इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने जीवनकाल में इस्लाम के प्रचार- प्रसार के लिए अथक प्रयास किये।
उन्होंने उस समय के अंधकारमय काल में लोगों का मार्गदर्शन किया और ज्ञान को व्यापक स्तर पर फैलाया। उन्होंने 34 वर्षों तक ईश्वरीय मार्गदर्शन के दायित्व का निर्वाह किया। इस दौरान लोगों के मार्गदर्शन के साथ ही साथ उन्होंने बहुत बड़े पैमाने पर लोगों को शिक्षित किया। 65 वर्ष की आयु में 25 शव्वाल सन् 148 हिजरी क़मरी को अब्बासी ख़लीफ़ा मंसूर दवानीक़ी के षडयंत्र से इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम को ज़हर देकर शहीद कर दिया गया। उनके शहादत दिवस पर हम आपकी सेवा में हार्दिक संवेदनाएं प्रस्तुत करते हैं।
यहां हम इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के जीवन की एक घटना का उल्लेख करने जा रहे हैं। एक बार की बात है एक व्यक्ति इमाम की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने कहा कि आप मुझे कुछ नसीहत करें ताकि मैं उससे लाभ उठा सकूं। उसके कहने पर इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने रोज़ी या आजीविका के बारे में उससे कुछ बातें कहीं। इमाम ने फरमाया कि हर मनुष्य की आजीविका को ईश्वर ने निश्चित कर दिया है। अब मनुष्य यदि ईश्वर पर भरोसा करता है और उसकी आजीविका भी सुनिश्चित की जा चुकी है तो फिर इस बारे में चिंता कैसी? अपने इस कथन से इमाम यह समझाना चाहते हैं कि जब यह सुनिश्चित हो चुका है कि किसी व्यक्ति की आजीविका क्या होगी तो फिर सीमा से अधिक प्रयास का लाभ क्या है। मोमिन वह है जो ईश्वर पर भरोसा करते हुए अपनी आजीविका के बारे में निश्चिंत रहे। यहां पर मुश्किल यह है कि लोग इस संबन्ध में अपने पालनहार और अन्नदाता पर भरोसा न करके स्वयं को समस्याओं में ग्रस्त कर लेते हैं। इमाम सादिक़ कहते हैं कि मुख्य समस्या यह नहीं है कि मनुष्य अपनी आजीविका को लेकर चिंतित है बल्कि वास्तविकता यह है कि आजीविका देने वाले पर उसे पूरा विश्वास नहीं है। इसी अविश्वास के कारण वह परेशान रहता है और हमेशा पैसे के लिए दौड़ता रहता है। यहां पर कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मनुष्य आजीविका के लिए प्रयास करना बंद कर दे बल्कि उसके बारे में अधिक परेशान न हो क्योंकि वह तो मिलकर रहेगी। आजीविका के बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मोमिन को चाहिए कि वह अपनी दिनचर्या को तीन भागों में विभाजित करे। उसके एक भाग को ईश्वर की उपासना में, दूसरे भाग को आजीविका हासिल करने में और तीसरे भाग को लोगों से मिलने-जुलने या स्वस्थ व अच्छे मनोरंजन के लिए विशेष करे।
यह सही है कि ईश्वर ने हर मनुष्य की आजीविका को उसके हित के अनुरूप निर्धारित किया है। हालांकि बहुत से लोग यह समझते हैं कि यदि उनके माल और संपत्ति में वृद्धि होगी तो उनका जीवन सफल होगा जबकि एसा कुछ नहीं है। कभी-कभी माल के अधिक होने से समस्याएं अधिक हो जाती हैं। यहां पर एक ध्यान योग्य बिंदु यह है कि अधिक से अधिक धन कमाने के चक्कर में मनुष्य लोभी हो जाता है। इस बारे में इमाम कहते हैं कि जब ईश्वर ने तुम्हारी आजीविका को निर्धारित कर दिया है तो फिर उससे अधिक कमाने की लालसा में अपना समय व्यर्थ करना कैसा? पवित्र क़ुरआन में कई स्थान पर इस बात उल्लेख किया गया है कि ईश्वर सबको आजीविका देता है और इस बारे में मनुष्य को चिंतित नहीं होना चाहिए। हां इसका यह अर्थ नहीं है कि इन्सान आजीविका कमाने के लिए प्रयास करना ही छोड़ दे बल्कि उसे चाहिये कि अपनी क्षमता व सीमा के अनुसार काम करे। मनुष्य को निंरतर प्रयास करते रहने चाहिए और परिणाम ईश्वर के ऊपर छोड़ देना चाहिए।
जहां कुछ लोग अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिए परेशान रहते हैं वहीं कुछ लोग एसे भी हैं जो अधिक से अधिक बचाने के लिए प्रयासरत रहते हैं। एसे लोगों को कंजूस कहा जाता है। कंजूस निर्धनों की तरह ज़िन्दगी गुज़ारता है वह सदैव ही व्याकुल रहता है। वह अपने पैसों को बचाने के चक्कर में शांतिपूर्ण ढंग से जीवन व्यतीत नहीं कर पाता। उसकी मुख्य समस्या यह होती है कि पैसा होने के बावजूद वह ग़रीबों जैसा जीवन व्यतीत करता है। इमाम कहते हैं कि कंजूसी के मुक़ाबले में मनुष्य को दान देने की प्रवृत्ति सीखनी चाहिए। वे कहते हैं कि यदि मनुष्य के भीतर यह बात जगह कर जाए कि वह ईश्वर की राह में जितना भी ख़र्च करेगा ईश्वर उसको दस बराबर देगा तो वह कभी भी कंजूस नहीं हो सकता। कंजूसी एसी आदत है जिसकी इस्लामी शिक्षाओं में बहुत निंदा की गई है।
श्रोताओ यहां पर हम एक घटना का उल्लेख करने जा रहे हैं जो इस बारे में है कि ईश्वर पर भरोसा करके दान देने या ईश्वर के नाम पर किसी को क़र्ज़ देने का क्या परिणाम होता है। एक महापुरूष का कहना है कि आरंभ में जब मैं छात्र था मैं निर्धन था और मेरे पास पैसा बहुत कम था। एक बार एसा हुआ कि मैं बाज़ार से कुछ ख़रीदने गया। मेरी जेब में कुल पांच पैसे थे। उन्हीं पैसों से मैं अपने लिए कुछ ख़रीदना चाहता था। रास्ते में मुझे एक व्यक्ति मिला। उसने कहा कि इस समय मैं बहुत पेराशान हूं और मेरे पास एक पैसा भी नहीं है क्या आप मुझको कुछ पैसे उधार दे सकते हैं? इस पर महापुरूष ने कहा कि मेरे पास केवल 5 पैसे हैं अगर तुम चाहो तो मैं तुमको वह पैसे दे सकता हूं। उसने मुझसे पैसे ले लिए और मैं खाली हाथ बाज़ार से वापस घर की ओर जाने लगा। जब मैं उदासी के हाल में ख़ाली हाथ अपने घर जा रहा था तो रास्ते में मुझको एक सज्जन मिले। उन्होंने मुझे सलाम किया और मुझसे रोक कर बातें करने लगे। विदा होने से पहले उन्होंने अपना हाथ जेब में डाला और मेरे हाथ में कुछ देते हुए उन्होंने मेरी मुट्ठी बंद कर दी। यह करने के बाद वे आगे बढ़ गए। जब मैंने अपना हाथ खोला तो देखा कि उन्होंने मुझको पांच रूपये दिये हैं। पांच रूपये पाकर मैं बहुत ख़ुश हुआ और वापस बाज़ार की ओर जाने लगा। कुछ क़दम चलने के बाद किसी ने मेरे कांधे पर हाथ रखते हुए मुझसे कहा कि क्या आप मुझे कुछ पैसे दे सकते हैं। मैंने उस व्यक्ति को दखते हुए उसके हाथ पर वही पांच रूपये रख दिये। अब वह बाज़ार की ओर जा रहा था और मैं अपने घर की ओर। कुछ दूर चलने के बाद हमारे एक परिचित मिल गये जो मुझसे बातें करने लगे। बातें ख़त्म करके जब उन्होंने विदा ली तो बोले यह कुछ पैसे हैं जो मैं आपको देना चाहता हूं। यह कहते हुए उन्होंने मुझको पचार रूपये दे दिये। पचास रूपये पाकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। मैं सोचने लगा कि मैंने पांच पैसे दिये तो पांच रूपये मिले। बाद में जब पांच रूपये दिये तो अब मुझको पचास रूपये मिल गए। अब एसा करता हूं कि यह पचास रूपये किसी को उधार दे दूंगा तो मुझको इसके दस गुने मिल जाएंगे। यह सोचकर मैं बाज़ार में बहुत देर तक टहलता रहा किंतु अब न तो कोई मुझसे उधार ही लेने आया और न ही मुझको कुछ देने। जब काफ़ी समय गुज़र गया और कोई नहीं आया तो यह बात मेरी समझ में आई कि पहले मैंने बिना किसी लालच के दिया तो मुझको दस बराबर मिले किंतु जब मेरे मन में लालच आ गई तो सब कुछ बदल गया।
अपने उपदेश को आगे बढ़ाते हुए इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मनुष्य को पता है कि पाप करने के बदले उसे अवश्य दंडित किया जाएगा। जब उसको यह बात पता है तो वह पाप क्यों करता है? एसा कैसे हो सकता है कि कोई पाप करे और उसको उसके बदले में दंडित न किया जाए। पवित्र क़ुरआन में इस बारे में ईश्वर कहता है कि उस दिन एसा होगा कि पापी, अपने पापों के दंड से बचने के लिए चाहेगा कि उसकी संतान या उसके सगे -संबन्धी दंड को भुगतें। प्रलय का दंड इतना कठोर होगा कि पापी, का पूरा प्रयास रहेगा कि वह किसी भी सूरत में दंड से बच जाए। हालांकि एसा होगा नहीं और उसको अवश्य दंड दिया जाएगा।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम एक अन्य विषय की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि प्रलय के दिन पुले सेरात से गुज़रना सबके लिए ज़रूरी है। वे कहते हैं कि यदि एसा है तो फिर घमण्ड किस बात का? घमण्ड एसी चीज़ है जिसकी निंदा इस्लामी शिक्षाओं में बहुत अधिक की गई है। घमण्डी व्यक्ति सामान्यतः अपनी धन संपत्ति, सुन्दरता, वंश, रंगरूप या इसी प्रकार की चीज़ों पर घमण्ड करता है। एसा व्यक्ति दूसरों को बहुत ही गिरी नज़र से देखता है। वह सोचता है कि मैं ही सब कुछ हूं और अन्य लोग कुछ नहीं हैं। हालांकि होता इसके बिल्कुल विपरत है। इस्लाम में घमण्ड के स्थान पर विनम्रता की शिक्षा दी गई है। हम देखते हैं कि हमारे महापुरूष विनम्र स्वभाव के हुआ करते थे घमण्डी नहीं।
अंत में इमाम एक अन्य बिंदु की ओर ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि जीवन में जितने भी सुख और दुख हैं उन सब से ईश्वर भलिभांति अवगत है। यदि कोई व्यक्ति दुखों पर संयम करता है और धैर्य से काम लेता है तो फिर वह समस्याओं के समय व्याकुल नहीं होता। इस बारे में इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि यदि सब कुछ अल्लाह की ओर से है तो फिर परेशानियों के समय रोने-धोने से क्या फ़ाएदा? निश्चित रूप से अपने जीवन में पूरी तरह से ईश्वर पर भरोसा करने से मनुष्य के भीतर धैर्य पैदा होता है और मुश्किल के समय ईश्वर की ओर से उसकी सहायता भी की जाती है।
श्रोताओ इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की शहादत के दुःखद अवसर पर एक बार फिर आपकी सेवा में हार्दिक संवेदना प्रस्तुत करते हैं।