ईरान की इस्लामी क्रांति की एक महत्वपूर्ण हस्ती, आयतुल्लाह डाक्टर, सैयद मुहम्मद हुसैनी बहिश्ती हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन कुशल प्रशासन, गहन चिंतन और रचनात्मकता में व्यतीत किया। आयतुल्लाह बहिश्ती सदैव स्वंय को युवाओं के सामने ज़िम्मेदार समझते थे और युवाओं के सांस्कृतिक व वैचारिक विकास के लिए यथासंभव प्रयास करते थे। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाह सैयद अली खामेनई शहीद बहिश्ती के बारे में कहते हैं कि शहीद बहिश्ती का पूरा अस्तित्व युवाओं के मार्गदर्शन के प्रति रूचि से भरा हुआ था।
वर्ष १९२८ में पतझड़ के एक ठंडे दिन में बहिश्ती परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ जिससे इस घर में खुशी की लहर दौड़ गयी। बच्चे के माता पिता ने उसका नाम सैयद मोहम्मद रखा। सैयद मोहम्मद के पिता इस्फहान धार्मिक शिक्षा केन्द्र के प्रसिद्ध धर्मगुरु थे और सदैव लोगों की सेवा के लिए तत्पर रहते थे। उनकी माता भी अच्छे घर से संबंध रखती थी तथा धार्मिक शिक्षाओं का कड़ाई से पालन करती थीं। चार वर्ष की आयु में सैयद मोहम्मद को मदरसे भेजा गया ताकि वे कुरआन की शिक्षा प्राप्त कर सकें। उन्होंने बहुत जल्द कुरआन के साथ साथ लिखना और पढ़ना भी सीख लिया जिसके कारण उनके परिवार वालों और जान पहचान वालों को अत्याधिक आश्चर्य भी हुआ। सात वर्ष की आयु में उन्होंने स्कूल में दाखिले की परीक्षा भी बड़े अच्छे नंबरों से पास की और उनके नंबर इतने अच्छे थे कि वे पहली कक्षा के बजाए छठीं कक्षा में नाम लिखवा सकते थे किंतु कम आयु होने के कारण उनका नाम चौथी क्लास में लिखा गया।
शहीद बहिश्ती स्कूल में पढ़ने लगे तथा हाईस्कूल व इन्टर मीडिएट में उन्होंने फेंच भाषा पढ़ी। उन्हें स्कूल अत्याधिक मेधावी छात्रों में गिना जाता था किंतु वर्ष १९४१ की घटनाओं और रज़ा शाही पहलवी के देश निकाले के बाद धार्मिक शिक्षाओं के लिए ईरान का वातावरण अधिक बेहतर हुआ और चूंकि सैयद मोहम्मद एक धार्मिक घराने से संबंध रखते थे इस लिए उन्हें धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने की अत्याधिक इच्छा थी। इसी लिए उन्होंने कालेज छोड़ा और १४ वर्ष की आयु में सद्र नामक धार्मिक पाठशाला दाखिला लिया। सैयद मोहम्मद ने उन पाठों को जिसे अन्य छात्र दस वर्षों में पढ़ते थे मात्र चार वर्ष में समाप्त कर लिया। वे अपनी तीव्र बुद्धि, व्यवहार और विनम्रता के कारण अन्य छात्रों और शिक्षकों में अत्याधिक लोकप्रिय थे। शहीद बहिश्ती में ज्ञान की जो प्यास थी उसे उन्होंने धार्मिक शिक्षाओं तक ही सीमित नहीं रखा। उन्होंने पश्चिम ज्ञान प्राप्त करने के लिए अग्रेज़ी भाषा पढ़ना आरंभ किया हालांकि उस काल में धार्मिक छात्र अग्रेज़ी भाषा में रूचि नहीं रखते थे किंतु सैयद मोहम्मद ने अग्रेज़ी पढ़ी और धार्मिक शिक्षा के एक बड़े केन्द्र कुम चले गये।
कुम में इमाम खुमैनी, आयतुल्लाह बुरुजर्दी और अल्लामा तबातबाई जैसे महान धर्मगुरु शिक्षा दीक्षा में व्यस्त थे। सैयद मोहम्मद इन महान गुरुओं की सेवा में उपस्थित हुए और उच्च इस्लामी शिक्षा प्राप्त की। वे अपने समस्त गुरुओं में, इमाम खुमैनी स विशेष श्रद्धा रखते थे और इसी लिए बाद में वे इमाम खुमैनी के संघर्षों में उनके एक महत्वपूर्ण सहयोगी बने। शहीद बहिश्ती जब कुम में थे तो धर्मगुरू होने के बावजूद अग्रेज़ी पढ़ाते थे और इस प्रकार से अपना खर्च निकालते थे। वे अपनी अन्य गतिविधियों के बारे में कहते हैं कि वर्ष १९४७ में अर्थात कुम पहुचंने के एक वर्ष बाद आयतुल्लाह मुतह्हरी तथा कुछ अन्य साथी जिनकी संख्या १८ हो गयी थी जमा हुए और हम सूदूर गांवों में जाकर लोगों को शिक्षा देते थे। हम ने यह काम दो वर्षों तक किया।
शहीद बहिश्ती ने स्वंय को धार्मिक शिक्षाओं तक ही सीमित नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपना इन्टर मीडिएट भी पूरा किया तथा विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा तेहरान युनिवर्सिटी में वे धर्म के विषय पर अध्ययन में व्यस्त हो गये। वे हर सप्ताह कुम से तेहरान यात्रा करते किंतु उनकी थकन ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में बाधा नहीं बनी। अन्ततः वर्ष १९५१ में उन्होंने स्नातक की डिग्री प्राप्त की और बाद में दर्शनशास्त्र में तेहरान विश्वविद्यालय से पीएचडी के लिए अध्ययन भी आंरभ किया किंतु राजनीतिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में अत्याधिक व्यवस्तता के कारण वे अपना थेसस पेश नहीं कर सके किंतु वर्ष १९७४ में उन्होंने यह काम किया और इस प्रकार से पीएचडी की डिग्री लेने में सफल हुए। उन्होंने वर्ष १९५२ में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद अपने रिश्तेदारों में ही एक पवित्र व धर्म परायण लड़की से विवाह कर लिया था। उनके दो बेटियां और दो बेटे थे।
शहीद बहिश्ती शिक्षा के अतिरिक्ति राजनतिक व संस्कृति के क्षेत्र में भी असाधारण रूप से सक्रिय थे। डाक्टर मुसद्दिक और आयतुल्लाह काशानी के नेतृत्व में ईरान में तेल के राष्ट्रीय करण आंदोलन में शहीद बहिश्ती ने इस आंदोलन में भूमिका निभाई वे इस साम्राज्यविरोधी आंदोलन के समर्थन में विभिन्न स्थानों पर भाषद देते किंतु तेल के राष्ट्रीय करण के आंदोलन की विफलता के बाद डाक्टर बहिश्ती की समझ में यह बात आ गयी कि धर्मगुरू एक संगठित संस्था के बिना तानशाहों के विरुद्ध संघर्ष को प्रभावी रूप से जारी नहीं रख सकते। इसी लिए उन्होंने निर्णय लिया कि सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ा कर युवाओं को क्रांति के लिए तैयार करें। पश्चिम पर निर्भर ईरान की शाही सरकार ईरान को एक पश्चिमी समाज में बदल देना चाहती थी ताकि धीरे धीरे ईरान में धर्म को भुला दिया जाए। इसी लिए शहीद बहिश्ती ने धर्म व विज्ञान नामक एक पाठशाला कुम में स्थापित की। इस पाठशाला की स्थापना का उद्देश्य युवाओं में धर्म की ओर रूझान में वृद्धि थी ताकि युवा, धर्म और राजनीति को अलग अलग न समझें बल्कि इन दोनों को एक साथ समझें। शहीद बहिश्ती ने इस प्रकार युवाओं में मन में धर्म प्रेम का बीज बोया ताकि उन्हें ईरान में इस्लामी आंदोलन के लिए तैयार किया जाए। शहीद बहिश्ती की एक अन्य सेवा, कुम के छात्रों और शिक्षकों के लिए एक केन्द्र ही स्थापना है। इस केन्द्र में अग्रेजी तथा अन्य आधुनिक विषयों की धार्मिक छात्रों को शिक्षा दी जाती। उन्होंने इसी प्रकार एक धार्मिक पाठशाला की भी स्थापना की जिसका उद्देश्य धर्म पर की जाने वाली आपत्तियों का उत्तर दिया जाए।
शहीद बहिश्ती ने इसी प्रकार कुछ बुद्धिजीवियों के सहयोग से एक अध्ययनसमिति बनायी जिसने इस्लामी में सत्ता के विषय पर मूल्यवान अध्ययन किये। इसी दौरान शाही खुफिया एजेन्सी सावाक ने उन्हें तेहरान रहने पर विवश कर दिया किंतु तेहरान में भी वे चुप नहीं बैठे बल्कि उनकी गतिविधियां ईरान की राजधानी में भी जारी रहीं। वर्ष १९६४ में उन्होंने डाक्टर बाहुनर के सहयोग से धार्मिक स्कूलों के लिए किताबों का संकलन किया वे इस प्रकार से यह चाहते थे कि पढ़ाई जाने वाली किताबों से विदेशियों की छाप खत्म हो।
आयतुल्लाह बहिश्ती ने इसी प्रकार तेहरान में कुछ अन्य छात्रों की सहायता से बैठकों का आयोजन किया जिसमें तेहरान के विभिन्न क्षेत्रों से छात्र भाग लेते और विभिन्न विषयों पर चर्चा करते। इस प्रकार की बैठकों में भाषण देने की ज़िम्मेदारी अधिकांश शहीद बहिश्ती की होती थी। पूरी चर्चा को रिकार्ड किया जाता और फिर उसे पर्चे के रूप में युवाओं में बांटा जाता। इस प्रकार की बैठकों प्रायः शहीद बहिश्ती के घर में आयोजित होती थीं। शहीद बहिश्ती इस प्रकार से युवाओं को कुरआन के संदेश से परिचित कराना चाहते थे।
शहीद बहिश्ती सदैव धर्म के मार्ग में काम करते थे और उनका मानना था कि राजनीति और धर्म एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं और वे मुसलमानों को यह समझाते थे कि उन्हें हर प्रकार के राजनीतिक व सामाजिक मामलों में भूमिका निभानी चाहिए। डाक्टर बहिश्ती अपने एक भाषण में कहते हैं कि मुसलमानों को समाज और उस से बढ़ कर विश्व के मामलों में भूमिका निभानी चाहिए, मुसलमान को एसा नहीं होना चाहिए कि अपने खाने पीने की व्यवस्था हो जाए तो चुप बैठ जाए।