अब्दुल मलिक इब्ने मरवान और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) (9)

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अब्दुल मलिक इब्ने मरवान और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)    (9)

65 हिजरी में मरवान के मरने के बाद उसका बेटा अब्दुल मलिक मिस्त्र व शाम का बादशाह तसलीम किया गया। यह बनी उमय्या का असलन नमूना था चूंकि मुसतबद फ़रेबी और ईमान से दूर था। वह अजीब क़ाबलियत के साथ अपनी खि़लाफ़त को मुस्तहकम करने में मसरूफ़ हुआ। उसकी राह में मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फी और अब्दुल्ला इब्ने ज़ुबैर रूकावट थे। उनके बाद जमादुस्सानिया 73 हिजरी में अब्दुल मलिक इब्ने मरवान तमाम मुमालिके इस्लाम का अकेला बादशाह बन गया। इब्ने ज़ुबैर से लड़ने में चूंकि हज्जाज बिन यूसुफ़ अमवी जरनल ने नुमायां किरदार अदा किया था इस लिये अब्दुल मलिक बिन मरवान ने उसे हिजाज़ का गर्वनर बना दिया था।

75 हिजरी में अब्दुल मलिक ने इसे अपनी मशरिक़ी सलतनत, ईराक़, फ़ारस और सिस्तान, किरमान और ख़ुरासान का जिसमें काबुल और कुछ हिस्सा मावरा अल नहर का भी शामिल था वायस राय बना दिया।

हज्जाज ने अपनी हिजाज़ की गर्वनरी के ज़माने में मदीने के लोगों पर जिनमें असहाबे रसूल (स. अ.) भी थे बड़े बड़े ज़ुल्म किये। ईराक़ में अपनी बीस बरस की गर्वनरी के दौरान में उसने तक़रीबन डेढ़ लाख (1,50000 और बा रवायत मिशक़ात 5,00000 पांच लाख) बन्दगाने ख़ुदा का ख़ून बहाया था। जिनमें से बहुत लोगों पर झूठे इल्ज़ाम और बोहतान लगाये गये थे। उसकी वफ़ात के वक़्त 50,000 (पचास हज़ार) मर्द व ज़न क़ैद ख़ानों में पड़े हुए उसकी जान को रो रहे थे। बे सख़फ़ (बग़ैर छत) क़ैद ख़ाना उसी की ईजाद है।

इब्ने ख़ल्क़ान लिखता है कि अब्दुल मलिक बड़ा ज़ालिम और सफ़्फ़ाक था और ऐसे ही उसके गवरनर, हज्जाज ईराक़ में, मेहरबान ख़ुरासान में, हश्शाम इब्ने इस्माईल हिजाज़ और मग़रेबी अरब में और उसका बेटा अब्दुल्लाह मिस्त्र में, हस्सान बिन नोमान मग़रिब में, हज्जाज का भाई मोहम्मद बिन यूसुफ़ यमन में, मोहम्मद बिन मरवान जज़ीरे में, यह सब के सब ज़ालिम और सफ़्फ़ाक थे। और मसूदी लिखता है कि बे परवाही से ख़ून बहाने में अब्दुल मलिक के आमिल इसी के नक़्शे क़दम पर चलते थे मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि यह कंजूस, बे रहम, सफ़्फ़ाक, वायदा खि़लाफ़, दग़ा बाज़ बे ईमान था। यह मतलब बरारी के लिये सब कुछ किया करता था। अख़तल इसके दरबार का मशहूर शायर और ज़हरी मशहूर मोहद्दिस था जिसने सब से अव्वल हदीस की किताब लिखी। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 42)

ज़हरी का असल नाम इमाम अबू बकर मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अबीद उल्ला इब्ने शहाब ज़हरी मदनी शामी था। यह ताबई फ़क़ीह और मोहद्दिस था। 51 हिजरी में पैदा हो कर 124 हिजरी में फ़ौत हुआ। मदीने के नामी मोहद्दिसों और फ़की़हो में था, अब्दुल मलक और हश्शाम ख़ुल्फ़ा बनी उमय्या की सोहबत में रहा। इमाम मालिक का उस्ताद और इल्मे हदीस का मदून था।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 5 सफ़ा 79 सफ़ा 19, 20)

 बहुत से उलमा ने लिखा है कि अब्दुल मलक बिन मरवान ने हुक्म दे दिया था कि अली इब्ने हुसैन (अ.स.) को गिरफ़्तार कर के शाम पहुँचा दिया जाए। चुनांचे आप को जंजीरों में जकड़ कर मदीने से बाहर एक ख़ेमें में ठहरा दिया गया।

ज़हरी का बयान है कि मैं उन्हें रूख़सत करने के लिये उनकी खि़दमत में हाज़िर हुआ। जब मेरी नज़र हथकड़ी और बेड़ियों पर पड़ी तो मेरी आंखांे से आंसू निकल पड़े और मैं अर्ज़ परदाज़ हुआ कि काश आपके बजाए लोहे के ज़ेवरात मैं पहन लेता और आप इससे बरी हो जाते। आपने फ़रमाया ज़हरी तुम मेरी हथकड़ियां, बेड़ी और मेरे तौक़े गरां बार को देख कर घबरा रहे हो सुनों ! मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है। (शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 177 व अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 422 हयातुल औलिया जिल्द 3 सफ़ा 135 तबा मिस्त्र)

अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई बा हवाला ज़हरी लिखते हैं कि इस वाक़ेए के बाद अब्दुल मलिक इब्ने मरवान के पास गया मैंने कहा कि ‘‘ ऐ अमीर , लैयसा अली इब्नुल हुसैन हैस तज़न अन्दा मशगू़ल बे रब्बेही ’’ इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पर किसी क़िस्म का कोई इल्ज़ाम नहीं है। वह तेरी हुकूमत के मामेलात से कोई दिलचस्पी नहीं रखते वह ख़ालिस अल्लाह वाले हैं। कि ज़हरी के तज़किरे ख़ुसूसी के बाद अब्दुल मलिक इब्ने मरवान ने हज्जाज बिन यूसुफ़ को लिखा कि ‘‘ अन यजूतनेबा देमा बनी अब्दुल मुत्तलिब ’’ बनी हाशिम को सताने और उनके ख़ून बहाने से इज्तेनाब करें। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 119)

अल्लामा शिबली लिखते हैं कि बादशाह ने हज्जाज को इज्तेनाब की वजह भी लिखी थी और वह यह थी कि बनी उमय्या के अकसर बादशाह उन्हें सताकर जल्द तबाह हो गए हैं। (नूरूल अबसार सफ़ा 127) ग़रज़ अब्दुल मलिक के ज़माने में इस वाक़िये के बाद से औलादे अबु तालिब हज्जाज के हाथों से अमान में रही। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 141)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और बुनियादे काबा ए मोहतरम व नसबे हजरे असवद

71 हिजरी में अब्दुल मलिक बिन मरवान ने ईराक़ पर लशकर कशी कर के मसअब बिन ज़ुबैर को क़त्ल किया फिर 72 हिजरी में हज्जाज बिन यूसुफ़ को एक अज़ीम लशकर के साथ अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर को क़त्ल करने के लिये मक्के मोअज़्ज़मा रवाना किया। (अबुल फ़िदा) वहीं पहुँच कर हज्जाज ने इब्ने ज़ुबैर से जंग की इब्ने ज़ुबैर ने ज़बर दस्त मुक़ाबला किया और बहुत सी लड़ाईयां हुईं, आखि़र में इब्ने ज़ुबैर महसूर हो गए, और हज्जाज ने इब्ने ज़ुबैर को काबे से निकालने के लिये काबे पर संग बारी शुरू कर दी यही नहीं बल्कि उसे खुदवा डाला। इब्नु ज़ुबैर जमादिल आखि़र 73 हिजरी में क़त्ल हुआ। (तारीख़ इब्नुल वरदी) और हज्जाज जो ख़ाना ए काबा की बुनियाद तक ख़राब कर चुका था, इसकी तामीर की तरफ़ मुतवज्जे हुआ।

अल्लामा सद्दूक़ किताब एललुश शराए में लिखते हैं कि हज्जाज के हदमे काबा के मौक़े पर लोग उसकी मिट्टी तक उठा कर ले गए और काबा को इस तरह लूट लिया कि इसकी कोई पुरानी चीज़ बाक़ी न रही। फिर हज्जाज को ख़्याल पैदा हुआ कि इसकी तामीर करानी चाहिए। चुनान्चे उस ने तामीर का प्रोग्राम मुरत्तब कर लिया और काम शुरू करा दिया। काम की अभी बिल्कुल इब्तेदाई मंज़िल थी कि एक अज़दहा बरामद हो कर ऐसी जगह बैठ गया जिसके हटे बग़ैर काम आगे नहीं बढ़ सकता था। लोगों ने इस वाक़िए की इत्तेला हज्जाज को दी, हज्जाज घबरा उठा और लोगों को जमा कर के उन से मशविरा किया कि अब क्या करना चाहिए। जब लोग इसका हल निकालने से का़सिर रहे तो एक शख़्स ने खड़े हो कर कहा कि आज कर फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) यहां आए हुए हैं बेहतर होगा कि उन से दरयाफ़्त कराया जाए यह मसला उनके अलावा कोई हल नहीं कर सकता। चुनान्चे हज्जाज ने आपको ज़हमते तशरीफ़ आवरी दी। आपने फ़रमाया हज्जाज तूने ख़ाना ए काबा को अपनी मीरास समझ लिया । तूने तो बेनाए इब्राहीम (अ.स.) उखड़वा कर रास्ते में डलवा दिया। ‘‘ सुन ! तुझे ख़ुदा उस वक़्त तक काबे की तामीर में कामयाब न होने देगा जब तक तू काबे का लूटा हुआ सामान वापस न मंगाएगा। यह सुन कर ऐलान किया कि काबे से मुतअल्लिक़ जो शय भी किसी के पास हो वह जल्द अज़ जल्द वापस करें चुनान्चे लोगों ने पत्थर मिट्टी वग़ैरा जमा कर दी। जब सब कुछ जमा हो गया तो आप उस अज़दहे के क़रीब गए और वह हट कर एक तरफ़ हो गया। आपने उसकी बुनियाद इस्तेवार की और हज्जाज से फ़रमाया कि इसके ऊपर तामीर करो ‘‘ फ़ल ज़ालिक सार अल बैत मरतफ़अन ’’ फिर इसी बुनियाद पर ख़ाना ए काबा की तामीर बुलन्द हुई। किताब अल ख़राएज वल हराए में अल्लामा कुतब रावन्दी लिखते हैं कि जब तामीरे काबा उस मक़ाम तक पहुँची जिस जगह हजरे असवद नसब करना था यह दुशवारी पैदा हुई कि जब कोई आलिम, ज़ाहिद, क़ाजी़ उसे नस्ब करता था तो ‘‘ यताज़ल ज़लव यज़तरब वला यसतक़र ’’ हजरे असवद मुताज़लज़िल और मुज़तरिब रहता और अपने मुक़ाम पर ठहरता न था बिल आखि़र इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बुलाए गए और आपने बिस्मिल्लाह कह कर उसे नसब कर दिया, यह देख कर लोगों ने अल्लाहो अकबर का नारा लगाया। (दमए साकेबा जिल्द 2 सफ़ा 437) उल्मा व मुवर्रेख़ीन का बयान है कि हज्जाज बिन यूसुफ़ ने यज़ीद बिन माविया ही की तरह ख़ाना ए काबा पर मिनज़नीक़ से पत्थर वग़ैरा फिकवाए थे।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और अब्दुल मलिक बिन मरवान का हज

बादशाहे दुनिया अब्दुल मलिक बिन मरवान अपने अहदे हुकूमत में अपने पाये तख़्त से हज के लिये रवाना हो कर मक्के मोअज़्ज़मा पहुँचा और बादशाहे दीन हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) भी मदीना ए मुनव्वरा से रवाना हो कर पहुँच गए। मनासिके हज के सिलसिले में दोनों का साथ हो गया। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) आगे आगे चल रहे थे और बादशाह पीछे पीछे चल रहे था। अब्दुल मलिक को यह बात नागवार हुई और उसने आपसे कहा क्या मैंने आप के बाप को क़त्ल किया है जो आप मेरी तरफ़ मुतवज्जे नहीं होते? आपने फ़रमाया कि जिसने मेरे बाप को क़त्ल किया है उसने अपनी दुनिया व आख़ेरत ख़राब कर ली ह,ै क्या तू भी यही हौसला रखता है? उसने कहा नहीं। मेरा मतलब यह है कि आप मेरे पास आयें ताकि मैं आपसे कुछ माली सुलूक करूँ। आपने इरशाद फ़रमाया, मुझे तेरे माले दुनिया की ज़रूरत नहीं है, मुझे देने वाला ख़ुदा है। यह कह कर आपने उसी जगह ज़मीन पर रिदाए मुबारक डाल दी और काबे की तरफ़ इशारा कर के कहा, मेरे मालिक इसे भर दे। इमाम (अ.स.) की ज़बान से अल्फ़ाज़ का निकलना था कि रिदाए मुबारक मोतियों से भर गई। आपने उसे राहे ख़ुदा में दे दिया। (दमए साकेबा, जन्नातुल ख़ुलूद सफ़ा 23)

बद किरदार और रिया कार हाजियों की शक्ल

इमामुल हदीस ज़हरी का बयान है कि मैं हज के मौक़े पर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास मक़ामे अराफ़ात में खड़ा हाजियों को देख रहा था। दफ़तन मेरे मुहं से निकला कि मौला कितने लाख हाजी हैं और कितना ज़बरदस्त शोर मचा हुआ है। हज़रत ने फ़रमाया कि मेरे क़रीब आओ। जब मैं बिल्कुल नज़ीद हुआ तो आपने मेरे चेहरे पर हाथ फेर कर फ़रमाया, ‘‘ अब देखो ’’ जब मैं ने फिर नज़र की तो मुझे लाखों आदमियों में दस हज़ार के एक के तनासुब से इन्सान दिखाई दिये बाक़ी सब के सब बन्दर , कुत्ते, सुअर, भेड़िये और इसी तरह के जानवर नज़र आये। यह देख कर मैं हैरान रह गया। आपने फ़रमाया कि सुनो ! जो सही नियत और सही अक़ीदे के बग़ैर हज करते हैं उनका यही हश्र होता है। ऐ ज़हरी नेक नियत और हमारी मोवद्दत व मोहब्बत के बग़ैर सारे आमाल बेकार हैं। (तफ़सीरे इमाम हसन असकरी व दमए साकेबा, जिल्द 2 सफ़ा 438)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और एक मर्दे बल्ख़ी

अल्लामा शेख़ तरही और अल्लामा मजलिसी रक़म तराज़ हैं कि बलख़ का रहने वाला एक दोस्त दारे आले मोहम्मद (अ.स.)  हमेशा हज किया करता था और जब हज को आता था तो मदीने जा कर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की ज़ियारत का शरफ़ भी हासिल किया करता था। एक मरतबा हज से लौटा तो उसकी बीवी ने कहा कि तुम हमेशा अपने इमाम की खि़दमत मे तोहफ़े ले जाते हो मगर उन्होंने आज तक तुम को कुछ न दिया। उसने कहा तौबा करो तुम्हारे लिये यह कहना सज़ावार नहीं है, वह इमामे ज़माना हैं। वह मालिके दीनो दुनियां हैं। वह फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हैं। वह तुम्हारी बातें सुन रहे हैं। यह सुन कर वह ख़ामोश हो गई। अगले साल जब वह हज से फ़राग़त कर के इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की खि़दमत में पहुँचा और सलाम व दस्त बोसी के बाद आपके पास बैठा तो आप ने खाना तलब फ़रमाया। हुक्मे इमाम (अ.स.) से मजबूर हो कर उसने इमाम (अ.स.) के साथ खाना खाया। जब दोनों खाना खा चुके तो इमाम के दोस्त बलख़ी ने हाथ धुलाना चाहा। आपने फ़रमाया तू महमान है, यह तेरा काम नहीं। उसने इसरार किया और हाथ धुलाना शुरू कर दिया। जब तश्त भर गया तो आपने पूछा यह क्या है। उसने कहा ‘‘ पानी ’’ हज़रत ने फ़रमाया नहीं ‘‘ याक़ूते अहमर ’’ हैं। जब उसने ग़ौर से देखा तो वह तश्त ‘‘ याकूते सुर्ख ’’ से भरा हुआ था। इसी तरह ‘‘ ज़मुर्रदे सब्ज़ ’’ और ‘‘ दुरे बैज़ ’’ से भर गया। यानी तीन बार ऐसा ही हुआ यह देख कर वह हैरान हो गया और आपके हाथों का बोसा देने लगा। हज़रत ने फ़रमाया इसे लेते जाओ और अपनी बीवी को दे देना और कहना कि हमारे पास और कुछ माले दुनिया से नहीं है। वह शख़्स शरमिन्दा हो कर बोला, मौला आपको हमारी बीवी की बात किसने बता दी? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया हमें सब मालूम हो जाता है। उसके बाद वह इमाम (अ.स.) से रूख़सत हो कर बीवी के पास पहुँचा। जवाहेरात दे कर सारा वाक़ेया बयान किया। बीवी ने कहा आइन्दा साल मैं भी चल कर ज़ियारत करूँगी। जब दूसरे साल बीवी हमराह रवाना हुई, तो रास्ते में इन्तेक़ाल कर गई। वह शख़्स हज़रत की खि़दमत में रोता पीटता हाज़िर हुआ। हज़रत ने दो रकअत नमाज़ पढ़ कर फ़रमाया, जाओ तुम्हारी बीवी भी ज़िन्दा हो गई है। उस ने क़याम गाह पर लौट कर बीवी को ज़िन्दा पाया। जब वह हाज़िरे खि़दमत हुई तो कहने लगी, ख़ुदा की क़सम इन्होंने मुझे मलकुल मौत से कह कर ज़िन्दा किया था और उस से कहा था कि यह मेरी ज़ायरा है। मैंने इसकी उम्र तीस साल बढ़वा ली है।

(अल मुन्तखि़ब वल बिहार)

 

 

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