पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजन उच्चतम मानवीय सदगुणों और मूल्यवान आत्मिक व नैतिक विशेषताओं के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। आज इस्लामी जगत पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र के शोक में डूबा हुआ है। मुसलमान ८ रबीउल अव्वल को उस दयालु व कृपालु इमाम की याद मनाते हैं जिसने अपनी कुल २८ वर्ष की आयु के दौरान इस्लामी इतिहास की पुस्तक में एक अन्य स्वर्णिम पृष्ठ की वृद्धि कर दी। २६० हिजरी क़मरी में आज ही के दिन अब्बासी ख़लीफ़ा मोतमिद ने षडयंत्र रचकर इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम को शहीद कर दिया। मोअतमिद यह सोचता था कि इमाम हसन असकरी को शहीद करके वह उनकी और उनकी शिक्षाओं की याद को मिटा देगा परंतु जिस चेराग़ को पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों ने प्रज्वलित किया है उसे कदापि बुझाया नहीं जा सकता और वह समस्त कालों में मनुष्यों को भलाई, मुक्ति और कल्याण का मार्ग दिखाता रहेगा। अब हम इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की शहादत के दुःखद अवसर पर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम और उनके पवित्र परिजनों पर सलाम भेजते हैं और महान व सर्वसमर्थ ईश्वर का इसके लिए आभार व्यक्त करते हैं कि उसने हमारा मार्गदर्शन, इन महान हस्तियों की ओर किया है।
पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों का एक कार्यक्रम व उद्देश्य विशुद्ध इस्लामी शिक्षाओं की सुरक्षा था कि जो पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की घोषणा के साथ आरंभ हुआ और इमामों में से हर एक ने अपने समय की परिस्थिति के दृष्टिगत अपने दायित्व का निर्वाह किया। यदि कोई व्यक्ति या लोग पथभ्रष्टता अथवा विरोधाभास का शिकार होते थे तो एक ओर इमाम उन लोगों का मार्गदर्शन करते थे और दूसरी ओर पथभ्रष्ठ गुटों व धड़ों के विचारों के फैलने के प्रति चेतावनी देते और उनका मुक़ाबला करते थे। कभी कभी यही पथभ्रष्ठ व ग़लत विचार बनी उमय्या और बनी अब्बासी शासकों की सरकारों की नीति हो जाया करते थे और इसका इस्लामी समाज पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता था।
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम का काल कठिन कालों में से एक था जिसमें हर ओर से विभिन्न दिग्भ्रमित विचारों से इस्लामी समाज को खतरा था। यह उस परिस्थिति में था जब अब्बासी शासकों की ओर से इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम कठिनाइयों में थे और उन पर कड़ी नज़र रखी जा रही थी। अब्बासी शासकों का इमाम के साथ कड़ाई से पेश आने का एक कारण यह था कि इस बात की शुभसूचना दी जा चुकी थी कि अंतिम महामोक्षदाता का जन्म आपके ही परिवार में होगा और वह आपका ही बेटा होगा। यह बातें इस बात का कारण बनीं कि इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम को विवश किया गया कि वे बग़दाद के उत्तर में स्थित सामर्रा नगर के एक सैनिक मोहल्ले में जीवन व्यतीत करें। इन सबके बावजूद इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने लोगों के मार्गदर्शन में कमी नहीं की। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने सामर्रा में ६ वर्षों तक अपने आवास के दौरान उन पथभ्रष्ठ गुटों, धड़ों और संप्रदायों से संघर्ष किया जो इस्लाम के नाम पर धर्म में हेरा फेरी करने का प्रयास कर रहे थे। सूफी और ग़ोलात आदि जैसे दिग्भ्रमित गुटों व संप्रदायों के संबंध में इमाम का दृष्टिकोण बहुत ही पारदर्शी व स्पष्ट था। उल्लेखनीय है कि ग़ोलात उन लोगों को कहा जाता है जो सीमा से अधिक बढ़ जाते हैं।
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम सूफी विचार धारा के मानने वालों की निंदा करते हुए कहते हैं"” आगाह व होशियार रहो कि वे मोमिनों के मार्ग के लूटरे हैं और लोगों को धर्म का इंकार करने वालों की ओर बुलाते हैं। जिनका भी सामना उनसे पड़े उसे चाहिये कि निश्चित रूप से उनसे दूरी करे और अपने धर्म एवं ईमान को उनके डंक से सुरक्षित रखे"
इदरीस बिन ज़ियाद नामक व्यक्ति कहता है कि मैं उन लोगों में से था जो अहले बैत के बारे में अतिश्योक्ति से काम लेते थे। एक दिन मैं इमाम हसन असकरी से मिलने के लिए सामर्रा रवाना हुआ। जब मैं नगर पहुंचा तो बहुत थक गया था और आराम करने के लिए एक स्थान पर बैठ गया। इस मध्य मुझे नींद आ गयी ,कुछ देर बाद मेरे कान में कुछ आवाज़ सुनाई दी तो मैं जाग गया। वह इमाम हसन असकरी की आवाज़ थी। मैं तुरंत अपने स्थान से उठा और उनके प्रति आदरभाव व्यक्त किया। इस थोड़ी से भेंट में उन्होंने सूरये अंबिया की २६वीं -२७वीं आयतों को पढ़कर सुनाया और उसे आधार बनाते हुए मुझसे कहा हे इदरीस "वे कहते हैं कि रहमान अर्थात ईश्वर के संतान है। ईश्वर इस चीज़ से महान है बल्कि वे तो प्रतिष्ठित बंदे हैं, वे उससे बढ़कर नहीं बोलते हैं और वे उसके आदेश का पालन करते हैं"
यहां इमाम ने इस आयत को पढ़कर मुझे समझा दिया कि मैं अहलेबैत के बारे में अतिशयोक्ति करना छोड़ दूं। क्योंकि वे केवल वही कार्य करते हैं जो ईश्वर चाहता है और मैं इमाम की संक्षिप्त बात के उद्देश्य से पूर्णरूप से अवगत हो गया था। मैंने इमाम के उत्तर में कहा" हे स्वामी! आपकी इतनी बात ही मेरे लिए काफी है क्योंकि मैं यही बात पूछने के लिए आपके पास आया था।
हज़रत इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम सामाजिक परिस्थिति के अनुचित होने और अब्बासी सरकार की ओर से बहुत अधिक सीमाएं होने के बावजूद कुछ शिष्यों का प्रशिक्षण किया और उनमें से हर एक ने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की शिक्षाओं के प्रचार- प्रसार और भ्रांतियों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रसिद्ध शीया विद्वान शेख तूसी ने १०० व्यक्तियों से अधिक का नाम इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के शिष्यों के रूप में लिखा है कि जिनमें योग्य व प्रतिभाशाली हस्तियां हैं।
लेखकों और उनकी रचनाओं की प्रशंसा व सराहना ऐसा कार्य है जो स्वयं समाज में ज्ञान में विस्तार का कारण बनता है। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम शिष्यों की शिक्षा व प्रशिक्षण के साथ लेखकों को प्रोत्साहित करने से निश्चेत नहीं थे। "दाऊद बिन क़ासिम" कहता है" मैं यूनुस आले यक़तीन की "यौम व लैलह" नामक पुस्तक को इमाम की सेवा में पेश किया तो उन्होंने मुझसे पूछा कि इसे किसने लिखा है? मैंने कहा इसे यूनुस ने लिखा है। उस समय इमाम ने कहा" ईश्वर प्रलय के दिन हर अक्षर के बदले में उन्हें एक प्रकाश देगा"
इन्हीं प्रोत्साहनों का परिणाम था कि इमाम के १६ शिष्यों ने ११८ किताबें लिखीं। इसी तरह जिन व्यक्तियों ने इमाम से हदीसें अर्थात उनके कथन लिखे हैं उनकी संख्या १०६ है।
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने शिष्यों के प्रशिक्षण और लेखकों के प्रोत्साहन के अतिरिक्त स्वयं उन्होंने कुछ किताबें एवं पत्र लिखे हैं जो ज्ञान के विस्तार और आस्थाओं की सुरक्षा के लिए हैं। पवित्र क़ुरआन की व्याख्या के संबंध में एक पुस्तक है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे इमाम हसन असकरी ने लिखा है। इसी प्रकार बहुत से धार्मिक आदेशों के हलाल व हराम होने के बारे में दो किताबें हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र भी हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि इन्हें इमाम ने लिखा है। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के काल में शीया मुसलमान विभिन्न क्षेत्रों में रहते थे। उदाहरण स्वरूप कूफा, बग़दाद, निशापूर, कुम, खुरासान, यमन, रैय, आज़रबाइजान और सामर्रा को शीया मुसलमानों का गढ़ कहा जाता था। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम विशुद्ध इस्लामी शिक्षाओं के प्रचार- प्रसार के लिए विभिन्न नगरों के नाम पत्र लिखे हैं। उदाहरण स्वरूप इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने क़ुम के शीया मुसलमानों के नाम जो पत्र लिखा था उसकी विषय वस्तु आज भी किताबों में मौजूद है। इसी प्रकार इमाम ने जो विस्तृत पत्र निशापूर के एक शीया "इस्हाक़ बिन इस्माईल" के नाम लिखा था उसमें इस्लामी समाज के मार्गदर्शन में इमामत की भूमिका और इमामों के आदेशों के अनुपालन व अनुसरण की आवश्यकता को बयान किया है।
प्रश्न किया जाना और भ्रांतियों का निवारण, समाज की प्रगति का कारण बनता है इस शर्त के साथ कि उसका उत्तर सही और वह मार्गदर्शन करने वाला हो। संभव है कि समाज में ख़तरनाक प्रश्न किये जायें और यदि उनका सही व तार्किक उत्तर नहीं दिया गया तो पूरा इस्लामी समाज ख़तरे में पड़ सकता है। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम का एक महत्वपूर्ण कार्य इस्लामी विश्वासों व आस्थाओं की सुरक्षा तथा भ्रांतियों का निवारण था। एक दिन एक व्यक्ति ने इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम से पूछा कि पुरूषों को क्यों महिलाओं के दो बराबर मीरास मिलती है? आपने उसके उत्तर में कहा" चूंकि ख़र्च की ज़िम्मेदारी पुरूष पर है, पुरूष जेहाद व युद्ध में भाग लेता है और इसी प्रकार उसे चाहिये कि वह अपने परिवार की आजीविका की आपूर्ति करे"
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के ईश्वरीय व्यवहार और सदाचरण के कारण लोगों में उनका बहुत प्रभाव था। इस प्रकार से कि जब इमाम अपने घर से बाहर निकलते थे तो बहुत से लोग आपके घर के सामने अपने प्रश्नों का उत्तर जानने और आपके दर्शन के लिए पंक्ति में खड़े होते थे। उस समय अब्बासी शासकों ने इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के लिए जो सीमाएं व बाधायें उत्पन्न की थी उसे उन सभों ने प्रभावहीन समझा और लोगों में इमाम के प्रभाव से वे बुरी तरह भयभीत थे। इसलिए अब्बासी शासकों ने उन्हें जेल में डाल दिया ताकि इमाम और लोगों के मध्य संपर्क में बाधा बन जायें परंतु इमाम के आध्यात्मिक आकर्षण और उनकी महानता ने अली बिन औताश नामक जेलर को भी इमाम का प्रेमी बना दिया और वह इमाम के निष्ठावान साथियों में हो गया जबकि अली बिन औताश बहुत कठोर हृदय वाला व्यक्ति था।
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम कहते हैं" समस्त बुराइयों को एक घर में रख दिया गया है और झूठ उस घर की कुंजी है"