इमाम हुसैन (अ) के अज़ादार अपनी अज़ादारी के ज़रिये पैग़म्बरे इस्लाम (स) को ताज़ियत (पुरसा) पेश करते थे और उनके ग़म में शिरकत करते हैं,
इमाम सादिक़ (अ) इस बारे में फ़रमाते हैं ।[3] अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ज़िन्दा होते तो हम उन्हे ताज़ियत (पुरसा) पेश करते। हम तसव्वुर नही कर सकते कि आशूरा के दिन इमाम हुसैन (अ) के क़ल्बे नाज़नीन पर क्या गुज़री। हरगिज तसव्वुर नही कर सकते।
कभी इंसान के ज़हन में ख़्यालात आते हैं मगर फिर भी वह तसव्वुर नही कर सकता। हमें यह नही कहना चाहिये कि इमाम को मज़बूत और सब्र करने वाला होना चाहिये,यक़ीनन इमामे मासूम दुनिया में सबसे ज़्यादा अहम और सबसे ज़्यादा अक़लमंद होते हैं, उनका दिल तमाम लोगों में सबसे ज़्यादा मज़बूत होता है और इसी तरह उनमें मेहरबानी भी सबसे ज़्यादा होती है और वह उन्हे कंटोल करने में भी महारत रखते हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बेटे इब्राहीम जो डेढ़ साल के थे, जब उनका इंतेक़ाल हुआ आप की आँखो से आँसू जारी हो गये और आप इतनी शिद्दत से रो रहे थे कि आपकी रीशे (दाढ़ी) मुबारक हिल रही थी। असहाब ने अर्ज़ या ऐ अल्लाह के नबी, आप हमें सब्र करने को कहते हैं लेकिन आप ख़ुद इस तरह से रो रहे हैं तो आपने फ़रमाया: जब दिल तड़पता है तो आँखो से आँसू निकल ही पड़ते हैं।[4] पैग़म्बरे इस्लाम (स) जिन्होने सिर्फ़ एक अठ्ठारह महीने के बेटे को खोया था इस तरह उसके ग़म में रो रहे थे जबकि इमाम हुसैन (अ) ने आशूर के दिन अपने अज़ीज़ (रिश्तेदार) व अंसार (दोस्त) सब को अल्लाह की राह में क़ुरबान कर दिया जिनमें हज़रत अबुल फ़ज़्लिल अब्बास जैसी श ख़्सियतें शामिल हैं।
अगर उन्हे आम लोगों की हिसाब करें तो यक़ीनन वह एक एक इंसान थे मगर यह बात नही भूलनी चाहिये कि वह आम लोग नही थे और उनमें से अकसर इमामत व इस्मत की आग़ोश के पले थे और वफ़ादारी व बुज़ुर्गी में इमामे मासूम के बाद सबके सरदार थे, उनकी मिसाल इस दुनिया में नही मिल सकती, बल्कि उनकी सच्चा तारीफ़ भी हमारे लिये मुम्किन नही है।
कुछ घंटों में इमाम हुसैन (अ) के दिले नाज़नीन पर इस क़दर मुसीबतें पड़ी और आप ने सब्र किया। अल्लाह इन मुसीबतों का गवाह था उसने सब्र किया इसलिये कि वह बहुत सब्र करने वाला है। एक दिन वह भी आयेगा कि अल्लाह भी उस दिन अपनी हिकमत के मुताबिक़ सब्र नही करेगा और वह दिन उसके इंसाफ़ का दिन होगा, उस दिन इंतेक़ाम लिया जायेगा।