नौ मुहर्रम का विशेष कार्यक्रम।

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यद्यपि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का अत्याचार विरोधी भव्य आंदोलन, दस मुहर्रम सन 61 हिजरी क़मरी में करबला के मैदान में अंजाम पाया किन्तु इस आंदोलन के कारण विभिन्न घटनाएं सामने आईं।

हम आशूरा से जितना निकट हो रहे हैं, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों के विरुद्ध यज़ीद इब्ने मुआविया की भ्रष्ट सरकार की अत्याचारी कार्यवाहियां बढ़ती जा रही हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आशूरा आंदोलन के अस्तित्व में आने में नवीं मुहर्रम की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नवीं मुहर्रम को करबला की तपती हुई धरती पर कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं जिनसे पहले तो यह सिद्ध हो गया कि उमर इब्ने साद के नेतृत्व में यज़ीदी सेना और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथियों के बीच युद्ध होना तय है और हर प्रकार के समझौते का मार्ग बंद हो गया। दूसरा यह कि दसवीं मुहर्रम या आशूरा के दिन युद्ध निश्चित होगा। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम नवीं मुहर्रम के बारे में कहते हैं कि नवीं मुहर्रम का दिन वह दिन है जिस दिन इमाम हुसैन और उनके साथियों को कर्बला के मैदान में घेर लिया गया और उसके बाद यज़ीदी सेना उनके विरुद्ध एकट्ठा होना शुरु हो गयी। इब्ने ज़ियाद और उमर इब्ने साद अधिक सैनिकों के एकत्रित होने से प्रसन्न थे। उस दिन इमाम हुसैन और उनके साथियों को अक्षम समझ रहे थे और उन्हें विश्वास था कि अब उनके लिए कोई सहायता नहीं पहुंचेगी और इराक़ी भी उनका साथ नहीं देंगे।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यद्यपि यज़ीद के हाथ में हाथ देने को अपमान समझा किन्तु वह युद्ध और रक्तपात नहीं चाहते थे। दूसरी ओर यज़ीदी सेना का सेनापति उमर इब्ने साद पूरी तरह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पैग़म्बरे इस्लाम से निकटता से अवगत था और वह चाहता था कि किसी प्रकार इमाम हुसैन को बैयत के लिए राज़ी कर ले। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उमरे साद से अपनी मुलाक़ात में उसको इस काम के परिणाम से अवगत कराया था और उसको पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से युद्ध करने और उनका ख़ून बहाने से मना किया है। उसको सरकार की ओर से रय सरकार की ज़िम्मेदारी देने का वादा किया गया था इसीलिए वह आग्रह कर रहा था कि इमाम हुसैन, यज़ीद की आज्ञापालन का वचन दे दें। इसी बीच यज़ीदी सेना का लालची, निर्दयी और सबसे नीच सेनापति शिम्र इब्ने ज़िल जौशन करबला पहुंच गया जिसके बाद झड़पें और रक्तपात निश्चित हो गया। वह अपने साथ चार हज़ार सैनिकों को करबला लाया था। कुछ सूत्रों ने इस असमान युद्ध में यज़ीदी सेना की संख्या लगभग बीस से तीस हज़ार बतायी थी। दूसरी ओर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों पर सात मुहर्रम से ही पानी बंद कर दिया गया था, नवीं मुहर्रम को इमाम हुसैन और उनके साथी पूरी तरह परिवेष्टन में आ गये और उनको अब और अधिक सहायता पहुंचने की आशा नहीं थी।

करबला के मैदान में शिम्र इब्ने ज़िल जौशन अपने साथ सैनिकों के अलावा एक पत्र भी लाया था जो कूफ़े के गवर्नर की ओर से लिखा गया था। इस पत्र में उमर इब्ने साद को आदेश दिया गया था कि या इमाम हुसैन से बैयत लो या उनसे युद्ध करो। इसी प्रकार इब्ने ज़ियाद ने उमर इब्ने साद को धमकी दी थी कि यदि वह यह काम नहीं कर सकता तो सेना का नेतृत्व शिम्र के हवाले कर दे। यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि यह पत्र शिम्र के प्रभाव को क्रियान्वित करने के लिए लिखा गया था। बहरहाल इब्ने साद रय की सरकार को हाथ से गंवाना नहीं चाहता था और उसने इमाम हुसैन और उनके साथियों पर हमले का फ़ैसला कर दिया।

शिम्र ने नवीं मुहर्रम को एक अन्य षड्यंत्रकारी कार्यवाही की। उसने इमाम हुसैन की सेना के ध्वजवाहक हज़रत अब्बास इब्ने अली को इमाम हुसैन से अलग करने का प्रयास किया। हज़रत अब्बास, इमाम हुसैन की शक्ति, सेना के ध्वजवाहक और बच्चों व महिलाओं का सहारा थे, यदि हज़रत अब्बास इमाम हुसैन को छोड़कर चले जाते तो इमाम हुसैन की क्रांति को बहुत नुक़सान पहुंचता।

शिम्र ने अपने षड्यंत्र को व्यवहारिक बनाने के लिए हज़रत अब्बास और उनके तीन भाईयों को एक पत्र लिखा और कहा कि चूंकि आपकी मां का संबंध हमारे क़बीले से है, हम आपको शरण देते हैं, किन्तु जब शिम्र ने हज़रत अब्बास को पुकारा तो उन्होंने उसका जवाब तक नहीं दिया, यहां तक कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने स्वयं हज़रत अब्बास से शिम्र के पास जाने को कहा। जब हज़रत अब्बास और उनके भाईयों को यह पता चला कि शिम्र ने उनको संरक्षण देने की पेशकश की है तो वह बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने क्रोध में कहा कि तुझ पर और तेरे संरक्षण पर ईश्वर की धिक्कार हो, हम संरक्षण में हों और पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे को कोई संरक्षण न हो।  इस साहसिक व मुंहतोड़ जवाब ने शिम्र की योजनाओं पर पानी फेर दिया और उसे हज़रत अब्बास और इमाम हुसैन के बीच मतभेद पैदा करने से पूरी निराशा हो गयी। शिम्र को पता चल गया कि हज़रत अब्बास अपने भाई के प्रति सरापा निष्ठा हैं और दोनों भाईयों के बीच रिश्ता बहुत मज़बूत है।

शिम्र इब्ने ज़िल जौशन का षड्यंत्र विफल होने के बाद उमर इब्ने साद ने नवीं मुहर्रम की शाम अपने सैनिकों को युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दे दिया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को जब यह पता चला कि यज़ीदी सेना हमला करने ही वाली है तो उन्होंने हज़रत अब्बास को बुलाया और कहा कि जाओ उन लोगों से एक दिन की मोहलत ले लो ताकि हम अंतिम रात अपने ईश्वर के गुणगान और उसकी उपासना में बिताएं। ईश्वर जानता है कि मैं नमाज़ और पवित्र क़ुरआन की तिलावत को बहुत पसंद करता हूं। चूंकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की इच्छा तर्कसंगत और मानवीय थी, इब्ने साद ने पहले तो इसका विरोध किया किन्तु उसकी सेना के कुछ कमान्डरों का कहना था कि युद्ध को सुबह तक के लिए टाल दे इसीलिए उसने इमाम हुसैन की यह बात मान ली। न मुहर्रम की रात इमाम हुसैन और उनके साथियों और परिजनों के तंबुओं से पवित्र क़ुरआन की तिलावत, ईश्वर के गुणगान की आवाज आ रही थी। रिवायत बयान करने वाला कहता है कि इमाम हुसैन और उनके साथियों और परिजनों पर मौत का ख़ौफ़ तनिक भी दिखाई नहीं दे रहा था, हर व्यक्ति, बच्चा और महिला अपने ईश्वर के गुणगान में लीन थी। इसी बीच इमाम हुसैन ने अपने साथियों को एकत्रित किया और कहा कि यह लोग मेरी जान के दुश्मन हैं, इन को तुम से कुछ लेना देना नहीं है,  रात के अंधरे का फ़ायदा उठाओ और निकल जाओ, यदि तुम दीपक की रोशनी से शरमा रहे हो तो मैं दीपक बुझा देता हूं, उसके बाद इमाम हुसैन ने तंबू का दीपक बुझा दिया। इमाम हुसैन के साथी अपनी जगह से हिले भी नहीं बल्कि उन्होंने एक आवाज़ में कहा कि हे पैग़म्बर के नाती यदि आपकी मुहब्बत में 70 बार मारे जाएं और ज़िंदा किए जाएं तब भी हम आपको अकेला नहीं छोड़ेंगे।

 

 वास्तव में नवीं मुहर्रम को हज़रत अब्बास ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यही कारण है कि नवी मुहर्रम के दिन विशेष रूप से हज़रत अब्बास और उनकी निष्ठा, साहस और प्रतिभा को याद किया जाता है। वह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रक्तरंजित आंदोलन के दौरान बल्कि बचपने से ही इमाम हुसैन से विशेष श्रद्धा रखते थे और उनका सम्मान करते थे। उन्होंने कभी भी इमाम हुसैन को भाई नहीं कहा बल्कि उनको सदा स्वामी कहते थे। उन्होंने अपने भाई इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ अपने पिता से ज्ञान प्राप्त किया।  हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस बारे में कहते हैं कि मेरे बेटे अब्बास ने बचपन में मुझसे इस प्रकार ज्ञान प्राप्त किया जैसे कबूतर अपने बच्चों को दाना भराता है। इस आधार पर अब्बास इब्ने अली न केवल एक साहसी योद्धा बल्कि पवित्र और समस्त नैतिक गुणों से सुसज्जित एक धर्मगुरु थे। यही कारण है कि हज़रत इमाम हुसैन उनका विशेष सम्मान करते थे और उनको अमानतदार और अपने विश्वास का केन्द्र कहते थे, इमाम हुसैन ने हज़रत अब्बास को अपनी सेना का ध्वजवाहक बनाया था।

 

आशूर का दिन हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम के साहस, बलिदान और त्याग का दिन है। वह हर जगह मौजूद होते थे और तंबुओं की रक्षा करत थे। सैनिक एक एक करके शहीद होते रहे, हज़रत अब्बास को रणक्षेत्र में जाने की प्रतीक्षा थी। उनके तीनों भाई रणक्षेत्र में गये और वीरता के साथ युद्ध करते हुए शहीद हो गये। अब कोई भी नहीं बचा, तो इमाम हुसैन के पास सिर छुकाकर रणक्षेत्र में जाने की अनुमति लेने आए। इमाम हुसैन ने कहा कि अब्बास मैं तुम्हें रणक्षेत्र जाने की अनुमति नहीं दे सकता, तुम तो मेरी सेना के सेना पति हो, इस पर हज़रत अब्बास ने कहा कि स्वामी, अब वह सेना ही कहां जिसका मैं सेनापति था, सेना जहां गयी है मुझे भी वहां जाने की अनुमति दें, दोनों भाईयों में देर तक बातें होती रही, इसी बची तंबुओं से बच्चों की रोने और हाय प्यास हाय प्यास की आवाज़ें आने लगीं, इमाम हुसैन ने कहा कि अब्बास बच्चे तीन दिन के प्यासे हैं उनके लिए पानी का प्रबंध करो, हज़रत अब्बास तंबु से निकल कर फ़ुरात की ओर रवाना हो गये, यज़ीदी सेना ने फ़ुरात पर पैहरा लगा दिया, सैनिकों की संख्या बढ़ा दी, हज़रत अब्बास ने हमला किया और नहर पर क़ब्ज़ा कर लिया, छागल में पानी भरा और तंबू की ओर रवाना हुए इसी बीच बिखरी हुई सेना, सिमट गयी सबने एक साथ हमला कर दिया, दुश्मन के हमले में उनका एक हाथ कट गया, उन्होंने दूसरे हाथ में छागल ले ली, इसी बीच उनके दूसरे हाथ पर तीर लगा, उन्होंने सीने पर छगल दबा ली, इसी बीच एक तीर छागल पर आकर लगा, पूरा पानी बह गया, उन्होंने फिर से घोड़े को फ़ुरात की ओर मोड़ दिया, इसी बीच एक दुश्मन ने उनके सिर पर गदे से हमला किया, हज़रत अब्बास घोड़े से ज़मीन पर गिर पड़े, इमाम हुसैन को आवाज़ दी, स्वामी मेरा सलाम स्वीकार करें, इमाम हुसैन तेज़ी से हज़रत अब्बास के पास पहुंचे, कहा भय्या कोई वसीयत है, कहा, मैं अंतिम बार आपके दर्शन करना चाहता  हूं पर मेरी आंख में तीर लगा हुआ है, इमाम हुसैन ने तीर निकाला और ख़ून साफ़ किया। अब्बास ने कहा दूसरी वसीयत यह हैं कि मेरी लाश तंबू में न ले जाइयेगा। इमाम हुसैन हज़रत अब्बास के शव पर बैठकर मर्सिया पढ़ने लगे, भय्या तुम्हारे मरने से मेरी कमर टूट गयी, अब वह आखें सोएंगी जो जागती थीं और वह आंखें जाएंगी जो सोती थीं।

 

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