“अली और फ़ातेमा का प्रेम” ईरानी पॉप तराना है जिसका विषय है पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री और इमाम अली का पावन बंधन

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“अली और फ़ातेमा का प्रेम” ईरानी पॉप तराना है जिसका विषय है पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री और इमाम अली का पावन बंधन

अली और ज़हरा के प्रेम का तराना, आसमानी प्रेम की झलक

इमाम अली और हज़रत ज़हरा स. के प्रेम का तराना इमाम अली अलैहिस्सलाम और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा स. प्रेम के संबंध में है जो बहुत शिक्षाप्रद है।

यह तराना ईरानी पॉप के गायक नासिर अब्दुल्लाही की रचना है जिसे उन्होंने 1385 हिजरी शमसी अर्थात 2006 में पढ़ा। मेहरदाद नुस्रती की ज़िम्मेदारी इस तराने की कंपोज़ीशन की थी। इस तराने को फ़रज़ाद हसनी ने कहा है। इस तराने में पैग़म्बरे इस्लाम की प्राणप्रिय सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा स. और उनके चाचा के बेटे और दामाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पावन बंधन को सुन्दरतम और विविध ढंग से चित्रित किया गया है।

इस तराने में जो ज़ोहरये नूर व ग़ज़ल शब्द का प्रयोग किया गया है वह हज़रत फ़ातेमा की ओर संकेत है जो ख़ुशहाल हैं और उनकी मुस्कान ख़िले हुए पुष्प की भांति है। इसी प्रकार इस तराने में अबू तोराब शब्द का भी प्रयोग किया गया है जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की एक प्रसिद्ध उपाधि है।

इस तराने में हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा को ज़ोहरा तारे के प्रतीक के रूप में जबकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मिट्टी के प्रतीक के रूप में संकेत किया गया है और उनके पावन संबंध को आसमान और ज़मीन के मध्य एक प्रकार का संबंध बताया गया है जो समूचे ब्रह्मांड को प्रभावित कर रह रहा है।

इस तराने में फ़रिश्ता, आसमान और तारे जैसे शब्दों का बारमबार प्रयोग दोनों महान हस्तियों के मध्य प्रेम की पवित्रता व शुद्धता का सूचक है।

शायर इस तराने के अंत में इस विषय पर बल देता है कि हज़रत अली और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा अलैहिमस्सलाम का प्रेम समस्त प्रेमों का सर्वोत्तम आदर्श है और इन महान हस्तियों की ज़िन्दगी का आरंभ और अंत समूचा प्रेम है।

 ज़िलहिज्जा महीने की पहली तारीख़ हज़रत अली अलैहिस्सलाम और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के पावन बंधन की तारीख़ है और ईरानी कैलेन्डर में "आसमानी बंधन दिवस" या "मुबारक विवाह दिवस" का नाम दिया गया है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह का संयुक्त जीवन प्रेम और निष्ठा का सर्वोत्तम आदर्श है इस प्रकार से कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं ख़ुदा की क़सम जब तक फ़ातेमा ज़िन्दी थीं मैंने कभी भी उन्हें क्रोधित नहीं किया और उन्होंने भी कभी कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे मुझे ग़ुस्सा आये। मैं जब भी उन्हें देखता था मेरा दुःख व दर्द दूर हो जाता था।

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