ज़ायोनियों की साम्राज्यवादी योजना को क्यों ख़त्म किया जाना चाहिए?

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ज़ायोनियों की साम्राज्यवादी योजना को क्यों ख़त्म किया जाना चाहिए?

इतिहास पर नज़र डालने से पता चलता है कि  साम्राज्यवादियों या बाहरी दबाव से मजबूर हुए बिना साम्राज्यवादियों ने शायद ही कभी साम्राज्यवादी शासन छोड़ा हो। इसीलिए, साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ लगातार बढ़ती और निरंतर हिंसा को रोकने का एकमात्र और सही तरीका, कठोर आंतरिक और बाहरी दबाव का इस्तेमाल करना है। साम्राज्यवाद को ख़त्म करने का इतिहास सदैव हिंसा से जुड़ा रहा है।

हालांकि, ऐसे दुर्लभ मामलों में जहां छोटे द्वीपों को साम्राज्यवादी ताक़तों द्वारा ख़ाली कर दिया गया है और साम्राज्यवादियों के ख़ात्मे को सर्वसम्मति से नहीं बल्कि हिंसा के बिना किया गया है।

हमास, इजराइली शासन और उसके प्रति दुनिया में मौजूद विभिन्न दृष्टिकोणों पर चर्चा करने के लिए, किसी को ज़ायोनियों की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को समझना होगा और फिलिस्तीनी प्रतिरोध को साम्राज्यवादी विरोधी संघर्ष के रूप में पहचानना होगा।

पार्सटुडे पत्रिका के इस लेख में इस मुद्दे के कुछ पहलुओं पर रोशनी डाली जाएगी:

नरसंहार के मुद्दे का विश्लेषण, जिसे ज़ायोनियों के अस्तित्व के जन्म के बाद से अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की सरकारों ने नज़रअंदाज कर दिया है।

इससे पता चलता है कि फ़िलिस्तीन में हिंसा की जड़ 19वीं सदी के अंत में ज़ायोनियों के विस्तार और अप्रवासियों की एक साम्राज्यवादी योजना में निहित है क्योंकि ज़ायोनिज़्म, अप्रवासियों की अन्य साम्राज्यवादी योजनाओं की तरह, मूल आबादी को खत्म करने की कोशिश करता था।

जब हिंसा के बिना बहिष्कार हासिल नहीं किया जा सकता है तो साम्राज्यवादियों का समाधान ज़्यादा हिंसा के इस्तेमाल पर निर्भर हो जाता है और एकमात्र चीज़ जिसमें एक साम्राज्यवादी अप्रवासी योजना, स्वदेशी लोगों के खिलाफ अपनी हिंसा को समाप्त कर सकती है और यह तब ही मुमकिन होती है जब वह योजना समाप्त हो जाती है या ख़त्म हो जाती है।

हिंसा का प्रारूप

आधुनिक फ़िलिस्तीन में 1882 से 2000 तक हिंसा का इतिहास उल्लेखनीय है। 1882 में फ़िलिस्तीन में ज़ायोनी अप्रवासियों के पहले ग्रुप का आगमन, सिर्फ़ हिंसा का पहला क़दम नहीं था।

अप्रवासियों की हिंसा, जानकारियों पर आधारित और जानबूझकर थी। इसका मतलब यह था कि फ़िलिस्तीन में प्रवेश करने से पहले अप्रवासियों द्वारा फ़िलिस्तीनियों को हिंसक तरीके से हटाना उनके लेखन, कल्पनाओं और सपनों में शामिल था:

"लोगों के बिना ज़मीन" दास्तान। ज़ायोनियों ने इस विचार को वास्तविकता में बदलने के लिए 1918 में फ़िलिस्तीन पर ब्रिटिश क़ब्ज़े का इंतज़ार किया। कुछ साल बाद, 1920 के दशक के मध्य में, ब्रिटिश सरकार की मदद से ग्यारह गांवों का जातीय सफ़ाया कर दिया गया।

सिर्फ़ यहूदियों के लिए काम

फ़िलिस्तीनियों को बेदखल करने के प्रयास में हिंसा का यह पहला व्यवस्थित क़दम था। हिंसा का दूसरा रूप "यहूदी काम" की रणनीति थी जिसका मक़सद, फिलिस्तीनियों को श्रम बाज़ार से निकालकर बाहर फेंकना था।

इस रणनीति और जातीय सफाए के कारण फ़िलिस्तीनियों को अन्य स्थानों पर जबरन प्रवास करना पड़ा जो निश्चित रूप से, काम या उचित आवास मुहैया कराने में सक्षम नहीं थे।

अशुभ उपासना स्थल और इंतिफ़ाज़ा की शुरुआत

1929  में जब हिंसा की इन कार्रवाइयों को हरम अल-शरीफ़ की जगह पर अशुभ उपासना स्थल बनाने की बात के साथ जोड़ा गया तो फिलिस्तीनियों ने पहली बार हिंसा से जवाब दिया।

 

यह कोई समन्वित जवाब नहीं था, बल्कि फ़िलिस्तीन में ज़ायोनी साम्राज्यवाद के कड़वे परिणामों के प्रति एक सहज और हताश प्रतिक्रिया थी।

सात साल बाद, जब ब्रिटेन ने अधिक अप्रवासियों को अनुमति दी और अपनी सेना के साथ एक नई ज़ायोनी सरकार के गठन का समर्थन किया तो फिलिस्तीनियों ने और अधिक संगठित अभियान शुरू किया।

यह पहला इंतिफ़ाज़ा था जो तीन साल (1936-1939) तक चला और इसे अरब विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इस अवधि के दौरान, फिलिस्तीन के मेधावी वर्ग ने अंततः ज़ायोनियों को फिलिस्तीन और उसके लोगों के लिए एक संभावित खतरे के रूप में पहचान लिया।

रक्षा की आड़ में हमला

विद्रोह को दबाने में ब्रिटिश सेना के साथ सहयोग करने वाले ज़ायोनी पक्षपातियों के मुख्य ग्रुप को हेगाना कहा जाता था, जिसका अर्थ होता है "रक्षा"।

फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ किसी भी आक्रामक कार्रवाई का वर्णन करने के लिए इजराइली कहानी में भी यही बात कही जाती है। यानी, किसी भी हमले को आत्मरक्षा के रूप में प्रस्तुत किया गया था, एक अवधारणा जो इजराइली सेना का नाम, इजराइल के रक्षा बलों के नाम से जोड़ती होती है।

ब्रिटिश प्रभाव के ज़माने से लेकर आज तक, इस सैन्य शक्ति का उपयोग, ज़मीनों और बाज़ारों को जब्त करने के लिए किया जाता रहा है।

इस सेना को फ़िलिस्तीन के साम्राज्यवादी विरोधी आंदोलन के हमलों के ख़िलाफ़ एक रक्षा बल के रूप में पेश किया गया था और इसीलिए यह 19वीं और 20वीं शताब्दी में अन्य साम्राज्यवादियों से अलग नहीं थी।

मक़तूल की जगह आतंकवादी का नाम देना

फ़र्क़ यह है कि आधुनिक इतिहास में ज़्यादातर मामलों में जहां साम्राज्यवाद, समाप्त हो गया है, साम्राज्यवादियों के कार्यों को हमलों के के रूप में देखा जाता है, न कि आत्मरक्षा के रूप में। ज़ायोनियों की बड़ी सफलता, हमलों को आत्मरक्षा और फ़िलिस्तीनियों के सशस्त्र संघर्ष को आतंकवाद के रूप में देखना है।

ब्रिटिश सरकार कम से कम 1948 तक हिंसा के दोनों कृत्यों को आतंकवाद मानती थी लेकिन उसने 1948 में फिलिस्तीनियों के खिलाफ सबसे ख़राब हिंसा की अनुमति देना जारी रखा, ठीक उसी समय जब वह फिलिस्तीनियों के जातीय सफाए का पहला चरण देख रही थी।

दिसम्बर 1947 और मई 1948 के बीच, जब ब्रिटेन अभी भी क़ानून और व्यवस्था का ज़िम्मेदार था, ज़ायोनी सैनिकों ने फिलिस्तीन के मुख्य शहरों और उनके आसपास के गांवों को नष्ट कर दिया था। यह आतंक से कहीं अधिक और मुख्यरूप से मानवता के विरुद्ध अपराध था।

मई और दिसम्बर 1948 के बीच जातीय सफाए का दूसरा चरण पूरा होने के बाद, फिलिस्तीनी आबादी के आधे हिस्से को जबरन निष्कासित कर दिया गया, उसके आधे गांवों को नष्ट कर दिया गया और इसके अधिकांश शहरों को सबसे हिंसक तरीकों से नष्ट कर दिया गया जो फिलिस्तीन ने सदियों से देखा है।

इससे पता चलता है कि फ़िलिस्तीन में हिंसा की जड़ 19वीं सदी के अंत में ज़ायोनियों के विस्तार और अप्रवासियों की एक साम्राज्यवादी योजना में निहित है क्योंकि ज़ायोनिज़्म, अप्रवासियों की अन्य साम्राज्यवादी योजनाओं की तरह, मूल आबादी को खत्म करने की कोशिश करता था।

जब हिंसा के बिना बहिष्कार हासिल नहीं किया जा सकता है तो साम्राज्यवादियों का समाधान ज़्यादा हिंसा के इस्तेमाल पर निर्भर हो जाता है और एकमात्र चीज़ जिसमें एक साम्राज्यवादी अप्रवासी योजना, स्वदेशी लोगों के खिलाफ अपनी हिंसा को समाप्त कर सकती है और यह तब ही मुमकिन होती है जब वह योजना समाप्त हो जाती है या ख़त्म हो जाती है।

स्रोत:

Ilan Pappe. 2024.To stop the century-long genocide in Palestine, uproot the source of all violence: Zionism. The new Arab.

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