डा. मासूमा आबाद ईरान की महिला इम्ब्रियॉलोजिस्ट हैं, जिन्हें ईरान-इराक़ युद्ध के दौरान बंदी बना लिया गया था। वह ईरानी महिलाओं के प्रतिरोध और दृढ़ता की प्रतीक हैं।
ऐसी महिलाएं जो ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद से आज तक विभिन्न भूमिकाएं अदा कर रही हैं। इस्लामी क्रांति के समर्थन में कई अवसरों पर महिलाओं का आगे आना, उदाहरणीय है।
मासूमा आबाद का जन्म सन् 1341 हिजरी शम्सी को आबादान में हुआ था। युद्ध के शुरुआती दिनों में, उन्होंने रेड क्रिसेंट के सदस्य और टाउन हाउस सिस्टम में गवर्नर के प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया। उन दिनों उनकी उम्र 20 साल भी नहीं थी, लेकिन आज 57 साल की होने के बावजूद भी वह अपने आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित हैं। उन्होंने ईरान यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ से मिडवाइफ़री में मास्टर डिग्री ली और लंदन से इम्ब्रियॉलोजी अर्थात भ्रूणविज्ञान में डॉक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त की। मासूमा आबाद को तेहरान के लोगों ने चौथे कार्यकाल के लिए नगर परिषद के सदस्य के रूप में चुना था।
इराक़ के बासी शासन द्वारा थोपे गए युद्ध के मोर्चे पर अपनी उपस्थिति के बारे में उनका कहना हैः पवित्र प्रतिरक्षा के दौरान, विशेषज्ञता या पेशा नहीं था, जिसकी वजह से लोग युद्ध के मोर्चे की ओर खिंचे चले जा रहे थे, बल्कि हर उम्र और वर्ग के लोग, इस्लामी क्रांति की मोहब्बत में और उसकी रक्षा के लिए मैदान में कूद रहे थे। आठ साल के युद्ध के दौरान नर्सिंग और सेवा करने वालों के सीनों में न जानें कितनी ऐसी कहानियां दफ़्न हैं, जिनका ख़ुद उन्होंने इस दौरान अनुभव किया है। यह पेशा सिर्फ़ एक काम नहीं है, बल्कि प्रेम, मोहब्बत, बलिदान और क़ुर्बानी का एक नमूना है, जो उन्हें मरीज़ की सेवा के लिए प्रेरित करता है। एक नर्स की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मरीज़ की देखभाल करना नहीं होती, बल्कि उसे मोहब्बत, बलिदान और क़ुर्बानी देनी होती है, जिसे मरीज़ हमेशा याद रखता है।
शुरूआत में ही एक दिन जब उन्हें कुछ लोगों के साथ यतीम बच्चों को शीराज़ ले जाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी, वहां से वापसी के दौरान माहशहर से आबादान के हाइवे पर उन्हें उनकी तीन महिला साथियों फ़ातिमा नाहीदी, शम्सी बहरामी और हलीमा आज़मूदे को इराक़ी सैनिकों ने बंदी बना लिया। 40 महीनों तक उन्हें इराक़ की जेलों में क़ैदी बनाकर रखा गया था। सन् 1362 हिजरी शम्सी में उन्हें आज़ाद कर दिया गया। उनका मानना है कि आत्मा को बंधक बनाने की शरीर को बंधक बनाने से तुलना नहीं की जा सकती। जो लोग दृढ़ता के साथ डटे रहे और उन्होंने अपनी मर्यादा और गौरव का मज़बूती से और पूरी दृढ़ता से सम्मान किया, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि असली बंदी वह लोग हैं जो अपनी आत्मा को छोटी क़ीमत में बेच देते हैं, ताकि महत्वहीन शरीर का पोषण कर सकें, हालांकि आत्मा के बिना इंसान तुच्छ और महत्वहीन है।
क़ैद के दिनों की उनके पास कई कड़वी और मीठी यादें हैं। उन्हें याद करते हुए वह कहती हैः जब इराक़ी सैनिकों ने हमें क़ैदी बना लिया, तो वायरलैस पर उन्होंने अपने कमांडरों को सूचना दी कि हमने ईरानी महिला जनरलों को पकड़ लिया है। सन् 1360 हिजरी शम्सी के वसंत का मौसम था। उन्होंने हमें तंग और अंधेरी कोठरियों में क़ैद करके रखा हुआ था, जहां हमें जीवन की बुनियादी ज़रूरतें और सुविधाएं भी प्राप्त नहीं थीं। हमारे दिन और रात इसी हालत में गुज़र रहे थे। हम दुआएं मांगने और नमाज़ पढ़ने में व्यस्त रहते थे और एक दूसरे से अपने जीवन की दास्तां बयान करते रहते थे। ख़ुद इराक़ी सैन्य अधिकारियों के मुताबिक़, हर छह महीने में एक बार हमें सूरज दिखाते थे। 15 से 20 मिनट के लिए हमें खुला आसमान नसीब होता था। क़ैद में हम अपने इस वक़्त को सबसे सुखद क्षणों और यादों के रूप में याद करते हैं। क्योंकि जब हमें वहां ले जाते थे तो रास्ते में शोर मचाकर और ऊंची आवाज़ में बातें करके हम अन्य ईरानी क़ैदियों का ध्यान इस बिंदू की ओर आकर्षित करना चाहते थे कि हम भी ईरानी महिलाओं की प्रतिनिधि के रूप में उनके साथ ही क़ैद का स्वाद चख रहे हैं और युद्ध के किसी भी मोर्चे पर हमने उन्हें अकेला नहीं छोड़ा है।
इस महिला इम्ब्रियॉलोजिस्ट को 1362 हिजरी शम्सी में उस वक़्त रिहा किया गया, जब उनके भाई की शहादत हो चुकी थी। वे आज़ाद होकर तेहरान पहुंची और कर्बला-5 अभियान में उन्होंने युद्ध में घायल होने वालों की सीमा-पार क्लीनिक की ज़िम्मेदारी संभाली। उनके पति पेट्रोलियम मंत्रालय में एक प्रशासनिक पद पर कार्यरत थे। सन् 1376 हिजरी शम्सी में वह प्रशासनिक मिशन पर अपने पति के साथ ब्रिटेन गयीं। मासूमा आबाद ने ब्रिटेन में अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों के साथ ही भ्रूणविज्ञान में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। उसके बाद ईरान वापस लौटकर उन्होंने प्रजनन स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपना अध्ययन जारी रखा और विश्वविद्यालय में पढ़ाना भी शुरू कर दिया।
ईरान में महिलाओं के योगदान के बारे में मासूमा आबाद कहती हैः इस्लामी विचारधारा में महिलाएं कभी भी आम लोगों और सामाजिक कार्यों से अलग-थलग नहीं रही हैं। इस्लामी व्यवस्था के अनुसार, समाज के विकास की ज़िम्मेदारी, पुरुषों के साथ ही महिलाओं के कांधों पर भी है। इस विचारधारा से उत्पन्न सबसे महत्वपूर्ण परिणामों में से एक आज के समाज की महिलाओं और लड़कियों की पहचान और उनमें आत्मविश्वास की भावना का पुनरुद्धार है, जिसका फल हम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देख रहे हैं।
उनका कहना हैः मेरा मानना है कि परिवार एक ऐसी इकाई, जहां से व्यक्तिगत और बाद में सामाजिक विकास की शुरूआत होती है और इस प्रक्रिया में परिवार की धुरी के रूप में महिला की भूमिका ध्यान योग्य है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि महिलाएं परिवार में अपनी प्रभावशाली भूमिका अदा करने के दौरान अपनी अन्य सामाजिक भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों को भुला बैठें। बल्कि, इन दोनों भूमिकाओं के बीच एक समान व कलात्मक संतुलन बनाने और सटीक परिणाम तक पहुंचने की हर बुद्धिमान महिला से अपेक्षा की जा सकती है।
उनकी एक किताब का नाम हैः मैं ज़िंदा हूं। पाठकों के बीच यह किताब इतनी लोकप्रिय हुई कि थोड़े ही समय में इसका तीसरा एडिशन मार्केट में आ गया। इस किताब ने पवित्र प्रतिरक्षा का तेरहवां पुरस्कार भी अपने नाम किया। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई ने इस किताब को पढ़ने के बाद कहा थाः इस किताब को मैंने दुख और गर्व दो भावनाओं के साथ पढ़ा और कभी कभी आंसू भी बहाए। मैंने इसे पढ़ते वक़्त धैर्य, निर्णय, पवित्रता, सुन्दरता, दुखों और ख़ुशी को शब्दों में ढालने की कला की दिल से तारीफ़ की।
किताब के एक भाग में लिखा हैः सलमान ने मेरी ओर देखा और कहाः वादा करो कि कभी कभी कुछ लिखकर हमें अपने स्वास्थ्य के बारे में सूचित करोगी। मैंने दुख के साथ कहाः लिखना, इस मारा मारी में मैं कैसे वादा कर सकती हूं। नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती। मैं काग़ज़ और क़लम कहां से लाऊंगी। उन्होंने कहा कि क्यों तुम दो शब्द लिखने में इतनी आना-कानी कर रही हो। सिर्फ़ तुम्हें लिखना हैः मैं ज़िंदा हूं। क़ैद में दो साल बीतने के बाद, इराक़ी सैन्य अधिकारियों ने एक पर्ची हमें दी और कहा कि अब तुम अपने परिवार को पत्र लिख सकती हो, लेकिन इसमें सिर्फ़ दो शब्द लिखने की इजाज़त है। मैंने भी अपना वादा पूरा किया और सिर्फ़ इतना लिखाः मैं ज़िदा हूं, अल-रशीद अस्पताल-बग़दाद।