एतेमाद व सबाते क़दम

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كانهم بنين مرصوص

वह लोग सीसा पिलाई हुई दिवार की तरह हैं।

सूरः ए सफ़ आयत न. 5

नहजुल बलाग़ा में हज़रत अली अलैहिस्लाम का यह क़ौल नक़्ल हुआ हैं-

يوم لک و يوم عليک

एक रोज़ तुम्हारे हक़ में और दूसरा तुम्हारे ख़िलाफ़ है। इस से मालूम होता है कि ज़िन्दगी हमेशा ख़ुशगवार या एक ही हालत पर नही रहती, बल्कि ज़िन्दगी भी दिन रात की तरह रौशन व तारीक होती रहती है। यह कभी खुश गवार होती है, तो कभी पुर दर्द बन जाती है ! कुछ लोग ख़ुशो खुर्रम रहते हैं तो कुछ लोग रोते बिलखते जिन्दगी बसर करते हैं। इन बातों से मालूम होता है कि ज़िन्दगी में हमेशा नशेब व फ़राज़ आते रहते हैं।

लिहाज़ा समाजी ज़िन्दगी के लिए रुही ताक़त की ज़रूरत होती है ताकि उसकी मदद से मुश्किलों व दुशवारियों के सामने हमें आँख़े न झुकानी पड़े और मायूस होने व हार मानने के बजाए, हम साबित क़दम रहकर उनका मुक़ाबेला करें और एक एक करके तमाम मुशकिलों का ख़ात्मा कर सकें।

यक़ीनन साबित क़दम रहने की आदत की बुनियाद घर के माहौल में रखी जाती है और माँ बाप अपने बच्चों में एतेमादे नफ़्स व सबाते क़दम पैदा करने के लिए माहौल बनाते हैं।

हमारा अक़ीदा है कि तमाम अच्छे इंसानों की तरक़्क़ी व बलंदी की इब्तेदा और तमाम बुरे लोगों की पस्ती की शुरुवात उनके घर के माहौल से होती है और वह उन कामों को घर से ही शुरू करते है।

दूसरे लफ़्ज़ों में यह कहा जा सकता है कि किसी भी इंसान की तरक़्क़ी व तनज़्ज़ुली उसकी ज़िन्दगी के माहौल से अलग नही हो सकती।

पेड़ चाहे जितना भी मज़बूत क्यों न हो उसकी यह ताक़त उसकी जड़ से जुदा नही हो सकती। क्योंकि ज़मीन की ताक़त ही इस पेड़ को मज़बूती अता करती हैं। लिहाज़ा घर के तरबियती माहौल की ज़िम्मेदारी है कि वह बच्चों के अन्दर सबाते क़दम का जज़बा पैदा करें। देहाती समाज में रहने वाले बच्चों में एतेमात और सबाते क़दमी ज़्यादा पाई जाती हैं। क्यों कि उस समाज में लड़कियाँ और लड़के बचपन से ही अपने माँ बाप के साथ सख़्त और मेहनत के काम करना सीख जाते हैं। उन्हीं कामों की वजह से उनके अन्दर धीरे - धीरे सबाते क़दमी का जज़बा परवान चढ़ता जाता है। शहरों में रहने वाले मालदार घरों के अक्सर बच्चों में हिम्मत व तख़लीक़ कम पाई जाती है, क्योंकि वह अमली तौर पर मुश्किलों का सामना कम करते हैं। इस तरह के जवान ख़्वाब व ख़्याल में ज़िन्दगी गुज़ारते हैं और ज़िन्दगी की सच्चाई से बहुत कम वाक़िफ़ होते हैं। माँ बाप को चाहिए कि अपने बच्चों को धीरे धीरे ज़िन्दगी की सच्चाईयों से आगाह करायें और उन्हें ज़िन्दगी की हक़ीक़त यानी ग़रीबी व फ़क़ीरी और दूसरे तमाम मसाइल के बारे में भी बतायें। क्योंकि इस तरह के बच्चे जब समाजी ज़िन्दगी में क़दम रखते हैं तो सबाते क़दम के साथ मुशकिलों का सामना करते हैं और एक एक करके तमाम मुशकिलों से निजात हासिल कर लेते हैं।

जो एतेमाद, मेहनत और कोशिश के ज़रिये हासिल होता है, वह किसी दूसरी चीज़ से हासिल नही होता। ख़ुदा वंदे आलम ने इंसान को पैदा करने के बाद उसे उसके कामों में आज़ाद छोड़ कर उसकी पूरी शख़्सीयत को उनकी मेहनत व कोशिश से वाबस्ता कर दिया है।

ليس للانسان الا ما سعی

इंसान के लिये कुछ नही है, मगर सिर्फ़ उसकी कोशिश व मेहनत की वजह से। लेकिन एक अहम नुक्ता यह है कि कभी ऐसा भी हो सकता है कि बच्चों की मेहनत व कोशिश के बावजूद उनके काम में कोई ख़ामी रह जाये। ऐसी सूरत में वह वालदैन अक़्लमंद समझे जाते हैं जो अपनी औलाद के मुस्तक़बिल की ख़ातिर इन ख़ामियों को मामूली व छोटा समझते हुए उन्हे नज़र अंदाज़ कर देते हैं और उनकी हिम्मत बढ़ाते हुए उनके अंदर जुरअत और कुछ करने के हौसले को ज़िन्दा रखते हैं।

गुनाहगार वालिदैन

बहुत से घराने ऐसे होते हैं जो अपनी जिहालत व नादानी की वजह से अपने बच्चों की बर्बादी के असबाब ख़ुद फ़राहम करते हैं। कुछ वालिदैन ऐसे भी होते हैं जो अपने बच्चों के शर्माने, झिझकने, हिचकिचाने, कम बोलने, तन्हा रहने, बच्चों के साथ न ख़ेलने वगैरा को फ़ख्र की बात समझते हैं और उनको बहुत बाअदब बच्चों की शक्ल पेश करते हैं, जबकि यह काम उनकी शख़्सियतों की कमज़ोरीयों को और बढ़ा देता हैं। वह इस बात से बेख़बर होते हैं कि शर्माने और झिझकने वाले लोग नार्मल नही होते, क्योंकि शर्माने व घबराने वाले लोग आम इंसानों वाली आदतों से महरूम होते हैं। वह लोग यह सोचते हैं कि हम लोगों से दूर रह कर ख़ुद को एक अज़ीम िंसान की शक्ल में पहचनवा सकते हैं जबकि हक़ीक़त में उनके इस झूटे चेहरे के पीछे उनका कमज़ोर वुजूद होता है जो उन्हे इस बात पर उकसाता है।

हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिये कि सही व सालिम बच्चे वह हैं जो अपना दिफ़ाअ करने की सलाहियत रखते हों और अगर उन पर ज़्यादतियाँ की जायें तो वह उनके आगें न झुकें और मन्तक़ी ग़ौरो फ़िक्र के साथ उन ज़्यादतियों का मुक़ाबला करें।

सालिम बच्चे वही हैं जो अपनी गुफ़तगू के ज़रिये अपने एहसास व अफ़कार को बयान कर सकें। यह बात भी याद रखनी चाहिये कि वही लोग समाजी ज़िन्दगी में नाकाम होते हैं जिनकी रूह कमज़ोर और बीमार होती है, इसलिये कि बहादुर व ताकतवर इंसान हर तरह की मुश्किल से जम कर मुक़ाबला करते हैं और कामयाब होते हैं। जंगे जमल में हज़रत अली (अ) ने अपने फ़रज़न्द मुहम्मदे हनफ़िया से इस तरह फ़रमाया:

تزول الجبال و لا تزول

पहाड़ अपनी जगह छोड़ दें मगर तुम अपनी जगह से मत हिलना। यह हज़रत अली (अ) की तरफ़ से तरबीयत का एक नमूना है। यानी यह बाप की तरफ़ से अपने बेटे की वह तरबियत है, जिसे हम तमाम मुसलमानों को नमूना ए अमल बनाना चाहिए ताकि अपने बच्चों की तरबीयत भी इसी तरह कर सकें।

तारीख़ में है कि जब तैमूर लंग ने अपने दुश्मनों से शिकस्त खा कर एक वीराने में पनाह ली तो उसने वहाँ यह मंज़र देखा कि एक चयूँटी गेंहू के एक दाने को अपने बिल तक पहुचाने की कोशिश कर रही है, मगर जैसे ही वह उस तक पहुचती है, दाना नीचे जमीन पर गिर जाता है। तैमूर कहता है कि मैने देखा कि 65वी बार वह कीड़ा अपने मक़सद में कामयाब हुआ और उसने उस दाने को घोसलें में पहुचाँया। तैमूर कहता है कि इस चीज़ ने मेरी आँखे खोल दीं और मैं शर्मीदा होकर पुख़्ता इरादे के साथ फिर से उठ खड़ा हुआ और अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ जंग की और आख़िरकार उन्हे हरा कर ही दम लिया।

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