नबी ए अकरम (स) ने फ़रमाया:
خيرالغني غني النفس
बेहतरीन बेनियाज़ी नफ़्स की बेनियाज़ी है।
तबीयत एक अच्छा मदरसा है जिसकी क्लासों में तरबीयत की बहुत सी बातें सीखी जा सकती हैं। तबीयत के इन्हीं मुफ़ीद व तरबीयती दर्सों में से एक दर्स यह है कि जानवरों की ज़िन्दगी के निज़ाम में अपने बच्चों से मेहर व मुहब्बत की एक हद मुऐयन होती है। दूसरे लफ़्ज़ों में यह कहा जा सकता है कि जानवर अपने बच्चे से उसी मिक़दार में मुहब्बत करता है, जितनी मिक़दार की उस बच्चे को ज़रूरत होती है। इसलिये जानवर अपने बच्चे को सिर्फ़ उसी वक़्त तक दाना पानी देते हैं जब तक वह उसे ख़ुद से हासिल करने के काबिल न हो। लेकिन जैसे ही उसमें थोड़ी बहुत ताक़त आ जाती है और हरकत करने लगता है फौरन माँ की मुहब्बत से महरूम हो जाता है, उसे तन्हा छोड़ दिया जाता है ताकि ख़ुद अपने पैरों पर खड़े होकर जिना सीख ले।
माँ बाप को चाहिये कि वह अपने घरों में तबीयत के इस क़ानून की पैरवी करते हुए अपने बच्चों को ख़ुद किफ़ाई का दर्स दें, ताकि वह आहिस्ता आहिस्ता अपने पैरों पर खड़ा होना सीख जायें।
उन्हे बताया जाये कि अल्लाह ने सबसे बेहतरीन और क़ीमती जिस्मी व फ़िक्री ख़ज़ानों को तुम्हारे वुजूद में क़रार दिया है। अब यह तुम्हारी ख़ुद की ज़िम्मेदारी है कि उस ज़ख़ीरे को हासिल करके ख़ुद को ग़ैरे ख़ुदा से बेनियाज़ कर लो।
वालेदैन को चाहिए कि इस वाक़ेईयत को बयान करने के अलावा वह अपने बच्चों को अमली तौर पर अलग ज़िन्दगी बसर करने और अपने पैरों पर खड़ा होना सिखायें।
कुछ माँ बाप इस बात को भूल ही जाते हैं कि उनके बच्चे एक न एक दिन उनके बग़ैर ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर होंगें।
लिहाज़ा वह उनके तमाम छोटे बड़े कामों में दख़ालत करते हैं और उन्हे ख़ुद फ़ैसला करने का मौक़ा ही नही देते। वह बच्चों की जगह ख़ुद ही फ़ैसला करके सारे काम अँजाम दे लेते हैं।
इस तरह की तरबीयत का नतीजा यह होगा कि बच्चे चाहते या न चाहते हुए ख़ल्लाक़ियत, ग़ौर व फ़िक्र में पीछे रह कर धीरे धीरे दूसरों पर मुनहसिर हो जायेंगे और समाजी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठेगें। ऐसे बच्चे आला तालीम हासिल करने के बावजूद समाजी तरक्क़ी के एतेबार से कमज़ोर रह जाते हैं। वह समाजी ज़िन्दगी में कम कामयाब हो पाते हैं और दूसरों के मोहताज हो जाते हैं। क्योंकि उन्हे घर में मुस्तक़िल ज़िन्दगी बसर करने के उसूल नही सिखाये गये। जबकि माँ बाप घर के अन्दर ही अपने बच्चों की ग़ैरे मुस्तक़ीम तौर पर ऐसी तरबियत कर सकते हैं, वह उन्हें धीरे धीरे ग़ौरो फ़िक्र करना सिखायें उनकी राये को अहमियत दें और आहिस्ता आहिस्ता उनके लिए फ़िक्री व माली इस्तक़लाल का ज़मीना फ़राहम करें।
इस्लाम के तरबियती परोग्राम इस तरह तरतीब दिये गये हैं कि वह बुनियादी तौर पर इंसान को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाते हैं और दूसरों की बैसाखियों पर चलने से रोकते हैं। क्योंकि दूसरों के सहारे ज़िन्दगी बसर करने से इंसान की इज़्ज़त व शराफ़त खत्म हो जाती है और बुनियादी तौर पर इंसान का वुजूद गुम हो के रह जाता है, उसके मानवी व फ़िक्री खज़ाने का सही इस्तेमाल नही हो पाता और यह इंसान कके लिए सबसे बड़ी तौहीन है। क्योंकि दूसरों के सहारे ज़िन्दगी बसर करने से ना इंसान का वुजूद पहचाना जाता है और न ही उसकी सलाहियतें सामने आ पातीं।
नबी ए अकरम(स) फ़रमाते हैं:
ملعون من القي كله علي الناس
जो दूसरों पर मुनहसिर हो जाये और दूसरों की बैसाख़ियों पर चलने लगे वह अल्लाह की रहमत से दूर हो जायेगा।
ज़ाहिर है कि अल्लाह की रहमत से दूरी के लिये यही काफ़ी है कि वह ख़ुद अपने वुजूद की अहमियत को न जान सका और उसकी तमाम ताक़ते इस्तेमाल के बग़ैर ही बेकार हो कर रह गईं। इससे भी बढ़कर यह कि जब किसी की निगाहें दूसरों पर टिक जायेंगी तो वह अल्लाह के लुत्फ़ व करम को जानने व समझने से महरूम हो जायेगा और यह अल्लाह की रहमत से दूरी की एक क़िस्म है।
इस्लाम के तरबीयती प्रोग्रामों का ग़ैरे मुस्तक़ीम मक़सद यह हैं कि इंसान के सामने जो जिहालत के पर्दे पड़े हैं उन्हें हटा कर इस हक़ीक़त को ज़ाहिर करे कि तमाम ख़ूबियाँ और कमालात अल्लाह के इख़्तियार में है और अल्लाह फ़य्याज़ अलल इतलाक़ है लिहाज़ा अपनी ख़्वाहिशों के हुसूल के लिये उसकी बारगाह में हाथ फैलाने चाहिए।
इसी बुनियाद पर कुछ हदीसों का मज़मून यह हिकायत करता हैं कि इंसान को अल्लाह की ज़ात से उम्मीदवार रहना चाहिए और यह हक़ीक़त उसी वक़्त सामने आती है जब इंसान दूसरे तमाम इँसानों से मायूस हो जाता है। कुछ दूसरी हदीसों के मज़मून इस तरह दलालत करते हैं कि जब किसी इंसान को किसी चीज़ की ज़रूरत पेश आती है तो उसकी वह ज़रूरत उसी वक़्त पूरी होगी जब वह तमाम लोगों से मायूस होकर सिर्फ़ अल्लाह से उम्मीदवार हो, ज़ाहिर है कि ऐसे में उसकी ज़रूरतें ज़रूर पूरी होगीं।
मरहूम शैख अब्बास क़ुम्मी ने अपनी किताब सफ़ीनतुल बिहार के सफ़ा 327 पर इस रिवायत को नक़्ल किया हैं कि इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रया:
اذا ارد احدكم ان لا يسال الله شيئا الا اعطاه فليياس من الناس كلهم و لا يكون له رجاة الا من عند الله عز و جل فادا علم الله عز و جل دالك من قلبه لم يسال الله شيئا الا اعطاه
जब भी तुम में कोई शख़्स यह चाहे कि उसकी हाजत बिला फ़ासला पूरी हो जाये उसे चाहिये कि तमाम लोगों से उम्मीदे तोड़ कर सिर्फ़ अल्लाह से लौ लगाये जब अल्लाह उसके क़ल्ब में इस कैफ़ियत के देखेगा तो जो चीज़ उसने माँगी होगी उसे ज़रूर ता करेगा। कुछ दूसरी हदीसों में आया है कि मोमिन का फ़ख़्र व बरतरी इस बात में है कि वह तमाम लोगों से अपनी उम्मीदें तोड़ ले। यानी अगर कोई इंसान खुद साज़ी की मंज़िल में इस मर्तबे पर पहुँच जाये कि तमाम इंसानों से क़ते उम्मीद करके सिर्फ़ अल्लाह से लौ लगाये रहे तो वह इस कामयाबी को हासिल करने के बाद दूसरों पर फ़ख़्र करने का हक़दार है।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं:
ثلثة هن فخر المومن زينته في الدنيا و الاخرة الصلوة في اخر الليل و ياسه مما في ايدي الناس و وولاية من ال محمد ( ص(
तीन चीज़े ऐसी हैं कि जो दुनिया व आख़िरत में मोंमिन के लिये ज़ीनत व फ़ख्र शुमार होती हैं। एक तो नमाज़े शब पढ़ना, दूसरे लोगों के पास मौजूद चीज़ों से उम्मीद तोड़ लेना, तीसरे पैग़म्बरे इस्लाम (स) की औलाद से जो इमाम है उनकी विलायत को मानना।
नायाब ख़ज़ाना
कुछ हदीसें ऐसी हैं कि जो इंसानो को ज़्यादा की हवस से रोकते हुए उन्हे क़नाअत का दर्स देना चाहती हैं।
ज़ाहिर है कि जब इंसान ख़ुद को सँवार कर क़नाअत करना सीख जाता है तो हक़ीक़त में वह ऐसे ख़ज़ाने का मालिक बन जाता है जिसमें कभी कमी वाक़ेअ नही होती।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते है:
لا كنز اغني من القناعة
क़नाअत से बढ़ कर कोई ख़ज़ाना नही है।
नबी ए अकरम(स) फ़रमाते हैं:
خير الغني غني النفس
सबसे बड़ा ख़ज़ाना नफ़्स की बेनियाज़ी है।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं:
من رزق ثلثا نال ثلثا و هو الغني الاكبر القناعة بما اعطي واليس مما في ايدي الناس و ترك الفضول
जिस किसी को यह तीन चीज़ें मिल गईं उसे बहुत बड़ा ख़ज़ाना मिल गया।
जो कुछ उसे मिला है उस पर क़नाअत करे और जो लोगों के पास है उससे उम्मीदों को तोड़ ले और फ़ुज़ूल कामों को छोड़ दे।
उसूले काफ़ी में हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम से इस तरह नक़्ल हुआ है:
رايت الخير كله قد اجتمع في قطع الطمع عما في ايدي الناس
तमाम नेकियाँ और ख़ूबियाँ एक चीज़ में जमा हो गयीं हैं और वह लोगों से उम्मीद न रखना है।
कुछ हदीसों में बेनियाज़ी को इंसान का हक़ीक़ी ख़ज़ाना क़रार दिया गया है। ज़ाहिर है कि माल जमा करने से इंसान बेनियाज़ नही होता बल्कि उसकी ज़रूरतें और बढ़ जाती है।
नबी ए अकरम(स) फ़रमाते हैं:
ليس الغناء في كثرة العرض و انما الغناء غني النفس
माल जमा करने में बेनियाज़ी नही है, बल्कि बेशक नफ़्स को बेनियाज़ बनाना बेनियाज़ी है।
कुछ दहीसों में इस तरह बयान हुआ है कि बुनियादी तौर पर मोमिन के लिए बेहतर है कि अल्लाह के सिवा कोई और उसका वली ए नेअमत न हो। हर इंसान एक न एक दिन अपनी रोज़ी और क़िस्मत को ज़रूर हासिल कर लेगा, इसको बुनियाद बनाकर मज़बूत अक़ीदे के साथ सिर्फ़ अल्लाह को ही वली नेअमत मानना चाहिए।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को वसीयत करते हुए फ़रमाया कि:
و ان استطعت ان لا يكون بينك و بينت الله ذونعمة فافعل فانك مدرك قسمك و اخذ سهمك و ان اليسر من الله اكرم و اعظم من الكثير من خلقه
अगर ताक़त व क़ुदरत हो तो कोशिश करो कि तुम्हारे और तुम्हारे रब के दरमियान कोई दूसरा वली नेमत न होने पाये। यक़ीनन तुम्हारी क़िस्मत में जो कुछ है वह तुम्हे मिलकर रहेगा और अगर ख़ुदा की तरफ़ से मिलने वाली नेअमत, लोगों की तरफ़ से मिलनी वाली नेअमतों से मिक़दार में कम हो तो भी वह कम मिक़दार अहम है, क्योंकि अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाली नेअमतों में में बरकत होती है।
तारीख़े इस्लाम में मिलता है कि एक ग़रीब, बाल बच्चों वाले शख़्स ने अपनी बीवी से मशवरा कर के तय किया कि पैग़म्बर इस्लाम (स) की ख़िदमत में हाज़िर होकर उनसे मदद की दरख़्वास्त करेगा। जब वह मस्जिद में पहुँचा और अपनी बात कहनी चाही उसी वक़्त अल्लाह के नबी(स) ने फ़रमाया:
من سئلنا اعطيناه و من استغني اعطاه الله
जो हमसे मदद माँगेगा हम उसकी मदद करेंगें और जो ख़ुद को बेनियाज़ कर लेगा अल्लाह तअला उसकी मदद करेगा और उसे बेनियाज़ बना देगा।
यह वाक़िया तीन बार तकरार हुआ। वह ग़रीब शख़्स पैग़म्बरे इस्लाम(स.) की रहनुमाई के असर से जंगलों में पहुँच कर मेहनत व मज़दूरी में लग गया और रोज़ाना ज़्यादा से ज़्यादा मेहनत करने लगा यहाँ तक कि धीरे धीरे उसकी ग़ुरबत दूर हो गई।
इस हदीस से तरबीयत का जो सबसे ज़रीफ़ व अहम नुक्ता सामने आता है वह यह है कि जो दूसरों से उम्मीदों को तोड़ कर ख़ुद अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करे और अपनी वुजूद की ताक़त व सलाहियत को काम में लाये वह यक़ीनी तौर पर दूसरों से बेनियाज़ हो जायेगा।
बच्चों की तालीम व तरबीयत में माँ बाप की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यह है कि वह बच्चों को तदरीजन यह समझाये कि उनके वुजूद में हर तरह की ताक़त व सलाहियत पायी जाती हैं। लिहाज़ा वह दूसरों पर तकिया करने और उनसे मदद माँगने के बजाए ख़ुद अपने पैरों पर खड़े हों और अपनी ज़ात में मौजूद ताक़त, सलाहियत व फ़िक्र से फ़ायदा उठायें।
माँ बाप और उस्तादों की ज़िम्मदारी है कि वह बच्चों को धीरे धीरे से इस हक़ीक़त से आगाह करें। लिहाज़ा ज़रूरी है कि उन्हे मारने पीटने और धमकाने के बजाए उनके मुसबत पहलुओं की ताईद करते हुए उन्हों मज़बूत बनाया जाये, उनका हौसला बढ़ाया जाये और उन्हे इतमिनान दिला जाये ताकि वह यक़ीन व इसबात की मंज़िल तक पहुँच जायें।
हमें यह कभी नही भूलना चाहिये कि बच्चे बड़ों के बरख़िलाफ़ कशमकश व तज़बज़ुब का शिकार होते हैं, लिहाज़ा उन्हे दूसरों की ताईद की बहुत ज़्यादा ज़रूरत होती है।
हमें उनसे जुरअत के साथ कहना चाहिए कि तुम्हारे अन्दर ताक़त है तुम हर काम कर सकते हो।
इस तरह के जुमलों से उनकी हिम्मत बढ़ा कर धीरे धीरे उन्हे मुस्तक़िल ज़िन्दगी की राहें दिखाई जा सकती है। इस तरह वह अमली तौर पर ख़ुद पर भरोसा करते हुए अपनी ज़ाती सलाहियतों से पनाह लेंगे और धीरे धीरे उनकी ख़ुदा दाद सलाहियतें ज़ाहिर होने लगेंगीं।