सूरए हुजरात का संक्षिप्त परिचय

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सूरए हुजरात मदीनें में नाज़िल हुआ और इसकी अठ्ठारह आयतें हैं। यह सूरए आदाब व अखलाक़ के नाम से भी मशहूर है। हुजरात हुजरे (कमरे) का बहु वचन है। इस सूरह मे रसूले अकरम (स.) के हुजरों (कमरों) का वर्णन हुआ है। इसी वजह से इस सूरह को सूरए हुजरात कहा जाता है। ( यह हुजरे मिट्टी लकड़ी व खजूर के पेड़ की टहनियोँ से बिल्कुल सादे तरीक़े से बनाये गये थे।)

 

लेखक- उस्ताद मोहसिन क़राती

इस सूरह मे या अय्युहल लज़ीनः आमःनू (ऐ इमान लाने वालो) की बार बार पुनरावृत्ति हुई है। जिस के द्वारा एक वास्तविक इस्लामी समाज का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत किया गया है। इस सूरह मे कुछ ऐसी बातों की तरफ़ भी इशारा किया गया है जो दूसरे सूरो में ब्यान नही की गयी हैं।

जैसे---

1- रसूले अकरम (स.) से आगे चलने को मना करते हुए उनसे बात करने के तरीक़े को बताया गया है। और बे अदब लोगों को डाँटा डपटा गया है।

2- किसी का मज़ाक़ उड़ाने, ताना देने, बदगुमानी करने, एक दूसरे पर ऐब लगाने और चुग़ली करने जैसी बुराईयोँ को इस्लामी समाज के लिए हराम किया गया है।

3- आपसी भाई चारे, एकता, न्याय, शांति, मशकूक लोगों की लाई हुई खबरों की तहक़ीक़ और श्रेष्ठता को परखने के लिए सही कसौटी की पहचान (जो कि एक ईमानदार समाज के लिए ज़रूरी है) का हुक्म दिया गया है।

4- इस सूरह मे इस्लाम और ईमान में फ़र्क़, परहेज़गार लोगों के दर्जों की बलन्दी, तक़व-ए-इलाही की पसंदीदगी, कुफ़्र और फ़िस्क़ से नफ़रत आदि को ब्यान करते हुए न्याय को इस्लामी समाज का केन्द्र बिन्दु बताया गया है।

5- इस सूरह में इस्लामी समाज को अल्लाह का एक एहसान बताया गया है। इस इस्लामी समाज की विशेषता यह है कि यह रसूले अकरम (स.) से मुहब्बत करता है क्योँकि उन्हीं के द्वारा इस समाज की हिदायत हुई है। इस्लामी समाज मे यह विचार नही पाया जाता कि हमने ईमान लाकर अल्लाह और रसूल (स.) पर एहसान किया है।

6- इस सूरह मे इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि इस्लामी समाज में सब लोगों के लिए ज़रूरी है कि वह रसूले अकरम (स.) का अनुसरण करें। लेकिन वह इस बात की उम्मीद न रखें कि रसूल (स.) भी उनका अनुसरण करेंगे।

“ऐ ईमान लाने वालो अल्लाह और उसके रसूल के सामने किसी बात में भी आगे न बढ़ा करो, और अल्लाह से डरते रहो, बेशक अल्लाह बहुत सुन ने वाला और जान ने वाला है।”

इस आयत की बारीकियाँ

यह आयत इंसान को बहुत सी ग़लतियों की तरफ तवज्जुह दिलाती है। क्योंकि इंसान कभी कभी अक्सरीयत(बहुमत) की चाहत के अनुसार, भौतिकता से प्रभावित हो कर आधुनिक विचारधारा, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता, और फ़ैसलों में जल्दी करने आदि बातों का सहारा ले कर ऐसे काम करता है कि वह इस से भी अचेत रहता कि वह अल्लाह और रसूल की निश्चित की हुई सीमाओं का उलंघन कर चुका है। जैसे कि कुछ लोग इबादत, यक़ीन, ज़ोह्द तक़वे और सादा ज़िन्दगी के ख्याल से अल्लाह और रसूल की निश्चित की हुई सीमाओं से आगे बढ़ने की कोशिश करने लगे हैं।

• यह आयत इंसानों को फ़रिश्तों जैसा बनाना चाहती है।

इस लिए कि क़ुरआन फ़रिश्तों के बारे मे कहता है कि “वह बोलने में अल्लाह पर सबक़त (पहल) नही करते और केवल उसके आदेशानुसार ही कार्य करते हैं।”

क़ुरआन ने पहल करने और आगे बढ़ने के अवसरों को निश्चित नही किया और ऐसा इस लिए किया गया कि ताकि आस्था सम्बँधी, शैक्षिक , राजनीतिक, आर्थिक हर प्रकार की सबक़त (पहल) से रोका जा सके।

कुछ असहाब ने रसूले अकरम (स.) से यह इच्छा प्रकट की कि हम नपुंसक होना चाहते हैं। ऐसा करने से हमको स्त्री की आवश्यकता नही रहेगी और हम हर समय इस्लाम की सेवा करने के लिए तैय्यार रहेंगे। रसूले अकरम(स.) ने उनको इस बुरे काम से रोक दिया। अल्लाह और रसूल से आगे बढ़ने की कोशिश करने वाला व्यक्ति इस्लामी और समाजी व्यवस्था को खराब करने का दोषी बन सकता है। और इसका अर्थ यह है कि वह अल्लाह द्वारा बनाये गये क़ानून व व्यवस्था को खेल तमाशा समझ कर उसमे अपनी मर्ज़ी चलाना चाहता है।

पैग़ामात (संदेश)

1- इलाही अहकाम (आदेशों) को समाज में क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक है कि पहले मुखातब (जिससे संबोधन किया जाये) को आत्मीय रूप से तैय्यार किया जाये।

“या अय्युहल लज़ीना आमःनू” (ऐ ईमान लाने वालो) यह जुम्ला मुखातब के व्यक्तित्व की उच्चता को दर्शाते हुए उसके अल्लाह के साथ सम्बंध को ब्यान करता है। और वास्तविकता यह है कि इस प्रकार उसको अमल के लिए प्रेरित करना है।

2- जिस तरह अल्लाह और रसूल से आगे बढ़ने को मना करना एक अदबी आदेश है इसी तरह यह आयत भी अपने संबोधित को एक खास अदब के साथ संबोध कर रही है। या अय्युहल लज़ीनः आमःनू (ऐ ईमान लाने वालो)

3- कुछ लोगों की अभिरूची, आदात, या समाजी रस्मों रिवाज और बहुत से क़ानून जो क़ुरआन और हदीस पर आधारित नही हैं। और न ही इंसान की अक़्ल और फ़ितरत (प्रकृति) से उनका कोई संबन्ध है उनका क्रियानवयन एक प्रकार से अल्लाह और रसूल पर सबक़त के समान है।

4- अल्लाह द्वारा हराम की गयी चीज़ों को हलाल करना और उसके द्वारा हलाल की गयी चीज़ों को हराम करना भी अल्लाह और रसूल पर सबक़त है।

5- हर तरह की बिदअत, अतिशयोक्ति, बेजा तारीफ़ या बुराई भी सबक़त के समान है।

6- हमारी फ़िक़्ह और किरदार का आधार क़ुरआन और सुन्नत को होना चाहिए।

7- अल्लाह और रसूल पर सबक़त करना तक़वे से दूरी है। जैसा कि इस आयत में फ़रमाया भी है कि सबक़त न करो और तक़वे को अपनाओ।

8- हर प्रकार की आज़ादी व तरक़्क़ी प्रशंसनीय नही है.

9- ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए ईमान और तक़वे का होना ज़रूरी है।

10- जिस बात से समाज का सुधार हो वही महत्वपूर्ण है।

11- रसूल का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। इसकी बे एहतेरामी अल्लाह की बे एहतेरामी है। और दोनों से सबक़त ले जाने को मना किया गया है।

12- इंसान का व्यवहार उसके विचारों से परिचित कराता है।

13- जो लोग अपनी इच्छाओं या दूसरे कारणों से अल्लाह और रसूल पर सबक़त करते हैं उनके पास ईमान और तक़वा नही है।

14- अपनी ग़लत फ़हमी की व्याख्या नही करनी चाहिए।

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