इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम प्रत्येक अवसर पर लोगों का मार्गदर्शन करते और मायामोह व अंधकार में डूबे लोगों को जागरुक बनाते रहते थे। यही कारण है कि जब यज़ीदी सेना के एक सेनापति हुर ने उनका रास्ता रोका और उनसे कहा कि वे कूफ़ा नगर नहीं जा सकते तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उससे बात करने का यह अवसर उचित जाना ताकि यदि कोई शंका हो तो उसका निवारण हो जाए और यदि कोई स्चच्छ मन का हो तो उस पर प्रभाव पड़े। इस अवसर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने नाना पैगम्बरे इस्लाम के एक कथन से अपनी बात आरंभ की और कहाः हे लोगो! पैगम्बरे इस्लाम ने कहा है कि जो भी मुसलमान, यदि ऐसे अत्याचारी शासन का सामना करे जो ईश्वर द्वारा सही चीज़ों को ग़लत, और ईश्वर ने जिसे गलत कहा हो उसे सही ठहराए, ईश्वर से अपनी प्रतिज्ञा तोड़े, पैगम्बरे इस्लाम के नियमों और शैली का विरोध करे, ईश्वर के दासों के मध्य पाप और शत्रुता करे और वह मुसलमान उसके अत्याचारी शासक का अपनी कथनी और करनी से विरोध न करे तो ईश्वर के लिए यह आवश्यक है कि वह चुप रहने वाले को उसी अत्याचारी के साथ नरक की आग में झोंक दे। हे लोगो! जान लो कि उमैया वंश ने ईश्वर के आज्ञापालन को छोड़ दिया है और शैतान के अनुसरण को अपने लिए आवश्यक कर लिया है, इस वंश ने भ्रष्टाचार और विनाश को प्रचलित किया और ईश्वरीय सीमाओं में बदलाव किये और मैं, इन लुटेरों की तुलना में जिन्होंने ईश्वर के धर्म में ही परिवर्तन किये हैं, इस्लामी समाज के नेतृत्व का अधिक अधिकारी हूं और इसके अलावा भी तुम लोगों की ओर से जो निमंत्रण पत्र मुझे मिले हैं और जो तुम्हारे हरकारे मेरे पास आए वह यह दर्शाते हैं कि तुम लोगों ने मेरे आज्ञापालन की प्रतिज्ञा की है और मुझे वचन दिया है कि तुम शत्रु के सामने मुझे अकेला नहीं छोड़ोगे अब यदि तुम अपने वचनों के प्रति वफ़ादार हो तो कल्याण तक पहुंच गये हो। मैं पैगम्बरे इस्लाम की पुत्री फ़ातेमा और अली का बेटा हूं। मेरा और तुम्हारा अस्तित्व एक दूसरे से जुड़ा हुआ है और तुम्हारी संतान और तुम्हारा परिवार मेरी संतान और मेरे परिवार की भांति है। मैं तुम लोगों के लिए मार्गदर्शक हूं। किंतु यदि तुमने ऐसा न किया और अपना वचन तोड़ दिया तथा अपनी प्रतिज्ञा पर जमे न रहे जो तुम पहले भी कर चुके हो। तुमने पहले भी मेरे पिता, मेरे भाई और मेरे चचेरे भाई के साथ यही किया है। तुम ऐसे लोग हो जो अपने भाग्य की दिशा से भटक चुके हों और उसे तबाह कर चुके हों और जो भी प्रतिज्ञा तोड़ता है वह अपना ही घाटा करता है आशा है कि ईश्वर मुझे तुम लोगों से आवश्यकता मुक्त कर देगा।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का उत्साहपूर्ण और चेतावनी भरा यह भाषण उन एक हज़ार सैनिकों के मार्गदर्शन के लिए है जिन्होंने अपने कमांडर हुर के आदेश पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का रास्ता रोक रखा है। इस भाषण में कुछ बिन्दु ध्यान योग्य हैं। सब से पहले तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने पैगम्बरे इस्लाम का कथन पेश किया और फिर उमैया वंश की शासन शैली की क़लई खोली तथा मार्गदर्शक के महत्व पर प्रकाश डाला तथा अपने आंदोलन के कारणों का वर्णन किया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इसी प्रकार अपने इस भाषण में समाज और मार्गदर्शक के संबंधों तथा अपने आंदोलन के भविष्य का भी वर्णन किया।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का कारवां, इस्लामी कैलेन्डर के पहले महीने अर्थात मुहर्रम की दूसरी तारीख़ को कर्बला पहुंचा तो उस समय वह एक मरूस्थल था। इस स्थान पर इमाम हुसैन और उनके परिजनों और साथियों को अत्याधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। शत्रुओं ने जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों के लिए पानी बंद कर दिया और इस पूरे क्षेत्र में पानी की एक मात्रा स्रोत, फ़ुरात नदी पर यज़ीदी सेना तैनात हो गयी। उनका नियत थी कि इस प्रकार वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के इन्कार को हां में बदल देंगे किंतु यह उनकी मात्र कल्पना थी। कर्बला के इस तपते मरूस्थल में तीन दिनों तक भूखे व प्यासे रह कर इमाम हुसैन और उनके ७२ साथियों ने अपने ख़ून से त्याग व बलिदान व सत्यवाद की ऐसी गाथा लिख दी जिस से रहती दुनिया तक लोग प्रेरणा लेते रहेंगे।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जानते थे कि बड़े परिवर्तन लाने और बड़ी लड़ाई में जमे रहने के लिए महान आत्मा की आवश्यकता होती है। इसीलिए विभिन्न स्थानों पर वे अपने साथियों में ईमान के आधारों को अधिक मज़बूत करते और उनके विश्वास की जड़ों को अधिक मज़बूत करते। यही कारण है कि दसवीं मुहर्रम की रात, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों के सांसारिक जीवन की अंतिम रात थी और उसे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों ने ऐसी रात बना दी जिसका उदाहरण संभवतः मानव इतिहास में नहीं मिलेगा।
इस रात इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने साथियों से स्पष्ट रूप से कहा कि शहीद होने का समय आ गया है और मैं तुम्हारी ओर से अपनी आज्ञापालन के वचन को उठा लेता हूं अब तुम स्वतंत्र हो, रात के अंधेरे का लाभ उठाओ और कल की लड़ाई में जो भी भाग न लेना चाहे वह अपने घर लौट जाए। यह घोषणा वास्तव में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ओर से अपने साथियों की अंतिम परीक्षा थी जिसके उत्तर में उनके साथियों ने इस प्रकार की प्रतिक्रिया दिखायी जिससे हर देखने वाले को उनकी वफ़ादारी व सच्चाई का विश्वास हो गया। उन्होंने कहा कि यदि हमें 70 बार मार दिया जाए और जिलाया जाए तो भी हम आप का साथ नहीं छोड़ेंगे ।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने दसवीं मुहर्रम अर्थात आशूर की सुबह, सुबह की नमाज़ के बाद अत्याधिक अर्थपूर्ण भाषण दिया। इस भाषण में धैर्य व संयम की भावना कूट कूट कर भरी नज़र आती है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कहा हे सरदारो की संतानो! धैर्य व संयम रखो कि मृत्यु एक पुल के अतिरिक्त कुछ नहीं है जो दुख व पीड़ा से तुम्हें सदैव रहने वाले स्वर्ग तक पहुंचा देती है तुम में से किसे यह पसन्द नहीं है कि वह जेल से महल में पहुंचा दिया जाए और यही मृत्यु तुम्हारे शत्रुओं के लिए महल से यातना गृह जाने की भांति है।
इस प्रकार के विश्वास का स्रोत ईश्वर पर ईमान और उसका फल धैर्य व संयम है। इसके बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपनी छोटी सी सेना की पंक्तियां ठीक की और शत्रु की सेना पर एक नज़र डाली और दुआ के लिए अपने हाथ उठाए और कहाः हे ईश्वर दुखों और कठिनाइयों में मेरा सहारा और अप्रिय घटनाओं में मेरी एकमात्र आशा तू ही है। इन कठिन परिस्थितियों में मैं केवल तेरी सेवा में शिकायत करता हूं और अन्य किसी से आशा नहीं रखता तूही मेरी सहायता करेगा और दुख की बदली हटाएगा और शांति के तट पर मुझे पहुंचाएगा।
आशूरा की सुबह को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की इस दुआ में उनके प्रतिरोध व संघर्ष के कारणों को देखा जा सकता है। निश्चित रूप से ईश्वर पर भरोसा, कठिनाइयों को सरल और दुखों के पहाड़ को हल्का बना देता है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम देख रहे थे कि शत्रु अपनी पूरी शक्ति से युद्ध के लिए तैयार है यहां तक कि वह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बच्चों तक पानी भी नहीं पहुंचने दे रहा है और आक्रमण के लिए घात लगाए बैठा है। इन परिस्थितियों में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम न केवल यह कि युद्ध आरंभ करने वाला नहीं बनना चाहते थे बल्कि वे यथासंभव सीमा तक शत्रु के सैनिकों को समझाना और उन्हें सही मार्ग दिखाना भी चाहते थे ताकि वह सत्य व असत्य को पहचान लें। यह सब इस लिए था कि यदि शत्रु की सेना में कोई ऐसा हो जो अज्ञानता के कारण सेना में शामिल हुआ है तो उसके हाथ इस महान ईश्वरीय मार्गदर्शक के ख़ून से न रंगने पाएं। इसी लिए जब युद्ध की तैयारी पूरी हो गयी और दोनों ओर के सैनिक पंक्तियों में खड़े हो गये तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम घोड़े पर सवार हुए और अपने शिविरों से आगे बढ़ कर ऊंची आवाज़ में यजीदी सेनापति उमर साद के सैनिकों को इस प्रकार संबोधित कियाः हे लोगो! मेरी बातें सुनो और युद्ध और ख़ून बहाने में उतावले मत बनो ताकि मैं तुम्हें समझाने और उपदेश देने के अपने कर्तव्य का पालन कर सकूं और इस यात्रा का उद्देश्य स्पष्ट कर दूं यदि तुम लोगों ने मेरे तर्क को स्वीकार कर लिया और मेरे साथ न्याय के मार्ग पर चल पड़े तो कल्याण का गंतव्य मिल जाएगा और उस समय मेरे साथ युद्ध का कोई कारण नहीं रहेगा और यदि तुमने मेरा तर्क स्वीकार नहीं किया और मेरे साथ न्याय नहीं किया तो तुम सब एक दूसरे के साथ एकजुट हो जाओ और जो भी गलत निर्णय करना हो कर लो और मेरे संदर्भ में उसे व्यवहारिक भी बना लो और मुझे अवसर मत दो किंतु हर दशा में वास्तविकता तुम्हारे लिए छिपी नहीं रहनी चाहिए। मेरा साथी व मददगार वह ईश्वर है जिसने कुरआन उतारा है और वही भले लोगों की सहायता करता है।
यह एक ईश्वरीय मार्गदर्शक का मानव जाति से प्रेम है जो अत्यन्त संवेदशन शील परिस्थितियों में और रणक्षेत्र में कठोर शत्रुओं के सामने भी छलक उठता है। क्योंकि यह प्रेम उस कर्तव्य का परिणाम है जो ईश्वर ने उस पर अनिवार्य किया है। हालांकि दसवीं मुहर्रम को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पास समय बहुत कम था किंतु उन्होंने अपने शत्रु को समझाने और उसके मार्गदर्शन के लिए बार बार इस प्रकार का भाषण दिया। इसके साथ ही इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने भाषणों में यह भी स्पष्ट कर दिया कि यह केवल वास्तविकता व सत्य को स्पष्ट करने का प्रयास है और उनके बार बार भाषणों का अर्थ यह नहीं निकाला जाए कि वे गलत बात पर झुकने के लिए तैयार हो गये हैं बल्कि यह सब कुछ ईश्वरीय मार्गदर्शन की बड़ी ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए था जो हर ईश्वरीय मार्गदर्शक पर जीवन के अंतिम क्षणों तक रहती है और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम आशूर के दिन अपने उसी कर्तव्य का पालन कर रहे थे।