलीफ़ी के एतेबार से जनाबत, हैज़, निफ़ास, की हालत में मस्जिदुल हराम में दाख़िल होना हराम है।

वज़ाहतः- तवाफ़े मुस्तहब वह तवाफ़ होता है जो उमरा और हज के आमाल से मुस्तक़िल और अलेहदा होता है चाहे अपनी तरफ़ से तवाफ़ करे या किसी की नियाबत में और यह काम इन कामों में से एक है। जो मक्के में मुस्तहब है पस इंसान के लिये जिस क़दर तवाफ़ करना मुमकिन हो अच्छा है और अज्र व सवाब का सबब है।

मसअला नः 245

अगर मोहरिम अपने तवाफ़ के दौरान हदसे असग़र में मुबतेला हो जाये तो इस की चन्द सूरतें हैं।

1- हदस चौथे चक्कर के निस्फ़ तक पहुंचने से पहले आरिज़ हो यानी ख़ान-ए-काबा के तीसरे रुक्न के बिल मुक़ाबिल पहुंचने से पहले (तो इस तवाफ़ को मुनक़ता कर दे और तहारत के बाद तवाफ़ को पूरे करे)

2- हदस चौथे चक्कर के निस्फ़ के बाद लेकिन उसे मुकम्मल करने से पहले आरिज़ हो तो तवाफ़ को मुनक़ता करे और तहारत के बाद तवाफ़ को वहीं से जारी रखे अलबत्ता अगर उस से मवालाते उरफ़ी में ख़लल वारिद न होता हो वर्ना तमाम व इतमाम के क़स्द के साथ उस का एआदा करे। यानी इस नियत के साथ सात चक्कर लगाये कि अगर पिछले चक्कर सहीह हैं तो उस के बाक़ी चक्कर की कमी इन में से पूरी हो जायेगी और अगर वह बातिल है तो यह सात चक्कर एक नया तवाफ़ है और इस के लिये यह भी जाएज़ है कि इसे बिल्कुल ख़त्म कर के नये सिरे से तवाफ़ करे।

3- हदस चौथा चक्कर मुकम्मल करने के बाद आरिज़ हो तो तवाफ़ को मुनक़ता कर के तहारत करे और फिर वहीं से तवाफ़ को जारी रखे लेकिन अगर इस से मवालाते उरफ़ीया को नुक़सान न पहुंचा हो वर्ना ऐहवत यह है कि इसे मुकम्मल करे और फिर इसका एआदा भी करे और इस के लिये जाएज़ है कि इस तवाफ़ को बिल्कुल ख़त्म कर के नये सिरे से तवाफ़ बजालाये जैसे कि उस के लिये जाएज़ है कि तमाम व इतमाम के क़स्द के साथ सात चक्कर बजालाये। एआदा

मसअला नः 246

अगर तवाफ़ के दौरान हदसे अकबर आरिज़ हो जाये तो उस पर वाजिब है कि फ़ौरन मस्जिदुल हराम से निकल जाये और अगर यह चौथे चक्कर के निस्फ़ तक पहुंचने से पहले हो तो तवाफ़ बातिल है और ग़ुस्ल के बाद उसका एआदा करना वाजिब है और अगर निस्फ़ चक्कर के बाद हो और चौथा चक्कर पूरा होने से पहले हो तो अगर मवालाते उर्फ़िया में ख़लल वारिद न हुआ हो तो वहीं से तवाफ़ को जारी रखे वर्ना ऐहवत यह है कि उसे पूरा करे और फिर एआदा भी करे और उस के लिये जाएज़ है कि तमाम व इतमाम के क़स्द के साथ पूरा तवाफ़ बजालाये जैसे कि उस के लिये यह भी जाएज़ है कि साबिक़ा चक्करों को बातिल कर के ग़ुस्ल के बाद नया तवाफ़ बजालाये और अगर चौथा चक्कर पूरा होने के बाद आरिज़ हो तो उस का हुक्म वही है जो तवाफ़ के दौरान चौथा चक्कर मुकम्मल करने के बाद हदसे असग़र के आरिज़ होने का हुक्म है जिसका अभी ज़िक्र किया गया है।

मसअला नः 247

जो शख़्स वुज़ू या ग़ुस्ल के तर्क करने में माज़ूर हो उस पर इन दोनों के बदले तैयम्मुम करना वाजिब है।

मसअला नः 248

अगर किसी उज़्र की वजह से वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो तो उसे अगर आख़री वक़्त तक उस उज़्र के दूर होने का इल्म है जैसे कि वह मरीज़ जो जानता है कि आख़री वक़्त तक शिफ़ायाब हो जायेगा तो उस पर वाजिब है कि अपना उज़्र दूर होने तक सब्र करे पस वुज़ू और ग़ुस्ल के साथ तवाफ़ बजालाये बल्कि अगर उसे अपने उज़्र के दूर होने की उम्मीद न भी हो तो ऐहवते वुजूबी यह है कि सब्र करे यहां तक कि वक़्त तंग हो जाये। या अपने उज़्र के दूर होने से मायूस हो जाये तो उसके बाद तैयमुम कर के तवाफ़ बजालाये।

मसअला नः 249

जिस शख़्स का फ़रीज़ा तैयमुम या जबीरे वाला वुज़ू है अगर हुक्म से लाइल्मी की वजह से मज़कूरा तहारत के बग़ैर तवाफ़ या उस की नमाज़ को बजालाये तो उस पर वाजिब है कि अगर मुमकिन हो तो ख़ुद उनका एआदा करे वर्ना नाएब बनाये।

मसअला नः 250

अगर उमरा-ए-मुफ़रेदा के ऐहराम के बाद औरत को हैज़ आजाये और पाक होने का इंतेज़ार न कर सकती हो ताकि ग़ुस्ल कर के उसके आमाल को अंजाम दे तो उस पर वाजिब है कि तवाफ़ और नमाज़े तवाफ़ के लिये नाएब बनाये लेकिन सई और तक़सीर बजालाये और इन सब के साथ ऐहराम से ख़ारिज हो जाये और यही हुक्म है अगर हैज़ की हालत में ऐहराम बांधे लेकिन अगर हैज़ की हालत में उमरा-ए-तमत्तो का ऐहराम बांधे या उमरा-ए-तमत्तो का ऐहराम बांधने के बाद उसे हैज़ आजाये और पाक होने का इंतेज़ार न कर सकती हो ताकि ग़ुस्ल कर के उमरे का तवाफ़ और उसकी नमाज़ बजालाये तो उसका हुक्म दूसरा है कि जिस का ज़िक्र गुज़र चुका है।

मसअला नः 251

उमरे के आमाल में सिर्फ़ तवाफ़ और नमाज़े तवाफ़ में हदस से पाक होना वाजिब है लेकिन उमरे के बाक़ी आमाल में हदस से तहारत शर्त नहीं है अगरचे अफ़ज़ल यह है कि इंसान हर हाल में बा तहारत हो।

मसअला नः 252

अगर तहारत में शक हो तो उस की ज़िम्मेदारी नीचे दी गई है।

1- अगर तवाफ़ को शुरु करने से पहले वुज़ू में शक हो तो वुज़ू करे।

2- अगर उस पर ग़ुस्ल वाजिब हो और तवाफ़ को शुरु करने से पहले उसके बजालाने में शक करे तो उस पर वाजिब है कि ग़ुस्ल बजालाये।

3- अगर बावुज़ू हो और शक करे कि उसका वुज़ू बातिल हुआ या नहीं तो वुज़ू वाजिब नहीं है।

4- अगर तहारत हो और शक करे कि ग़ुस्ले जनाबत उस पर वाजिब हुआ है या नहीं या औरत शक करे कि उसे हैज़ आया है या नहीं तो उन पर ग़ुस्ल वाजिब नहीं है।

5- अगर तवाफ़ से फ़ारिग़ होने के बाद तहारत में शक करे तो उसका तवाफ़ सहीह है लेकिन उस पर वाजिब है कि नमाज़े तवाफ़ के लिये तहारत हासिल करे।

6- अगर तहारत की हालत में तवाफ़ शुरु करे और उन के दौरान हदस के तारी होने और न होने में शक करे जैसे कि शक करे कि उस का वुज़ू बातिल हुआ है या नहीं तो अपने शक की पर्वाह न करे और तहारत पर बिना रखे।

7- अगर तवाफ़ की हालत में शक करे कि उसने वुज़ू की हालत में तवाफ़ को शुरु किया था या नहीं तो यहां पर उसकी साबिक़ा हालत अगर वुज़ू हो तो उस पर बिना रखे और अपने शक की पर्वाह न करे और उसका तवाफ़ सहीह है लेकिन अगर उसकी साबिक़ा हालत वुज़ू न हो या उसमें भी शक करे की साबिक़ में वुज़ू रखता था या नहीं तो उस पर वाजिब है कि वुज़ू कर के नये सिरे से तवाफ़ बजालाये।

8- अगर उस पर ग़ुस्ल वाजिब हो और तवाफ़ के दौरान शक करे कि ग़ुस्ल किया था या नहीं तो उस पर वाजिब है कि फ़ौरन मस्जिद से निकल कर जाये और ग़ुस्ल कर के नये सिरे से तवाफ़ बजालाये।

तीसरी शर्तः- बदन और लिबास का निजासत से पाक होनाः-

मसअला नः 253

वाजिब है कि तवाफ़ की हालत में बदन और लिबास ख़ून से पाक हो और ऐहवते वुजूबी यह है कि यह दोनों बाक़ी निजासत से भी पाक हों। हां मोज़े, रुमाल, और अंगूठी का पाक होना शर्त नहीं है।

मसअला नः 254

यानी दिरहम से कम ख़ून और इसी तरह फ़ोड़े फुन्सी का ख़ून जिस तरह नमाज़ के बातिल हेने का सबब नहीं बनता इसी तरह तवाफ़ को भी बातिल नहीं करता।

मसअला नः 255

अगर बदन नजिस हो और तवाफ़ को मोअख़्ख़र करना मुमकिन हो या यहां तक के उसे निजासत से पाक कर ले तो तवाफ़ को मोअख़्ख़र करना वाजिब है यहां तक के उसका वक़्त तंग न हो जाये।

मसअला नः 256

अगर बदन या लिबास की तहारत में शक करे तो उसके लिये उन्हीं के साथ तवाफ़ करना जाएज़ है और उसका तवाफ़ सहीह है लेकिन अगर जानता हो कि पहले नजिस था और शक करे कि इसने उसे पाक किया है या नहीं तो उसके लिये उसके साथ तवाफ़ करना जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 257

अगर तवाफ़ से फ़ारिग़ होने के बाद अपने बदन या लिबास की निजासत की तरफ़ मुतवज्जेह हो तो उसका तवाफ़ सहीह है।

मसअला नः 258

अगर तवाफ़ के दौरान उसका बदन या लिबास नजिस हो जाये जैसे कि लोगों की भीड़ के नतीजे में उसका पावं ज़ख़मी हो जाये और तवाफ़ को मुनक़ता किये बग़ैर उसे पाक भी न कर सकता हो तो उस पर वाजिब है कि तवाफ़ को मुनक़ता कर के अपने बदन और लिबास को पाक करे फिर फ़ौरन पलट आये और जहां से तवाफ़ को छोड़ा था वहीं से उसे जारी रखे और यह सहीह है।

मसअला नः 259

अगर तवाफ़ के दौरान अपने बदन या लिबास में निजासत देख़े और न जानता हो कि क्या यह निजासत तवाफ़ को शुरु करने से पहले थी या तवाफ़ के दौरान लगी है तो साबिक़ा मसअले का हुक्म यहां भी लागू होगा।

मसअला नः 260

अगर तवाफ़ के दौरान अपने बदन या लिबास की निजासत की तरफ़ मुतवज्जह हो और उसे यक़ीन हो कि यह निजासत तवाफ़ को शुरु करने से पहले थी तो उसका हुक्म साबिक़ा मसअले वाला है।

मसअला नः 261

अगर अपने बदन या लिबास की निजासत को भूल कर इसी हालत में तवाफ़ कर ले और तवाफ़ के दौरान उसे याद आये तो इसका हुक्म गुज़िश्ता तीन मसाइल वाला है।

मसअला नः 262

अगर अपने बदन या लिबास की निजासत को भूल कर इसी हालत में तवाफ़ कर ले औऱ तवाफ़ से फ़ारिग़ होने के बाद याद आये तो तवाफ़ सहीह है लेकिन अगर नमाजे तवाफ़ को नजिस बदन या लिबास के साथ बजालाये तो उस पर वाजिब है कि तहारत के बाद उसे नये सिरे से पढ़े। और इस मसअले में ऐहवत यह है कि तहारत के बाद तवाफ़ का भी नये सिरे से एआदा करे।

चौथी शर्तः ख़तनाः-

यह सिर्फ़ मर्द के तवाफ़ की दुरुस्ती में शर्त है न कि औरत के, पस ख़तना न किये हुए शख़्स का तवाफ़ बातिल है चाहे वह बालिग़ हो या न बालिग़ हो।

पाचवीं शर्तः शर्मगाह को छिपानाः-

मसअला नः 263

ऐहवते वुजूबी की बिना पर तवाफ़ की दुरुस्ती में शर्मगाह को छिपाना शर्त है।

मसअला नः 264

अगर तवाफ़ के दौरान अपने सर के तमाम बालों को न छिपाये या अपने बदन के बाज़ हिस्सों को ज़ाहिर करे तो उसका तवाफ़ सहीह है अगरचे उसने हराम काम किया है।

छटी शर्तः तवाफ़ की हालत लिबास का ग़स्बी न होनाः-

मसअला नः 265

तवाफ़ की दुरुस्ती में शर्त है कि लिबास ग़स्बी न हो पस अगर ग़स्बी लिबास में तवाफ़ बजालाये तो ऐहवते वुजूबी की बिना पर उसका तवाफ़ा बातिल है।

सातवीं शर्तः मवालातः-

मसअला नः 266

ऐहवते वुजूबी की बिना पर तवाफ़ के अजज़ा के दरमियान मवालाते उर्फ़िया शर्त है यानी तवाफ़ के चक्करों के दरमियान इतना फ़ासला न करे कि जिस से एक तवाफ़ बरक़रार न रहे और वह सूरत उस से मुस्तसना है कि जब निस्फ़ तवाफ़ यानी साढ़े तीन चक्करों से गुज़रने के बाद नमाज़ वग़ैरा के लिये तवाफ़ को मुनक़ता करे।

मसअला नः 267

जो शख़्स नमाज़ फ़रीज़े की ख़ातिर अपने वाजिब तवाफ़ को निस्फ़ के बाद मुनक़ता करे तो जहां से उसे मुनक़ता किया था वहीं से मुकम्मल करे और अगर उस से पहले मुनक़ता किया हो और अगर ज़्यादा फ़ासला हो जाये तो ऐहवत यह है कि तवाफ़ का एआदा करे वर्ना इस एहतियात का वाजिब न होना बईद नहीं है अगरचे हर हालत में एहतियात बहतर है इस में फ़र्क़ नहीं है कि नमाज़ फ़ुरादा हो या जमाअत के साथ और न इस में कि वक़्त तंग हो या वसीअ।

मसअला नः 268

मुस्तहब बल्कि वाजिब तवाफ़ को भी मुनक़ता करना जाएज़ है अगरचे ऐहवत यह है कि वाजिब तवाफ़ को इस तरह मुनक़ता न करे कि जिस से मवालाते उर्फ़िया फ़ौत हो जाये।

तवाफ़ के वाजिबातः-

तवाफ़ में सात चीज़ें शर्त हैं।

1- हजरे असवद से शुरु करना यानी उसके बिल मुक़ाबिल जगह से शुरु करे यह शर्त नहीं है कि तवाफ़ हजरे असवद के शुरु से होके अपने पूरे बदन के साथ हजरे असवद के पूरे हिस्से के सामने से गुज़रे बल्कि उर्फ़न इबतेदा सिद्क़ करना काफ़ी है इस लिये हजरे असवद के किसी भी हिस्से से आग़ाज़ करना सहीह है। हां वाजिब है कि इसी जगह पर ख़त्म करे जहां से शुरु करे पस अगर दरमियान से शुरु करे तो वहीं पर ख़त्म करे।

2- हर चक्कर को हजरे असवद पर ख़त्म करना।

मसअला नः 269

वाजिब नहीं है कि हर चक्कर में ठहर कर दोबारहह शुरु करे बल्कि काफ़ी है कि बग़ैर ठहरे इसी तरह सात चक्कर लगाये कि सातवें चक्कर को उस जगह ख़त्म करे जहां से पहला चक्कर शुरु किया था एहतियातन कुछ मेक़दार ज़्यादा करने से कोई हर्ज नहीं है। ताकि यक़ीन हो जाये कि इस ने इसी जगह पर ख़त्म किया है जहां से आग़ाज़ किया था पस ज़ाएद को एहतियात की नियत से बजालाये।

मसअला नः 270

वाजिब है कि तवाफ़ उसी तरह करे जैसे सब मुसलमान करते हैं पस हजरे असवद के सामने से आग़ज़ करे और उसी पर ख़त्म करे वसवसा करने वालों की तवज्जोह के बग़ैर और हर चक्कर में हजरे असवद के सामने ठहरना वाजिब नहीं है।

3- तवाफ़ बाईं जानिब से होगा इस तरह कि तवाफ़ के दौरान ख़ान-ए-काबा तवाफ़ करने वाले की बाईं तरफ़ हो और इस से मक़सूद तवाफ़ की सिम्त को मोअय्यन करना है।

मसअला नः 271

ख़ान-ए-काबा के बाईं जानिब होना मेअयार सिद्क़े उर्फी है न दिक़्क़ते अक़ली पस हुज्र-ए-इस्माईल अलैहिस्सलाम और चार अरकान के पास पहुंचते वक़्त थोड़ा सा मुड़ना तवाफ़ की दुरुस्ती को कोई नुक़्सान नहीं पहुंचाता पस उन के पास पहुंचते वक़्त अपने कंधे को मोड़ने की ज़रूरत नहीं है।

मसअला नः 272

अगर तवाफ़ का कुछ हिस्सा राएज सूरत से हट कर बजालाये जैसे कि तवाफ़ के दौरान काबे को चूमने के लिये उसकी तरफ़ रुख़ मोड़े या भीड़ उसका रुख़ या पुश्त काबे की तरफ़ कर दे या काबेको उसकी दाईं जानिब कर दे तो उसका तवाफ़ सहीह नहीं है बल्कि उस हिस्से का तवाफ़ दोबारहह से बजा लाना वाजिब है।

4- हुज्र-ए-इस्माईल को अपने तवाफ़ के अन्दर शामिल करना और उस के बाहर से तवाफ़ करना।

मसअला नः 273

अगर अपना तवाफ़ हुज्र-ए-इस्माईल अलैहिस्सलाम के अन्दर से या असकी दीवार के ऊपर से बजालाये तो उसका तवाफ़ बातिल है और उसका एआदा करना वाजिब है और अगर किसी चक्कर में हुजरे के अन्दर से तवाफ़ करे तो सिर्फ़ वही चक्कर बातिल होगा।

मसअला नः 274

अगर जान बूझ कर हुजरे के अन्दर से तवाफ़ बजालाये तो उसका हुक्म जान बूझ कर तवाफ़ को तर्क करना वाला हुक्म है और अगर भूल कर ऐसा करे तो उसका हुक्म भूल कर तवाफ़ को तर्क करने वाला हुक्म है और इन दोनों का बयान पेश किया जायेगा।

5- तवाफ़ के दौरान ख़ान-ए-काबा और उसकी दीवार की निचली जानिब की बुनयाद जिसे शाज़रवान कहा जाता है, से बाहर रहना।

मसअला नः 275

हुज्र-ए-इस्माईल अलैहिस्सलाम की दीवार पर हाथ रखने में कोई हर्ज नहीं है जैसा कि काबे की दीवार पर हाथ रखना भी ऐसा ही है।

6- मशहूर क़ौल के मुताबिक़ शर्त है कि तवाफ़े ख़ान-ए-काबा और मक़ामे इब्राहीम अलैहिस्सलाम के दरमियान हो और दीगर जवानिब से उन दोनों के दरमियान के फ़ासले के हुदूद में हो लेकिन अक़वा यह है कि यह सर्त नहीं है पस उसे मस्जिदुल हराम में इस मेक़दार से पीछे अंजाम देने जाएज़ है ख़ुसूसन जब बहुत ज़्यादा भीड़ हो। हैं ऊला (बहतर) यह है कि अगर भीड़ माने हो तो तवाफ़ मज़कूरा मताफ़ के अन्दर हो।

मसअला नः 276

बईद नहीं है कि ज़मीन और काबे की छत के सामने वाली जगह में तवाफ़ काफ़ी हो लेकिन यह एहतियात के ख़िलाफ़ है।

लेकिन अगर सिर्फ़ ऊपर वाली छत दूसरी मंज़िल में तवाफ़ करने पर क़ादिर हो तो ऐहवते वुजूबी यह है कि ख़ुद ऊपर वाली मंज़िल पर तवाफ़ बजालाये और किसी को नाएब बना दे जो उसकी तरफ़ से मस्जिदुल हराम के सहन में तवाफ़ बजालाये।

7- तवाफ़ के सात चक्कर हैः-

तवाफ़ को तर्क करने, उसमें कमी करने या उसमें शक करने के बारे में चन्द मसअलें हैं।

मसअला नः 277

तवाफ़ एक रुक्न है जिसे उसके फ़ौत होने के वक़्त तक जान बूझ कर तर्क करने से उमरा बातिल हो जाता है और इस में फ़र्क़ नहीं है कि उस हुक्म को जानता हो या न जानता हो।

मसअला नः 278

मक्के में दाख़िल होने के बाद फ़ौरन तवाफ़ करना वाजिब नहीं है बल्कि उस वक़्त तक मोअख़्ख़र कर सकता है कि जिस से अरफ़ात के इख़तेयारी वुक़ूफ़ का वक़्त तंग न हो अरफ़ात में इख़तेयारी वुक़ूफ़ नौ ज़िलहिज्जा की दोपहर से लेकर ग़ुरूब तक होता है इस तरह कि उस के लिये तवाफ़ और उस पर मुतारत्तिब होने वाले आमाल को अंजाम देने के बाद मज़कूरा वुक़ूफ़ को दर्क करना मुमकिन हो।

मसअला नः 279

अगर अपने तवाफ़ को बातिल कर दे जैसा कि गुज़िश्ता हालत में या दीगर हालात में कि जिन्हें हम बयान करेंगे, तो ऐहवत यह है कि उमरे को हज्जे एफ़राद में तबदील कर दे और उसके बाद उमरा-ए-मुफ़रेदा बजालाये फिर अगर उस पर हज वाजिब था तो अगले साल उमरा और हज बजालाये।

मसअला नः 280

अगर भूल कर तवाफ़ तर्क कर दे और तवाफ़ का वक़्त गुज़रने से पहले याद आजाये तो तवाफ़ और नमाज़े तवाफ़ को बजालाये और उस के बाद सई को अंजाम दे।

मसअला नः 281

अगर भूल कर तवाफ़ तर्क कर दे और उसका वक़्त गुज़रने के बाद याद आये तो जिस वक़्त उसके लिये मुमकिन हो तो तवाफ़ और नमाज़े तवाफ़ की क़ज़ा करना वाजिब है लेकिन अगर अपने वतन वापस पलटने के बाद याद आये तो अगर उसके लिये बग़ैर किसी मुश्किल के लौटना मुमकिन हो तो ठीक है वर्ना नाएब बनाये और फिर तवाफ़ और नमाज़े तवाफ़ की क़ज़ा के बाद उस पर सई को अंजाम देना वाजिब नहीं है।

मसअला नः 282

तवाफ़ को तर्क करने वाले के लिये वह चीज़ें हलाल नहीं हैं कि जिन की हिल्लीयत तवाफ़ पर मोक़ूफ़ है चाहे जान बूझ कर तर्क करे या भूल कर जब तक ख़ुद या अपने नाएब के ज़रिये तवाफ़ बजा न लाये और इसी तरह वह शख़्स जो अपने तवाफ़ को भूल कर कम कर दे।

मसअला नः 283

जो शख़्स बीमारी या ज़ख़मी होने की वजह से तवाफ़ का वक़्त गुज़रने से पहले ख़ुद तवाफ़ करने से आजिज़ हो यहां तक कि किसी और की मदद से भी तो वाजिब है कि उसे उठा कर तवाफ़ कराया जाये अलबत्ता अगर यह मुमकिन हो, वर्ना उस पर वाजिब है कि नाएब बनाये।

मसअला नः284

अगर तवाफ़ से ख़ारिज होने के बाद चक्करों के कम या ज़्यादा होने में शक करे तो अपने शक की पर्वा न करे और सेहत पर बिना रखे।

नमाज़े तवाफ़ः-

यह उमरे का वाजिबात में से तीसरा वाजिब है।

मसअला नः 285

तवाफ़ के बाद दो रकअत नमाज़े तवाफ़ वाजिब है और इस में जहर व इख़फ़ात के दरमियान इख़्तियार है और इसी तरह नियत का तअय्युन भी वाजिब है जैसा कि तवाफ़ की नियत में गुज़र चुका है और इसी तरह क़ुरबत और इख़लास भी शर्त है।

मसअला नः 286

वाजिब है कि तवाफ़ और नमाज़े तवाफ़ के दरमियान फ़ासला न करे और फ़ासले के सिद्क़ करने या न करने का मेयार उर्फ़ है।

मसअला नः 287

नमाज़े तवाफ़ नमाज़े सुब्ह की तरह है और हम्द के बाद कोई भी सूरह पढ़ना जाएज़ है। मुस्तहब है कि पहली रकअत में सूर-ए-हम्द के बाद सूर-ए-तोहीद पढ़े और दूसरी रकअत में सूर-ए-हम्द के बाद कुल या अय्योहल काफ़ेरून पढ़े।

मसअला नः 288

वाजिब है कि नमाज़ मक़ामे इब्राहीम अलैहिस्सलाम के पीछे और उसके क़रीब हो अलबत्ता इस शर्त के साथ इस में दूसरों के लिये मज़ाहेमत न हो और अगर इस पर क़ादिर न हो तो मस्जिदुल हराम में मक़ामे इब्राहीम अलैहिस्सलाम के पीछे नमाज़ पढ़े अगरचे उस से दूर ही क्यों न हो बल्कि बईद नहीं है कि मस्जिदुल हराम की किसी भी जगह नमाज़ बजा लाना काफ़ी हो।

मसअला नः 289

अगर जान बूझ कर नमाज़े तवाफ़ तर्क करे तो उसका हज बातिल है लेकिन अगर भूल कर तर्क करे और मक्का से ख़ारिज होने से पहले याद आजाये और नमाज़ को उसकी जगह अंजाम देने के लिये वहां जाना उस के लिये मुश्किल न हो तो मस्जिदुल हराम की तरफ़ पलटे और नमाज़ को उसकी जगह पर अंजाम दे लेकिन अगर मक्के से ख़ारिज होने के बाद याद आये तो जहां याद आये वहीं पर नमाज़ पढ़ले।

मसअला नः 290

साबिक़ा मसअले में जाहिल क़ासिर या मुक़स्सिर का हुक्म वही है जो भूलने वाले का हुक्म है।

मसअला नः 291

अगर सई के दरमियान याद आये कि उसने नमाज़े तवाफ़ नहीं पढ़ी है तो सई को मुनक़ता कर के नमाज़ की जगह पर नमाज़ बजालाये और फिर पलटे और जहां से सई को मुनक़ता किया था वहीं से जारी रखे।

मसअला नः 292

अगर मर्द की नमाज़े तवाफ़ औरत की नमाज़े तवाफ़ के बिल मुक़ाबिल हो और मर्द औरत से थोड़ा ही आगे हो तो इन दोनों की नमाज़ की दुरुस्ती में कोई हर्ज नहीं है इसी तरह अगर उन के दरमियान फ़ासला हो अगरचे एक बालिश्त का तो भी की हर्ज नहीं है।

मसअला नः 293

नमाज़े तवाफ़ में जमाअत का जाएज़ होना मालूम नहीं है।

मसअला नः 294

हर मुकल्लफ़ पर वाजिब है कि वह नमाज़ सीखे ताकि अपनी ज़िम्मेदारी सहीह तरह से अंजाम दे सके ख़ुसूसन जो शख़्स हज करना चाहता है।

चौथी फ़स्लः सई

यह उमरे के वाजिबात में से चौथा वाजिब है।

मसअला नः 295

नमाज़े तवाफ़ के बाद सफ़ा और मरवा के दरमियान सई वाजिब है सई से मुराद उनके दरमियान इस तरह चलना है कि सफ़ा से शुरु करे और पहला चक्कर मरवा पर ख़त्म करे फिर दूसरा चक्कर मरवा से शुरु कर के सफ़ा पर ख़त्म करे और इसी तरह सात चक्कर लगाये और सातवां चक्कर मरवा पर ख़त्म कर दे और मरवा से शुरु कर के सफ़ा पर ख़त्म करना सहीह नहीं है।

मसअला नः 296

सई में नियत शर्त है और नियत में क़ुरबत, इख़लास भी मोअतबर है जो ऐहराम की नियत में गुज़र चुका है।

मसअला नः 297

सई में हदस और ख़बस से पाक होना शर्त नहीं है।

मसअला नः 298

सई को तवाफ़ और नमाज़े तवाफ़ के बाद अंजाम दिया जाता है पस उसे उन दो पर मुक़द्दम करना सहीह नहीं है।

मसअला नः 299

सई को अपने इख़्तियार के साथ तवाफ़ और नमाज़े तवाफ़ के बाद वाले दिन तक मोअख़्ख़र करना जाएज़ नहीं है अलबत्ता रात तक मोअख़्ख़र करने में कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 300

हर चक्कर में सफ़ा और मरवा के दरमियान पूरी मसाफ़त तैय करना वाजिब है अलबत्ता उन के ऊपर चढ़ना वाजिब नहीं है।

मसअला नः 301

सई के दौरान मरवा की तरफ़ जाते हुए मरवा की तरफ़ रुख़ करना वाजिब है और इसी तरह सफ़ा की तरफ़ रुख़ करना, पस अगर सई के दौरान पुश्त करे यानी उलटा चले तो उसकी सई सहीह नहीं है हां अपने चेहरे को दायें, बायें या पीछे की तरफ़ मोड़ना मुज़िर नहीं है।

मसअला नः 302

वाजिब है कि सई आम रास्ते में हो।

मसअला नः 303

ऊपर वाली मंज़िल में सई करना सहीह नहीं है जब तक यह साबित न हो जाये कि यह दो पहाड़ों के दरमियान है न उन से ऊपर और जो शख़्स सिर्फ़ ऊपर वाली मंज़िल में सई करने पर क़ादिर हो तो यह काफ़ी नहीं है बल्कि ज़रूरी है कि किसी को नाएब बनाये जो उसकी तरफ़ से पहली मंज़िल पर सई बजालाये।

मसअला नः 304

सई के दौरान आराम की ख़ातिर सफ़ा और मरवा के ऊपर या उन के दरमियान बेठना और उन पर सोना जाएज़ है बल्कि यह बग़ैर उज़्र के भी जाएज़ है।

मसअला नः 305

सलाहियत रखने की सूरत में वाजिब है ख़ुद सई बजालाये और पैदल चलते हुऐ और सवार हो कर सई करना भी जाएज़ है और पैदल चलना अफ़ज़ल है पस अगर ख़ुद सई करना मुमकिन न हो तो किसी से मदद ले जो उसे सई कराये या उसे उठा कर सई कराई जाये और अगर यह भी मुमकिन न हो तो नाएब बनाये।

मसअला नः 306

सई तनाफ़ की तरह रुक्न है और इसे जान बूझ कर या भूले से तर्क करने का हुक्म वही है जो तवाफ़ को तर्क करने का हुक्म है और इस का ज़िक्र गुज़र चुका है।

मसअला नः 307

जो शख़्स सई को भूले से तर्क कर के अपने उमरे से ख़ारिज हो जाये और अपनी बीवी के साथ जिमा कर ले तो ऐहवते वुजूबी की बिना पर सई के बजालाने के साथ साथ एक गाय का कफ़्फ़ारा देना भी वाजिब है।

मसअला नः 308

अगर भूल कर सई में एक या ज़्यादा चक्कर का इज़ाफ़ा कर दे तो उसकी सई सहीह है। और उस पर कोई चीज़ नहीं है और हुक्म से जाहिल हुक्म को भूलने वाले की तरह है।

मसअला नः 309

जो शख़्स सई की नियत से अपनी सई में सात चक्करों का इज़ाफ़ा कर दे, इस तरह कि वह समझता था आना जाना एक चक्कर है तो उस पर एआदा वादिब नहीं है। और उसकी सई सहीह है और यही हुक्म है अगर सई के दरमियान उसकी तरफ़ मुतावज्जह हो जाये तो जहां से याद आये इज़ाफ़ी को मुनक़ता कर दे।

मसअला नः 310

जो शख़्स भूल कर सई में कमी करे तो उस पर वाजिब है कि जब याद आये तो उसे मुकम्मल करे पस अगर अपने शहर पलटने के बाद याद आये तो उस पर वाजिब है कि सई को मुकम्मल करने के लिये दोबारह वहां जाये मगर यह कि उस काम में उस के लिये मुशक़्क़त और हर्ज हो तो किसी दूसरे को नाएब बनाये।

पाचवीं फ़स्लः- तक़सीर

यह उमरे के वाजिबात में से पाचवां वाजिब अमल है।

मसअला नः 311

सई मुकम्मल करने के बाद तक़सीर वाजिब है और इस से मुराद यह है कि सर, दाहड़ी, या मूछों के कुछ बालों का काटना या हाथ पैरों के कुछ नाख़ून उतारना।

मसअला नः 312

तक़सीर एक इबादत है कि जिस्में उन्हीं शर्तों के साथ नियत वाजिब है जो ऐहराम की नियत में ज़िक्र हो चुकी हैं।

मसअला नः 313

उमरा-ए-तमत्तो से ख़ारिज होने के लिये सर का मूढँना तक़सीर के लिये काफ़ी नहीं है बल्कि ख़ारिज होने के लिये तक़सीर ज़रूरी है पस अगर तक़सीर से पहले सर मुंढ़वाले तो अगर उस ने जान बूझ कर ऐसा किया हो तो न सिर्फ़ यह काफ़ी नहीं है बल्कि सर मुंढ़वाने की वजह से उस पर एक दुम्बे का कफ़्फ़ारा भी देना वाजिब है लेकिन अगर उसने उमरा-ए-मुफ़रेदा के लिये ऐहराम बांधा हो तो हल्क़ और तक़सीर के दरमियान उसे इख़्तियार है।

मसअला नः 314

उमरा-ए-तमत्तो के आमाल से ख़ारिज होने के लिये बालों को नोचना तक़सीर के लिये काफ़ी नहीं है बल्कि ख़ारिज होने के लिये तक़सीर ज़रूरी है जैसा कि गुज़र चुका है पस अगर तक़सीर के बजाये अपने बालों को नोचे और यह अमल जान बूझ कर अंजाम दे तो न सिर्फ़ यह काफ़ी नहीं है बल्कि उस पर बाल नोचने का कफ़्फ़ारा भी होगा।

मसअला नः 315

अगर हुक्म से लाइल्मी की बिना पर तक़सीर के बजाये बालों को नोचे और हज बजालाये तो उसका उमरा बातिल है और जो हज बजालाया है वह हज्जे एफ़राद वाक़े होगा और उस वक़्त अगर उस पर हज वाजिब हो तो ऐहवते वुजूबी यह है कि आमाले हज अदा करने के बाद उमरा-ए-मुफ़रेदा बजालाये फिर आइन्दा साल उमरा-ए-तमत्तो और हज बजालाये और यही हुक्म है उस बन्दे का जो हुक्म से लाइल्मी की वजह से तक़सीर के बदले अपने बाल मूंढ़दे और हज बजालाये।

मसअला नः 316

सई के बाद तक़सीर की अंजामदही में जलदी करना वाजिब नहीं है।

मसअला नः 317

अगर जान बूझ कर या लाइल्मी की वजह से तक़सीर तर्क कर के हज के लिये ऐहराम बांध ले तो अक़वा यह है कि उसका उमरा बातिल है और उसका हज, हज्जे एफ़राद हो जायेगा और ऐहवते वुजूबी यह है कि हज के बाद उमरा-ए-मुफ़रेदा बजालाये और अगर उस पर हज वाजिब हो तो आइन्दा साल उमरा और हज का एआदा करे।

मसअला नः 318

अगर भूल कर तक़सीर तर्क कर दे और हज के लिये ऐहराम बांध ले तो उसका ऐहराम, उमरा और हज सहीह है और उस पर कोई चीज़ नहीं है अगरचे उसके लिये एक दुम्बे का कफ़्फ़ारा देना मुस्तहब है बल्कि ऐहवत उसको तर्क न करना है।

मसअला नः 319

उमरा-ए-तमत्तो की तक़सीर के बाद उस के लिये वह सब हलाल हो जायेगा जो हराम था हत्ता कि औरतें भी।

मसअला नः 320

उमरा-ए-तमत्तो में तवाफ़े निसा वाजिब नहीं है अगरचे ऐहवत यह है कि रजा की नियत से तवाफ़े निसा और उसकी नमाज़ बजालाये लेकिन अगर उसने उमरा-ए-मुफ़रेदा के लिये ऐहराम बांधा हो तो उसके लिये औरतें हलाल नहीं होंगी मगर तक़सीर या हल्क़ के बाद तवाफ़े निसा और उसकी नमाज़ बजालाने के बाद, और उसका तरीक़ा और ऐहकाम तवाफ़े उमरा से मुख़तलिफ़ नहीं हैं कि जो गुज़र चुका है।

मसअला नः 321

ज़ाहिर की बिना पर हर उमरा-ए-मुफ़रेदा और हर हज के लिये अलग तौर पर तवाफ़े निसा वाजिब है मसलन अगर दो उमरा-ए-मुफ़रेदा बजालाये या एक हज और उमरा-ए-मुफ़रेदा बजालाये तो अगरचे उसके लिये औरतों के हलाल होने में एक तवाफ़े निसा का काफ़ी होना बईद नहीं है मगर उन में से हर एक के लिये अलग अलग तवाफ़े निसा वाजिब है।

पहली फ़स्लः- ऐहराम

यह हज के वाजिबात में से पहला वाजिब है। शराएत, कैफ़ीयत, मोहर्रेमात, ऐहकाम और कफ़्फ़ारात के लिहाज़ से हज का ऐहराम उमरे के ऐहराम से मुख़तलिफ़ नहीं है मगर नियत में फ़र्क़ है। पस उसके साथ आमाले हज अंजाम देने की नियत करेगा और जो कुछ उमरे के ऐहराम की नियत में मोतबर है वह सब हज के ऐहराम की नियत में भी मोतबर है और यह ऐहराम नियत और तलबिया के साथ मुनअक़िद हो जाता है। लिहाज़ा जब हज की नियत करे और तलबिया कहे तो उसका ऐहराम मुनअक़िद हो जायेगा। हां ऐहरामे हज बाज़ उमूर के साथ मुख़तस है जिन्हें नीचे दिये गये मसाएल के ज़ैल में बयान करते हैं।

मसअला नः 322

हज्जे तमत्तो के ऐहराम का मीक़ात, मक्का है। और अफ़ज़ल यह है कि हज्जे तमत्तो का ऐहराम मस्जिदुल हराम से बांधे और मक्के के हर हिस्से से ऐहराम काफ़ी है हत्ता कि वह हिस्सा जो नया बनाया गया है। लेकिन ऐहवत यह है कि क़दीमी मक़ामात से ऐहराम बांधे। हां अगर शक करे कि यह मक्के का हिस्सा है या नहीं तो वहां ऐहराम बांधना सहीह नहीं है।

मसअला नः 323

वाजिब है कि नो ज़िलहिज्जा को ज़वाल से पहले ऐहराम बांधे, इस तरह कि अरफ़ात में वुक़ूफ़ इख़्तियारी हासिल कर सके और उसके औक़ात में से अफ़ज़ल तरवीया के दिन आठ ज़िलहिज के ज़वाल का वक़्त है। और इस से पहले ऐहराम बांधना जाएज़ है ख़ुसूसन बूढ़े और बीमार के लिये जब उन्हें भीड़ की शिद्दत का ख़ौफ़ हो। यह भी गुज़र चुका है कि जो शख़्स उमरा बजालाने के बाद किसी ज़रूरत की वजह से मक्के से ख़ारिज होना चाहे तो उसके लिये ऐहरामे हज का मुक़द्दम करना जाएज़ है।

मसअला नः 324

जो शख़्स ऐहराम भूल कर अरफ़ात की तरफ़ चला जाये तो उस पर वाजिब है कि मक्के की तरफ़ पलटे और वहां से ऐहराम बांधे और अगर वक़्त की तंगी या और किसी वजह से यह न कर सकता हो तो अपनी जगह से ही ऐहराम बांधले और उसका हज सहीह है और ज़ाहिर यह है कि जाहिल भी भूलने वाले के साथ मुलहक़ है।

मसअला नः 325

जो शख़्स ऐहराम भूल जाये यहां तक के वह हज के आमाल मुकम्मल कर ले तो उसका हज सहीह है। और हुक्म से जाहिल भी भूलने वाले के साथ मुलहक़ है। और ऐहतियाते मुस्तहब यह है कि लाइल्मी और भूलने की सूरत में आइन्दा साल हज का एआदा करे।

मसअला नः 326

जो शख़्स जान बूझ कर ऐहराम तर्क कर दे यहां तक कि वुक़ूफ़ बिलअरफ़ात और वुक़ूफ़ बिलमशअर की सूरत ख़त्म हो जाये तो उसका हज बातिल है।

मसअला नः 327

जिस शख़्स के लिये आमाले मक्का को वुक़ूफ़ैन पर मुक़द्दम करना जाएज़ हो उस पर वाजिब है कि उन्हें ऐहराम की हालत में बजालाये लिहाज़ा उन्हें बग़ैर ऐहराम के बजालाये तो ऐहराम के साथ उन का एआदा करना होगा।

दूसरी फ़स्लः- अरफ़ात में वुक़ूफ़ करना

यह हज के वाजिबात में से दूसरा वाजिब है और अरफ़ात एक मशहूर पहाड़ है कि जिस की हद अरना, सवीया, और नमरा के वसत से ज़िलमहाज़ तक और माज़िम से वुक़ूफ़ की जगह के आख़र तक और ख़ुद यह हुदूद इस से ख़ारिज हैं।

मसअला नः 328

वुक़ूफ़ बिलअरफ़ात एक ऐसी इबादत है कि जिस में उन्हीं शराएत के साथ नियत वाजिब है जो ऐहराम की नियत में गुज़र चुकी हैं।

मसअला नः 329

वुक़ूफ़ से मुराद उस जगह हाज़िर होना है चाहे सवार हो या पैदल, या ठहरा हुआ।

मसअला नः 330

ऐहवत यह है कि नो ज़िलहिज के ज़वाल से ग़ुरूबे शरई नमाज़े मग़रिब के वक़्त तक ठहरे और बईद नहीं है कि उसे ज़वाल के अव्वल से इस क़दर मोअख़्ख़र करना जाएज़ हो कि जिस में नमाज़े ज़ोहरैन को उन के मुक़द्देमात समेत इकट्ठा अदा किया जा सके।

मसअला नः 331

मज़कूरा वुक़ूफ़ वाजिब है लेकिन इस में से सिर्फ़ रुक्न वह है कि जिस पर वुक़ूफ़ का नाम सिद्क़ करे और यह एक या दो मिनट के साथ भी हो जाता है अगर इस मेक़दार को भी अपने इख़्तियार के साथ तर्क कर दे तो हज बातिल है। और अगर इतनी मेक़दार वुक़ूफ़ करे और बाक़ी को तर्क कर दे या वुक़ूफ़ को अस्र तक मोअख़्ख़र कर दे तो उसका हज सहीह है अगरचे जान बूझ कर ऐसा करने की सूरत में गुनाह गार है।

मसअला नः 332

ग़ुरूब से पहले अरफ़ात से कूच करना हराम है पस अगर जान बूझ कर कूच करे और अरफ़ात की हुदूद से बाहर निकल जाये और पलटे भी न, तो गुनाह गार है और एक ऊँट का कफ़्फ़ारा देना वाजिब है लेकिन उसका हज सहीह है। और अगर ऊँट का कफ़्फ़ारा देने से आजिज़ हो तो अट्ठारा रोज़े रखे और ऐहवत यह है कि ऊँट को ईद वाले दिन मेना में ज़िबाह करे अगरचे उसे मेना में ज़िबाह करने का मोअय्यन न होना बईद नहीं है और अगर ग़ुरूब से पहले अरफ़ात में पलट आये तो कफ़्फ़ारा नहीं है।।

मसअला नः 333

अगर भूल कर या हुक्म से लाइल्मी की बिना पर ग़ुरूब से पहले अरफ़ात से कूच करे तो अगर वक़्त गुज़रने से पहले मुतवज्जह हो जाये तो उस पर वाजिब है कि पलटे और अगर न पलटे तो गुनाह गार है लेकिन उस पर कफ़्फ़ारा नहीं है लेकिन अगर वक़्त गुज़रने के बाद मुतवज्जह हो तो उस पर कोई चीज़ नहीं है।

तीसरी फ़स्लः- मशअरुल हराम में वुक़ूफ़ करना।

यह हज के वाजिबात में से तीसरा वाजिब है और इस से मुराद ग़ुरूब के वक़्त अरफ़ात से मशअरुल हराम की तरफ़ कूच करने के बाद उस मशहूर जगह में ठहरना है।

मसअला नः 334

वुक़ूफ़ बिलमशअर ऐसी इबादत है कि जिस में उन्हीं शर्तों के साथ नियत मोतबर है जो ऐहराम की नियत में ज़िक्र हो चुकी हैं।

मसअला नः 335

वाजिब वुक़ूफ़ का वक़्त दस ज़िलहिज्जा को तुलू-ए-फ़ज्र से लेकर तुलू-ए-आफ़ताब तक है और ऐहवत यह है कि अरफ़ात से कूच करने के बाद रात को वहां पहुंच कर वुक़ूफ़ की नियत के साथ वुक़ूफ़ करे।

मसअला नः 336

मशअर में तुलू-ए-फ़ज्र से लेकर तुलू-ए-आफ़ताब तक बाक़ी रहना वाजिब है लेकिन रुक्न इस क़दर हो कि जिसे वुक़ूफ़ कहा जाये अगरचे यह एक या दो मिनट हो। अगर इतनी मुद्दत वुक़ूफ़ करे और बाक़ी को जान बूझ कर तर्क कर दे तो उसका हज सहीह है अगरचे फ़ेले हराम का मुर्तकिब हुआ है लेकिन अगर अपने इख़्तियार के साथ इस क़दर वुक़ूफ़ को भी तर्क कर दे तो उसका हज बातिल है।

मसअला नः 337

साहिबे उज़्र लोगों, औरतों, बच्चों, बूढ़ों, कमज़ोरों, और बीमारों के लिये इतनी मुद्दत वुक़ूफ़ करने के बाद कि जिस पर वुक़ूफ़ सिद्क़ आता है ईद की रात मशअर से मेना की तरफ़ कूच करना जाएज़ है। इसी तरह वह लोग जो उन के हमराह कूच करते हैं और उन की तेमारदारी करते हैं जैसे ख़ादिम वग़ैरह यह लोग सिद्क़े वुक़ूफ़ की हद तक क़याम कर के कूच कर सकते हैं।

चौथी फ़स्लः कंकरियां मारनाः-

यह हज के वाजिबात में से चौथा और मेना के आमाल में से पहला वाजिब है। दस ज़िलहिज्जा को जम्र-ए-अक़्बा सब से बड़े शैतान को कंकरियां मारना है।

कंकरियां मारने की चन्द शर्तें हैं।

पहली शर्तः- नियत अपनी तमाम शर्तों के साथ जैसा कि ऐहराम की नियत में गुज़र चुका है।

दूसरी शर्तः- रमी उस के सात हो जिसे कंकरियां कहा जाये पस न इतने छोटे के साथ सहीह है कि वह रेत हो और न इतने बड़े के साथ जो पत्थर हो।

तीसरी शर्तः- रमी ईद वाले दिन तुलू-ए-आफ़ताब और ग़ुरूबे आफ़ताब के दरमियान हो अलबत्ता जिस के लिये यह मुमकिन हो।

चौथी शर्तः- कंकरियां जम्रे को लगें पस अगर न लगें या उसे उसके लगने का गुमान हो तो यह शुमार नहीं होंगी और उस के बदले दूसरी कंकरी मारना वाजिब है और उसका लगे बग़ैर उस दायरे तक पहुंच जाना जो जम्रे के इर्द गिर्द है काफ़ी है।

पाचवीं शर्तः- रमी सात कंकरियों के साथ हो।

छटी शर्तः- पय दर पय कंकरियां मारे पस अगर एक ही मरतबा मारे तो सिर्फ़ एक शुमार होगी चाहे सब जम्रे को लग जायें या न लगें।

मसअला नः 338

जम्रे को रमी करना जाएज़ है उस पर लगे हुए सिमिन्ट समैत। इसी तरह जम्रे के नये बनाये गये हिस्से पर रमी करना भी जाएज़ है अलबत्ता अगर उर्फ़ में उसे जम्रे का हिस्सा शुमार किया जाये।

मसअला नः 339

अगर क़दीमी जम्रे के आगे और पीछे से कई मीटर का इज़ाफ़ा कर दें तो अगर बग़ैर मशक़्क़त के साबिक़ा जम्रे को पहचान कर उसे रमी करना मुमकिन हो तो यह वाजिब है वर्ना मौजूदा जम्रे की जिस जगह को चाहे रमी करे यही काफ़ी है।

मसअला नः 340

ज़ाहिर यह है कि ऊपर वाली मंज़िल से रमी करना जाएज़ है अगरचे ऐहवत उस जगह से रमी करना है जो पहले से मारूफ़ हो।

कंकरियों की शर्तेः-

कंकरियों में चन्द चीज़ें शर्तें हैः

पहली शर्तः- वह हरम की हों और अगर हरम के बाहर से हों तो काफ़ी नहीं हैं।

दूसरी शर्तः- वह नई हों जिन्हें पहले सहीह तौर पर न मारा गया हो अगरचे गुज़िश्ता बरसों में।

तीसरी शर्तः- मुबाह हों पस ग़स्बी कंकरियों का मारना जाएज़ नहीं है और न उन कंकरियों का मारना जिन्हें किसी दूसरे ने जमा किया हो उसकी इजाज़त के बग़ैर, हां कंकरियों का पाक होना शर्त नहीं है।

मसअला नः 341

औरतें और कमज़ोर लोग, कि जिन्हें मशअरुल हराम में सिर्फ़ वुक़ूफ़ का मुसम्मा अंजाम देने के बाद मेना की तरफ़ जाने की इजाज़त है अगर वह दिन में रमी करने से माज़ूर हों तो उन के लिये रात के वक़्त रमी करना जाएज़ है बल्कि औरतों के लिये हर सूरत में रात के वक़्त रमी करना जाएज़ है अलबत्ता अगर वह अपने हज के लिये रमी कर रही हों या उन का हज नियाबती हो लेकिन अगर औरत सिर्फ़ रमी के लिये किसी की तरफ़ से नाएब बनी हो तो रात के वक़्त रमी करना सहीह नहीं है अगरचे दिन में रमी करने से आजिज़ हो बल्कि नाएब बनाने वाले के लिये ज़रूरी है कि वह ऐसे शख़्स को नाएब बनाये जो दिन के वक़्त रमी कर सके अगर उसे ऐसा शख़्स मिल जाये और उन लोगों की हमराही करने वाला अगर ख़ुद माज़ूर हो तो उसके लिये रात के वक़्त रमी करना जाएज़ है वर्ना उस पर वाजिब है कि दिन के वक़्त रमी करे।

मसअला नः 342

जो शख़्स ईद वाले दिन रमी करने से माज़ूर है उसके लिये शबे ईद या ईद के बाद वाली रात में रमी करना जाएज़ है और इसी तरह जो शख़्स ग्यारहवीं या बारहवीं के दिन रमी करने से माज़ूर है उसके लिये उसी रात या उसके बाद वाली रात में रमी करना जाएज़ है।

पाचवीं फ़स्लः- क़ुर्बानी करना

यह हज के वाजिबात में से पाचंवा वाजिब है और मेना के आमाल में से दूसरा अमल है।

मसअला नः 343

हज्जे तमत्तो करने वाले पर क़ुर्बानी करना वाजिब है और क़ुर्बानी तीन जानवरों में से एक जानवर पर होगी। ऊँट, गाय, और भेड़ दुम्बा और इन जानवों में नर और मादा के दरमियान फ़र्क़ नहीं है। बल्कि ऊँट अफ़ज़ल है और मज़कूरा जानवरों के अलावा दीगर हैवानात काफ़ी नहीं है।

मसअला नः 344

क़ुर्बानी एक इबादत है कि जिस में उन तमाम शराएत के साथ नियत शर्त है जो ऐहराम की नज़र में गुज़र चुकी हैं।

मसअला नः 345

क़ुर्बानी में चन्द चीज़ें शर्त हैं।

पहली शर्तः- सिन, ऊँट के लिये ज़रूरी है कि वह छटे साल में दाख़िल हो और गाय के लिये ज़रूरी है कि वह तीसरे साल में दाख़िल हो गई हो ऐहवते वुजूबी की बिना पर। और भेड़ गाय की तरह है लेकिन भेड़ में मोतबर है कि वह दूसरे साल में दाख़िल हो और ऐहवते वुजूबी की बिना पर मज़कूरा हद बन्दी छोटा होने की वजह से है पस उस से कमतर काफ़ी नहीं है लेकिन बड़ा होने की जहत से मज़कूरा हैवानात में से बड़ी उम्र वाला भी काफ़ी है।

दूसरी शर्तः- सहीह व सालिम होना।

तीसरी शर्तः- बहुत दुबला न होना।

चौथी शर्तः- उसके आज़ा पूरे हों पस नाक़िस काफ़ी नहीं है जैसे ख़स्सी वग़ैरा कि जिसके बेज़े निकाल दिये जायें हां अगर जिसके बेज़े मसल दिये जायें वह काफ़ी है मगर यह कि ख़स्सी की हद को पहुंच जाये। और दुम कटा, काना, लंगड़ा, कान कटा, और जिस के अन्दर का सींग टूटा हुआ हो वह काफ़ी नहीं है। इसी तरह अगर पैदाइशी तौर पर ऐसा हो तो भी काफ़ी नहीं है पस वह हैवान काफ़ी नहीं है कि जिस में ऐसा अज़ू न हो कि जो इस सिन्फ़ के जानवरों में आम तौर पर होता है इस तरह कि उसे उसमें नक़्स शुमार किया जाये।

हां अगर जिस का बाहर का सींग टूटा हुआ हो वह काफ़ी है। बाहर का सींग अन्दर वाले सींग के ग़िलाफ़ के तौर पर होता है। और जिस का कान फ़टा हुआ हो या उसके कान में सुराख़ हो उस में कोई हर्ज नहीं है।

मसअला नः 346

अगर एक जानवर को सहीह व सालिम समझते हुए ज़िब्ह करे फिर उसके मरीज़ या नाक़िस होने का शक हो तो सलाहियत की सूरत में दूसरे जानवर की क़ुर्बानी वाजिब है।

मसअला नः 347

ऐहवत यह है कि क़ुर्बानी जम्र-ए-अक़बा को कंकरियां मारने के बाद अंजाम पाये।

मसअला नः 348

ऐहवते वुजूबी यह है कि अपने इख़्तियार के साथ क़ुर्बानी को रोज़े ईद से मोअख़्ख़र न करे पस अगर जान बूझ कर, या भूले से या लाइल्मी की वजह से किसी उज़्र की ख़ातिर या बग़ैर उज़्र के मोअख़्ख़र करे तो ऐहवते वुजूबी यह है कि मुमकिन हो तो उसे अय्यामे तशरीक़ में ज़िब्ह करे वरना ज़िलहिज्जा के दीगर दिनों में ज़िब्ह करे और इस में रात और दिन के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है।

मसअला नः 349

ज़िब्ह करने की जगह मेना है पस अगर मेना में ज़िब्ह करना मुमकिन हो तो इस वक़्त ज़िब्ह करने के लिये जो जगह तय्यार की गई है उसमें ज़िब्ह करना काफ़ी है।

मसअला नः 350

ऐहवते वुजूबी यह है कि ज़िब्ह करने वाला मोमिन हो हां अगर वाजिब की नियत ख़ुद करे और नाएब को सिर्फ़ रगे काटने के लिये वकील बनाये तो ईमान की शर्त का न होना बईद नहीं है।

मसअला नः 351

शर्त है कि ख़ुद ज़िब्ह करे या उसकी तरफ़ की तरफ़ से वकील ज़िब्ह करे लेकिन अगर कोई और शख़्स उस की तरफ़ से ज़िब्ह करे बग़ैर इस के कि उसने पहले से उसे अपना वकील बनाया हो तो यह हर्ज का सबब है पस ऐहवत यह है कि यह काफ़ी नहीं है।

मसअला नः 352

ज़िब्ह करने के आले में शर्त है कि वह लोहे का हो या स्टील का हो यह फ़ोलाद होता है कि जिसे एक ऐसे माद्दे के साथ मिलाया जाता है जिसे ज़ंग नहीं लगता (लोहे के हुक्म में है) लेकिन अगर शक हो कि यह आला लोहे का है या नहीं तो जब तक मालूम न हो कि यह लोहे का है उस से ज़िब्ह करना काफ़ी नहीं है।

छटी फ़स्लः- तक़सीर या हल्क़

यह हज के वाजिबात में से छटा वाजिब है और मेना के आमाल का तीसरा हिस्सा है।

मसअला नः 353

ज़िब्ह के बाद सर मूंढ़ना या बालों या नाख़ून की तक़सीर वाजिब है औरत के लिये तक़सीर ही ज़रूरी नहीं है उसके लिये हल्क़ काफ़ी नहीं है और ऐहवत यह है कि तक़सीर में बाल भी काटे और नाख़ून भी लेकिन मर्द को हल्क़ और तक़सीर के दरमियान इख़्तियार है और उसके लिये हल्क़ ज़रूरी नहीं है। हैं जिस ने पहले हज न किया हो उसके लिये ऐहवत तराशना है।

मसअला नः 354

तराशना और छोटा करना हर एक का शुमार इबादत में होता है इस लिये इन दोनों में रिया कारी न हो बल्कि नियत में इख़लास और क़ुरबत वाजिब है। लिहाज़ा अगर कोई नियत के बग़ैर हल्क़ या तक़सीर करे तो उसके लिये वह चीज़ें हलाल नहीं होंगी जो उन के सात हलाल होती हैं।

मसअला नः 355

अगर तक़सीर या हल्क़ के लिये किसी दूसरे से मदद ले तो उस पर वाजिब है कि नियत ख़ुद करे।

मसअला नः 356

ऐहवते वुजूबी यह है कि हल्क़ ईद के दिन हो और अगर उसे रोज़े ईद अंजाम न दे तो ग्यारहवीं की रात और या उसके बाद अंजाम दे और यह काफ़ी है।

मसअला नः 357

जो शख़्स किसी मजबूरी की वजह से क़ुर्बानी को ईद के दिन न कर सके उस पर हल्क़ या तक़सीर मोअख़्ख़र करना वाजिब नहीं है बल्कि उन्हें ईद वाले दिन ही अंजाम वाजिब है पस उन में एहतियात को तर्क न किया जाये लेकिन इस सूरत में मक्के से मुतअल्लिक़ पांच आमाल मिनजुमला तवाफ़े हज और उमरे को क़ुर्बानी से पहले अंजाम देना मूजिबे ऐतराज़ है।

मसअला नः 358

वाजिब है कि हल्क़ या तक़सीर मेना में हो पस इख़्तियारी सूरत में मेना के अलावा कहीं और जाएज़ नहीं है।

मसअला नः 359

अगर जान बूझ कर या भूले से या लाइल्मी की बिना पर मेना से बाहर हल्क़ या तक़सीर करे और बाक़ी आमाल को अंजाम देदे तो उस पर वाजिब है कि हल्क़ या तक़सीर के लिये मेना की तरफ़ पलटे और फिर उन के बाद वाले आमाल का एआदा करे और यही हुक्म उसका है जो हल्क़ या तक़सीर तर्क कर के मेना से निकल जाये।

मसअला नः 360

अगर ईद वाले दिन क़ुर्बानी कर सकता हो तो वाजिब है कि ईद वाले दिन पहले जम्र-ए-अक़बा की रमी करे फिर क़ुर्बानी करे और उसके बाद हल्क़ या तक़सीर करे और जान बूझ कर इस तरतीब पर अमल न करे तो गुनाह गार है लेकिन ज़ाहिर यह है कि उस पर तरतीब के साथ आमाल का एआदा करना वाजिब नहीं है अगरचे सलाहियत रखने की सूरत में आमाल का एआदा करना एहतियात के मुआफ़िक़ है। और लाइल्मी और भूलने की सूरत में भी यही हुक्म है और अगर ईद वाले दिन मेना में क़ुर्बानी न कर सकता हो तो अगर उसी दिन उस ज़िब्ह ख़ाने में क़ुर्बानी कर सकता हो जो इस वक़्त मेना से बाहर क़ुर्बानी के लिये बनाया गया है तो भी ऐहवत की बिना पर वाजिब है कि क़ुर्बानी को हल्क़ या तक़सीर पर मुक़द्दम करे और फिर उन में से एक को बजालाये और अगर यह भी न कर सकता हो तो ऐहवते वुजूबी यह है कि ईद वाले दिन हल्क़ या तक़सीर बजालाने का इक़दाम करे और उस के ज़रिये ऐहराम से ख़ारिज हो जाये लेकिन मक्के के पांच आमाल को क़ुर्बानी के बाद तक मोअख़्ख़र कर दे।

मसअला नः 361

हल्क़ या तक़सीर के बाद मोहरिम के लिये वह सब हलाल हो जाता है जो ऐहरामे हज की वजह से हराम हुआ था सिवाये औरतों और ख़ुशबू के।

मक्के में पांच आमाल वाजिब है

(1) तवाफ़े हजः- इसे तवाफ़े ज़ियारत भी कहा जाता है।

(2) नमाज़े तवाफ़ः- यह नमाज़ तवाफ़ के बाद पढ़ी जाती है।

(3) सफ़ा और मरवा के दरमियान सई।

(4) तवाफ़े निसा।

(5) नमाज़े तवाफ़े निसा।

मसअला नः 362

ईद वाले दिन के आमाल से फ़ारिग़ होने के बाद जाएज़ बल्कि मुस्तहब है कि हज के बाक़ी आमाल, दो तवाफ़ और उन की नमाज़ें और सई को अंजाम देने के लिये उसी दिन मक्के की तरफ़ लोट जाये और उसे अय्यामे तशरीक़ के आख़िर तक बल्कि माहे ज़िलहिज के आख़िर तक मोअख़्ख़र करना भी जाएज़ है।

मसअला नः 363

तवाफ़, नमाज़े तवाफ़, और सई की कैफ़ियत वही है जो उमरे के तवाफ़ उस की नमाज़ और सई की है बग़ैर किसी फ़र्क़ के मगर नियत में फ़र्क़ है यहां हज को अंजाम देने की नियत करेगा।

मसअला नः 364

इख़्तियारी सूरत में मज़कूरा आमाल को वुक़ूफ़ बिल अरफ़ात, वुक़ूफ़ बिल मशअर, मेना के आमाल पर मुक़द्दम करना जाएज़ नहीं है यहां बाज़ गिरोहों के लिये इन का मुक़द्दम करना जाएज़ है।

पहलाः- उन औरतों के लिये जिन्हें जब मक्के की तरफ़ लोटने के बाद हैज़ या निफ़ास आने का ख़ौफ़ हो और पाक होने तक ठहरने पर भी क़ादिर न हों।

दूसराः- वह मर्द और औरतें जो मक्का पलटने के बाद भीड़ की वजह से तवाफ़ करने से आजिज़ हों या वह जो मक्का लौटने से ही आजिज़ हैं।

तीसराः- वह बीमार लोग जो मक्का लोटने के बाद भीड़ की शिद्दत या भीड़ के ख़ौफ़ से तवाफ़ करने से आजिज़ हों।

मसअला नः 365

अगर मज़कूरा तीन गिरोहों में से कोई शख़्स दो तवाफ़, उन की नमाज़, और सई को मुक़द्दम कर दे फिर उज़्र बरतरफ़ हो जाये तो उस पर वाजिब नहीं है कि उन का एआदा करें अगरचे एआदा करना ऐहवत है।

मसअला नः 366

जो शख़्स किसी उज़्र की वजह से मक्का के आमाल को मुक़द्दम करे जैसे मज़कूरा तीन गिरोहों, तो उसके लिये ख़ुशबू और औरतें हलाल नहीं होंगी बल्कि उसके लिये सब मोहर्रेमात तक़सीर या हल्क़ के बाद हलाल होंगे।

मसअला नः 367

तवाफ़े निसा और उस की नमाज़ दोनों वाजिब हैं लेकिन रुक्न नहीं है पस अगर उन्हें जान बूझ कर तर्क कर दें तो हज बातिल नहीं होगा लेकिन उस पर औरतें हलाल नहीं होंगी।

मसअला नः 368

तवाफ़े निसा सिर्फ़ मर्दों के लिये ही मख़सूस नहीं है बल्कि औरतों पर भी वाजिब है इस लिहाज़ से उसे तर्क कर दे तो उस के लिये औरतें हलाल नहीं होंगी और अगर औरत तर्क कर दे तो उसके लिये मर्द हलाल नहीं होंगे।

मसअला नः 369

इख़्तियार की सूरत में सई को तवाफ़े हज और उसकी नमाज़ पर मुक़द्दम करना जाएज़ नहीं है। और न ही तवाफ़े निसा को उन दोनों पर और न सई पर अगर तरतीब की मुख़ालेफ़त करे तो एआदा करे।

मसअला नः 370

अगर भूल कर तवाफ़े निसा तर्क कर दे और अपने शहर पलट आये तो अगर बग़ैर मुशक़्क़त के लोट सकता हो तो यह वाजिब है वरना नाएब बनाये और इस के लिये औरतें हलाल नहीं होंगी मगर ख़ुद उस के या उस के नाएब के तवाफ़ बजालाने के साथ, और अगर उसे जान बूझ कर तर्क करे तो भी यही हुक्म है।

मसअला नः 371

ऐहराम हज के साथ वह सब चिज़ें हराम हो जाती हैं जो उमरे के ऐहराम के मोहर्रेमात में गुज़र चुकी है और फिर बित्तदरीज और तीन मरहलों में हलाल होगी।

पहलाः- हल्क़ या तक़सीर के बाद हर चीज़ हलाल हो जाती है सिवाये औरतें और ख़ुशबू हत्ता कि शिकार भी हलाल हो जाता है अगरचे यह हरम में होने की वजह से हराम होता है।

दूसराः- सई के बाद ख़ुशबू हलाल हो जाती है।

तीसराः- तवाफ़े निसा और उस की नमाज़ के बाद औरतें हलाल हो जाती हैं।

आठवीं फ़स्लः- मेना में रात गुज़ारना।

यह हज के वाजिबात में से बारहवां और मेना के आमाल में चौथा अमल है।

मसअला नः 372

ग्यारहवीं और बारहवीं की रात मेना में गुज़ारना वाजिब है लिहाज़ा अगर दो तवाफ़, उन की नमाज़, और सई को बजालाने के लिये ईद के दिन मक्का चला गया हो तो मेना में रात गुज़ारने के लिये लोटना वाजिब है।

मसअला नः 373

नीचे दिये गये गिरोहों को मज़कूरा रातों को मेना में बसर करने के वुजूब से मुस्तसना हैं।

1- बीमार और उन की तीमारदारी करने वाले बल्कि हर साहिबे उज़्र शख़्स कि जिस के लिये उस उज़्र के होते हुए मेनामें रात गुज़ारना मुश्किल न हो।

2- जिस शख़्स को मक्के में अपने माल के ज़ाया होने या चोरी हो जाने का ख़ौफ़ हो।

3- जो शख़्स मक्के में फ़ज्र तक इबादत में मशग़ूल रहे और सिर्फ़ ज़रूरत के ख़ातिर ग़ैर इबादत में मशग़ूल हुआ हो जैसे ज़रूरत के मुताबिक़ ख़ाना पीना और दोबारहह वुज़ू करना।

मसअला नः 374

मेना में रात बसर करना इबादत है जिस में गुज़िश्ता तमाम शराएत के साथ नियत वाजिब है।

मसअला नः 375

ग़ुरूब से आधी रात तक वुक़ूफ़ काफ़ी है और जिस शख़्स ने बग़ैर उज़्र के रात का पहला आधा हिस्सा मेना में गुज़ारा उसके लिये ऐहवते वुजूबी यह है कि रात का दूसरा हिस्सा वहां गुज़ारे अगरचे बईद नहीं है कि इख़्तियारी सूरत में भी रात के दूसरे हिस्से का वहां गुज़ारना काफ़ी हो।

मसअला नः 376

जो शख़्स मक्क-ए-मोअज़्ज़ेमा में एक इबादत में मशग़ूल न रहा हो और मेना में रात गुज़ारने वाले वाजिब काम को भी तर्क कर दे तो उस पर हर रात के बदले एक भेड़ कफ़्फ़ारे में देना लाजिब है और ऐहवत की बिना पर इस में फ़र्क़ नहीं है कि उज़्र रखता हो या न रखता हो जाहिल हो या निसयान का शिकार हो।

मसअला नः 377

जिस शख़्स के लिये बारहवीं के दिन कूच करना जाएज़ हो और मेना में हो तो उस पर वाजिब है कि ज़वाल के बाद कूच करे और ज़वाल से पहले कूच करना जाएज़ नहीं है।

नवीं फ़स्लः- तीन जमरात को कंकरियां मारना

यह हज के वाजिबात में से तेरहवां और उमरे के आमाल में से पांचवा अमल है और तीन जमरात को कंकरियां मारना कैफ़ियत और शर्तों के ऐतेबार से ईद वाले दिन जम्र-ए-अक़बा को कंकरियां मारने से मुख़तलिफ़ नहीं है।

मसअला नः 378

जो रातें मेना में गुज़ारना वाजिब हैं उन के दिनों में तीन जमरात ऊला, वसती, और अक़बा को कंकरियां मारना वाजिब है।

मसअला नः 379

कंकरियां मारने का वक़्त तुलू-ए-आफ़ताब से ग़ुरूब-ए-आफ़ताब तक है पस इख़्तियारी सूरत में रात के वक़्त कंकरियां मारना जाएज़ नहीं है और इस से वह शख़्स मुस्तसना है जो कोई उज़्र रखता हो, इस तरह कि उसे अपने माल, इज़्ज़त व जान का ख़ौफ़ हो या चरवाहा और इसी तरह कमज़ोर लोग, जैसे कि औरतें, बूढ़े, और बच्चे कि जिन्हें अपने आप पर भीड़ की शिद्दत का ख़ौफ़ हो तो इन सब के लिये रात में कंकरियां मारना जाएज़ है।

मसअला नः 380

जो शख़्स सिर्फ़ दिन के वक़्त कंकरियां मारने से माज़ूर है न कि रात के वक़्त तो उसके लिये नाएब बनाना जाएज़ नहीं है बल्कि उस पर वाजिब है कि रात के वक़्त ख़ुद कंकरियां मारे चाहे यह अमल गुज़िश्ता रात में हो या आइन्दा रात में अंजाम पाये, लेकिन जो शख़्स रात में भी कंकरियां मारने से माज़ूर है जैसे बीमार शख़्स तो उसके लिये नाएब बनाना जाएज़ है लेकिन ऐहवते नुजूबी यह है कि अगर आइन्दा रात उज़्र बरतरफ़ हो जाये तो ख़ुद कंकरियां मारे।

मसअला नः 381

जो शख़्स ख़ुद कंकरियां मारने से माज़ूर हो अगर इस काम के लिये किसी को नाएब बनाये और वह नाएब उस काम को अंजाम देदे लेकिन उसके बाद कंकरियां मारने से पहले उसका उज़्र ख़त्म हो जाये और वह नाएब बनाते वक़्त अपने उज़्र से मायूस था यहां तक कि नाएब उसका अमल अंजाम देदे तो नाएब का अमल काफ़ी है और उस पर उसका एआदा करना वाजिब नहीं है लेकिन वह शख़्स जो उज़्र के बरतरफ़ होने पर मायूस नहीं है उसके लिये अगरचे उज़्र के तारी होने के वक़्त नाएब बनाना जाएज़ है लेकिन अगर बाद में उसका उज़्र बरतरफ़ हो जाये तो वाजिब है कि ख़ुद उसका एआदा करे।

मसअला नः 382

तीन जमरात को कंकरियां मारना वाजिब है लेकिन यह रुक्न नहीं है।

मसअला नः 383

कंकरियां मारने में तरतीब वाजिब है इस तरह कि पहले जम्रे से शुरु करे फिर दरमियान वाले को कंकरियां मारे और फिर आख़री को कंकरी मारे, पस हर जम्रे को सात कंकरियां मारे इसी तरीक़े के साथ जो गुज़र चुका है।

मसअला नः 384

अगर तीन जमरात को कंकरियां मारना भूल जाये और मेना से कूच कर जाये और अय्यामे तशरीक़ में याद आजाये तो उस पर वाजिब है कि मेना वापस आये और ख़ुद कंकरियां मारे अलबत्ता अगर यह उसके लिये मुमकिन हो वरना किसी दूसरे को नाएब बनाये लेकिन अगर अय्यामे तशरीक़ के बाद याद आये या जान बूझ कर कंकरियां मारने वाले अमल को अय्यामे तशरीक़ के बाद तक मोअख़्ख़र कर दे तो ऐहवते वुजूबी यह है कि वापस पलटे और ख़ुद कंकरियां मारे या उसका नाएब कंकरियां मारे फिर आइन्दा साल उसकी क़ज़ा करे और अगर तीन जमरात को कंकरियां मारना भूल जाये यहां तक कि मक्के से ख़ारिज हो जाये तो ऐहवते वुजूबी यह है कि आइन्दा साल इसकी क़ज़ा करे चाहे तो किसी को नाएब बना सकता है।

मसअला नः 385

जमरात में चारों अतराफ़ से कंकरियां मारना जाएज़ है इस में यह शर्त नहीं है कि पहले और दरमियान वाले में क़िबला रुख़ हो और आख़िरी वाले में क़िबले की तरफ़ पुश्त करे।

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