तरबियत ज़ुबान से नहीं अमल से होनी चाहिए

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तरबियत ज़ुबान से नहीं अमल से होनी चाहिए

बेटी अपनी मां को देखती है और उनसे ज़िंदगी के आदाब, शौहर से पेश आने के तरीक़े घर गृहस्थी संभालना और बच्चों की परवरिश का तरीक़ा सीखती है और अपने बाप को देख कर मर्दों के रवैये को पहचानती है, बेटा अपने बाप से ज़िंदगी के उसूलों और तौर तरीक़ों को सीखता है, वह अपने बाप से बीवी और बच्चों से सुलूक करने को सीखता है, और अपनी मां के तौर तरीक़ों से औरत को पहचानता है और अपनी आने वाली ज़िंदगी के लिए उसी को देख कर प्लान बनाता हैं।

बहुत से मां बाप ऐसे होते हैं जो तरबियत के लिए नसीहत और ज़ुबान से यह करो यह न करो कहने को काफ़ी समझते हैं, वह यह सोंचते हैं कि वह बच्चे को ज़ुबानी समझा बुझा रहे होते हैं तो वह तरबियत कर रहे होते हैं और ज़िंदगी में बाक़ी तरीक़ों पर ध्यान नहीं देते हैं,

यही वजह है कि ऐसे मां बाप अपने छोटे और कम उम्र बच्चों को तरबियत के क़ाबिल नहीं समझते और कहते हैं कि अभी बच्चा है कुछ नहीं समझेगा, जब बच्चा समझने के क़ाबिल हो जाता है तब तरबियत की शुरूआत करते हैं,

जब वह अच्छा बुरा समझने लगे तब उसकी तरबियत शुरू करते हैं, जबकि यह सोंच बिल्कुल ग़लत है, बच्चा अपनी पैदाइश के दिन से ही तरबियत के क़ाबिल होता है, वह पल पल तरबियत पाता है और एक विशेष मिज़ाज में ढ़लता चला जाता है चाहे मां बाप का ध्यान उस तरफ़ हो या न हो,

बच्चा तरबियत पाने के लिए इस बात का इंतेज़ार नहीं करता कि मां बाप उसे किसी काम का हुक्म दें या किसी चीज़ से रोकें, बच्चे का सेंसटिव और हस्सास दिमाग़ पहले ही दिन से एक कैमरे की तरह सारी चीज़ों की फ़िल्म बनाने लगते हैं और उसी के मुताबिक़ उसकी परवरिश होती है और वह तरबियत पाता है।

5 या 6 साल का बच्चा परवरिश पा चुका होता है और जो कुछ उसे बनना होता है बन चुका होता है, अच्छाई या बुराई का आदी बन चुका होता है इसलिए बाद की तरबियत बहुत मुश्किल होती है और उसका असर भी कम होता है,

बच्चा तो अपने मां बाप, अपने आस पास के लोग, उनके कामों उनकी बातचीत उनके रवैये उनके अख़लाक़ और अपने आस पास के माहौल का निरीक्षण (observe) करता है और उसकी तक़लीद करता है, वह मां बाप को सम्मान की निगाह से देखता है और उनके ज़िंदगी के तौर तरीक़े और कामों को अच्छाई और बुराई का मेयार क़रार देता है

और फिर उसी के मुताबिक़ अमल अंजाम देता है, बच्चे का वुजूद तो किसी सांचे में नहीं ढ़ला होता वह मां बाप को एक आइडियल समझ कर उनके मुताबिक़ अपने आप को ढ़ालता है, वह किरदार को देखता है बातों और नसीहतों पर ध्यान नहीं देता, अगर उसका किरदार उसका रवैया उसकी बातों के मुताबिक़ न हो तो वह किरदार को अपनाता है।

बेटी अपनी मां को देखती है और उनसे ज़िंदगी के आदाब, शौहर से पेश आने के तरीक़े, घर गृहस्थी संभालना और बच्चों की परवरिश का तरीक़ा सीखती है और अपने बाप को देख कर मर्दों के रवैये को पहचानती है, बेटा अपने बाप से ज़िंदगी के उसूलों और तौर तरीक़ों को सीखता है, वह अपने बाप से बीवी और बच्चों से सुलूक करने को सीखता है, और अपनी मां के तौर तरीक़ों से औरत को पहचानता है, और अपनी आने वाली ज़िंदगी के लिए उसी को देख कर प्लान बनाता है।

इसलिए ज़िम्मेदार और जानकार लोगों के लिए ज़रूरी है कि शुरू में अपने अंदर सुधार पैदा करें, अगर उनके आमाल, किरदार और अख़लाक़ में कमियां हैं तो उसको सुधारें, अच्छे सिफ़ात और नेक आदतें इख़्तेयार करें और किरदार को सजाएं, संक्षेप में बस इतना समझ लें कि अपने आप को एक अच्छा और मुकम्मल इंसान बनाएं उसके बाद बच्चों की पैदाइश और उनकी तरबियत की राह में क़दम आगे बढ़ाएं, इसलिए मां बाप को पहले यह सोचना चाहिए कि वह किस तरह का बच्चा समाज के हवाले करना चाहते हैं, अगर उन्हें यह पसंद है कि उनका बच्चा नेक अख़लाक़ वाला, इंसानियत से प्रेम करने वाला, दीनदार, शरीफ़, बहादुर, ज़िम्मेदार, मेहेरबान हो तो ख़ुद उन्हें भी ऐसा ही होना चाहिए ताकि वह बच्चे के लिए आइडियल क़रार पाएं, जिस मां की तमन्ना हो कि उसकी बेटी ज़िम्मेदार, मेहेरबान, समझदार, शौहर से वफ़ादारी करने वाली, तहज़ीब वाली, हर तरह के हालात में गुज़र बसर करने वाली, और मुनज़्ज़म हो तो उसे पहले ख़ुद इन सिफ़ात को अपने अंदर लाना होगा, अगर मां बुरे अख़लाक़, बे अदब, सुस्त, ग़ैर मुनज़्ज़म, दूसरों से ज़्यादा तवक़्क़ो रखने वाली, बहाना बनाने वाली तो वह केवल नसीहत करने से अच्छी बेटी तरबियत नहीं कर सकती।

डॉ. जलाली लिखते हैं कि बच्चों को भावनाओं और जज़्बात के हिसाब से वही लोग तरबियत कर सकते हैं जिन्होंने अपने बचपन और नौजवानी और जवानी में सही तरबियत पाई हो, जो मां बाप आपस में नाराज़ रहते हों और छोटी छोटी बातों पर झगड़ा करते हों या जिन लोगों तरबियत को शरई ज़िम्मेदारी नहीं बल्कि एक फ़ॉरमेल्टी समझ के अंजाम देते हों और बच्चों को नफ़रत की निगाह से देखते हों, या जो लोग तरबियत करने का हौसला न रखते हों, या जिनको ख़ुद पर अपने बच्चों की सही तरबियत करने का भरोसा ही न हो तो ऐसे वालेदैन अपने बच्चों की भावनाओं, जज़्बात और एहसास को सही रास्ते पर नहीं लगा सकते हैं।

इसके बाद डॉ. जलाली लिखते हैं कि बच्चे की तरबियत जिस किसी के भी ज़िम्मे हो उसे चाहिए कि कभी कभी अपने किरदार और अपने सिफ़ात पर भी निगाह डाले और अपनी ज़िम्मेदारियों के बारे में सोचे और कमियों को दूर करे।

इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि जो शख़्स किसी का लीडर और पेशवा बनना चाहता है उसे चाहिए कि पहले वह अपने अंदर सुधार लाए फिर दूसरों को सुधारे, और दूसरों को ज़ुबान से अदब और अख़लाक़ सिखाने से पहले अपने किरदार से अदब सिखाए, और जो इंसान ख़ुद को तालीम और अदब सिखाता है वह उस इंसान से ज़्यादा इज़्ज़त और सम्मान का हक़दार है जो दूसरों को अदब सिखाता है। (नहजुल बलाग़ा, कलेमाते क़ेसार, 73)

एक दूसरे मौक़े पर इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि तुम अपने बुज़ुर्गों का सम्मान करो ताकि तुम्हारे बच्चे तुम्हारा सम्मान करें। (ग़ोररुल हेकम, पेज 78)

पैग़म्बर स.अ. अबूज़र से फ़रमाते हैं, जब कोई शख़्स ख़ुद नेक होता है तो अल्लाह उसके नेक हो जाने से उसकी औलाद और उसकी औलाद की औलाद को भी नेक बना देता है। (मकारिमुल अख़लाक़, पेज 546)

इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि, अगर दूसरों को सुधारना और सही तरबियत करना चाहते हो तो इस सिलसिले की शुरुआत अपनी ज़ात में सुधार पैदा कर के करो, और अगर दूसरों को सुधारना चाहा और अपने को और अपने आप को बुरा ही रहने दिया तो यह सबसे बड़ा ऐब और सबसे बड़ी ग़लती होगी। (ग़ोररुल हेकम, पेज 278)

इसी तरह इमाम अली अ.स. की एक और हदीस इस विषय पर इस तरह रौशनी डालती है कि जिस नसीहत के लिए ज़ुबान ख़ामोश हो और किरदार बोल रहा हो तो उसे कोई कान बाहर नहीं निकाल सकता और इसके बराबर किसी नसीहत का कोई फ़ायदा नहीं हो सकता। (ग़ोररुल हेकम, पेज 232)

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