ईरान के समकालीन बुद्धिजीवी

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ईरान के समकालीन बुद्धिजीवी

ईरान के समकालीन बुद्धिजीवी

उन महान हस्तियों के नाम और याद को जीवित रखना जिन्होंने राष्ट्रों के भविष्य को ईश्वरीय विचारों और अपने अथक प्रयासों से उज्जवल बनाया है, एक आवश्यक कार्य है। इस श्रंखला में हम प्रयास करेंगे कि समकालीन ईरान की धर्म व ज्ञान से संबंधित प्रभावी हस्तियों से आपको परिचित कराएं। इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह मानव इतिहास की सबसे उल्लेखनीय हस्तियों में से एक समझे जाते हैं जिन्होंने समकालीन इतिहास में एक ईश्वरीय आंदोलन के माध्यम से पूरे संसार को प्रभावित किया। उन्होंने ईश्वरीय पैग़म्बरों और इमामों की सत्य की आवाज़ को प्रतिबिंबित किया। वे पहलवी शासन के अत्याचारपूर्ण एवं घुटन भरे काल में लोगों के बीच से उठे और एक प्रकाशमान फ़ानूस की भांति लोगों के हृदयों को अन्धकार से प्रकाश की ओर मार्गदर्शित किया। इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन से ईरानी जनता के भविष्य को एक नया आयाम मिला और लोग उनके ईश्वरीय मार्गदर्शन की सहायता से, इस्लामी क्रांति की विभूति से लाभान्वित हुए। इस्लामी क्रांति के वर्तमान नेता आयतुल्लाहिल उज़मा इमाम ख़ामेनेई, जो इमाम ख़ुमैनी के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक हैं, उनके बारे में कहते हैं। इंसाफ़ से देखा जाए तो हमारे प्रिय इमाम और नेता के महान व्यक्तित्व कि तुलना ईश्वर के पैग़म्बरों और इमामों के बाद किसी अन्य व्यक्ति से नहीं की जा सकती। वे हमारे बीच ईश्वर की अमानत, हमारे लिए ईश्वर का तर्क और ईश्वर की महानता का चिन्ह थे। जब मनुष्य उन्हें देखता था तो धर्म के नेताओं की महानता पर उसे विश्वास आ जाता था।

सैयद रूहुल्लाह मूसवी ख़ुमैनी का जन्म 30 शहरीवर वर्ष 1281 हिजरी शमसी बराबर 21 सितम्बर वर्ष 1902 ईसवी को केंद्रीय ईरान के ख़ुमैन नगर में एक धार्मिक व पढ़े लिखे परिवार में हुआ था। उनके पिता एक साहसी धर्मगुरू थे जिन पर लोग अत्यधिक विश्वास करते थे। उन्होंने स्थानीय ग़ुंडों से, जिन्होंने ख़ुमैन नगर के लोगों की जान और उनके माल को ख़तरे में डाल रखा था, कड़ा संघर्ष किया और अंततः उन्हीं के हाथों मारे गए। उस समय इमाम ख़ुमैनी की आयु केवल पांच महीने थी। उन्होंने अपना बचपन अपनी माता की छत्रछाया में व्यतीत किया। वह समय ईरान में संवैधानिक क्रांति और उसके बाद के राजनैतिक व सामाजिक परिवर्तनों का काल था। इमाम ख़ुमैनी इन परिवर्तनों पर गहरी दृष्टि रखते थे और उनसे अनुभव प्राप्त करते थे। उनके बचपन व किशोरावस्था की कुछ प्रभावी घटनाएं उनके द्वारा बनाए गए चित्रों और सुलेखन में प्रतिबिंबित होती हैं। उदाहरण स्वरूप उन्होंने दस वर्ष की आयु में अपनी डायरी में इस्लाम की मर्यादा कहां है? राष्ट्रीय आंदोलन किधर है? शीर्षक के अंतर्गत एक लघु कविता लिखी थी जिसमें राजनैतिक समस्याओं की ओर संकेत किया गया है। पंद्रह वर्ष की आयु में इमाम ख़ुमैनी अपनी स्नेही माता की छाया से भी वंचित हो गए।

इमाम ख़ुमैनी ने बचपन में ही अपनी प्रवीणता के सहारे अरबी साहित्य, तर्कशास्त्र, धर्मशास्त्र और इसी प्रकार उस समय प्रचलित बहुत से ज्ञानों के आरंभिक भाग की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। वर्ष 1297 हिजरी शमसी में वे केंद्रीय ईरान के अराक नगर के उच्च धार्मिक शिक्षा केंद्र में प्रवेश लिया और फिर वहां से पवित्र नगर क़ुम के उच्च धार्मिक शिक्षा केंद्र का रुख़ किया। क़ुम में उन्होंने आयतुल्लाह हायरी जैसे महान धर्मगुरुओं से शिक्षा प्राप्त की। अपनी तीव्र बुद्धि के कारण इमाम ख़ुमैनी ने विभिन्न ज्ञानों की शिक्षा बड़ी तीव्रता से पूरी कर ली। उन्होंने धर्मशास्त्र, उसूले फ़िक़्ह के अतिरिक्त दर्शन शास्त्र की शिक्षा अपने काल के सबसे महान गुरू अर्थात आयतुल्लाह मीरज़ा मुहम्मद अली शाहाबादी से प्राप्त की। इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1308 हिजरी शमसी में 27 वर्ष की आयु में ख़दीजा सक़फ़ी से विवाह किया।

वर्ष 1316 में जब इमाम ख़ुमैनी की आयु 35 वर्ष थी तो उनकी गणना क़ुम नगर के प्रख्यात धर्मगुरुओं में होने लगी थी। उस समय अधिकांश युवा छात्र उनके पाठों में भाग लेने के इच्छुक होते थे। वर्ष 1320 हिजरी क़मरी तक इमाम रूहुल्लाह ख़ुमैनी अधिकतर पढ़ने, पढ़ाने और पुस्तकें लिखने में व्यस्त रहे किंतु इसी के साथ उनके भीतर अत्याचार से संघर्ष की भावना भी परवान चढ़ती रही। उस काल में उनकी मुख्य चिंता क़ुम के धार्मिक शिक्षा केंद्र की रक्षा और प्रगति थी। वे समाज की परिस्थितियों को दृष्टिगत रख कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि धार्मिक शिक्षा केंद्रों को मज़बूत बनाने तथा लोगों व धर्मगुरुओं के बीच संबंध को सुदृढ़ करने से ही आंतरिक अत्याचारी शासन और विदेशी साम्राज्य के चंगुल से देश की जनता को मुक्ति दिलाई जा सकती है। वे इसी प्रकार समकालीन ईरान के इतिहास से संबंधित पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करके अपने ज्ञान में वृद्धि कर रहे थे। वे अन्य इस्लामी समाजों की राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियों पर गहरी दृष्टि रखते थे। इमाम ख़ुमैनी नूरुल्लाह इस्फ़हानी और शहीद सैयद हसन मुदर्रिस जैसे क्रांतिकारी एवं संघर्षकर्ता धर्मगुरुओं से भी परिचित हुए। इन वर्षों में पहलवी परिवार के पहले शासक रज़ा ख़ान ने पूरे देश में भय व आतंक का वातावरण फैला रखा था और हर उठने वाली आवाज़ का उत्तर हत्या, जेल या निर्वासन से दिया जाता था।

वर्ष 1320 हिजरी शमसी में मुहम्मद रज़ा पहलवी के सत्ता में आने के साथ ही इमाम ख़ुमैनी धार्मिक व राजनैतिक मामलों में अधिक खुल कर सामने आ गए। उन्होंने वर्ष 1340 तक क्रांतिकारी छात्रों का प्रशिक्षण किया और मूल्यवान पुस्तकें लिखीं। इसी के साथ वे राजनैतिक मामलों विशेष कर वर्ष 1329 में तेल उद्योग के राष्ट्रीयकरण के मामले पर भी विशेष ध्यान देते रहे। वर्ष 1340 में शीया मुसलमानों के वरिष्ठ धर्मगुरू आयतुल्लाहिल उज़मा बोरूजेर्दी का निधन हुआ और बहुत से लोगों व धार्मिक छात्रों ने जो इमाम ख़ुमैनी की ज्ञान, नैतिकता व राजनीति से संबंधित विशेषताओं से अवगत थे उन्हें वरिष्ठ धर्मगुरू बनाए जाने की मांग की। ये उस समय की घटनाएं हैं जब वर्ष 1953 के विद्रोह के बाद ईरान में अमरीकी सरकार का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। अमरीकी सरकार ने मुहम्मद रज़ा शाह पर दबाव डाला कि वह दिखावे के लिए कुछ सुधार करे। शाह ने अमरीका के इस दबाव के उत्तर में वर्ष 1962 में कई कार्यक्रमों को पारित किया जिनमें कुछ इस्लाम विरोधी बिंदु भी मौजूद थे। इमाम ख़ुमैनी ने अपनी दूरदर्शिता से इन बातों को भांप लिया और अमरीका के दृष्टिगत सुधारों के मुक़ाबले में पूर्ण रूप से डट गए। उन्होंने क़ुम तथा तेहरान के बड़े धर्मगुरुओं के साथ मिल कर व्यापक विरोध किया किंतु शाह चाहता था कि अमरीकी सुधारों को एक दिखावे के जनमत संग्रह के माध्यम से पारित करवा दे। इमाम ख़ुमैनी ने शाह के जनमत संग्रह के बहिष्कार का आह्वान किया। उनके आग्रह और प्रतिरोध के कारण ईरान के बड़े बड़े धर्म गुरुओं ने खुल कर उस जनमत संग्रह का विरोध किया और उसमें भाग लेने को धार्मिक दृष्टि से हराम या वर्जित घोषित कर दिया। इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1341 के अंतिम दिनों में शाह के सुधार कार्यक्रमों के विरुद्ध एक कड़ा बयान जारी किया। तेहरान के लोग उनके समर्थन में सड़कों पर निकल आए और पुलिस ने लोगों के प्रदर्शनों पर आक्रमण कर दिया। शाह ने, जो चाहता था कि जिस प्रकार से भी संभव हो, अमरीका के प्रति अपनी वफ़ादारी को सिद्ध कर दे, लोगों के ख़ून से होली खेली।

वर्ष 1342 हिजरी शमसी के आरंभिक दिनों में शाह के एजेंटों ने सादे कपड़ों में क़ुम के एक बड़े धार्मिक शिक्षा केंद्र मदरसए फ़ैज़िया में छात्रों के समूह में उपद्रव मचाया और फिर पुलिस ने उन छात्रों का जनसंहार किया। इसी के साथ तबरीज़ नगर में भी एक धार्मिक शिक्षा केंद्र पर आक्रमण किया गया। उन दिनों क़ुम नगर में इमाम ख़ुमैनी का घर पर प्रतिदिन क्रांतिकारियों और क्रोधित लोगों का जमावड़ा होता था जो धर्मगुरुओं के समर्थन के लिए क़ुम नगर आते थे। इमाम ख़ुमैनी इन भेंटों में पूरी निर्भीकता के साथ शाह को सभी अपराधों का ज़िम्मेदार और अमरीका व इस्राईल का घटक बताते थे तथा आंदोलन चलाने के लिए लोगों का आह्वान किया करते थे। इमाम ख़ुमैनी ने मदरसए फ़ैज़िया के धार्मिक छात्रों के जनसंहार पर दिए गए अपने एक संदेश में कहा कि मैं जब यह भ्रष्ट सरकार हट नहीं जाती तब तक मैं चैन से नहीं बैठूंगा। इसके बाद उन्हें गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। इमाम ख़ुमैनी की गिरफ़्तारी का समाचार मिलते ही 15 ख़ुर्दाद वर्ष 1342 बराबर 5 जून वर्ष 1963 को पूरे ईरान के सभी नगरों की जनता सड़कों पर निकल आई और देश व्यापी प्रदर्शन आरंभ हो गए। लोगों ने या हमें भी मार डालो या ख़ुमैनी को रिहा करो के नारे लगा कर शाह के महल में भूकम्प पैदा कर दिया।

ईरान की जनता के व्यापक विरोध के बाद शाह के सैनिकों ने विशेष रूप से तेहरान व क़ुम में बड़ी निर्ममता के साथ प्रदर्शनों को कुचलने का प्रयास किया किंतु कुछ ही महीने बाद शाह, इमाम ख़ुमैनी को रिहा करने पर विवश हो गया। उन्होंने रिहा होने के बाद शाह की ओर से दी जाने वाली धमकियों की अनदेखी करते हुए अपने विभिन्न भाषणों में लोगों को अत्याचार व तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष का निमंत्रण दिया। उन्होंने अपने एक ऐतिहासिक भाषण में लोगों को अतिग्रहणकारी इस्राईली सरकार के साथ शाह के गुप्त किंतु व्यापक संबंधों के बारे में बताया और साथ ही ईरान के आंतरिक मामलों में अमरीका के अत्याचारपूर्ण हस्तक्षेप से पर्दा उठाते हुए जनता को शाह के राष्ट्र विरोधी कार्यों से अवगत कराया। ये बातें सुन कर ईरानी जनता के क्रोध में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती गई। शाह ने, जब यह देखा कि वह धमकी और लोभ से इमाम ख़ुमैनी को रोक नहीं सकता तो उसने उन्हें देश निकाला दे दिया। वर्ष 1965 के अंत में उन्हें तुर्की और वहां से एक साल बाद इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ निर्वासित कर दिया गया और इस प्रकार उनके चौदह वर्षीय निर्वासन का आरंभ हुआ।

असंख्य कठिनाइयों और दुखों के बावजूद इमाम ख़ुमैनी निर्वासन के दौरान भी संघर्ष से पीछे नहीं हटे। इस अवधि में उन्होंने अपने संदेशों और भाषणों के माध्यमों से कैसेटों व पम्फ़लेटों के रूप में जनता तक पहुंचते थे, लोगों में आशा की किरण को जगाए रखा। इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1976 में अरबों और इस्राईल के बीच होने वाले छः दिवसीय युद्ध के उपलक्ष्य में एक फ़तवा जारी किया और इस्राईल के सथ मुसलमान राष्ट्रों के हर प्रकार के राजनैतिक एवं आर्थिक संबन्धों और इसी प्रकार इस्राईल निर्मित वस्तुओं के प्रयोग को हराम बताया। इमाम ख़ुमैनी ने ईरान में अपने संघर्ष से जहां ईरान में संघर्षकर्ता बनाए वहीं उन्होंने ईरान के अतिरिक्त इराक, लेबनान, मिस्र, पाकिस्तान तथा अन्य इस्लामी देशों में बड़ी संख्या में अपने अनुयाई बनाए।

 

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1970 के दशक में तेल के उत्पादन और उसके मूल्य में वृद्धि के साथ ही ईरान के अत्याचारी शासक मुहम्मद रज़ा पहलवी को अधिक शक्ति का आभास हुआ और उसने अपने विरोधियों के दमन और उन्हें यातनाए देने में वृद्धि कर दी। शाह की सरकार ने पागलपन की सीमा तक पश्चिम विशेष कर अमरीका से सैन्य शस्त्रों व उपकरणों तथा उपभोग की वस्तुओं की ख़रीदारी में वृद्धि की तथा इस्राईल के साथ खुल कर व्यापारिक एवं सैन्य संबंध स्थापित किए। मार्च 1975 के अंत में शाह ने दिखावे के रस्ताख़ीज़ नामक दल के गठन और एकदलीय व्यवस्था की स्थापाना के साथ ही तानाशाही को उसकी चरम सीमा पर पहुंचा दिया। उसने घोषणा की कि समस्त ईरानी जनता को इस दल का सदस्य बनना चाहिए और जो भी इसका विरोधी है वह ईरान से निकल जाए। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने इसके तुरंत बाद एक फ़तवा जारी करके घोषणा की कि इस दल द्वारा इस्लाम तथा ईरान के मुस्लिम राष्ट्र के हितों के विरोध के कारण इसमें शामिल होना हराम और मुसलमानों के विरुद्ध अत्याचार की सहायता करने के समान है। इमाम ख़ुमैनी तथा कुछ अन्य धर्मगुरुओं के फ़तवे अत्यंत प्रभावी रहे और शाह की सरकार के व्यापक प्रचारों के बावजूद कुछ साल के बाद उसने रस्ताख़ीज़ दल की पराजय की घोषणा करते हुए उसे भंग कर दिया।

अक्तूबर वर्ष 1977 में शाह के एजेंटों के हाथों इराक़ में इमाम ख़ुमैनी के बड़े पुत्र आयतुल्लाह सैयद मुस्तफ़ा ख़ुमैनी की शहादत और इस उपलक्ष्य में ईरान में आयोजित होने वाली शोक सभाएं, ईरान के धार्मिक केंद्रों तथा जनता के पुनः उठ खड़े होने का आरंभ बिंदु थीं। उसी समय इमाम ख़ुमैनी ने इस घटना को ईश्वर की गुप्त कृपा बताया था। शाह की सरकार द्वारा इमाम ख़ुमैनी और धर्मगुरुओं के साथ शत्रुता के क्रम को आगे बढ़ाते हुए शाह के एक दरबारी लेखक ने इमाम के विरुद्ध एक अपमाजनक लेख लिख कर ईरानी जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाई। इस लेख के विरोध में जनता सड़कों पर निकल आई। आरंभ में पवित्र नगर क़ुम के कुछ धार्मिक छात्रों और क्रांतिकारियों ने 9 जनवरी वर्ष 1978 को सड़कों पर निकल कर प्रदर्शन किया जिसे पुलिस ने ख़ून में नहला दिया। किंतु धीरे धीरे अन्य नगरों के लोगों ने भी क़ुम की जनता की भांति प्रदर्शन आरंभ कर दिए और दमन एवं घुटन के वातावरण का कड़ा विरोध किया। आंदोलन दिन प्रतिदनि बढ़ता जा रहा था और शाह को विवश हो कर अपने प्रधानमंत्री को बदलना पड़ा। अगला प्रधानमंत्री जाफ़र शरीफ़ इमामी था जो राष्ट्रीय संधि की सरकार के नारे के साथ सत्ता में आया था। उसके शासन काल में राजधानी तेहरान के एक चौराहे पर लोगों का बड़ी निर्ममता से जनसंहार किया गया जिसके बाद तेहरान तथा ईरान के ग्यारह अन्य बड़े नगरों में कर्फ़्यू लगा दिया गया। इमाम ख़ुमैनी ने, जो इराक़ से स्थिति पर गहरी दृष्टि रखे हुए थे, ईरानी जनता के नाम एक संदेश में हताहत होने वालों के परिजनों से सहृदयता जताते हुए आंदोलन के भविष्य को इस प्रकार चित्रित किया। शाह को जान लेना चाहिए कि ईरानी राष्ट्र को उसका मार्ग मिल गया है और वह जब तक अपराधियों को उनके सही ठिकाने तक नहीं पहुंचा देगा, चैन से नहीं बैठेगा। ईरानी राष्ट्र अपने व अपने पूर्वजों का प्रतिशोध इस क्रूर परिवार से अवश्य लेगा। ईश्वर की इच्छा से अब पूरे देश में तानाशाही व सरकार के विरुद्ध आवाज़ें उठ रही हैं और ये आवाज़ें अधिक तेज़ होती जाएंगी। शाह की सरकार के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाने में इमाम ख़ुमैनी की एक शैली जनता को अहिंसा, हड़ताल और व्यापक प्रदर्शन का निमंत्रण देने पर आधारित थी। इस प्रकार ईरान की जनता ने इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में अत्याचारी तानाशाही शासन के विरुद्ध सार्वजनिक आंदोलन आरंभ किया।

इराक़ की बअसी सरकार के दबाव और विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों के चलते इमाम ख़ुमैनी अक्तूबर वर्ष 1978 में इराक़ से फ़्रान्स की ओर प्रस्थान कर गए और पेरिस के उपनगरीय क्षेत्र नोफ़ेल लोशातो में रहने लगे। फ़्रान्स के तत्कालीन राष्ट्रपति ने एक संदेश में इमाम ख़ुमैनी से कहा कि वे हर प्रकार की राजनैतिक गतिविधि से दूर रहें। उन्होंने इसके उत्तर में कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए कहा कि इस प्रकार का प्रतिबंध प्रजातंत्र के दावों से विरोधाभास रखता है और वे कभी भी अपनी गतिविधियों और लक्ष्यों की अनदेखी नहीं करेंगे। इमाम ख़ुमैनी चार महीनों तक नोफ़ेल लोशातो में रहे और इस अवधि में यह स्थान, विश्व के महत्वपूर्ण समाचारिक केंद्र में परिवर्तित हो गया था। उन्होंने विभिन्न साक्षात्कारों और भेंटों में शाह की सरकार के अत्याचारों और ईरान में अमरीका के हस्तक्षेप से पर्दा उठाया तथा संसार के समक्ष अपने दृष्टिकोण रखे। इस प्रकार संसार के बहुत से लोग उनके आंदोलन के लक्ष्यों व विचारों से अवगत हुए। ईरान में भी मंत्रालयों, कार्यालयों यहां तक कि सैनिक केंद्रों में भी हड़तालें होने लगीं जिसके परिणाम स्वरूप शाह जनवरी वर्ष 1979 में ईरान से भाग गया। इसके 18 दिन बाद इमाम ख़ुमैनी वर्षों से देश से दूर रहने के बाद स्वदेश लौटे। उनके विवेकपूर्ण नेतृत्व की छाया में तथा ईरानी जनता के त्याग व बलिदान से 11 फ़रवरी वर्ष 1979 को ईरान से शाह के अत्याचारी शासन की समाप्ति हुई। अभी इस ऐतिहासिक परिवर्तन को दो महीने भी नहीं हुए थे कि ईरान की 98 प्रतिशत जनता ने एक जनमत संग्रह में इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था के पक्ष में मत दिया।

इमाम ख़ुमैनी जनता की भूमिका पर अत्यधिक बल देते थे। उनके दृष्टिकोण में जिस प्रकार से धर्म, राजनीति से अलग नहीं है उसी प्रकार सरकार भी जनता से अलग नहीं है। वे इस संबंध में कहते हैं। हमारी सरकार का स्वरूप इस्लामी गणतंत्र है। गणतंत्र का अर्थ यह है कि यह लोगों के बहुमत पर आधारित है और इस्लामी का अर्थ यह है कि यह इस्लाम के क़ानूनों के अनुसार है। दूसरी ओर इमाम ख़ुमैनी राजनैतिक मामलों में जनता की भागीदारी को, चुनावों में भाग लेने से इतर समझते थे और इस बात को उन्होंने अनेक बार अपने भाषणों और वक्तव्यों में बयान भी किया था।

ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने ईरान की इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था को धराशायी करने का हर संभव प्रयास किया। वे जानते थे कि ईरान की इस्लामी क्रांति अन्य देशों में भी जनांदोलन आरंभ होने का कारण बन सकती है और राष्ट्रों को अत्याचारी शासकों के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए प्रेरित कर सकती है। ईरान की इस्लामी क्रांति से मुक़ाबले हेतु साम्राज्य की एक शैली यह थी कि इमाम ख़ुमैनी की हत्या के लिए देश के कुछ बिके हुए तत्वों को प्रयोग किया जाए क्योंकि वे जानते थे कि सरकार के नेतृत्व में उनकी भूमिका अद्वितीय है किंतु उनकी हत्या का षड्यंत्र विफल हो गया। इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था को उखाड़ फेंकने हेतु शत्रुओं की एक अन्य शैली, देश को भीतर से तोड़ना और उसका विभाजन करना था। शत्रुओं ने ईरान के विभिन्न क्षेत्रों में जातीय भावनाएं भड़का कर बड़ी समस्याएं उत्पन्न कीं किंतु इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला और इस्लामी क्रांति के महान नेता की युक्तियों और जनता द्वारा उनके आज्ञापालन से ये समस्याएं भी समाप्त हो गईं। इमाम ख़ुमैनी एकता व एकजुटता के लिए सदैव जनता का आह्वान करते रहते थे और कहते थे कि धर्म और जाति को दृष्टिगत रखे बिना सभी को समान अधिकार मिलने चाहिए और हर ईरानी को पूरी स्वतंत्रता के साथ न्यायपूर्ण जीवन बिताने का अवसर दिया जाना चाहिए।

जब साम्राज्यवादियों को ईरानी जनता की एकजुटता और इमाम ख़ुमैनी के सशक्त नेतृत्व के मुक़ाबले में पराजय हो गई तो उन्होंने ईरान के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंधों और विषैले कुप्रचारों को भी पर्याप्त नहीं समझा और ईरान पर आठ वर्षीय युद्ध थोप दिया। ईरान की त्यागी जनता को, जो अभी अभी तानाशाही शासन के चंगुल से मुक्त हुई थी और इस्लाम की शरण में स्वतंत्रता का स्वाद चखना चाहती थी, एक असमान युद्ध का सामना करना पड़ा। सद्दाम द्वारा ईरान पर थोपे गए युद्ध ने, इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व के एक अन्य आयाम को प्रदर्शित किया और वे युद्ध के उतार-चढ़ाव से भरे काल से जनता को आगे बढ़ाने में सफल रहे। अमरीका, इस्राईल, फ़्रान्स और जर्मनी के अतिरिक्त तीस अन्य देशों ने इराक़ को शस्त्र, सैन्य उपकरण तथा सैनिक दिए जबकि ईरान पर प्रतिबंध लगे हुए थे और इस युद्ध के लिए वह बड़ी कठिनाई से सैन्य उपकरण उपलब्ध कर पाता था। इस बीच ईरानी योद्धाओं का मुख्य शस्त्र, साहस, ईमान और ईश्वर का भय था। अपने नेता के आदेश पर बड़ी संख्या में रणक्षेत्र का रुख़ करने वाले ईरानी योद्धाओं ने अपने देश व क्रांति की रक्षा में त्याग, बलिदान और साहस के नए मानक स्थापित किए।

इमाम ख़ुमैनी का व्यक्तित्व अत्यंत सुंदर एवं आकर्षक था। वे जीवन में अनुशासन और कार्यक्रम के अंतर्गत काम करने पर कटिबद्ध थे। वे अपने दिन और रात के समय में से एक निर्धारित समय उपासना, क़ुरआने मजीद की तिलावत और अध्ययन में बिताते थे। दिन में तीन चार बार पंद्रह पंद्रह मिनट टहलना और उसी दौरान धीमे स्वर में ईश्वर का गुणगान करना तथा चिंतन मनन करना भी उनके व्यक्तित्व का भाग था। यद्यपि उनकी आयु नब्बे वर्ष तक पहुंच रही थी किंतु वे संसार के सबसे अधिक काम करने वाले राजनेताओं में से एक समझे जाते थे। प्रतिदिन के अध्ययन के अतिरिक्त वे देश के रेडियो व टीवी के समाचार सुनने व देखने के अतिरिक्त कुछ विदेशी रेडियो सेवाओं के समाचारों व समीक्षाओं पर भी ध्यान देते थे ताकि क्रांति के शत्रुओं के प्रचारों से भली भांति अवगत रहें। प्रतिदिन की भेंटें और सरकारी अधिकारियों के साथ होने वाली बैठकें कभी इस बात का कारण नहीं बनती थीं कि आम लोगों के साथ इमाम ख़ुमैनी के संपर्क में कमी आ जाए। वे समाज के भविष्य के बारे में जो भी निर्णय लेते थे उसे अवश्य ही पहले जनता के समक्ष प्रस्तुत करते थे। उनके समक्ष बैठने वाले लोग बरबस ही उनके आध्यात्मिक तेज व आकर्षण से प्रभावित हो जाते थे और उनकी आंखों से आंसू बहने लगते थे। लोग हृदय की गहराइयों से अपने नारों में ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि वह इमाम ख़ुमैनी को दीर्घायु प्रदान करे। कुल मिला कर यह कि इमाम ख़ुमैनी का संपूर्ण जीवन ईश्वर तथा लोगों की सेवा के लिए समर्पित था।

अंततः 3 जून वर्ष 1989 को उस हृदय ने धड़कना बंद कर दिया जिसने दसियों लाख हृदयों को ईश्वर व अध्यात्म के प्रकाश की ओर उन्मुख किया था। कई लम्बी शल्य चिकित्साओं के बाद इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने 87 वर्ष की आयु में इस संसार को विदा कहा। उन्होंने अपनी वसीयत के अंत में लिखा था कि मैं शांत हृदय, संतुष्ट मन, प्रसन्न आत्मा और ईश्वर की कृपा के प्रति आशावान अंतरात्मा के साथ भाइयों और बहनों की सेवा से विदा लेकर अपने अनंत ठिकाने की ओर प्रस्थान कर रहा हूं और मुझे आप लोगों की नेक दुआओं की बहुत आवश्यकता है।

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समकालीन विश्व में ईरान की इस्लामी क्रान्ति के स्थान और इमाम ख़ुमैनी के प्रभाव के दृष्टिगत, उनकी आध्यात्मिक विशेषताओं, उनके व्यक्तित्व के आयामों तथा उनके धार्मिक व राजनैतिक विचारों को समझने के लिए सबसे अच्छी शैली उनके भाषणों, राजनैतिक व सामाजिक मामलों पर उनके लेखों और उनके व्यक्तित्व व परिवार से संबंधित लेखों का अध्ययन है। पिछले कार्यक्रम में हमने इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की आत्मज्ञान से संबंधित कुछ किताबों से आपको परिचित कराया था। आज की कड़ी में भी इमाम ख़ुमैनी की कुछ दूसरी रचनाओं से आपको परिचित कराएंगे।

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अधिकांश शायरों का यह मानना है कि चूंकि कवि कोमल भावना का स्वामी होता है इसलिए एक राजनेता बनने के बाद उसमें शेर कहने की क्षमता नहीं रह जाती किन्तु इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के बारे में शायरों का अलग दृष्टिकोण है। ईरान के समकालीन शायर हमीद सब्ज़वारी इमाम ख़ुमैनी की साहित्यिक अभिरूचि के बारे में कहते हैः इमाम ख़ुमैनी के शेरों में उनके आत्मज्ञानी व्यक्तित्व की झलक प्रकट होती है और इसी तत्व ने उन्हें एक आत्मज्ञानी कवि बना दिया है। आत्मज्ञान, व्यक्ति को उच्च स्थान पर ले जाता है और इसीलिए इमाम के शेर समाज को मुक्ति दिलाएंगे। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह युवावस्था से जीवन के अंत तक सामयिक रूप से शेर कहा करते थे कि जिनके नमूने किताबों में मौजूद हैं या फिर लोगों को याद हैं। इन शेरों का एक भाग इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास के पश्चात सामने आया।

इमाम ख़ुमैनी के शेरों के संग्रह में आत्मा को ताज़गी देने वाले क़सीदे, रोबाईयां और ग़ज़लें हैं। इमाम ख़ुमैनी के शेर ईश्वर की पहचान और एकेश्वरवादी विचारधारा पर आधारित हैं। केवल एकेश्वरवादी विचारधारा ही व्यक्ति को अंधविश्वास से मुक्ति दिलाती है, उसके विचार को सृदृढ़ आधार प्रदान करती है और उसे अमर शांति प्रदान करती है।

चेहल हदीस अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम व उनके पवित्र परिजनों के चालीस कथनों पर आधारित किताब भी इमाम ख़ुमैनी की महारचनाओं में है। यह किताब इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1339 हिजरी क़मरी में लिखी। उन्होंने इस किताब में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के चालीस मूल्यवान कथनों की व्याख्या की है। इमाम ख़ुमैनी ने इस किताब के आरंभ में प्रस्तावना में लिखा हैः यह बेचारा कमज़ोर बंदा कुछ समय से यह सोच रहा है कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के 40 कथनों को जो प्रतिष्ठित किताबों में मौजूद हैं उन्हें संकलित करे और हर एक की उचित व्याख्या करे जिसे आम लोग समझ सकें इसलिए इसे फ़ारसी में लिखा है ताकि फ़ारसी भाषी भी इससे लाभान्वित हो सकें।

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने इस किताब में पहले एक कथन का उल्लेख किया है, फिर उसका फ़ारसी में अनुवाद किया है और कथन में मौजूद कठित शब्दावली का अर्थ बयान किया है। उसके बाद हदीस की कई अध्याय में व्याख्या की है। चालीस कथनों पर आधारित इस प्रकार की किताब के संकलन का आधार पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का एक कथन है जिसमें उन्होंने फ़रमायाः जो भी मेरी क़ौम के हित में 40 कथन याद करेगा ईश्वर प्रलय के दिन उसे विद्वान व धर्मशास्त्री के रूप में उठाएगा।

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की चेहल हदीस नामक किताब में आरंभ की 33 हदीसें नैतिक मामलों से विशेष हैं। इस भाग में इमाम ख़ुमैनी ने मनुष्य की मनोवैज्ञानिक बीमारियों व विकारों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। हर एक नैतिक बुराई के नुक़सान का उल्लेख किया है। उन्होंने घमंड, दिखावा, क्रोध और द्वेष को अप्रशिक्षित मन में पनपने वाली बुराई बताई है और व्याख्या के दौरान इन बुराइयों को दूर करने के मार्गों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार हदीस की व्याख्या में अपने वर्णन की पुष्टि में पवित्र क़ुरआन की आयतों को उद्घरित किया है।

अब्दुल अज़ीज़ क़ुरबानी भी पवित्र नगर मशहद में मदरसे के उन छात्रों में हैं जिन्हें इमाम ख़ुमैनी की चेहल हदीस किताब में वर्णित सभी चालीस कथन याद हैं। वे इस मूल्यवान किताब के महत्वपूर्ण बिन्दुओं का इस प्रकार उल्लेख करते हैः चेहल हदीस किताब में महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि इस किताब को लिखते समय इमाम ख़ुमैनी ने हर कथन की व्याख्या में मनुष्य के आत्मनिर्माण के लिए फ़ार्मूले और समीकरण पेश किए हैं। ये फ़ार्मूले व समीकरण व्यक्तिगत प्रशिक्षण के लिए इतने व्यापक हैं कि बुद्धिजीवी, छात्र, धर्मगुरु, आम कारोबारी व्यक्ति, व्यापारी सहित समाज के सभी वर्ग इससे आत्मनिर्माण कर सकते हैं।

इमाम ख़ुमैनी जैसा कि सातवें कथन की व्याख्या में जो क्रोध से विशेष है, लिखते हैः मनुष्य को उस समय जब उसका मन शान्त हो, अपने क्रोध की ओर से बहुत चिंतित रहना चाहिए। यदि उसमें यह जलाने वाली ज्वाला है तो जिस समय वह शांत है उसे क्रोध से छुटकारा पाने का प्रयास करना चाहिए। उसे चाहिए कि क्रोध आने के कारण के बारे में सोच कर स्वयं को इस बुराई से बचाए। उसे क्रोध से होने वाली बुराइयों के बारे में सोचना चाहिए। संभव है इस बुराई का परिणाम एक व्यक्ति सदैव भुगते। दुनिया में कठिनाइयों में घिरा रहे और प्रलय में दंड व प्रकोप झेले।

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की एक और किताब है जिसका शीर्षक है जेहादे अकबर या मन से संघर्ष। ये किताब भी मनुष्य के आत्मनिर्माण व उसके प्रशिक्षण के बारे में है। यह किताब वास्तव में पवित्र नगर नजफ़ में इमाम ख़ुमैनी द्वारा छात्रों व धर्मगुरुओं के बीच दिए गए भाषणों का संकलन है। स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ने जेहादे अकबर में आत्मा की शुद्धि के लिए मन को नैतिक बुराइयों से दूर करने के महत्व पर चर्चा की है। इमाम ख़ुमैनी इस किताब में एक स्थान पर लिखते हैः ज्ञान प्रकाश है किन्तु यह भ्रष्ट के काले मन में अंधकार के दायरे को और बढ़ा देता है। वह ज्ञान जो मनुष्य को ईश्वर के निकट करता है, सांसारिक मोहमाया पर मिटे व्यक्ति को, ईश्वर से और दूर कर देता है।

इमाम ख़ुमैनी स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान की प्राप्ति के साथ साथ आत्मशुद्धि व मन की गंदगी का जड़ से सफाया भी ज़रूरी है। यदि मन की गंदगी को जड़ से साफ़ न किया जाए तो न केवल यह कि ज्ञान की प्राप्ति उस दूषित अस्तित्व के लिए लाभदायक नहीं होगी बल्कि उसे और दूषित करेगी तथा और बुराइयों की ओर ले जाएगी। पहले चरण में तो भ्रष्ट विद्वान के नाश का कारण बनेगा और फिर बाद के चरण में दूसरों अर्थात मानव समाज को भ्रष्ट करेगा। इतिहास व अनुभव से सिद्ध है कि मानव समाज को जितना भ्रष्ट विद्वानों से हानि पहुंची उतनी आम लोगों से हानि नहीं पहुंची है।

स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी की दृष्टि में मानवीय मानदंडों व नैतिक गुणों से व्यक्तित्व को संवारना बहुत बड़ा व कठिन दायित्व है जो समाज के वर्गों विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करने वाले छात्रों के कंधे पर है। यदि ज्ञान मन की पवित्रता के साथ होगा तो बहुत सी भलाइयों का स्रोत बनेगा और मानव समाज में सुधार की पृष्ठिभूमि बनेगा।

इमाम ख़ुमैनी की सहीफ़ए नूर नामक किताब को उनकी सबसे महत्वपूर्ण व प्रभावी किताब की संज्ञा देना ग़लत न होगा। यह किताब 21 जिल्दों में है जो इमाम ख़ुमैनी के सभी बयान और लेखों का संकलन है। इस किताब में उनके भाषण, पत्र, संदेश, साक्षात्कार, धार्मिक अनुमतिपत्र इत्यादि शामिल हैं।

यह किताब इमाम ख़ुमैनी द्वारा वर्ष 1933 में लिखे गए पत्र से आरंभ होती है और उनके अंतिम पत्र पर जो उन्होंने अपने स्वर्गवास से दो सप्ताह पूर्व 18 मई 1989 को लिखा था, समाप्त होती है।

इमाम ख़ुमैनी के अपने बेटों, वकीलों और मित्रों को ईरान सहित इस्लामी दुनिया में लिखे गए पत्र उनकी महान आत्मा के दूसरे आयामों को स्पष्ट करते हैं। वरिष्ठ धर्म गुरु और इस्लामी क्रान्ति के नेतृत्व की ज़रूरतें उन्हें कभी भी अपने बच्चों, वकीलों और श्रद्धालुओं के हक़ में धार्मिक, नैतिक और भावनात्मक दायित्व अंजाम देने से कभी भी न रोक सकीं। इमाम ख़ुमैनी के पत्रों में आम कुशल क्षेम पूछने से लेकर समस्याओं के समाधान, चेतावनी, जीवन यापन के संबंध में सद्भावनापूर्ण निर्देशों और शिक्षा की प्राप्ति व आत्मशुद्धी की अनुशंसा सहित और दूसरे महत्वपूर्ण मामलों का उल्लेख मिलता है। ये सब दूसरों के साथ इस्लामी शिष्टाचार को पूरी तरह अंजाम देने के संबंध में उनमें सावधानी का पता देते हैं।

सहीफ़ए नूर में इमाम ख़ुमैनी के संकलित लेखों में सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक व राजनैतिक मामलों से संबंधित उनके संदेश हैं। वास्तव में इमाम ख़ुमैनी क्रान्ति से पूर्व इन संदेशों के प्रकाशन द्वारा जनता व अपने श्रद्धालुओं के साथ प्रत्यक्ष रूप से संपर्क में थे और यह संपर्क की उनकी सबसे प्रभावी शैली थी। ये संदेश राजशाही शासन के विरुद्ध जनांदोलन चलाने में प्रभावी बने और ईरानी राष्ट्र के संघर्ष के पूरे काल में इमाम ख़ुमैनी की ओर से घोषणाएं एवं संदेश क्रान्ति के मार्ग और उसके नारों व क्रियाकलापों की दिशा तय करते थे।

जनता के बीच इमाम ख़ुमैनी का भाषण भी सहीफ़ए नूर में संकलित एक दूसरा महत्वपूर्ण विषय है। जनता के विभिन्न वर्गों के बीच इमाम ख़ुमैनी के भाषण अपने विचारों से जनता को सीधे तौर से परिचित होने का अवसर प्रदान करते थे। चेहरे पर शांति व संतोष के साथ ही दृढ़ संकल्प, स्नेहपूर्ण व दिल में उतरने वाली दृष्टि, जनता के साथ सच्चाई और सादगी वे तत्व थे जो इमाम ख़ुमैनी के भाषणों को प्रभावी बनाते थे।

इमाम ख़ुमैनी के दृष्टिकोण व क्रियाकलाप उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का पता देते हैं कि एक ओर अत्याचारियों व साम्राज्यवादियों के सामने वीरता व दृढ़ता थी तो दूसरी ओर पीड़ित राष्ट्रों के प्रति वे सहानुभूति रखते थे। वह एक जागरुक धर्मगुरु, दक्ष दार्शनिक, ईश्वर की प्राप्ति में खोए हुए आत्मज्ञानी थे जिन्होंने ईरान की महाक्रान्ति का बहुत ही अच्छे ढंग से नेतृत्व किया। ऐसी क्रान्ति जिसके अच्छे प्रभाव अभी भी विश्व पर पड़ रहे हैं।

 

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उथल-पुथल भरे वर्तमान काल में इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी को एक विशेष स्थान प्राप्त है। वे ऐसे दूरदर्शी और होशियार राजनेता तथा अद्वितीय परिज्ञानी या तत्वदर्शी थे जिन्होंने नैतिक शास्त्र, परिज्ञान, दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, राजनीति यहां तक कि साहित्य के क्षेत्रों में बहुत ही समृद्ध पुस्तकें लिखीं। इमाम ख़ुमैनी ने ४० वर्ष की आयु तक अत्याचार के विरुद्ध अपनी गतिविधियों के अतिरिक्त नैतिकशास्त्र तथा परिज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। इमाम ख़ुमैनी ने “शर्हे दुआए सहर” और “मिस्बाहुल हिदाया” नामक पुस्तकों में, परिज्ञान को बहुत ही सूक्ष्म आयमों से प्रस्तुत किया है। यह पुस्तकें, युवाकाल में ही स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी के परिज्ञान की क्षमता और योग्यता को प्रदर्शित करती हैं। उन्होंने धर्मशास्त्र तथा इस्लामी नियमों के बारे में ४० वर्ष की आयु के पश्चात पुस्तकें लिखना आरंभ कीं। कुल मिलाकर स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी को बहुत ही जागरूक धर्मगुरू और कुशल एवं दूरदर्शी राजनेता कहा जा सकता है। इसका कारण यह है कि वे एकांतवास में रहने वाले कोई साधक मात्र नहीं थे बल्कि वे एक दूरदर्शी मार्गदर्शक थे जिन्होंने अंधकार के काल में मार्गदर्शन की मशाल अपने हाथों में ली, शाह की तानशाही शाही व्यवस्था को धराशाई किया और ईरान में इस्लामी क्रांति को सफल बनाया। वर्तमान समय में इमाम ख़ुमैनी की राजनैतिक एवं धार्मिक क्रांति ने लोगों के सामने चमकते हुए आध्यात्मिक क्षितिज खोल दिये हैं।

अन्तर्ज्ञान या परिज्ञान के क्षेत्र में इमाम ख़ुमैनी की प्रथम रचना का नाम “शरहे दुआए सहर” है। इसे उन्होंने २७ की आयु में संकलित किया था। रमज़ान के महीने में भोर समय पढ़ी जाने वाली दुआ, “दुआए सहर” की महानता एवं उसके महत्व के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के बहुत से वक्तव्य पाए जाते हैं। यह दुआ पैग़म्बरे इस्लाम के एक पौत्र इमाम मुहम्मद बाक़र की यादगार है। इमाम मुहम्मद बाक़र अलैहिस्सलाम, रमज़ान के महीने में भोर समय इस दुआ को पढ़ा करते थे। इमाम ख़ुमैनी “दुआए सहर” को संकलित करने और उसकी व्याख्या का उद्देश्य बयान करते हुए कहते हैं कि ईश्वरीय दासों पर ईश्वर की अनुकंपाओं और विभूतियों में से एक, महान अनुकंपा, वे दुआए हैं जो ईश्वर के सदाचारी बंदों की ओर से हमतक पहुंची हैं। यह “वहि” अर्थात ईश्वरीय संदेश के ख़जानों में से है। यह एसी दुआ हैं जो सृष्टिकर्ता तथा उनके दासों के बीच आध्यात्मिक संपर्क स्थापित करती हैं। इन्हीं में से एक की मैं अपनी क्षमता के अनुसार कुछ आयामों से व्याख्या करना चाहता हूं।

दुआए सहर का महत्व इसलिए है कि इसमें केवल ईश्वर के नामों का बहुत ही रोचक एवं शिक्षाप्रद ढंग से वर्णन किया गया है। इस दुआ की व्याख्या में इमाम ख़ुमैनी ने अपने अन्तर्ज्ञान संबन्धी क्षमताओं का खुलकर प्रदर्शन किया है। इस दुआ की व्याख्या में इमाम ख़ुमैनी ने ईश्वर के हर नाम के अर्थ और उसके महत्व पर प्रकाश डाला है। दुआए सहर की व्याख्या के दूसरे भाग में इसी प्रकार वे ईश्वर के मार्ग पर चलने वालों से चाहते हैं कि ईश्वर के नामों की संख्या और उनमे से प्रत्येक के अर्थ के अनुरूप उस ओर विशेष ढंग से ध्यान दे तथा दूसरी ओर ईश्वर के सभी नामों को एक अस्तित्व में, जो वास्तव में ईश्वर ही है उसका साक्षात करे। यह पुस्तक अरबी भाषा में लिखी गई है। यह पुस्तक उन लोगों के लिए अधिक लाभदायक है जो परिज्ञान या अन्तर्ज्ञान से भलिभांति अवगत हैं।

परिज्ञान या रहस्यवाद के बारे में इमाम ख़ुमैनी की एक अन्य पुस्तक का नाम “मिस्बाहुल हिदाया” है। परिज्ञान की दृष्टि से, परिपूर्ण व्यक्ति के बारे में अबतक बहुत सी पुस्तकें लिखी गई हैं विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम तथा दूसरों पर उनके अधिकारों के बारे में किंतु मुसलमान विद्वानों का मानना है कि इस बात को पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इन पुस्तकों में से कोई भी पुस्तक परिपूर्ण व्यक्ति के बारे में उस विस्तार से नहीं बता सकी है जिस हिसाब से इमाम ख़ुमैनी ने अपनी पुस्तक में व्याख्या की है। “मिस्बाहुल हिदाया” नामक पुस्तक में इमाम ख़ुमैनी ने जटिल, उच्च और महत्वपूर्ण विषयों को परिज्ञान के साथ इस प्रकार मिश्रित किया है कि वे आयतों तथा पैग़म्बरे इस्लाम एवं उनके परिजनों के पवित्र कथनों और दार्शनिक तर्कों के साथ पूर्ण रूप से समन्वित हैं। इस पुस्तक को इमाम ख़ुमैनी ने २९ वर्ष की आयु में सन १९३१ में लिखा था। इस्लामी विद्वानों के अनुसार इमाम ख़ुमैनी के भीतर पाए जाने वाले आध्यात्मक, और उनकी मानवीय विशेषताओं को इस पुस्तक में स्पष्ट ढंग देखा जा सकता है। हालांकि यह पुस्तक उनकी आरंभिक रचनाओं में से है किंतु परिज्ञान तथा व्यापकता की दृष्टि से यह इतनी परिपूर्ण है कि बहुत से अवसरों पर स्वयं इमाम ख़ुमैनी तथा अनय महान परिज्ञानियों ने इससे लाभ उठाने की अनुशंसा की है। इस पुस्तक की सूचि में दर्ज विषय या शीर्षक, इमाम ख़ुमैनी के फ़लस्फ़ए इशराक़ की ओर झुकाव और सोहरवर्दी तथा मीर दामाद जैसे महान दर्शनशास्त्रियों से उनके प्रभावित होने को दर्शाते हैं।

वर्ष १९३९ में इमाम ख़ुमैनी ने एक अन्य पुस्तक लिखी जिसका नाम था “असरारे नमाज़”। इस पुस्तक में नमाज़ के नियमों, उसके रहस्यों और सूरए हम्द की बड़े ही रोचक ढंग से व्याख्या की गई है। सूरए हम्द की व्याख्या में इमाम ख़ुमैनी ने सुरए फ़ातेहा के अति सूक्ष्म एवं परिज्ञान से संबन्धित बिंदुओं की ओर संकेत किया है। पवित्र क़ुरआन की विभिन्न व्याख्याओं में व्याकरण, आयतों के उतरने का विवरण, आयतों से तातपर्य तथा नैतिकशास्त्र, आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि आदि से बहस की गई है। वास्तव में पवित्र क़ुरआन की व्याख्या का अर्थ है आयतों के रहस्यो को स्पष्ट करना। पवित्र क़ुरआन का प्रत्येक व्याख्याकार अपनी समस्त क्षमताओं के आधार पर यह कार्य करने का प्रयास करता है और अपने ज्ञान के आधार पर ईश्वरीय पुस्तक से पर्दे को हटाने की कोशित करता है। क़ुरआन की व्याख्या के महत्व के बारे में इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि यह ईश्वरीय पुस्तक जो ईश्वर के कथनानुसार मार्गदर्शक और शिक्षा देने वाली पुस्तक है तथा मानवता का पथप्रदर्शन करने वाली है अतः व्याख्याकार को पवित्र क़ुरआन की हर आयत की व्याख्या बहुत ही ध्यानपूर्वक ढंग से करनी चाहिए।

इमाम खुमैनी, परिज्ञान की दृष्टि से पवित्र क़ुरआन की व्याख्या करने में रुचि रखते थे। इसका कारण यह है कि इस प्रकार की व्याख्या में आयतों के रहस्य और उसमें किये गए संकेतों को स्पष्ट किया जाता है और आयतों की निहित बातें स्पष्ट की जाती हैं। इमाम ख़ुमैनी का यह मानना था कि पवित्र क़ुरआन में अन्तर्ज्ञान से संबन्धित महत्वपूर्ण बिंदु पाए जाते हैं और आध्यात्म तथा अन्तर्ज्ञान के बारे में पवित्र क़ुरआन से अच्छी कोई भी पुस्तक हो ही नहीं सकती। धर्म की पहचान तथा पवित्र क़ुरआन की व्याख्या को समझने में अन्तर्ज्ञान की भूमिका को इमाम ख़ुमैनी बहुत महत्वपूर्ण मानते थे और कहते थे कि अन्तर्ज्ञान की दृष्टि से इस्लाम को उचित ढंग से समझा जा सकता है। सूरए फ़ातेहा की व्याख्या में इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि इस सूरे में समस्त ज्ञान मौजूद हैं किंतु विशेष बात यह है कि मनुष्य को समझदार होना चाहिए। उसको इस सूरे में चिंतन-मनन करना चाहिए। हालांकि हम इस योग्य नहीं हैं। हम कहते हैं कि “अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिलआलमी” अर्थात प्रशंसनीय है वह ईश्वर जिसके लिए सारी प्रशंसाए हैं। जबकि पवित्र क़ुरआन यह नहीं कह रहा है। वह यह कहता है कि प्रशंसा तो केवल ईश्वर के लिए ही है और वह उसीसे विशेष है। इस सूरे के बारे में वे कहते हैं कि सृष्टि में कोई एसा प्राणी नहीं है जो ईश्वर की प्रशंसा न करता हो किंतु हम लोग सृष्टि में की जाने वाली ईश्वर की प्रशंसा को समझते नहीं हैं।

सूरए फ़ातेहा की व्याख्या करते हुए इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि सिराते मुस्तक़ीम वह सीधा मार्ग है जिसका एक छोर इस ओर है और दूसरा द्वा ईश्वर है। वे कहते हैं कि नमाज़ पढ़ते समय आप जो यह कहते हैं कि हे ईश्वर मुझ को सीधे रास्ते का दिशा निर्देशन कर। उस मार्ग का जिसपर चलने वालों को तूने अपनी अनुकंपाओं का पात्र बनाया न उनके मार्ग पर जिनपर तूने अपना प्रकोप उतारा और न ही पथभ्रष्ट। यहां पर सीधे मार्ग से तात्पर्य, वहीं इस्लाम का मार्ग है जो मानवता का मार्ग है। यह परिपूर्णता का मार्ग है जो ईश्वर की ओर जाता है। तुम इसी सीधे मार्ग पर चलो जो मानवता का मार्ग है, न्याय का मार्ग है और वास्तविक इस्लामी मार्ग यही है। इस सीधे मार्ग पर यदि बिना भटके हुए तुम सीधे चलते रहे तो यह मार्ग सीधा ईश्वर से जा मिलता है।

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