हुसैनी आंदोलन

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हुसैनी आंदोलन

दसवीं मोहर्रम की घटना, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन, उनका चेहलुम और अन्य धार्मिक अवसर इस्लामी इतिहास का वह महत्वपूर्ण मोड़ हैं जहां सत्य और असत्य का अंतर खुलकर सामने आ जाता है। इमाम हुसैन के बलिदान से इस्लाम धर्म को नया जीवन मिला और तथा इस ईश्वरीय धर्म के प्रकाशमान दीप को बुझा देने पर आतुर यज़ीदियत को निर्णायक पराजय मिली। इस घटना में अनगिनत सीख और पाठ निहित हैं। इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने विभिन्न अवसरों पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन से मिलने वाली और नसीहतों पर प्रकाश डाला है। कार्यक्रम मार्गदर्शन के अंतर्गत हम हुसैनी आंदोलन से मिलने वाली सीख और नसीहतों को पेश करेंगे।

आपको याद दिलाते चलें कि कार्यक्रम मार्गदर्शन इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनई के भाषणों से चयनित खंडों पर आधारित है।

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इमाम हुसैन के चेहलुम से हमें यह सीख मिलती है कि दुशमनों के विषैले प्रचारों के तूफ़ान के सामने सत्य और शहादत की याद को जीवित रखा जाना चाहिए। आप देखिए! ईरान की क्रान्ति से आज तक इमाम ख़ुमैनी, इस्लामी क्रान्ति, इस्लाम और ईरानी राष्ट्र के विरुद्ध कितने व्यापक स्तर पर प्रौपगंडे होते रहे हैं। शत्रुओं ने हमारे शहीदों के विरुद्ध प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से रेडियो, टीवी, समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के माध्यम से सीधे सादे लोगों के मन मस्तिष्क में कैसी कैसी बातें भर दीं? यहां तक कि हमारे देश के भीतर भी कुछ नादान लोग युद्ध के उन हंगामों के दौरान एसी बात कह देते थे जो ज़मीनी स्थिति से अनभिज्ञता का परिणाम होती थी। अब यदि इन प्रोपैगंडों के मुक़ाबले में सच्चाई को बयान न किया जाए, सत्य को सामने न लाया जाए और यदि ईरान जनता, हमारे वक्ता तथा बुद्धिजीवी और कलाकार सत्य के प्रचार प्रसार के लिए स्वयं को समर्पित न कर देंगे तो शत्रु प्रोपैगंडे के मैदान में सफल हो जाएगा। प्रोपगंडे का मैदान बहुत बड़ा और ख़तरनाक है। हमारी जनता की बड़ी संख्या क्रान्ति से मिलने वाली चेतना के कारण शत्रुओं के विषैले प्रचारों से सुरक्षित है। शत्रु ने इतने झूठ बोले और आंखों के सामने मौजूद तथ्यों के बारे में एसी ग़लत बातें कहीं कि जनता में विश्व प्रचारिक तंत्र से विश्वास ख़त्म हो गया।

अत्याचारी यज़ीदी मशीनरी अपने प्रोपैगंडों में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को दोषी ठहराती थी और यह ज़ाहिर करती थी कि अली के सुपुत्र हुसैन वह थे जिन्होंने सांसारिक लोभ के लिए न्याय पर आधारित इस्लामी सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया था और कुछ लोगों को इस प्रोपैगंडे पर विश्वास भी हो गया था। इसके बाद जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कर्बला के मैदान में मज़लूमियत के साथ शहीद कर दिए गए तो इसे यज़ीद की विजय की संज्ञा दी गई किंतु हुसैनी आंदोलन के सही प्रचार के कारण यह सारे प्रोपैगंडे विफल हो गए।

कर्बला हमारे लिए एक अमर आदर्श है। इसका संदेश है शत्रु की शक्ति के सामने इंसान अपने क़दमों में लड़खड़ाहट न पैदा होने दे। यह आज़माया हुआ नुसख़ा है। यह बात सही है कि इस्लाम के आरंभिक काल में इमाम हुसैन अपने बहत्तर साथियों के साथ शहीद कर दिए गए किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि जो भी इमाम हुसैन के रास्ते पर चले या जो भी संघर्ष करे उसे शहीद हो जाना चाहिए। नहीं, ईरानी जनता ईश्वर की कृपा से इमाम हुसैन के मार्ग को आज़मा चुकी है और गौरव एवं वैभव के साथ विश्व के राष्ट्रों के बीच मौजूद है। इस्लामी क्रान्ति की सफलता से पहले जो कारनामा आपने अंजाम दिया वह इमाम हुसैन का रास्ता था। इमाम हुसैन के मार्ग पर चलने का अर्थ है दुशमन से न डरना और शक्तिशाली शत्रु के सामने भी डट जाना। आठ वर्षीय युद्ध के दौरान भी एसा ही था। हमारी जनता समझती थी कि उसके मुक़ाबले में पूरब व पश्चिम की शक्तियां तथा पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था आ खड़ी हुई है किंतु ईरानी जनता भयभीत नहीं हुई। हमारे प्यारे शहीद हुए, कुछ लोग घायल होकर विकलांग हो गए, कुछ लोगों को वर्षों का समय शत्रु की जेल में गुज़ारना पड़ा किंतु देश इन बलिदानों की बदौलत वैभव एवं गौरव की चोटी पर पहुंच गया। इस्लाम की पताका और ऊंची हुई। यह सब कुछ संघर्ष का प्रतिफल है।

मोहर्रम और सफ़र महीने के दिनों में हमारी जनता को अपने भीतर संघर्ष, आशूरा, शत्रु के सामने निर्भीकता, ईश्वर पर आस्था व विश्वास तथा ईश्वर के मार्ग में बलिदान की भावना को और प्रबल बनाने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए इमाम हुसैन से सहायता मांगनी चाहिए। मजलिसों या शोक सभाओं का आयोजन इसलिए है कि हमारे दिल इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके लक्ष्यों के निकट आएं। कुछ टेढ़ी सोच और संकीर्ण विचार के लोग यह न कहें कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हार गए अतः उनके मार्ग पर चलने वाली ईरानी जनता को चाहिए कि अपनी जान की बलि दे दे। कौन नादान इस प्रकार की बातें कर सकता है? विश्व के राष्ट्रों को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से पाठ लेना चाहिए, आत्म विश्वास का पाठ लेना चाहिए, ईश्वर पर भरोसा रखने की सीख लेनी चाहिए और यह समझना चाहिए कि यदि शत्रु शक्तिशाली है तो उसकी यह शक्ति अधिक दिनों तक बाक़ी रहने वाली नहीं है। उसे यह जानना चाहिए कि यदि शत्रु का मोर्चा विदित रूप से बहुत बड़ा और व्यापक है तो वास्तव में उसकी शक्ति बहुत कम है। क्या आप देख नहीं रहे हैं कि कई साल से दुशमन इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था को समाप्त करने का प्रयास कर रहा है किंतु उसे सफलता नहीं मिल पाई है। यह उसकी कमज़ोरी और हमारी मज़बूती के अलावा और क्या है। हम शक्तिशाली हैं, हम इस्लाम की बरकत से मज़बूत हैं। हम अपने महान ईश्वर पर भरोसा और आस्था रखते हैं अर्थात हमारे साथ ईश्वरी शक्ति है और विश्व इस शक्ति के सामने टिक नहीं सकता।

यह बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है, यह एक सीख है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस्लामी इतिहास के अति संवेदनशील मोड़ पर विभिन्न महान ज़िम्मेदारियों के बीच अपने सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य का की पहचान और उसे पूरा करने में सफल हुए। उन्होंने उस बिंदु को परखा जिसकी उस काल में आवश्यकता थी और फिर बिना किसी हिचकिचाहट के अपने कर्तव्य को पूरा किया। हर युग में मुसलमानों की यह कमज़ोरी हो सकती है कि वह अपने असली कर्तव्य की पहचान में ग़लती कर बैठें और उन्हें यह पता न हो कि किस काम को प्राथमिकता प्राप्त है और उसे आवश्य करना है तथा समय आने पर दूसरे कार्यों की उस प्राथमिका काम की ख़ातिर उपेक्षा कर देनी है, उन्हें यह न पता हो कि कौन सा काम अधिक महत्वपूर्ण है और कौन सा काम दूसरे दर्जे का है, किस काम के लिए कितना प्रयास करना चाहिए?

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन के समय भी बहुत से एसे लोग थे कि यदि उनसे कहा जाता कि अब आंदोलन का समय आ गया है किंतु यदि उन्हें यह अंदाज़ा हो जाता कि इस आंदोलन में बहुत सी कठिनाइयां हैं तो वह दूसरे दर्जे के अपने कामों में व्यस्त रहते जैसा कि हम देखते हैं कि कुछ लोगों ने यही किया भी।

 

इमाम हुसैन के आंदोलन में शामिल न होने वालों में कुछ एसे लोग भी थे जो धर्म का पालन करते थे। एसा नहीं था कि वह सारे लोग दुनिया परस्त थे। उस समय के इस्लामी जगत में एसे महत्वपूर्ण लोग थे जो अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहते थे किंतु कर्त्वय की उन्हें पहिचान नहीं थी, परिस्थितियों की समझ नहीं थी, उसली दुशमन को पहचान नहीं पा रहे थे, वह सबसे महत्वपूर्ण तथा प्राथमिक काम को छोड़ कर दूसरे दर्जे के कार्यों और दायित्वईं लीन थे। यह इस्लामी जगत के सामने बहुत बड़ा संकट था। आज भी हम इस प्रकार के संकट में फंस सकते हैं और अधिक महत्व वाले कामों को छोड़कर महत्वहीन कार्यों में उलझ सकते हैं। मूल कार्यों पर जिन पर समाज टिका हुआ हो ध्यान देना और उन्हें चिन्हिंत करना चाहिए। कभी हमारे इसी देश में साम्राज्यवाद और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष की बातें होती थीं किंतु कुछ लोग इसे अपना दायित्व मानने को तैयार नहीं थे अतः दूसरे कार्यों में व्यस्त थे। यदि कोई व्यक्ति स्कूल चला रहा होता था या इसी प्रकार का कोई कल्याणकारी काम कर रहा होता था तो उसकी यह धारणा होती थी कि यदि उसने क्रान्तिकारी संघर्ष में हाथ बटाना शुरू कर दिया तो फिर उसका काम कौन करेगा। वह इतने महान संघर्ष को इन साधारण कार्यों के नाम पर छोड़ देता था ताकि अपने यह काम पूरे कर ले। अर्थात अनिवार्य तथा प्राथमिकता प्राप्त कार्य की पहिचान में वह ग़लती कर रहा था।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने व्याख्यानों से यह समझा दिया कि इन परिस्थितियों में इस्लामी जगत के लिए अत्याचारी शक्तियों और शैतानी हल्क़ों के विरुद्ध संघर्ष करके मनुष्यों को मुक्ति दिलाना सबसे अधिक महत्वपूर्ण और अनिवार्य है। स्पष्ट सी बात है कि यदि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीने में ही रुके रहते तथा आम जन मानस के बीच इस्लामी नियमों और आस्था संबंधी सिद्धांतों की शिक्षा दीक्षा करते रहते तो निश्चित रूप से कुछ लोगों का प्रशिक्षण हो जाता किंतु जब अपने मिशन पर वह इराक़ की ओर बढ़े तो यह सारे काम छूट गए। अब वह लोगों को नमाज़ की शिक्षा नहीं दे सकते थे, पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों से उन्हें अवगत नहीं करा सकते थे, अब वह अनाथों और विधवाओं की सहायता भी नहीं कर सकते थे। यह सारे एसे काम थे जिन्हें इमाम हुसैन अंजाम देते थे किंतु उन्होंने इन समस्त कार्यों को एक बहुत बड़े लक्ष्य पर क़ुरबान कर दिया। यहां तक कि हज जैसे महान संस्कार को भी जिसके बारे में सभी उपदेशक और प्रचारक बात करते हैं अपने इस मिशन पर निछावर कर दिया। वह मिशन क्या था? इमाम हुसैन ने स्वयं ही अपने इस मिशन के बारे में बताया कि मैं अच्छाइयों का आदेश देना, बुराइयों से रोकना तथा अपने नाना के मार्ग पर अग्रसर होना चाहता हूं। इमाम हुसैन ने अपने एक अन्य ख़ुतबे में कहा है कि हे लोगो पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि जो व्यक्ति किसी अत्याचारी राजा को देखे जो ईश्वर की हराम की हुई चीज़ों को हलाल घोषित कर रहा हो, ईश्वर से किए गए वचन को तोड़ रहा हो और वह व्यक्ति अपने कथन अथवा व्यवहार से इस स्थिति को बदलने का प्रयास न करे तो ईश्वर को यह अधिकार है कि उस व्यक्ति को उसी अत्याचारी शासक के ठिकाने पर पहुंचाए। परिवर्तन से तात्पर्य यह है कि अत्याचारी शक्ति भ्रष्टाचार फैला रही है और मनुष्यों को भौतिक एवं आध्यात्मिक पतन की ओर ले जाना चाहती है। यही कारण है कि इमाम हुसैन के आंदोलन का। यही कारण था कि इमाम हुसैन ने अधिक महत्वपूर्ण दायित्व के निर्वाह का चयन किया तथा कम महत्व वाले दायित्वों को इस महान दायित्व पर निछावर कर दिया। आज भी यह स्पष्ट होना चाहिए कि अधिक महत्वपूर्ण काम क्या हैं? हर काल में इस्लामी समाज के विरुद्ध एक मोर्चा गतिविधियों में व्यस्त रहता है। शत्रु है, शत्रु का एक मोर्चा है जो इस्लामी जगत के लिए हमेशा ख़तरे उत्पन्न करता रहता है। इस मोर्चे की पहचान आवश्यक है। यदि हमनें शत्रु को पहचानने में ग़लती की तो, यदि हमने उन स्थानों के चिन्हिंत करने में ग़लती की जहां से हम पर हमले हो रहे हैं तो हमें एसा नुकसान पहुंच सकता है जिसकी पूर्ति संभव नहीं है, हम बहुत महत्वपूर्ण अवसरों से हाध धो सकते हैं।

मशहूर वाक्य है जिसके बारे में कहा जाता है कि इमाम हुसैन का कथन है कि जीवन का अर्थ है किसी लक्ष्य के लिए समर्पित हो जाना और फिर उसके लिए संघर्ष करना। इस्लाम मनुष्य को महान लक्ष्य से परिचित कराने और उन्हें महान लक्ष्यों के मार्ग पर अग्रसर करने के लिए आया है। अब यदि मनुष्य इस मार्ग पर एक क़दम भी आगे बढ़ाता है, निष्ठा के साथ संघर्ष करता है, बलिदान करता है तो यदि उसे कठिनाइयों का भी सामना करना पड़े तो भी वह खुश होता है। क्योंकि उसे यह आभास होता है कि उसने अपने दायित्व के अनुसार महान लक्ष्य की ओर क़दम बढ़ाया है और इस मार्ग पर चलते हुए संघर्ष किया है, यह प्रयास अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है जो उसे हमेश लक्ष्य के निकट ले जाता है। यह वही चीज़ है जिसने ईरानी जनता के आंदोलन को अस्तित्व दिया और आज भी यह संघर्ष जारी है। इस क्रान्ति और इस संघर्ष ने जिस लक्ष्य का निर्धारण किया था वह एसा था जिस का फ़ायदा पूरी मानवता को प्राप्त होता है। वह लक्ष्य विश्व स्तर पर और सीमित क्षेत्र में एक देश के स्तर पर अत्याचार और भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष था और इसका लक्ष्य यह भी था कि मानवता के सामने महान लक्ष्य रखे जाएं।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की घटना हमें यह भी बताती है कि उन्होंने कितना महान कारनामा अंजाम दिया और साथ ही यह सीख भी देती है कि हमें भी एसा ही करना चाहिए। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने पूरी मानवता को बहुत महान सीख दी है जिसकी महानता सबके समक्ष स्पष्ट है।

बड़ी विचित्र बात है कि हमारा पूरा जीवन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के नाम से सुसज्जित है, इस पर हम ईश्वर का आभार व्यक्त करते हैं। इस महान हस्ती के आंदोलन के बारे में बहुत सी बातें कही जा चुकी हैं किंतु इसके साथ ही मनुष्य इस बारे में जितना चिंतन करे उसे शोध और अध्ययन का मौदान उतना ही बड़ा दिखाई देता है। इस महान और विचित्र घटना के बारे में आज भी सोचने और चिंतन करने के अनेक अछूते पहलू हैं। यदि ध्यानपूर्वक इस घटना की समीक्षा की जाए तो शायद यह कहा जा सके कि इंसान इमाम हुसैन के कुछ महीनों पर फैले आंदोलन से जिसकी शुरूआत मदीना नगर से मक्के की ओर प्रस्थान से हुई और इसका अंत कर्बला के मैदान में शहादत का जाम पीने पर हुआ सौ पाठ लिए जा सकते हैं, वैसे तो सौ ही नहीं हज़ारों पाठ मिल सकते हैं किंतु मैं सौ पाठ इस लिए कह रहा हूं कि उससे तात्पर्य यह है कि यदि हम सूक्ष्मता से जायज़ा लें तो सौ अध्याय निकल सकते हैं जिनमें हर अध्याय किसी भी राष्ट्र, किसी भी इतिहास और देश के लिए शासन व्यवस्था चलाने तथा ईश्वर का सामिप्य पाने का पाठ हो सकता है।

 

दसवीं मोहर्रम की घटना, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन, उनका चेहलुम और अन्य धार्मिक अवसर इस्लामी इतिहास का वह महत्वपूर्ण मोड़ हैं जहां सत्य और असत्य का अंतर खुलकर सामने आ जाता है। इमाम हुसैन के बलिदान से इस्लाम धर्म को नया जीवन मिला और तथा इस ईश्वरीय धर्म के प्रकाशमान दीप को बुझा देने पर आतुर यज़ीदियत को निर्णायक पराजय मिली। इस घटना में अनगिनत सीख और पाठ निहित हैं। इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने विभिन्न अवसरों पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन से मिलने वाली और नसीहतों पर प्रकाश डाला है। कार्यक्रम मार्गदर्शन के अंतर्गत हम हुसैनी आंदोलन से मिलने वाली सीख और नसीहतों को पेश करेंगे।

आपको याद दिलाते चलें कि कार्यक्रम मार्गदर्शन इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनई के भाषणों से चयनित खंडों पर आधारित है।

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इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इतिहास की महान हस्तियों के बीच सूर्य की भांति जगमगा रहे हैं। ईश्वरीय दूत, ईश्वर के सदाचारी बंदे, सब पर नज़र डालिए। यदि यह हस्तियां चांद और तारों जैसी प्रतीत होती हैं तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम उनके बीच सूर्य के समान जगमगाते हुए दिखाई देते हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मिशन में कुछ अति महत्वपूर्ण पाठ निहित हैं। सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि इमाम हुसैन ने आंदोलन क्यों आरंभ किया। यह बहुत बड़ा पाठ है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से कहा गया कि मदीने और मक्के में आपका बड़ा आदर किया जाता है और यमन में शीयों की बहुत बड़ी संख्या है। किसी एसी जगह चले जाइए जहां यज़ीद से आपका कोई लेना देना ही न रहे और यज़ीद भी आपको परेशान न करे। आपके इतने चाहने वाले हैं, इतने शीया हैं, जाइए अपना जीवन गुज़ारिए। उपासना कीजिए, धर्म का प्रचार करें। इसके बावजूद इमाम ने विद्रोह क्यों किया? बात क्या थी?

यही सबसे प्रमुख प्रश्न है। यही सबसे प्रमुख पाठ है। मैं यह नहीं कहता कि किसी ने अब तक यह बात नहीं कही। सच्चाई तो यह है कि इस बारे में बहुत काम किया गया है, बहुत मेहनत की गई है किंतु मैं एक नया दृष्टिकोण पेश करना चाहता हॅं। कुछ लोग यह कहना पसंद करते हैं कि इमाम हुसैन, यज़ीद की अधर्मी और भ्रष्ट सरकार को गिराकर अपनी सरकार बनाना चाहते थे और यही इमाम हुसैन के आंदोलन का लक्ष्य था। मेरे विचार में यह बात पूरी तरह सही नहीं है। आधी सही है। मैं यह नहीं कहता कि यह विचार पूरी तरह ग़लत है। यदि इस बात का मतलब यह है कि इमाम हुसैन ने केवल शासन पाने के लिए आंदोलन छेड़ा था तो यह ग़लत हैं। क्योंकि जब कोई शासन पाने के लिए आगे बढ़ता है वह वहीं तक जाता है जहां तक उसे लगता है कि लक्ष्य प्राप्त हो जाएगा। जैसे ही उसे महसूस होता है कि यह काम हो नहीं पाएगा उसका यही दायित्व बनता है कि क़दम पीछे खींच ले। यदि प्रमुख लक्ष्य शासन था तो वहीं तक आगे बढ़ना जायज़ है जहां तक इस लक्ष्य की प्राप्ति संभव लगे और जब यह लक्ष्य असंभव प्रतीत होने लगे तो फिर और आगे जाना सही नहीं है। अब जो लोग यह कहते हैं कि इमाम कि आंदोलन का लक्ष्य सत्य पर आधारित अलवी शासन की स्थापना करना था, यदि उनका तात्पर्य यही है तो यह दुरुस्त नहीं है। क्योंकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पूरे आंदोलन में यह चीज़ नहीं दिखाई देती।

दूसरी ओर कुछ लोग यह विचार रखते हैं कि शासन क्या चीज़ है, इमाम तो जानते ही थे कि वह शासन प्राप्त नहीं कर सकेंगे बल्कि उन्हें क़त्ल कर दिया जाएगा और वह शहीद होने के लिए कर्बला गए थे। यह विचार बहुत दिनों तक आम रहा और शायरों ने अपने शेर में भी इसे पेश किया है। यह कहना कि इमाम हुसैन ने शहीद होने के लिए आंदोलन आरंभ किया था कोई नई बात नहीं है। उन्होंने सोचा कि अब जब ठहर कर कुछ नहीं किया जा सकता तो चलो चलकर शहीद हो जाते हैं।

हमारी धार्मिक पुस्तकों में कहीं यह नहीं कहा गया है कि इंसान जारक मौत के मुंह में कूद जाए। हमारे धर्म में एसा कुछ नहीं है। इस्लामी नियमों और क़ुरआन के भीतर जहां शहादत की बात कही गई है वहां तात्पर्य यही है कि मनुष्य किसी महान लक्ष्य के लिए निकले और इस मार्ग में मौत को गले लगाने के लिए भी तैयार रहे। यही सही इस्लामी विचारधारा है। किंतु यह सोच कि मनुष्य निकल पड़े ताकि मारा जाए और शायरों की ज़बान में उसका ख़ून रंग लाए और उसकी छींटें क़ातिल के दामन पर पड़ें तो यह एसी बात नहीं है जिसका इस महान आंदोलन से कोई संबंध हो। इस विचार में भी किसी हद तक सच्चाई है किंतु पूर्ण रूप से यह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का लक्ष्य नहीं है।

संक्षेप में यह कि जो लोग कहते हैं कि लक्ष्य शासन था या लक्ष्य शहादत थी वह लोग वास्तव में लक्ष्य और परिणाम को आपस में गडमड कर देते हैं। लक्ष्य यही नहीं था। लक्ष्य कुछ और था और इस महान लक्ष्य तक पहुंचने का दो में से एक परिणाम सामने आना था। एक था शासन और दूसरे शहादत। इमाम हुसैन दोनों परिणामों के लिए तैयार थे।

अगर हम इमाम हुसैन के लक्ष्य को बयान करना चाहें तो हमें इस तरह कहना चाहिए कि उनका लक्ष्य अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य का पालन करना था। वह धार्मिक कर्तव्य एसा था जिसे पहले कभी किसी ने अंजाम नहीं दिया था। यह एसा कर्तव्य था जिसका इस्लामी मूल्यों, नियमों, विचारों तथा ज्ञान के ढांचे में अति महत्वपूर्ण स्थान है। यह अति महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य था किंतु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के काल तक इस पर अमल नहीं हुआ। इमाम हुसैन को इस कर्तव्य का पालन करना था ताकि दुनिया के लिए यह पाठ बन जाएं उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे इस्लाम ने शासन स्थापित किया और सरकार का गठन पूरे इस्लामी इतिहास के लिए उदाहरण बन गया। इसी प्रकार इस कर्तव्य पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के माध्यम से अमल होना था ताकि मुसलमानों और पूरे इतिहास के लिए यह व्यवहारिक पाठ बन जाए। अब प्रश्न यह है कि इस कर्तव्य का पालन इमाम हुसैन ही क्यों करें। तो इसका उत्तर यह है कि इसके पालन की परिस्थितियां इमाम हुसैन के काल ही में उत्पन्न हुईं। यदि यह परिस्थितियां किसी अन्य इमाम के काल में उत्पन्न हुई होतीं तो वह भी इसी प्रकार कर्तव्य का पालन करे। इमाम हुसैन से पहले तथा उनके बाद में कभी भी यह परिस्थितियां उत्पन्न नहीं हुईं। तथ लक्ष्य था इस महान कर्तव्य का पालन करना। अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वह कर्तव्य क्या था जिसका पालन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने किया। श्रोताओ इस कर्तव्य के बारे में हम अगले कार्यक्रम में बात करेंगे। सुनना न भूलिएगा।

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