कुर्बानी का पर्व बकरीद क्यों मनाया जाता है, कब और कैसे हुई इसकी शुरुआत?

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कुर्बानी का पर्व बकरीद क्यों मनाया जाता है, कब और कैसे हुई इसकी शुरुआत?

बकरीद जिसे ईद उल अजहा और ईद उल जुहा (Eid al-Adha) के नाम से भी जाना जाता है। इस त्योहार को देख जाए तो कुबार्नी के त्योहार पर मनाया जाता है। जिन लोगों को इस त्योहार के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है तो हम उन्हें बता दें मीठी ईद के महज 2 महीने बाद इस त्योहार को मनाया जाता है। इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग बकरे की कुर्बानी देते हैं। आप में से ज्यादातर लोगों के मन में ये सवाल जरूर उठाता होगा कि आखिरी बकरे ही क्यों बाकी किसी चीजें की कुर्बानी इस दिन क्यों नहीं दी जाती तो हम आपको बात दें कि हर उस जानवर की कुर्बानी दी जा सकती है जो आपके प्रिय हो, लेकिन बकरे की कुर्बानी का अपना ही अलग महत्व होता है। चलिए जानते हैं बकरीद से जुड़े बाकी कई अहम बातें।

जानिए क्यों दी जाती है बकरे की कुर्बानी?

इस त्योहार को भले ही बकरीद के नाम से जाना जाता है, लेकिन इस शब्द का तुलाक बकरों से नही हैं। यहां तक की ये उर्दू नहीं बल्कि अरबी शब्द है। यानी अरबी में बकर का मतलब होता है बड़ा जानवर जो जिबह यानि काटा जाता है। इसलिए इसे शब्द को यहां से लिया गया। आज भारत, पाकिस्तान व बांग्ला देश में इसे ‘बकरा ईद’ कहा जाता है| ईद-ए-कुर्बां का मतलब होता है बलिदान की भावना। अरबी में ‘क़र्ब’ नजदीकी या बहुत पास रहने को कहते हैं| इसका मतलब ये होता है कि इस मौके पर भगवान इंसान के बहुत करीब हो जाता है। कुर्बानी उस पशु के जि़बह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जि़लहिज्ज (हज का महीना) को खुदा को खुश करने के लिए ज़िबिह किया जाता है। कुरान में लिखा गया है : हमने तुम्हें हौज़-ए-क़ौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज़ पढ़ो और कुर्बानी करो।

जानिए बकरीद के पीछे की कहानी

हजरत इब्राहिम को अल्लाह का पैगंबर कहा जाता है। वह पूरी जिंदगी दुनिया की भलाई के लिए ही काम करते रहे, लेकिन 90 साल के जाने के बाद भी उन्हें कोई संतान नहीं हुई। उन्होंने खुदा की इबादत की और उन्हें एक बेटा मिला जिसका नाम था इस्माइल। हजरत इब्राहिम को सपने में ये आदेश मिला कि वह खुदा की राह में कुर्बानी दे। ऐसे में उन्होंने पहले ऊंट की कुर्बानी दी। इसके बाद उन्हें ये सपना आया कि वह सबसे प्यारी चीज की अपनी कुर्बानी दी। इस पर उन्होंने अपने सभी जानवर को कुर्बान कर डाला। इसके बाद उन्हें फिर वहीं सपना आया। इसके बाद उन्होंने खुद पर विश्वास जताते हुए अपने बेटे की कुर्बानी करने का फैसला लिया। जिसके बाद हजरत इब्राहीम अपने दस वर्षीय पुत्र इस्माइल को ईश्वर की राह पर कुर्बान करने निकल गए|

अल्लाह ने जब उनका विश्वास अपने प्रति देखा तो उन्होंने उनके बेटे की कुर्बानी को बकरे की कुर्बानी में बदल दिया। दरअसल हजरत ने अपने जब अपने बेटे की कुर्बानी दी तो उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। बाद में जब उन्होंने पट्टी खोली तो अपने बेटे इस्माइल को जिंदा पाया और उसकी जगह एक बकरे को कुर्बान होते हुए देखा। इस्लामिक इतिहास में इस घटना के बाद से बकरे की कुर्बानी देने की परंपरा काफी वक्त से चली आ रही है। क्या आपको पता है कि किसी भी जानवर की कुर्बानी के बाद उसे तीन भागों में बांटा गया है; एक हिस्सा रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों को दिया जाता है, दूसरा हिस्सा जरूरतमंद और गरीबों को दिया जाता है और तीसरा हिस्सा अपने पास रखा जाता है।

ईद उल अजहा हमें देता है दो सीख

हजरत मुहम्मद साहब का जन्म भी इसी वंश में हुआ था। ईद उल अजहा के दो संदेश है पहला परिवार के बड़े सदस्य को स्वार्थ के परे देखना चाहिए और खुद को मानव उत्थान के लिए लगाना चाहिए और दूसरा ये कि ईद उल अजहा यह याद दिलाता है कि कैसे एक छोटे से परिवार में एक नया अध्याय लिखा।

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