आज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहिस्सलाम व सल्लम के एक पौत्र इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत का दिन है।
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम २५ रजब १८३ हिजरी कमरी को शहीद हुए थे जिससे पूरा इस्लामी जगत शोकाकुल हो गया।
अधिक उपासना और त्याग के कारण इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को अब्दुस्सालेह अर्थात नेक बंदे की उपाधि दी गयी। इसी प्रकार इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने क्रोध को पी जाते थे जिसके कारण उनकी एक प्रसिद्ध उपाधि काज़िम है।
इतिहास में आया है कि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के जीवन का समय बहुत कठिन था। उस समय दो अत्याचारी शासकों की सरकारें रहीं। एक अब्बासी ख़लीफा मंसूर और दूसरा हारून था। उस समय इन अत्याचारी शासकों ने लोगों की हत्या करके बहुत से जनआंदोलनों का दमन कर दिया था। दूसरी ओर इन्हीं अत्याचारी शासकों के काल में जिन क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की गयी वहां से प्राप्त होने वाली धन- सम्पत्ति इन शासकों की शक्ति में वृद्धि का कारण बनी। इसी प्रकार उस समय समाज में बहुत से मतों की गतिविधियां ज़ोर पकड़ गयीं थीं इस प्रकार से कि धर्म और संस्कृति के रूप में हर रोज़ एक नई आस्था समाज में प्रविष्ट हो रही थी और उसे अब्बासी सरकारों का समर्थन प्राप्त था। शेर, कला, धर्मशास्त्र, कथन और यहां तक कि तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय का दुरुपयोग सरकारी पदाधिकारी करते थे। घुटन का जो वातावरण व्याप्त था उसके कारण बहुत से क्षेत्रों के लोग सीधे इमाम से संपर्क नहीं कर सकते थे। इस प्रकार की परिस्थिति में जो चीज़ इस्लाम को उसके सही रूप में सुरक्षित कर सकती थी वह इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का सही दिशा निर्देश और अनथक प्रयास था।
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने पिता के मार्ग को जारी रखा। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने इस्लामी संस्कृति में ग़ैर इस्लामी चीजों के प्रवेश को रोकने तथा अपने अनुयाइयों के सवालो के उत्तर देने को अपनी गतिविदियों का आधार बनाया। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम समाज की आवश्यकताओं से पूर्णरूप से अवगत थे इसलिए उन्होंने विभिन्न विषयों के बारे में शिष्यों की प्रशिक्षा की। सुन्नी मुसलमानों के प्रसिद्ध विद्वान और मोहद्दिस अर्थात पैग़मबरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों के ज्ञाता इब्ने हजर हैयतमी अपनी किताब सवायक़ुल मुहर्रेक़ा में लिखते हैं” इमाम मूसा काज़िम, इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम के उत्तराधिकारी हैं। ज्ञान, परिपूर्णता और दूसरों की गलतियों की अनदेखी कर देने तथा बहुत अधिक धैर्य करने के कारण उनका नाम काज़िम रखा गया। इराक के लोग उनके घर को बाबुल हवाएज के नाम से जानते थे क्योंकि उनके घर से लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने समय के सबसे बड़े उपासक थे। उनके समय में कोई भी ज्ञान और दूसरों को क्षमा कर देने में उनके समान नहीं था”
भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना ईश्वरीय धर्म इस्लाम के दो महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं। पवित्र कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने इसके बारे में बहुत अधिक बातें की हैं। इस प्रकार से कि इन दो सिद्धांतों के बारे में इस्लाम के अलावा दूसरे आसमानी धर्मों में भी बहुत बल दिया गया है। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने भी अपने पावन जीवन में इन चीज़ों पर बहुत दिया है।
बिश्र बिन हारिस हाफी की कहानी को इस संबंध में एक अनुपम आदर्श के रूप में देखा जा सकता है। बिश्र बिन हारिस हाफ़ी ने कुछ समय तक अपना जीवन ईश्वर की अवज्ञा एवं पाप में बिताया। एक दिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम उस गली से गुज़रे जिसमें बिश्र बिन हारिस हाफी का घर था। जिस समय इमाम बिश्र के दरवाज़े के सामने पहुंचे संयोगवश उनके घर का द्वार खुला और उनकी एक दासी घर से बाहर निकली। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम ने उस दासी से पूछा तुम्हारा मालिक आज़ाद है या ग़ुलाम? दासी ने उत्तर दिया आज़ाद है। इमाम ने अपना सिर हिलाया और कहा एसा ही है जैसे तुमने कहा। क्योंकि अगर वह दास होता तो बंदों की भांति रहता और अपने ईश्वर के आदेशों का पालन करता। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने यह बातें कहीं और रास्ता चल दिये। दासी जब घर में आई तो बिश्र ने उससे विलंब से आने का कारण पूछा। उसने इमाम के साथ हुई बातचीत को बताया तो बिश्र नंगे पैर इमाम के पीछे दौड़े और उनसे कहा हे मेरे स्वामी! जो कुछ आपने इस महिला से कहा एक बार फिर से बयान कर दीजिए। इमाम ने अपनी बात फिर दोहराई। उस समय ब्रिश्र के हृदय पर ईश्वरीय प्रकाश चमका और उन्हें अपने किये पर पछतावा हुआ। उन्होंने इमाम का हाथ चूमा और अपने गालों को ज़मीन पर रख दिया इस स्थिति में कि वह रो और कह रहे थे कि हां मैं बंदा हूं हां मैं बंदा हूं”
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के लिए बहुत ही अच्छी शैली अपनाई। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने एक छोटे से वाक्य से बिश्र का ध्यान उनकी ग़लती की ओर केन्द्रित करा और वह इस प्रकार बदल गये कि उन्होंने अपनी ग़लतियों व पापों से प्रायश्चित किया और अपना शेष जीवन सही तरह से व्यतीत किया।
अब्बासी ख़लीफ़ा अपनी लोकप्रियता और अपनी सरकार की वैधता तथा इसी प्रकार लोगों के दिलों में आध्यात्मिक प्रभाव के लिए स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकारी और उनका वंशज बताते थे। अब्बासी खलीफा पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा जनाब अब्बास के वंश से थे और इसका वे प्रचारिक लाभ उठाते और स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकार बताते थे। वे दावा करते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन हज़रत फातेमा के वंशज से हैं और हर इंसान का संबंध उसके पिता और दादा के वंश से होता है इसलिए वे पैग़म्बरे इस्लाम के वंश नहीं हैं। इस प्रकार की बातें करके वास्तव में वे आम जनमत को दिग्भ्रमित करने के प्रयास में थे। इसलिए इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने पवित्र कुरआन का सहारा लेकर उन लोगों का मुकाबला किया। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने हारून रशीद से जो शास्त्रार्थ किये हैं वह खिलाफत के बारे में अहले बैत अलैहिस्सलाम का स्थान समझने के लिए काफी है। एक दिन हारून रशीद ने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से पूछा आप किस प्रकार दावा करते हैं कि आप पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं जबकि आप अली की संतान हैं? इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने उसके उत्तर में पवित्र कुरआन के सूरये अनआम की आयत नंबर ८५ और ८६ की तिलावत की जिसमें महान ईश्वर फरमाता है” इब्राहीम की संतान में से दाऊद और सुलैमान और अय्यूब और यूसुफ और मूसा और हारून और ज़करिया और यहिया और ईसा हैं और हम अच्छे लोगों को इस प्रकार प्रतिदान देते हैं” उसके बाद इमाम ने फरमाया जिन लोगों की गणना इब्राहीम की संतान में की गयी है उनमें एक ईसा हैं जो मां की तरफ से उनकी संतान में से हैं जबकि उनका कोई बाप नहीं था और केवल अपनी मां मरियम की ओर से उनका रिश्ता पैग़म्बरों तक पहुंचता है। इस आधार पर हम भी अपनी मां फातेमा की ओर से पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं।
हारून रशीद इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का तार्किक जवाब सुनकर चकित रह गया और उसने इस संबंध में इमाम से अधिक स्पष्टीकरण मांगा। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने मुबाहेला की घटना का उल्लेख किया जिसमें महान ईश्वर ने सूरे आले इमरान की ६१वीं आयत में पैग़म्बरे इस्लाम को आदेश दिया है कि जो भी आप से ईसा के बारे में बहस करें इसके बाद कि आपको उसके बारे में जानकारी प्राप्त हो जाये तो उनसे आप कह दीजिये कि आओ हम अपनी बेटों को लायें और तुम अपने बेटों को लाओ और हम अपनी स्त्रियों को लायें और तुम अपनी स्त्रियों को लाओ और हम अपने आत्मीय लोगों को ले आयें और तुम अपने आत्मीय लोगों को ले आओ उसके बाद हम शास्त्रार्थ करते हैं और झूठों पर ईश्वर के प्रकोप व धिक्कार की प्रार्थना करते हैं” इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम के बेटों से तात्पर्य हसन और हुसैन तथा स्त्री से तात्पर्य फातेमा और अपने आत्मीय लोगों के रूप में अली थे” हारून रशीद यह जवाब सुनकर संतुष्ट हो गया और उसने इमाम की प्रशंसा की।
इंसान की मुक्ति व सफलता के लिए पवित्र कुरआन सबसे बड़ा ईश्वरीय उपहार है। इंसान को परिपरिपूर्णता तक पहुंचने में इस आसमानी किताब की रचनात्मक भूमिका सब पर स्पष्ट है। पवित्र कुरआन पैग़म्बरे इस्लाम का एसा चमत्कार है जो प्रलय तक बाक़ी रहेगा और उसने अरब के भ्रष्ट समाज में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन उत्पन्न कर दिया। यह परिवर्तन इस प्रकार था कि सांस्कृतिक पहलु से उसने मानव समाज में प्राण फूंक दिया। सकलैन नाम से प्रसिद्ध हदीस में पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने पवित्र परिजनों को कुरआन के बराबर बताया है और मुसलमानों का आह्वान किया है कि जब तक वे इन दोनों से जुड़े रहेंगे तब तक कदापि गुमराह नहीं होंगे और ये दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होंगे। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम लोगों को इस किताब से अवगत कराने के लिए विशेष ध्यान देते थे। इमाम लोगों का आह्वान न केवल इस किताब की तिलावत के लिए करते थे बल्कि इस कार्य में स्वयं दूसरों से अग्रणी रहते थे। प्रक्यात धर्मगुरू शेख मुफीद ने अपनी एक किताब इरशाद में इस प्रकार लिखा है” इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने काल के सबसे बड़े धर्मशास्त्री, सबसे बड़े कुरआन के ज्ञाता और लोगों की अपेक्षा सबसे अच्छी ध्वनि में कुरआन की तिलावत करने वाले थे”
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पवित्र कुरआन पर जो विशेष ध्यान देते थे वह केवल व्यक्तिगत आयाम तक सीमित नहीं था। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का एक महत्वपूर्ण कार्य पवित्र कुरआन की व्याख्या करना था। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम समाज के लोगों के ज्ञान का स्तर बढाने के लिए बहुत प्रयास करते थे। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पवित्र कुरआन की आयतों की व्याख्या में उन स्थानों पर विशेष ध्यान देते थे जहां पर पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के स्थान की ओर संकेत किया गया है। उदाहरण स्वरूप सूरेए रूम की १९वीं आयत में महान ईश्वर कहता है” हम ज़मीन को मुर्दा होने के बाद पुनः जीवित करेंगे।“ इमाम से पूछा गया कि ज़मीन के ज़िन्दा करने से क्या तात्पर्य है? इमाम ने इसके उत्तर में फरमाया ज़मीन का जीवित होना वर्षा से नहीं है बल्कि ईश्वर एसे लोगों को चुनेगा जो न्याय को जीवित करेंगे और ज़मीन न्याय के कारण जीवित होगी और ज़मीन में ईश्वरीय क़ानून का लागू होना चालीस दिन वर्षा होने से अधिक लाभदायक है” हज़रत इमाम मूसा काजिम अलैहिस्सलाम इस रवायत में समाज में न्याय स्थापित होने को ज़मीन के जीवित होने से अधिक लाभदायक मानते हैं। वास्तव में पवित्र कुरआन की आयतों की इस प्रकार की व्याख्या इमामत के स्थान को बयान करने के लिए थी कि जो स्वयं इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का एक सांस्कृतिक कार्य था।