अगर रूसी, इस्राईल की तरह रिपोर्टरों की हत्या करते

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अगर रूसी, इस्राईल की तरह  रिपोर्टरों की हत्या करते

सात अक्तूबर 2023 से आरंभ होने वाले ग़ज़ा युद्ध से अब तक ज़ायोनी सैनिकों का कर्मपत्र अनगिनत अपराधों से भरा होने के अतिरिक्त उन्होंने लगभग 170 फ़िलिस्तीनी रिपोर्टरों को भी शहीद कर दिया और उनमें से बहुत को घायल कर दिया है ताकि ग़ज़ा में जो युद्ध और ज़ायोनी सैनिकों का आतंक व अपराध जारी है दुनिया तक उसे पहुंचाने की प्रक्रिया में विघ्न उत्पन्न किया जा सके।

ईरान की मेहर न्यूज़ एजेन्सी ने अमेरिका के मशहूर रिपोर्टर और लेखक मार्क ग्लेन से इसी संबंध में और फ़िलिस्तीन मामले के संबंध में पश्चिम के दोहरे मापदंड के बारे में इंटरव्यू किया है जो इस प्रकार है।

ग़ज़ा युद्ध के दौरान दसियों पत्रकारों को लक्ष्य बनाकर मार दिया गया। क्या इतनी बड़ी संख्या में ज़ायोनी सैनिकों के हाथों रिपोर्टरों की हत्या संयोगवश है? या जानबूझ कर उन्हें लक्ष्य बनाया गया?

समझदार और तार्किक लोगों विशेष उन लोगों के लिए जो ज़ायोनी सरकार के क्रियाकलापों से अवगत हैं पूरी तरह स्पष्ट है कि ज़ायोनी सैनिक जानबूझ कर पत्रकारों की हत्या करते हैं। इस्राईल की ग़ैर क़ानूनी बुनियाद झूठ और पाखंड पर रखी गयी है। जब ज़ायोनी सरकार ग़ज़ा पट्टी के ताबेईन स्कूल पर बमबारी करती है या रिपोर्टों की हत्या करती है तो ग़लती से ऐसा होने का दावा करती है जबकि यह ज़ायोनी सरकार के अपराधों का एक भाग है। ज़ायोनी सैनिक जानबूझकर न केवल रिपोर्टों की हत्या करते हैं बल्कि इस काम से उन्हें आनंद भी आता है।

सवाल यह उठता है कि क्यों ज़ायोनी सैनिक रिपोर्टरों को निशाना बनाते हैं विशेषकर इस बात के दृष्टिगत कि पूरी दुनिया में डेमोक्रेसी में विस्तार के लिए पत्रकारों और संचार माध्यमों के अस्तित्व को ज़रूरी समझा जाता है?

यूनान, रोम, यूरोप, मध्यपूर्व और सुदूरपूर्व सहित विभिन्न क्षेत्रों व कालों में यहूदियों ने यह सीख लिया कि ग़ैर यहूदी किस प्रकार या क्या सोचते हैं और उनकी सोच को ध्यान में रखकर वे व्यवहार करते हैं। इसी कारण वर्ष 1897 में थ्यूडर हर्तज़ेल द्वारा ज़ायोनियों की पहली कांग्रेस के आयोजन के कुछ समय बाद फ़िलिस्तीन और मध्यपूर्व के दूसरे हिस्सों पर क़ब्ज़ा लेने का विचार उनके दिल में पैदा हुआ और बड़ी तेज़ी से उस समय मौजूद संचार माध्यमों विशेषकर अमेरिका और पश्चिम में मौजूद संचार माध्यमों पर क़ब्ज़ा और अपने नियंत्रण में कर लिया। यहूदियों ने यह बात समझ लिया कि जो कुछ उनके दिमाग़ में है उसे व्यवहारिक बनाने के लिए उन देशों के लोगों के ज़ेहनों पर क़ब्ज़ा करना ज़रूरी है। इसका अर्थ लोग, जो देखते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं और कल्पना करते हैं उन सब पर क़ब्ज़ा करना है।

 

अब सवाल यह उठता है कि जब रिपोर्ट पहुंचाने के लिए पत्रकारों और संचार माध्यमों का होना ज़रूरी है तो फ़िर ज़ायोनी सरकार रिपोर्टरों को क्यों लक्ष्य बनाती है? वास्तविकता यह है कि इस्राईल को डेमोक्रेसी से कुछ लेनादेना नहीं है और उसे कभी भी न तो डेमोक्रेसी पसंद थी और न है। ठीक उस भ्रष्ट और गंदे इंसान की भांति जो दुर्गन्ध को छिपाने व दबाने के लिए इत्र का सहारा लेते हैं इस्राईल भी ठीक उसी तरह अपने कृत्यों व अपराधों को छिपाने के लिए डेमोक्रेसी जैसे शब्दों का सहारा लेता है जबकि उसकी वास्तविक पहचान दाइश जैसे ख़ूख़ार आतंकवादी से अधिक मिलती है और वह अपने किसी विरोधी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है।

जैसाकि आप जानते हैं कि रिपोर्टर वास्तविकताओं के साक्षी और उसे लोगों तक पहुंचाना उनकी ज़िम्मेदारी है परंतु ज़ायोनी सरकार के हाथों रिपोर्टरों र्की हत्या पर पश्चिमी व यूरोपीय देशों ने क्यों चुप्पी साध रखी है? इस प्रकार के दोहरे मापदंड का औचित्य कैसे दर्शाया जा सकता है? अगर रूसी सैनिक यूक्रेन युद्ध में लगभग 170 रिपोर्टरों की हत्या करते तो पश्चिमी संचार माध्यम क्या करते?

जैसाकि इससे पहले हमने कहा कि ज़ायोनिज़्म एक प्रायोजित संगठन है जिसने पिछली एक शताब्दी से सामूहिक और ग़ैर सामूहिक संचार माध्यमों पर क़ब्ज़ा करना आरंभ कर दिया और इस लक्ष्य को उसने प्राप्त भी कर लिया है और धीरे- धीरे ज़ायोनियों ने संचार माध्यमों और रिपोर्टों के लिए क़ानून बना दिया और उन संचार माध्यमों और रिपोर्टों को रिपोर्ट देने से मना कर दिया जाता है जो उनके द्वारा निर्धारित नियमों व क़ानूनों का उल्लंघन करते हैं जबकि संचार माध्यमों और रिपोर्टरों को इससे पहले उन विषयों के बारे में बहस करने और रिपोर्ट देने का पूरा अधिकार था।

यहूदियों को अपने विरोधियों की आवाज़ सुनने की ताक़त नहीं है यानी वे इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकते कि उनके ख़िलाफ़ कोई आवाज उठाये। इसी तरह वे अपने दृष्टिकोणों पर आपत्ति जताने वालों को भी सहन नहीं कर सकते और मध्यपूर्व पर क़ब्ज़ा उनकी सूची में पहले नंबर पर है।

वास्तव में प्रशंसा व सराहना इंसान की आंतरिक इच्छा है और इंसान आसान व सरल कार्यों की अपेक्षा नैतिक कार्यों की ओर अधिक रुझान रखता है और रिपोर्टर भी इस नियम व क़ानून से अपवाद नहीं हैं। हम पूरे विश्वास से इस बात की गवाही दे सकते हैं कि जब रिपोर्टर हक़ीक़त बताते व कहते हैं और सिस्टम को चुनौती देते हैं तो उनके लिए क्या और कौन सी घटनायें पेश आ सकती हैं।

वास्तविकता यह है कि दुनिया में स्वतंत्र संचार माध्यमों की संख्या बहुत कम है यानी उन संचार माध्यमों की संख्या बहुत कम है जो किसी घटना को पूरी सच्चाई से बयान करना चाहते हैं।

 

 इंटरनेश्नल सतह के अधिकांश संचार माध्यम दावा करते हैं कि वास्तविकता बयान करने से वे नहीं डरते हैं परंतु जब वास्तविकता को पूरी तरह सच्चाई से बयान करने का समय आता है तो वे पूरी ईमानदारी से ख़बर नहीं देते हैं क्योंकि वे इस बात को जानते हैं कि अगर सच्चाई से पूरी बात बता दी जायेगी तो पूरा मामला बदल जायेगा। किस विशेष रिपोर्टर या संचार माध्यम पर भरोसा किया जा सकता है या नहीं तो इस बारे में हमारा कहना यह है कि सबसे पहले यह देखें कि इस मामले के बारे में ज़ायोनियों का दृष्टिकोण क्या है? अगर यह रिपोर्टर या संचार माध्यम वह नहीं कहता है जो ज़ायोनी कहते हैं तो मेरे अनुसार उस समय रिपोर्टर या संचार माध्यम अपनी पहली परीक्षा में कामयाब रहा है।

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