एहसान इंसानी समाज में बहुत कॉमन लफ़्ज़ है। एर ग़ैर मुस्लिम भी एहसान को अच्छी तरह जानता है। बस फ़र्क़ यह है कि जो एहसान का लफ़्ज़ हमारे समाज में इस्तेमाल होता है वह क़ुरआन वाला एहसान नहीं है क्यों कि एहसान अरबी ज़बान का लफ़्ज़ है जो लफ़्ज़े "अहसन" से बना है और अहसन के मायने अच्छा, ख़ूब, बेहतरीन होते हैं।
अच्छा अमल भी हो सकता है ज़ात भी। अगर अमल है और अपने लिए है तो अहसन यानी अच्छा अमल है। अगर यही अहसन अमल दूसरे के लिए है तो क़ुरआन की नज़र में यह एहसान है जैसे नमाज़ पढ़ना अहसन अमल है और किसी को नमाज़ पढ़ाना एहसान है।
इस एहसान लफ़्ज़ को क़ुरआन में कई जगहों पर समझा गया है। सूरए-रेहमान में है, "हल जज़ाउल एहसान इल्लल एहसान" यानी एहसान का बदला एहसान है। कहीं यह नहीं मिलता है कि बड़े एहसान का बदला बड़ा एहसान है और छोटे एहसान का बदला छोटा एहसान है। यह बड़ा और छोटा एहसान इंसान के मिज़ाज में पाया जाता है यह इस्लाम का नज़रिया नहीं है। हमारे समाज में तो एहसान का कांसेप्ट ही कुछ और है। यहाँ किसी के नेक अमल को माल व दौलत की तराज़ू में तौलते हैं। यहाँ वही अमल एहसान माना जाता है जिस में बहुत ज़्यादा मेहनत, परेशानी और ज़ेहमत उठाई गई हो या माल व दौलत ख़र्च किया गया हो। यह है इंसान की नज़र में एहसान, मगर इस्लाम जिस एहसान की बात करता है वह बिना ज़ेहमत व मेहनत और दौलत के एक पलक के इशारे में किया जा सकता है।
इस्लाम में सलाम करना एहसान है और क्यों कि एहसान का बदला एहसान है इस लिए सलाम का जवाब देना वाजिब है यानी तुम भी उसे सलामती की दुआ दो। (हल जज़ाउल एहसान)
इस एहसान लफ़्ज़ के बहुत से पहलू हैं जिन पर मुकम्मल बहस एक आर्टिकल में नामुमकिन है। इस जगह इस सब्जेक्ट पर सिर्फ़ हेडलाइंस ही दी जा रही हैं। इंशा अल्लाह आगे के आर्टिकल में हम इस मोज़ू पर तफ़सीली बात करेंगे।
1- अल्लाह ने एहसान जताने को सख़्ती से मना किया है क्यों कि एहसान जताने से एहसान का सवाब चला जाता है जो कि हमारे समाज में आम है। इस बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम इर्शाद फ़रमाते हैं किः- "जब तुम किसी के साथ एहसान करो तो उसे भूल जाओ लेकिन जब दूसरा कोई आप के साथ एहसान करे तो उसे हमेशा याद रखो।"
और इस तरह एहसान और एहसान करने वाले दोनों को ज़िन्दा रखो, न तुम्हारा अमल बर्बाद हो न दूसरे का।
2- अल्लाह की नज़र में एहसान को भूल जाना गुनाहे कबीरा है। रसूले ख़ुदा (स.) इर्शाद फ़रमाते हैं किः- "एहसान को भूलने वाला मलऊन है जो लोगों पर नेकियों के दरवाज़े को बंद करता है।" जब एहसान को भूला दिया जाता है तो इंसान एहसान करने से हाथ खींच लेता है क्यों कि वह चाहता है कि उसका अहसन अमल याद रखा जाए। बेहतर तो यह है कि एहसान का बदला एहसान ही से अदा किया जाए।
3- अल्लाह ने लालच और ग़रज़ की ख़्वाहिश में एहसान करने की मनाही की है। ऐसा भी अक्सर देखा गया है कि ज़बरदस्ती किसी के साथ एहसान किया जा रहा है क्यों कि कल हमें उस शख़्स से अपना कोई बड़ा काम लेना है। अल्लाह तो इरादे को जानता है, उसने ऐसे अहसान को मना किया है। एहसान बिना किसी लालच के होना चाहिए बदला दूसरे पर वाजिब है मगरर जितना हो सके उतना।
4- कई मौक़ो पर इस्लाम एक मुसलमान पर एहसान को वाजिब कर देता है चाहे दूसरा ग़ैर मुस्लिम ही क्यों न हो जैसे नीचे दिये गए मक़ामात परः-
1- वालदैन के साथ एहसान करो चाहे वह काफ़िर ही क्यों न हों।
2- पड़ेसी के साथ एहसान एहसान करो चाहे वह काफ़िर ही क्यों न हो।
3- मेहमान के साथ एहसान करो चाहे वह काफ़िर ही क्यों न हों।
4- माँगने वाले के साथ एहसान करो चाहे वह काफ़िर ही क्यों न हो।
................इस्लाम में माफ़ कर देना एहसान है।
...............सलाम करना एहसान है।
...............खाना खिलाना एहसान है।
...............मुसाफ़िर को पनाह देना एहसान है।
...............परेशान की मदद करना एहसान है।
...............मोमिन को ख़ुश करना एहसान है।
...............किसी की तारीफ़ करना एहसान है।
...............ताज़ियत करना एहसान है।
..............मरीज़ों की अयादत (यानी देख भाल करना) करना एहसान है।
..............किसी की ख़ैरियत पूछना एहसान है।
..............बैठने के लिए किसी के लिए जगह बनाना एहसान है।
..............किसी के लिए मुस्कुराना एहसान है।
..............किसी के ऐब से अकेले में उसे बाख़बर करना एहसान है।
..............इल्म बांटना एहसान है।
..............पानी पिलाना भी एहसान है जिसे हमारा समाज एहसान नहीं समझता क्यों कि हमारी नज़र में पानी बहुत छोटी सी चीज़ है जबकि सच यह है कि पानी एक बहुत बड़ी नेमत है जिसे ख़ुदा ने हमारे लिए बेक़ीमत बना दिया है ताकि ग़रीबों को भी आसानी से मिल सके। यह उस रहमान व रहीम ख़ुदा का एक अजीब एहसान है। पानी का भी इस्राफ़ ज़ुल्म है यानी पानी को फ़ालतू में बहाना या बिना वजह के इस्तेमाल करना ज़ुल्म कह लाता है। और यह गुनाहे कबीरा भी है। रसूले ख़ुदा ने इर्शाद फ़रमाया किः- "अल्लाह तीन गुनाहों की सज़ा देने में देर नहीं लगाता, वालदैन के साथ बदसुलूकी, रिश्ते दारों से नाता तोड़ना या ज़ुल्म और एहसान को भूल जाना।"
हमारे रसूल (स.) और दूसरे 13 मासूमों के किरदार में एहसान की सिफ़त कमाल की हद तक मिलती है। मासूमीन ने अपने दुश्मनों के साथ भी एहसान किया है। करबला के रास्ते में हुर के प्यासे लशकर को सेराब करना एहसान है। इमामे हुसैन (अ.) को मालूम था कि दुश्मन है मगर इंसान वही है जो दूसरे इंसान का दर्द मेहसूस करे। इमाम हुसैन (अ.) ने तारीख़े करबला में इंसानियत की मेराज पेश की है जा क़यामत तक के हर इंसान के लिए एक सबक़ है। या फिर हमारे चौथे इमाम हज़रत जैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी में इस एहसान के मायने को समझीए, मौला मदीने में हैं जनाबे अली अकबर का क़ातिल हसीन बिन नुमैर जो सफ़र से मदीने की तरफ़ आया भूका प्यासा मदीने की गलीयो में भटक रहा था कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.) पर उस की नज़र पड़ी आप ने करबला के बाद से अपना एक फ़रीज़ा बना लिया था वह यह कि आप अपने कांधे पर मश्क़ उठाते थे और मदीने की गलियों में हर इंसान को पानी से सेराब किया करते थे और फ़रमाते थे कि मीठा और ठंडा पानी पियो और मेरे बाबा हुसैन (अ.) प्यास को याद करो। जब हसीन बिन नुमैर आप के क़रीब गया तो इमाम ने उसे भी एक कासा पानी दिया यह बहुत प्यासा था तो आप ने फिर से उस के कासे को पानी से भर दिया, जब हसीन बिन नुमैर सेराब हो गया तो उस ने इमाम (अ.) से कहाः यब्ना रसूल अल्लाह अगर आप मुझे पहचान लेते तो हर गिज़ में पानी नहीं पिलाते। इमामे सज्जाद (अ.) ने फ़रमायाः ऐ हसीन बिन नुमैर! मैं तुझे कैसे भूल सकता हूँ तू तो मेरे अली अकबर का क़ातिल है जिस की प्यास से यह हालत थी कि उस की ज़बान चमड़े की तरह ख़ुश्क हो गई थी। तूने तो उसे अपने भाले से उसे शहीद किया है।
इमाम सज्जाद (अ.) के इस वाक़िए से मालूम होता है कि हमारे हर मासूम ने उस शख़्स पर भी एहसान किया है जो आप का क़ातिल था जो आप की आल का क़ातिल था। इस लिए एहसान भी अल्लाह ने बहुत ज़ोर दिया है और हमारे मासूमीन ने भी बहुत ताकीद की है।
रसूले ख़ुदा (स.) फ़रमाते हैं किः- "सदक़ा और एहसान के ज़रिए जन्नत हासिल करो।" एहसान इंसानियत का ज़ेवर है। अगर एहसान न होता तो इंसान, इंसान के क़रीब न होता। यह एहसान की कशिश ही है जो इंसान को इंसान के क़रीब लाती है। जो एहसान करने का जज़्बा रखे वह इंसानियत का कमाल है और जो एहसान कर के लुत्फ़ हासिल करे वहाँ इंसानियत की मेराज है। जो एहसान का बदला न चाहे वह आले मुहम्मद (अ.) का किरदार है जिनका हर अमल क़ुरबतन इलल्लाह होता है। फिर ख़ुदा उनकी शान में आयतें नाज़िल करता है कि यह एहसान में सब से आगे बढ़ने वाले हैं।