बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

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क़ुरआने मजीद और औरतें

इस्लाम में औरतों के मौज़ू पर ग़ौर करने से पहले इस नुक्ता को पेशे नज़र रखना

ज़रूरी है कि इस्लाम ने इन अफ़कार का मुज़ाहिरा उस वक़्त किया है जब बाप अपनी बेटी को ज़िन्दा दफ़्न कर देता था। और उस जल्लादीयत को अपने लिये बाईसे इज़्ज़त व शराफ़त तसव्वुर करता था। औरत दुनिया के हर समाज में इन्तेहाई बेक़ीमत मख़लूक़ थी। औलाद माँ को बाप के तरके में हासिल किया करती थी। लोग निहायत आज़ादी से औरत का लेन देन किया करते थे।और उसकी राय की कोई क़ीमत नही थी। हद यह है कि यूनान के फ़लासिफ़ा इस नुक्ता पर बहस कर रहे थे कि उसे इंसानों की एक क़िस्म क़रार दिया जाये या यह एक ऐसी इंसान नुमा मख़लूक़ है जिसे इस शक्ल व सूरत में इंसान के उन्स व उल्फ़त के लिये पैदा किया गया है ताकि उससे हर क़िस्म का इस्तेफ़ादा कर सके वर्ना उसका इंसानीयत से कोई लअल्लुक़ नही है।

दौरे हाज़िर में आज़ादी ए निसवाँ और तसावी ए हुक़ुक़ का नारा लगाने वाले और इस्लाम पर तरह तरह के इल्ज़ामात आएद करने वाले इस हक़ीक़त को फ़ूल जाते हैं कि औरतों के बारे में इल तरह की बाईज़्ज़त फ़िक्र और उसके सिलसिले में हुक़ुक़ का तसव्वुर भी इस्लाम का दिया हुआ है वर्ना उसने ज़िल्लत की इन्तेहाई गहराई से निकाल कर ईज़्ज़त के औज पर न पहुचा दिया होता तो आज भी कोई उसको बारे में इस अंदाज़ से सोचने वाला न होता। यहूदीयत और ईसाईयत तो इस्लाम इस्लाम से पहले भी थी, फ़लासिफ़ा व मुफ़क्केरीन तो इस्लामी क़वानीन के आने से पहले भी इन मौज़ूआत पर बहस किया करते थे। उन्हे उस वक़्त इस आज़ादी का ख़्याल क्यों नही आया। और उन्होने उस दौर में मसावी ए हुक़ुक़ का नारा क्यों नही लगाया। यह आज औरत का अज़मत का ख़्याल कहाँ से आ गया। और उसकी हमदर्दी का इस क़दर जज़्बा कहाँ से पैदा हो गया?

दर हक़ीक़त यह इस्लाम के बारे में अहसान फ़रामोशी के अलावा कुछ नही है कि जिसने तीर अंदाज़ी सिखाई उसी को निशाना बना दिया, और जिसने आज़ादी और हुक़ुक़ का नारा दिया उसी पर इल्ज़ाम आएद कर दिये। बात सिर्फ़ यह है जब दुनिया को आज़ादी का ख़्याल पैदा हुआ तो उसने यह ग़ौर करना शुरु किया कि आज़ादी का यह मफ़हूफ़ तो हमारे देरीना मक़ासिद के ख़िलाफ़ है। आज़ादी का यह तसव्वुर तो इस बात की दावत देता है कि हर मसले में उसकी मर्ज़ी का ख़्याल रखा जाये और उस पर किसी तरह का दबाव न डाला जाये और उसके हुक़ुक़ का तक़ाज़ा यह है कि उसे मीरास में हिस्सा दिया जाये। उसे जागीरदारी और सरमायादारी का शरीक तसव्वुर किया जाये। और यह हमारे तमाम रकीक, ज़लील और फ़रसूदा मक़ासिद के मनाफ़ी है। लिहाज़ा उन्होने इसी आज़ादी और हक़ के लफ़्ज़ को बाक़ी रखते हुए मतलब बरारी की नई राह निकाली और यह ऐलान करना शुरू कर दिया कि औरत की आज़ादी का मतलब यह है कि वह जिसके साथ चाहे चली जाये, और उसके मसावी ए हुक़ुक़ का मचलब यह है कि वह जितने अफ़राद से चाहे राब्ता रखे। इससे ज़्यादा दौरे हाज़िर के मर्दों को औरतों से कोई दिलचस्पी नही है। यह औरत को कुर्सी ए एक़्तेदार पर बैठाते हैं तो उसका कोई न कोई मक़सद होता है। और उसके बरसरे इक़्तेदार लाने में किसी न किसी साहिबे क़ुव्वत व जज़्बात का हाथ होता है, और यही वजह है कि वह क़ौमों की सरबराह होने के बाद भी किसी न किसी सरबराह का हाँ में हाँ मिलाती रहती हैं। और अंदर से किसी न किसी अहसासे कमतरी में मुब्तला रहती है। इस्लाम उसे साहिबे ऐख़्तियार देखना चाहता है लेकिन मगर मर्दो को आल ए कार बन कर नही। वह उसे हक़ ऐख़्तियार व इन्तेख़ाब देना चाहता है लेकिन अपनी शख़्सियत, हैसियत, ईज़्ज़त और करामत का ख़ात्मा करने के बाद नही। उसकी निगाह में इस तरह का ऐख़्तियार मर्दों को हासिल नही है तो औरतों को कहाँ से हासिल हो जायेगा जबकि उसकी ईस्मत व ईफ़्फ़त की क़दर व क़ीमत मर्द से ज़्यादा है, और उसकी इफ़्फ़त जाने के बाद दोबारा वापस नही आती है जबकि मर्द के साथ ऐसी कोई परेशानी नही है।

इस्लाम मर्दों से भी मुतालेबा करता है कि जिन्सी तसकीन के लिये क़ानून का दामन न छोड़ें और कोई क़दम ऐसा न उठायें जो उनकी ईज़्ज़त व शराफ़त के ख़िलाफ़ हो। चुनान्चे उन तमाम औरतों की निशानदही कर दी गयी जिनसे जिन्सी रिश्ता हराम है। उन तमाम हालात की निशानदही कर दी गयी जिनमें जिन्सी तअल्लुक़ात का जवाज़ नही है। उन तमाम सूरतों की तरफ़ इशारा कर दिया गया जिनसे साबेक़ा रिश्ता मजरूह हो जाता है। और उन तमाम तअल्लुक़ात को भी वाज़ेह कर दिया जिनके बाद फिर दूसरा जिन्सी तअल्लुक़ मुमकिन नही रह जाता है। ऐसे मुकम्मल और मुरत्तब निज़ामे ज़िन्दगी के बारे में यह सोचना कि उसने एक तरफ़ा फ़ैसला किया है। और औरतों के हक़ में नाइंसाफ़ी से काम लिया है ख़ुद उसके हक़ में नाइंसाफ़ी बल्कि अहसान फ़रामोशी है। वर्ना इससे पहले इसी के साबिक़ा क़वानीन के अलावा कोई इस सिन्फ़ का पुरसाने हाल नही था। और दुनिया की हर क़ौम में उसे निशाना ए ज़ुल्म व सितम बना लिया गया था।

इस मुख़्तसर तम्हीद के बाद इस्लाम के चंद इम्तेयाज़ी नुकात की तरफ़ इशारा किया जा रहा है जहाँ उसने औरत की मुकम्मल शख़्सियत का तआरूफ़ कराया जा रहा है। और उसे उसका वाक़यी मक़ाम दिलवाया है।

औरत की हैसियत:

وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُم مِّنْ أَنفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِّتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُم مَّوَدَّةً وَرَحْمَةً إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ (22).(सूरह रूम आयत 21)

“उसकी निशानीयों में से एक यह है कि उसने तुम्हारा जोड़ा तुम्ही में से पैदा किया है ताकि तुम्हे उससे सुकुने ज़िन्दगी हासिल हो और फिर तुम्हारे दरमियान मुहब्बत व रहमत का जज़्बा भी क़रार दे रहा है”।

आयते करीमा की तरफ़ दो बातों का तरफ़ इशारा किया जा रहा है:

1- औरत आलमे इँसानीयत ही का एक हिस्सा है। और उसे मर्द का जोड़ा बनाया गया है। उसकी हैसियत मर्द से कमतर नही है।

2- औरत का मक़सद वुजुदे मर्द की ख़िदमत नही है, मर्द का सुकूने ज़िन्दगी है। और मर्द व औरत के दरमियान तरफ़ैनी मुहब्बत और रहमत ज़रूरी है। यह एक तरफ़ा मामला नही है।

“وَإِنْ عَزَمُواْ الطَّلاَقَ فَإِنَّ اللّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ (228)..”(सूरह बक़रा आयत 228)

“औरतों के लिये वैसे ही हुक़क़ है जैसे उनके ज़िम्मे फ़राएज़ है। और मर्दों को उनके ऊपर एक दर्जा और हासिल है।”

यह दर्जा हाकिमीयते मुतलक़ा का नही है बल्कि ज़िम्मेदारी का है कि मर्दों की साख़्त में यह सलाहीयत रखी गयी है कि वह औरतों की ज़िम्मेदारी संभाल सकें। और इसी बेना पर उन्हे नान व नफ़क़ा और इख़राजात का ज़िम्मेदार बनाया गया है।

“رَبَّنَا وَآتِنَا مَا وَعَدتَّنَا عَلَى رُسُلِكَ وَلاَ تُخْزِنَا يَوْمَ الْقِيَامَةِ إِنَّكَ لاَ تُخْلِفُ الْمِيعَادَ (195).”(सूरह आले ईमरान आयत 195)

“तो अल्लाह ने उनकी दुआ को क़बूल कर लिया कि हम किसी अमल करने वाले के अमल को ज़ाया नही करते चाहे वह मर्द हो या औरत, तुम में से बअज़ बअज़ से है।”

यहाँ पर दोनों के अमल को बराबर की हैसियत दी गयी है। और एक को दूसरे से क़रार दिया गया है।

“.إِن تَجْتَنِبُواْ كَبَآئِرَ مَا تُنْهَوْنَ عَنْهُ نُكَفِّرْ عَنكُمْ سَيِّئَاتِكُمْ وَنُدْخِلْكُم مُّدْخَلاً كَرِيمًا (32)सूरह निसा आयत 32)

“और देखो जो ख़ुदा ने बअज़ को बअज़ से ज़्यादा दिया है। उसकी तमन्ना न करो। मर्दों के लिये उसमें से हिस्सा है जो उन्होने हासिल किया है, और औरतों के लिये उसमें से हिस्सा है जो उन्होने हासिल कर लिया है।”

यहाँ भी दोनों को एक तरह की हैसियत दी गयी है। और हर एक को दूसरे की फ़ज़ीलत पर नज़र लगाने से रोक दिया गया है।

“.لاَّ تَجْعَل مَعَ اللّهِ إِلَهًا آخَرَ فَتَقْعُدَ مَذْمُومًا مَّخْذُولاً (23).”(सूरह ईसरा आयत 23)

“और यह कहो कि परवरदिगार उन दोनों(वालेदैन) पर उसी तरह रहमत नाज़िल फ़रमा जिस तरह उन्होने मुझे पाला है।”

इस आयते करीमा में माँ और बाप को बराबर की हैसियत दी गयी है। और दोनों के साथ अहसान भी लाज़िम क़रार दिया गया है। और दोनों के हक़ में दुआए रहमत की भी ताकीद की गयी है।

“وَلَيْسَتِ التَّوْبَةُ لِلَّذِينَ يَعْمَلُونَ السَّيِّئَاتِ حَتَّى إِذَا حَضَرَ أَحَدَهُمُ الْمَوْتُ قَالَ إِنِّي تُبْتُ الآنَ وَلاَ الَّذِينَ يَمُوتُونَ وَهُمْ كُفَّارٌ أُوْلَـئِكَ أَعْتَدْنَا لَهُمْ عَذَابًا أَلِيمًا (19).”(निसा 19)

“ईमान वालो, तुम्हारे लिये जाएज़ नही है कि औरतों के ज़बरदस्ती वारिस बन जाओ और न यह हक़ है कि उन्हे अक़्द करने से रोक दो कि इस तरह जो तुम ने उनको रोक दिया है। उसका एक हिस्सा तुम ख़ुद ले लो जब तक वह खुल्लम खुल्ला बदकारी न करें , और उनके साथ मुनासिब बर्ताव करों कि अगर उन्हे नापसंद भी करते हो तो शायद तुम किसी चीज़ को नापसंद भी करो और ख़ुदा उसके अंदर ख़ैरे कसीर क़रार दे दे।”

“فَإِن طَلَّقَهَا فَلاَ تَحِلُّ لَهُ مِن بَعْدُ حَتَّىَ تَنكِحَ زَوْجًا غَيْرَهُ فَإِن طَلَّقَهَا فَلاَ جُنَاحَ عَلَيْهِمَا أَن يَتَرَاجَعَا إِنظَنَّا أَن يُقِيمَا حُدُودَ اللّهِ وَتِلْكَ حُدُودُ اللّهِ يُبَيِّنُهَا لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ (231).”(बक़रा 231)

“और जब औरतों को तलाक़ दो और उनकी मुद्दते इद्दा क़रीब आ जाये तो चाहो तो उन्हे नेकी के साथ रोक लो बर्ना नेकी के साथ आज़ाद कर दो, और ख़बरदार नुक़सान पहुचाने की ग़रज़ से मत रोकना कि इस तरह ज़ुल्म करोगे, और जो ऐसा करेगा वह अपने ही नफ़्स का ज़ालिम होगा।”

मज़कूरा दोनो आयात में मुकम्मल आज़ादी का ऐलान कर दिया गया है। जहाँ आज़ादी का मक़सद शरफ़ और शराफ़त का तहफ़्फ़ुज़ है। और जान व माल दोनों के ऐतबार से साहिबे इख़्तेयार होना है, और फिर यह भी वाज़ेह कर दिया गया है कि उन पर ज़ुल्म दर हक़ीक़त उन पर ज़ुल्म नही है बल्कि अपने ही नफ़्स पर ज़ुल्म है कि उनके लिये फ़क़त दुनिया ख़राब होती है। और इंसान उससे अपनी आक़ेबत ख़राब कर लेता है। जो ख़राबीये दुनिया से कहीं ज़्यादा बदतर बर्बादी है।

“وَلِكُلٍّ جَعَلْنَا مَوَالِيَ مِمَّا تَرَكَ الْوَالِدَانِ وَالأَقْرَبُونَ وَالَّذِينَ عَقَدَتْ أَيْمَانُكُمْ فَآتُوهُمْ نَصِيبَهُمْ إِنَّ اللّهَ كَانَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدًا.”(निसा 34)

“मर्द औरतों के निगराँ हैं उन ख़ुसुसियात की बेना पर जो ख़ुदा ने बअज़ को बअज़ के मुक़ाबले में अता की हैं। और इसलिये कि उन्होने अपने अमवाल को ख़र्च किया है।”

आयते करीमा से बिल्कुल साफ़ वाज़ेह हो जाता है कि इस्लाम का मक़सद मर्द को हाकिमे मुतलक़ बना देना नही है। और औरत से उसकी आज़ादी ए हयात को सल्ब कर लेना नही है। बल्कि उसने मर्द को बअज़ ख़ुसुसियात की बेना पर घर का निगराँ और ज़िम्मेदार बना दिया है। और उसे औरत की जान, माल और आबरू का मुहाफ़िज़ क़रार दे दिया है। उसके अलावा इस मुख़्तसर हाकेमीयत या ज़िम्मेदारी को भी मुफ़्त नही क़रार दिया है बल्कि उसके मुक़बले में उसे औरत के तमाम इख़राजात व मख़ारिज का ज़िम्मेदार बना दिया है। और खुली हुई बात है कि जब दफ़्तर का अफ़सर या कारखाने का मालिक सिर्फ़ तनख्वाह देने की बेना पर हाकिमीयत के बेशूमार इख़्तियारात हासिल कर लेता है। और उसे कोई आलमे इंसानीयत की तौहीन नही क़रार देता है। और दुनिया हर मुल्क इसी पाँलीसी पर अमल करता है तो मर्द ज़िन्दगी की तमाम ज़िम्मेदारीयाँ क़बूल करने के बाद अगर औरत पर यह पाबंदी आएद कर दे कि उसकी इजाज़त के बग़ैर घर से बाहर न जाए। और उसके लिये ऐसे वसाएले सुकून फ़राहम कर दे कि उसे भी बाहर न जाना पड़े । और दूसरे की तरफ़ हवस आमेज़ निगाह से न देखना पड़े तो कौन सी हैरत अंगेज़ बात है। यह तो एक तरह का बिलकुल साफ़ और सादा मामला है जो इज़्देवाज की शक्ल में मन्ज़रे आम पर आता है कि मर्द का कमाया हुआ माल औरत का हो जाता है और औरत की ज़िन्दगी का सरमाया मर्द का हो जाता है। मर्द औरत के ज़रूरीयात को पूरा करने के लिये घंटों मेहनत करता है। और बाहर से सरमाया फ़राहम करता है और औरत मर्द की तसकीन के लिये कोई ज़हमत नही करती है बल्कि उसका सरमाया ए हयात उसके वुजूद के साथ है। इंसाफ़ किया जाये कि इस क़दर फ़ितरी सरमाये से इस क़दर मेहनती सरमाये का तबादला क्या औरत के हक़ में ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी कहा जा सकता है। जब कि मर्द की तसकीन में भी औरत बराबर की हिस्से दार होती है। और यह जज़्बा एक तरफ़ा नही होता है। और औरत के माल सर्फ़ करने में मर्द को कोई हिस्सा नही मिलता है। मर्द पर ज़िम्मेदारी उसके मर्दाना ख़ुसुसियात और उसकी फ़ितरी सलाहीयत की बेना पर ऱखी गयी है वर्ना यह तबादला मर्दों के हक़ में ज़ुल्म हो जाता और उन्हे शिकायत होती कि औरत ने हमें क्या सुकून दिया है। और उसके मुक़बले में हम पर ज़िम्मेदारीयों का किस क़दर बोझ लाद दिया गया है। यह ख़ुद इस बात की वाज़ेह दलील है कि यह जिन्स और माल का सौदा नही है। बल्कि सलाहीयतों की बुनियाद पर तक़सीमे कार है। औरत जिस क़दर ख़िदमत मर्द के हक़ में कर सकती है. उसका ज़िम्मेदार औरत को बना दिया गया है। और मर्द जिस क़दर ख़िदमत औरत की कर सकता है। उसका उसे ज़िम्मेदार बना दिया गया है। और यह कोई हाकिमीयत या जल्लादीयत नही है कि इस्लाम पर नाइंसाफ़ी का इल्ज़ाम लगा दिया जाये। और उसे हुक़ुक़े निसवाँ का ज़ाया करने वाला क़रार दे दिया जाये।

यह ज़रूर है कि आलमे इस्लाम में ऐसे मर्द बहरहाल पाये जाते हैं जो मिज़ाज़ी तौर पर ज़ालिम, बेरहम और जल्लाद हैं। और उन्हे जल्लादी के लिये कोई मौक़ा नही मिलता है तो उसकी तसकीन का सामान घर के अंदर फ़राहम करते हैं। और अपने ज़ुल्म का निशाना औरत को बनाते हैं कि वह सिन्फ़े नाज़ुक होने की बेना पर मुक़ाबला करने के क़ाबिल नही है। और उस पर ज़ुल्म करने में उन ख़तरात का अँदेशा नही है जो किसी दूसरे मर्द पर ज़ुल्म करने में पैदा होते हैं। और उसके बाद अपने ज़ुल्म का जवाज़ क़ुरआने मजीद के इस ऐलान में तलाश करते हैं। और उनका ख़्याल यह है कि क़व्वामीयत, निगरानी और ज़िम्मेदारी नही है। बल्कि हाकेमीयत मुतलक़ा और जल्लादीयत है। हाँलाकि क़ुरआने मजीद ने साफ़ साफ़ दो वुजुहात की तरफ़ इशारा कर दिया है। एक मर्द की ज़ाती ख़ुसुसीयत और इम्तेयाज़ी कैफ़ीयत है, और एक उसकी तरफ़ से औरत के इख़राजात की ज़िम्मेदारी है। और खुली हुई बात है कि दोनों असबाब में न किसी तरह की हाकिमीयत पाया जाती है और न जल्लादीयत। बल्कि शायद बात इसके बरअक्स नज़र आये कि मर्द में फ़ितरी इम्तेयाज़ था तो उसे उस इम्तेयाज़ से फ़ायदा उठाने के बाद एक ज़िम्मेदारी का मर्कज़ बना दिया गया और इसी तरह उसने चार पैसे हासिल किये तो उन्हे तन्हा खाने के बजाए उसमें औरत का हिस्सा क़रार दे दिया है। और अब औरत वह मालेका है जो घर के अंदर चैन से बैठी रहे और मर्द वह ख़ादिमें क़ौम व मिल्लत है जो सुबह से शाम तक अहले ख़ाना के आज़ूक़े की तलाश में हैरान व सरगरदाँ रहे। यह दर हक़ीक़त औरत की निसवानीयत की क़ीमत है जिसके मुक़बले में किसी दौलत, शोहरत, मेहनत और हैसियत की कोई क़दर व क़ीमत नही है।

इज़्देवाजी ज़िन्दगी:

इंसानी ज़िन्दगी का अहम तरीन मोड़ वह होता है जब दो इंसान मुख़्तलिफ़ुस्सिन्फ़ होने के वाबजूद एक दूसरे की ज़िन्दगी में मुकम्मल तौर से दख़ील हो जाते हैं। और एक दूसरे की ज़िम्मेदारी और उसके जज़्बात का पुरे तौर पर लिहाज़ रखना पड़ता है। इख़्तेलाफ़े सिन्फ़ की बिना पर हालात और फ़ितरत के तक़ाज़े मुख़्तलिफ़ होते हैं। और घरानों के इख़्तेलाफ़ की बुनियाद पर तबायेअ और उनके तक़ाज़े जुदागाना होते हैं। लेकिन हर इंसान को दूसरे के जज़्बात के पेशे नज़र अपने जज़्बात और अहसासात की मुकम्मल क़ुरबानी देनी पड़ती है।

क़ुरआने मजीद ने इंसान को इतमीनान दिलाया है कि यह कोई ख़ारजी राबेता नही है। जिसकी वजह से उसे मसाएल और मुश्किलात का सामना करना पड़े बल्कि यह एक फ़ितरी मामला है जिसका इन्तेज़ाम ख़ालिक़े फ़ितरत फ़ितरत के अंदर वदीअत कर दिया है। और इंसान को उसकी तरफञ मुतवज्जह भी कर दिया है। चुनान्चे इरशाद होता है:

“وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُم مِّنْ أَنفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِّتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُم مَّوَدَّةً وَرَحْمَةً إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ”(रूम आयत22)

“अल्लाह की निशानीयों में से यह भी है कि उसने तुम्हारा जोड़ा तुम्ही में से पैदा किया है ताकि तुम्हे सुकुने ज़िन्दगी हासिल हो और फिर तुम्हारे दरमियान मुहब्बत व रहमत क़रार दी है। इसमें साहिबाने फ़िक्र के लिये बहुत सी निशानीयाँ पायी जाती है।”

बेशक इख़्तेलाफ़े सिन्फ़, इख़्तेलाफ़ तरबीयत, इख़्तेलाफ़े हालात के बाद मुहब्बत व रहमत का पैदा हो जाना एक अलामते क़ुदरत व रहमत परवरदिगार है। जिसके बेशूमार शोअबे हैं। और हर शोअबे में मुताअद्दिद निशानीयाँ पायी जाती हैं। आयते करीमा में यह भई वाज़ेह कर दिया गया है कि जोड़ा अल्लाह ने पैदा किया है। यानी यह मुकम्मल ख़ारजी मसला नही है बल्कि दाख़्ली तौर पर मर्द में औरत के लिये और हर औरत में मर्द के लिये सलाहीयत रख दी गयी है ताकि एक दूसरे को अपना जोड़ा समझ कर बर्दाश्त कर सके और उससे नफ़रत व बेज़ारी का शिकार न हो और उसके बाद रिश्ते के ज़ेरे असर मवद्दत और रहमत का क़ानून भी बना दिया ता कि फ़ितरी जज़्बात और तक़ाज़े पामाल ने होने पायें। यह क़ुदरत का हकीमान निज़ाम है। जिससे अलाहिदगी इंसान के लिये बेशूमार मुश्किलात पैदा कर सकती है। चाहे इंसान सीयासी ऐतबार से इस अलाहिदगी पर मजबूर हो या जज़्बाती ऐतबार से क़सदन मुख़ालेफ़त करे। अवलिया अल्लाह भी अपने इज़्देवादी रिश्तों से परेशान रहे हैं।तो इसका राज़ यही था कि उन पर सीयासी और तबलीग़ी ऐतबार से यह फ़र्ज़ था कि ऐसी ख़वातीन से अक़्द करें। और उन मुश्किलात का सामना करें ताकि दीने ख़ुदा फ़रोग़ हासिल कर सके। और कारे तबलीग़ अंजाम पा सकें। फ़ितरत अपने काम बहरहाल कर रही थी। यह और बात है कि वह शरअन ऐसे इज़्देवाज पर मजबूर और मामूर थे कि उनका एक मुस्तक़िल एक फ़र्ज़ होता है कि तबलीग़े दीन की राह में ज़हमतें बर्दाश्त करें कि यह रास्ता फूलों की सेज से नही गुज़रता है बल्कि पुर ख़ार वादीयों से होकर जाता है।

इसके बाद क़ुरआने हकीम ने इज़्देवाजी तअलुक़ात को मज़ीद उस्तुवार बनाने के लिये फ़रीक़ैन की नई ज़िम्मादारीयों का ऐलान किया और यह वाज़ेह कर दिया कि सिर्फञ मवद्दत व रहमत से बात तमाम नही हो जाती है बल्कि कुछ उसके ख़ारजी तक़ाज़े भी हैं जिन्हे पूरा करना ज़रूरी है वर्ना क़ल्बी मवद्दत व रहमत बेअसर होकर रह जायेगी। और उसका कोई नतीजा हासिल न होगा। इरशाद होता है:

“هُنَّ لِبَاسٌ لَّكُمْ وَأَنتُمْ لِبَاسٌ لَّهُنَّ.”(बक़र: 187)

“औरतें तुम्हारे लिये लिबास हैं और तुम उनके लिये लिबास हो।”

यानी तुम्हारा ख़ारजी और मुआशेरती फ़र्ज़ यह है कि उनके मुआमलात की पर्दापोशी करो। और उनके हालात को उसी तरह तश्त अज़ बाम न होने दो जिस तरह लिबास इंसान के ओयूब को वाज़ेह नही होने देता है। उसके अलावा तुम्हारा एक फ़र्ज़ यह भी है कि उन्हे सर्द व गर्मे ज़माना से बचाते रहो। और वह तुम्हे ज़माने की सर्द व गर्म हवाओं से महफ़ूज़ रखें कि यह मुख्तलिफ़ हवायें और फ़ज़ायें किसी भी इंसान की ज़िन्दगी को ख़तरा में डाल सकती हैं। और उसके जान व माल और आबरू को तबाह व बर्बाद कर सकती हैं।

दूसरी तरफ़ इरशाद होता है:

“نِسَآؤُكُمْ حَرْثٌ لَّكُمْ فَأْتُواْ حَرْثَكُمْ أَنَّىشِئْتُمْ”(बक़रा23)

“ तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतीयाँ हैं लिहाज़ा अपनी खेती में जब और जिस तरह चाहो आ सकते हो।”(शर्त यह है कि खेती बर्बाद न होने पाये।)

इस बलीग़ फ़िक़रे से मुख़्तलिफ़ मसाएल का हल तलाश किया गया है। अव्वलन बात को एकतरफ़ा रखा गया है और लिबास की तरह फ़रीक़ैन को ज़िम्मेदार नही बनाया गया है बल्कि मर्द को मुख़ातब किया गया है और औरत को उसकी खेती क़रार दिया है कि इस रुख़ से सारी ज़िम्मेदारी मर्द पर आएद होती है और ख़ेती की बक़ा का मुकम्मल इन्तेज़ाम काश्तकार के ज़िम्मे है, ज़राअत से उसका कोई तअल्लुक़ नही है जबकि पर्दापोशी और सर्द व गर्मे ज़माना से तहफ़्फ़ुज़ दोनों की ज़िम्मेदारीयों में शामिल था।

दूसरी तरफ़ इस नुक्ते की भी वज़ाहत कर दी गयी है कि औरत के राब्ते और तअल्लुक़ में उसकी इस हैसियत का लिहाज़ बहरहाल ज़रूरी है कि वह ज़राअत की हैसियत रखती है और ज़राअत के बारे में काश्तकार को यह इख़्तियार तो दिया जा सकता है कि फ़सल के तक़ाज़ों को देख कर खेत को उफ़तादह छोड़ दे और ज़राअत न करे लेकिन यह इख़्तियार नही दिया जा सकता है कि उसे तबाह व बर्बाद कर दे और क़ब्ल अज़ वक़्त या नावक़्त ज़राअत शुरु कर दे कि उसे ज़राअत नही कहते हैं बल्कि हलाकत कहते हैं और हलाकत किसी क़ीमत पर जाएज़ नही क़रार दी जा सकती है।

मुख़्तसर यह है कि इस्लाम ने रिश्ता ए इज़्देवाज़ को पहली मंज़िल पर फ़ितरत का तक़ाज़ा क़रार दिया। फिर दाख़िली तौर पर उसमें मुहब्बत और रहमत का इज़ाफ़ा किया गया और ज़ाहिरी तौर पर हिफ़ाज़त और पर्दापोशी को इसका शरई नतीजा क़रार दिया और आख़िर में इस्तेमाल के तमाम शराएत व क़वीनीन की तरफ़ इशारा कर दिया ताकि किसी की तरह की बदउनवानी, बेरब्ती और बेतकल्लुफ़ी न पैदा होने पाए और ज़िन्दगी ख़ुशगवार अंदाज़ से गुज़र जाये।

बदकारी

इज़्देवाजी रिश्ते के तहफ़्फ़ुज़ के लिये इस्लाम ने दो तरह के इन्तेज़ामात किये हैं: एक तरफ़ इस रिश्ते की ज़रूरत, अहमीयत और उसकी सानवी शक्ल की तरफ़ इशारा किया और दूसरी तरफ़ उन तमाम रास्तों पर पाबंदी आएद कर दी जिसकी बेना पर यह रिश्ता ग़ैर ज़रूरी या ग़ैर अहम हो जाता है और मर्द को औरत या औरत को मर्द की ज़रूरत नही रह जाती है। इरशाद होता है:

“وَلاَ تَقْرَبُواْ الزِّنَى إِنَّهُ كَانَ فَاحِشَةً وَسَاءَ سَبِيلاً” (सूरह इसरा 32)

“और ख़बरदार ज़िना के क़रीब भी मत जाना कि यह खुली हुई बेहयाई है और बदतरीन रास्ता है।”

इस इरशादे गिरामी में ज़िना के दोनों मफ़ासिद की वज़ाहत की गयी है कि इज़्देवाज़ के मुमकिन होते हुए और उसके क़ानून के रहते हुए ज़िना और बदकारी एक खुली हुई बेहयाई है कि यह तअल्लुक़ उन्ही औरतों से क़ाएम किया जाए जिनसे अक़्द हो सकता है तो भी क़ानून से इन्हेराफ़ और इफ़्फ़त से खेलना एक बेग़ैरती है और अगर उन औरतों से क़ाएम किया जाये जिनसे अक़्द मुमकिन नही है और उनका कोई मुक़द्दस रिश्ता पहले से मौजूद है तो यह मज़ीद बेहयाई है कि इस तरह उस रिश्ते की भी तौहीन होती है और उसका तक़द्दुस भी पामाल हो जाता है।

फिर मज़ीद वज़ाहत के लिये इरशाद होता है:

“إِنَّ الَّذِينَ يُحِبُّونَ أَن تَشِيعَ الْفَاحِشَةُ فِي الَّذِينَ آمَنُوا لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ”(सूरह नूर20)

“जो लोग इस अम्र को दोस्त रखते हैं कि साहिबाने ईमान के दरमीयान बदकारी और बेहयाई की एशाअत हो उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है”

जिसका मतलब यह है कि इस्लाम इस क़िस्म के जराइम की उमूमीयत और उनका इश्तेहार दोनों को नापसंद करता है कि इस तरह एक इंसान की ईज़्ज़त भी ख़तरे में पड़ जाती है और दूसरी तरफ़ ग़ैर मुतअल्लिक़ अफ़राद में ऐसे जज़्बात बेदार हो जाते हैं और उनमें जराइम को आज़माने और इनका तजरूबा करने का शौक़ पैदा होने लगता है। जिस का वाज़ेह नतीजा आज हर निगाह के सामने है कि जबसे फ़िल्मों और टी वी के इस्क्रीन के ज़रीये जिन्सी मसाइल की इशाअत शुरु हो गयी है हर क़ौंम में बेहयाई में इज़ाफ़ा हो गया है और हर तरफ़ उसका दौर दौरा हो गया है और हर शख़्स में उन तमाम हरकात का ज़ौक व शौक़ बेदार हो गया है जिनका मुज़ाहिरा सुबह व शामक़ौम के सामने किया जाता है और उसका बदतरीन नतीजा यह हुआ कि मग़रिबी मुआशरे में शाहराहे आम पर वह हरकतें ज़हूर पज़ीर हो रही हैं जिन्हे निस्फ़े शब के बाद फ़िल्मों में पेश किया जाता है और अपनी दानिस्त में अख़्लाक़ियात का मुकम्मल लिहाज़ रखा जाता है और हालात इस अम्र की निशानदही कर रहे है कि मुस्तक़बिल इससे ज़्यादा बदतरीन और भयानक हालात लेकर आ रहा है और इंसानीयत मज़ीद ज़िल्लत के किसी गड्डे में गिरने वाली है। क़ुरआने मजीद ने उन्ही ख़तरात के पेशे नज़र साहिबाने ईमान के दरमीयान इस तरह की इशाअत को ममनूअ और हराम क़रार दे दिया था कि एक दो अफ़राद का इन्हेराफ़ सारे समाज पर असर अंदाज़ न हो और मुआशरा तबाही व बर्बादी का शिकार न हो। रब्बे करीम हर साहिबे ईमान को इस बला से महफ़ूज़ रखे।

तअददुदे इज़्देवाज

दौरे हाज़िर का हस्सास तरीन मौज़ू तअददुदे इज़्देवाज का मौज़ू है जिसे बुनियाद बनाकर मद़रिबी दुनिया ने औरतों को इस्लाम के ख़िलाफ़ ख़ूब इस्तेमाल किया है और मसलमान औरत को भी यह बावर कराने की कोशिश की है कि तअददुदे इज़्देवाज का क़ानून औरतों के साथ नाइंसाफ़ी है और उनकी तहक़ीर व तौहीन का बेहतरीन ज़रीया है। गोया औरत अपने शौहर की मुकम्मल मुहब्बत की भी हक़दार नही हो सकती है और उसे शौहर की आमदनी की तरह उसकी मुहब्बत को भी मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बाटना पड़ेगा और आख़िर में जिस क़दर हिस्सा अपनी क़िस्मत में लिखा होगा उसी पर इक्तेफ़ा करना पड़ेगी।

औरत का मेज़ाज हस्सास होता है लिहाज़ा उस पर इस तरह की हर तक़रीर बाक़ाएदा तौर पर असर अंदाज़ हो सकती है। और यही वजह है कि मुसलमान मुफ़क्केरीन ने इस्लाम और मग़रिब को यकजा करने के लिये और अपने ज़अमे नाक़िस में इस्लाम को बदनाम करने से बचाने के लिये तरह तरह की तावीलें की हैं और नतीजे के तौर पर यह ज़ाहिर करना चाहा है कि इस्लाम ने यह क़ानून सिर्फ़ मर्दों की तसकीने क़ल्ब के लिये बना दिया है वर्ना इस पर अमल करना मुमकिन नही है और न इस्लाम यह चाहता है कि कोई मुसलमान इस क़ानून पर असल करे और इस तरह औरतों के जज़्बात को मजरूह बनाये। इन बेचारे मुफ़क्केरीन यह सोचने की भी ज़हमत गवारा नही की है कि इस तरह अलफ़ाज़े क़ुरआन की तो तावील की जा सकती है और क़ुरआन को तो मग़रिब नवाज़ क़ानून साबित किया जा सकता है। लेकिन इस्लाम के सरबराहों और बुजुर्गों की सीरत का क्या होगा जिन्होने अमली तौर पर इस क़ानून पर अमल किया है और एक वक़्त में मुतअददिद बीवीयाँ रखी हैं जबकि उनके ज़ाहिरी इक़तेसादी हालात भी ऐसे नही थे जैसे हालात आजकल के बेशूमार मुसलमानों को हासिल हैं। और उनके किरदार में किसी क़दर अदालत और इंसाफ़ क्यों न फ़र्ज़ कर लिया जाये औरत की फ़ितरत का तब्दील होना मुमकिन नही है और उसे यह एहसास बहरहाल रहेगा कि मेरे शौहर की तवज्जो या मुहब्बत मेरे अलावा किसी दूसरी ख़वातीन से भी मुतअल्लिक़ है।

मसले के तफ़सीलात में जाने के लिये बड़ा वक़्त दरकार है। इज्माली तौर पर सिर्फ़ कहा जा सकता है कि इस्लाम के ख़िलाफ़ यह महाज़ उन लोगों ने जिन्के यहाँ औरत से मुहब्बत का कोई शोअबा ही नही है औक उनके निज़ाम में शौहर या ज़ौजा की अपनाईय का कोई तसव्वुर ही नही है। यह और बात है कि उनकी शादी को लव मैरेज से ताबीर किया जाता है लेकिन यह अंदाज़े शादी ख़ुद इस बात की अलामत है कि इंसान ने अपनी मुहब्बत के मुख़्तलिफ़ मर्कज़ बनाये हैं। और आख़िर में क़ाफ़िला ए जिन्स को एक मर्कज़ पर ठहरा दिया है और यही हाल उस औरत का है जिसने इस अंदाज़ से अक़्द किया है। ज़ाहिर है कि ऐसे हालात में उस ख़ालिस मुहब्बत का कोई तसव्वुर ही नही हो सकता जिसका इस्लाम ले मुतालिबा किया जा रहा है।

इसके अलावा इस्लाम ने तो बीवी के अलावा किसी औरत से मुहब्बत को जाएज़ भी नही रखा है और बीवीयों की तादात भी महदूद रखी है और अक़्द के शराएत भी रख दिये हैं। मग़रिबी मुआशरे में आज भी यह क़ानून आम है कि हर मर्द की ज़ौजा सिर्फ़ एक ही होगी चाहे उसकी महबूबा किसी क़दर भी हों। सवाल यह पैदा होता है कि यह महबूबा मुहब्बत के अलावा किसी और रिश्ते से पैदा होती है? और अगर मुहब्बत ही से पैदा होती है तो यह मुहब्बत की तक़सीम के अलावा क्या कोई और शय है?हक़ीक़ते अम्र यह है कि इज़्देवाज की ज़िम्मेदीरीयों और घरेलू ज़िन्दगी के फ़राएज़ से फ़रार करने के लिये मग़रिब ने अय्याशी का नया रास्ता निकाला है और औरत को जिन्से सरे बाज़ार बना दिया है, और यह ग़रीब आज भी ख़ुश है कि मग़रिब ने हमें हर तरह का इख़्तियार दिया है और इस्लाम ने पाबंद बना दिया है।

यह सही है कि अगर किसी बच्चे को दरिया किनारे मौज़ों का तमाशा करते हुए छलाँग लगाने का इरादा करे और छोड़ दीजीए तो यक़ीनन ख़ुश होगा कि आपने उसकी ख़्वाहिश का ऐहतेराम किया है और उसके जज़्बात पर पाबंदी आएद नही की है चाहे उसके बाद डूब कर मर ही क्यों न जाये। लेकिन अगर उसे रोक दिया जायेगा तो वह यक़ीनन नाराज़ हो जायेगा चाहे उसमें ज़िन्दगी का राज़ ही मुज़मर क्यों न हो। मग़रिबी औरत की सूरते हाल इस मसले में बिल्कुल ऐसी ही है कि उसे आज़ादी की ख़्वाहिश है और वह हर तरह की आज़ादी को इस्तेमाल करना चाहती है और करती है। लेकिन जब मुख़्तलिफ़ अमराज़ में मुब्तला होकर दुनिया के लिये नाक़ाबिले तवज्जो हो जाती है और कोई इज़हारे मुहब्बत करने वाला नही मिलता है तो उसे अपनी आज़ादी के नुक़सानात का अंदाज़ा होता है। लेकिन उश वक़्त मौक़ा हाथ से निकल चुका होता है और इंसान के पास कफ़े अफ़सोस मलने के अलावा कोई चारा ए कार नही होता है।

मसला ए तअददुदे इज़्देवाज पर संजीदगी से ग़ौर किया जाये तो यह एक बुनियादी मसला है जो दुनिया के बेशूमार मसाइल का हल है और हैरत अंगेज़ बात यह है कि दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और ग़ज़ा की क़िल्लत को देखकर क़िल्लते औलाद और ज़ब्ते तौलीद का अहसास तो तमाम मुफ़क्केरीन के दिल में पैदा हुआ लेकिन औरतों की कसरत और मर्दों की क़िल्लत से पैदा होने वाले मुश्किलात को हल करने का ख़्याल किसी के ज़हन में नही आया।

दुनिया की आबादी के आदाद व शूमार के मुताबिक़ अगर यह बात सही है कि औरतों का आबादी मर्दों से ज़्यादा है तो एक बुनियादी सवाल यह पैदा होता है कि इस आबादी का अंजाम क्या होगा। उसके लिये एक रास्ता यह है कि उसे घुट घुट कर मरने दिया जाये और उसके जिन्सी जज़्बात का कोई इन्तेज़ाम न किया जाये यह काम जाबिराना सियासत तो कर सकती है लेकिन करीमाना शरीअत नही कर सकती है। और दूसरा रास्ता यह है कि उसे अय्याशीयों के लिये आज़ाद कर दिया जाये और किसी भी शक्ल में अपनी जिन्सी तसकीन का इख़्तेयार दे दिया जाये। यह बात सिर्फ़ क़ानून की हद तक तो तअददुदे इज़देवाद से मुख़्तलिफ़ है लेकिन अमली ऐतबार से तअद्दुदे इज़्देवाज ही की दूसरी शक्ल है कि हर शख़्स के पास एक औरत ज़ौजा के नाम से होगी और एक किसी और नाम से होगी, और दोनों में सुलूक, बर्ताव और मुहब्बत का फ़र्क़ रहेगा कि एक उसकी मुहब्बत का मर्कज़ बनेगी और एक उसकी ख़्वाहिश का। इंसाफ़ से ग़ौर किया जाये कि यह क्या दूसरी औरत की तौहीन नही है कि उसे निसवानी ऐतराम से महरूम करके सिर्फ़ जिन्सी तसकीन तक महदूद कर दिया जाये और उस सूरत में यह इमकान नही पाया जाता है और ऐसे तजरूबात सामने नही हैं कि इज़ाफ़ी औरत ही असली मर्कज़े मुहब्बत क़रार पाये और जिसे मर्कज़ बनाया था उसकी मर्कज़ीयत का ख़ात्मा हो जाये।

बाज़ लोगों ने इस मसले का यह हल निकालने की कोशिश की है कि औरतों की आबादी यक़ीनन ज़्यादा है लेकिन जो औरतें जो इक़्तेसादी तौर पर मुतमईन होती हैं उन्हे शादी की ज़रूरत नही होती है और इस तरह दोनों का औसत बराबर हो जाता है और तअद्दुद की कोई ज़रूरत नही रह जाती है। लेकिन यह तसव्वुर इन्तेहाई जाहिलाना और अहमक़ाना है और यह दीदा व दानिस्ता चश्मपोशी के मुरादिफ़ है कि शौहर की ज़रूरत सिर्फ़ सिर्फ़ मुआशी बुनियादों पर होती है और जब मुआशी हालात साज़गार होते हैं तो शौहर की ज़रूरत नही रह जाती है हालाँकि इसके बिलकुल बर अक्स है। परेशानहाल औरत तो किसी वक़्त हालात में मुब्तला होकर शौहर की ज़रूरत के अहसास से ग़ाफ़िल हो सकती है। लेकिन मुतमईन औरत के पास तो इसके अलावा कोई मसला ही नही है, वह इस बुनियादी मसले से किस तरह ग़ाफ़िल हो सकती है।

इस मसले का दूसरा रूख़ यह भी है कि मर्दों और औरतों की आबादी के तनासुब से इंकार कर दिया जाये और दोनों को बराबर तसलीम कर लिया जाये लेकिन एक मुश्किल बहरहाल पैदा होगी कि फ़सादात और आफ़ात में आम तौर पर मर्दों ही की आबादी में कमी पैदा होती है और इस तरह यह तनासुब हर वक़्त ख़तरे में रहता है और फिर बाज़ मर्दों में यह इस्तेताअत नही होती है कि वह औरत की ज़िन्दगी का बोझ उठा सकें। यह और बात है कि औरत की ख़्वाहिश उनके दिल में भी पैदा होती है इसलिये कि जज़्बात मआशी हालात की पैदावार नही होते हैं। उनका सरचश्मा इन हालात से बिलकुल अलग है और उनकी दुनिया का क़यास इस दुनिया पर नही किया जा सकता है। ऐसी सूरत में मसले का एक ही हल रह जाता है कि जो साहिबाने दौलत व सरवत व इस्तेताअत हैं उन्हे मुख़्तलिफञ शादीयों पर आमादा किया जाये और जो ग़रीब और नादार हैं और मुस्तक़िल ख़र्च बर्दाश्त नही कर सकते हैं उनके लिये ग़ैर मुस्तक़िल इन्तेज़ाम किया जाये और सबकुछ क़ानून के दायरे में हो। मग़रिबी दुनिया की तरह लाक़ानूनीयत का शिकार न हो कि दुनिया की हर ज़बान में क़ानूनी रिश्ते को इज़्देवाज और शादी से ताबीर किया जाता है। और ग़ैर क़ानूनी रिश्ते को अय्याशी कहा जाता है। इस्लाम हर मसले को इंसानीयतस, शराफ़त और क़ानून की रोशनी में हल करना चाहता है और मग़रिबी दुनिया क़ानून और लाक़ानूनीयत में इम्तेयाज़ की क़ाएल नही है। हैरत की बात है कि जो लोग सारी दुनिया में अपनी क़ानून परस्ती का ढँढोरापीटते हैं। वह जिन्सी मसले में इस क़दर बेहिस हो जाते हैं कि यहाँ किसी क़ानून का अहसास नही रह जाता है और मुख़तलिफ़ क़िस्म के ज़लील तरीन तरीक़े भी बर्दाश्त कर लेते हैं जो इस बात की अलामत है कि मग़रिब एक जिन्स ज़दा माहौल है जिसने इंसानीयत का ऐहतराम तर्क कर दिया है और वह अपनी जिन्सीयत ही को ऐहतेरामे इंसानीयत का नाम देकर अपने ऐब की पर्दापोशी करने की कोशिश कर रहा है।

बहरहाल क़ुरआन ने इस मसले पर इस तरह रौशनी डाली है:

“وَإِنْ خِفْتُمْ أَلاَّ تُقْسِطُواْ فِي الْيَتَامَى فَانكِحُواْ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ النِّسَاء مَثْنَى وَثُلاَثَ وَرُبَاعَ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلاَّ تَعْدِلُواْ”(सूरह निसा आयत 3)

“और अगर तुम्हे यह ख़ौफ़ है कि यतीमों के बारे में इंसाफ़ न कर सकोगे तो जो औरतें तुम्हे अच्छी लगें उनसे अक़्द करो दो तीन चार। और अगर ख़ौफ़ है कि उनमें भी इंसाफ़ न कर सकोगे तो फिर या जो तुम्हारी कनीज़ें है।”

आयते शरीफ़ा से साफ़ ज़ाहिर होता है कि समाज के ज़हन में एक तसव्वुर था कि यतीमों के साथ अक़्द करने में इस सुलूक का तहफ़्फ़ुज़ मुश्किल हो जाता है जिसका मुतालेबा उसके बारे में किया गया है तो क़ुरआन ने साफ़ वाज़ेह कर दिया कि अगर यतीमों के बारे में इंसाफ़ मुश्किल है और उसके ख़त्म हो जाने का ख़ौफ़ और ख़तरा है तो ग़ैर यतीम अफ़राद में शादीयाँ करो और इस मसले में तुम्हे चार तक आज़ादी दे दी गयी है कि अगर इंसाफ़ कर सको तो चार तक अक़्द कर सकते हो। हाँ अगर यहाँ भी इंसाफ़ बरक़रार न रहने का ख़ौफ़ है तो फिर एक ही पर इक्तेफ़ा करो और बाक़ी कनीज़ों से इस्तेफ़ादा करो।

इसमें कोई शक नही है कि तअद्दुदे इज़्देवाज में इंसाफ़ की क़ैद हवसरानी के ख़ात्मे और क़ानून की बरतरी की बेहतरीन अलामत है और इस तरह औरत के वक़ार व ऐहतराम को मुकम्मल तहफ़्फ़ुज़ दिया गया है लेकिन इस सिलसिले में यह बात नज़र अंदाज़ नही होनी चाहिये कि इंसाफ़ का वह तसव्वुर बिलकुलबेबुनियाद है जो हमारे समाज में राएज हो गया है और जिसके पेशेनज़र तअद्दुदे इज़्देवाज को सिर्फ़ एक नाक़ाबिले अमल फ़ारमूला क़रार दे दिया गया है। कहा यह जाता है कि इंसाफ़ मुकम्मल मसावात है और मुकम्मल मसावात बहरहाल मुमकिन नही है इसलिये कि नई औरत की बात और होती है और पुरानी औरत की बात और होती है, और दोनों के साथ मुसावीयाना बर्ताव नामुमकिन है। हालाँकि यह तसव्वुर भी एक जाहिलाना तसव्वुर है। इंसाफ़ के मायनी सिर्फ़ यह हैं कि हर साहिबे हक़ को उसका हक़ दे दिया जाये जिसे शरीयत की ज़बान में बाजिबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ से ताबीर किया जाता है। इससे ज़्यादा इंसाफ़ का कोई मफ़हूम नही है। बेनाबर ईन अगर इस्लाम ने चार औरतों में हर औरत की एक रात क़रार दी है तो इससे ज़्यादा का मुतालेबा करना नाइंसाफ़ी है। घर में रात न ग़ुज़ारना नाइंसाफ़ी नही है। इसी अगर इस्लाम ने फ़ितरत के ख़िलाफ़ नई और पुरानी ज़ौजा को यकसाँ क़रार दिया है तो उनके दरमीयान इम्तेयाज़ बरतना ख़िलाफ़े इंसाफ़ है। लेकिन अगर उसी ने फ़ितरत के तक़ाज़ों के पेशे नज़र शादी के इब्तेदाई सात दिन नई ज़ौजा के लिये मुक़र्रर कर दियें है तो इस मसले में पुरानी ज़ौजा का मुदाख्लत करना नाइंसाफ़ी है। शौहर का इम्तेयाज़ी बर्ताव करना नाइंसाफ़ी नही है और हक़ीक़ते अम्र यह है कि समाज ने शौहर के सारे इख़्तेयारात सल्ब कर लिये हैं। लिहाज़ा उसका हर एक़दाम ज़ुल्म नज़र आता है वर्ना ऐसे ऐसे शौहर भी होते हैं जो क़ौमी या सियासी ज़रूरीयात की बेना पर मुद्दतों घर के अंदर दाख़िल नही होते हैं। और ज़ौजा इस बात पर ख़ुश रहती है कि मैं बहुत बड़े ओहदेदार या वज़ीर की ज़ौजा हूँ। और वक़्त उसे इस बात का ख़्याल भी नही आता है कि मेरा कोई हक़ पामाल हो रहा है। लेकिन उसी ज़ौजा को अगर यह इत्तेला हो जाये कि वह दूसरी ज़ौजा के घर रात गुज़ारता है तो एक लम्हे के लिये बर्दाश्त करने को तैयार न होगी जो सिर्फ़ एक जज़्बाती फैसला है और उसका इंसानी ज़िन्दगी के ज़रूरीयात से कोई तअल्लुक नही है। ज़रूरत का लिहाज़ रखा जाये तो अक्सर हालात में और अक्सर इंसानों के लिये मुताद्दिद शादीयाँ करना ज़रूरीयात में शामिल है जिससे कोई मर्द या औरत इंकार नही कर सकता है। यह और बात है कि समाज से दबाव से दोनों मजबूर हैं और कभी घुटन की ज़िन्दगी गुज़ार लेते हैं और कभी बेराह रवी के रास्ते पर चल पड़ते हैं जिसे हर समाज बर्दाश्त कर लेता है और उसे माज़ूर क़रार देता है जबकि क़ानून की पाबंदी और रिआयत में माज़ूर नही क़रार देता है।

इस सिलसिले में यह बात भी क़ाबिले तवज्जो है कि इस्लाम ने तअद्दुदे इज़देवाज को अदालत से मशरूत क़रार दिया है लेकिन अदालत को इख़्तेयारी नही रखा है बल्कि उसे ज़रूरी क़रार दिया है और हर मुसलमान से मुतालेबा किया है कि अपनी ज़िन्दगी में अदालत से काम ले और कोई काम ख़िलाफ़े अदालत न करे। अदालत के मायनी वाजिबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ भी। लिहाज़ा अदालत कोई इज़ाफ़ी शर्त नही है। इस्लामी मिज़ाज का तक़ाज़ा है कि हर मुसलमान को आदिल होना चाहिये और किसी मुसलमान को दायरा ए अदालत से बाहर नही जाना चाहिये। जिसका लाज़मी असर यह होगा कि क़ानूने तअद्दुदे अज़वाज हर सच्चे मुसलमान के लिये क़ाबिले अमल बल्कि बड़ी हद तक वाजिबुल अमल है कि इस्लाम ने बुनियादी मुतालेबा दो या तीन या चार का किया है और एक औरत को इसतिस्नाई सूरत दे रखी है जो सिर्फ़ अदालत के न होने की सूरत में मुमकिन है। और अगर मुसलमान वाकयी मुसलमान है यानी आदिल है तो उसके लिये क़ानून दो या तीन या चार का ही है। उसका क़ानून एक का नही है जिसकी मिसालें बुज़ुर्गाने मज़हब की ज़िन्दगी में हज़ारों की तादाद में मिल जायेंगीं और आज भी रहबराने दीन की अकसरीयत इस क़ानून पर अमल पैरा है और उसे किसी तरफ़ से ख़िलाफ़े अख़लाक़ व तहज़ीब या ख़िलाफ़े क़ानून व शरीयत नही समझती है और न कोई उनके किरदार पर ऐतराज़ करने की हिम्मत करता है। ज़ेरे लब मुस्कुराते ज़रूर हैं कि यह अपने समाज के जाहिलाना निज़ाम की देन है और जिहालत का कम से कम मुज़ाहिरा इसी अंदाज़ से हो सकता है।

इस्लाम ने तअद्दुदे अज़वाज के नामुमकिन होने की सूरत में भी कनीज़ों की इजाज़त दी है कि उसे मालूम है कि फ़ितरी तक़ाज़े सही तौर पर एक औरत से पुरे होना मुश्किल हैं, लिहाज़ा अगर नाइंसाफ़ी का ख़तरा है और दामने अदालत हाथ से झूट जाने का अंदेशा है तो इंसान ज़ौजा के साथ कनीज़ों से राब्ता कर सकता है। अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूद हो और उनसे राब्ता मुमकिन हो। इस मसले से एक सवाल ख़ुद ब ख़ुद पैदा होता है कि इस्लाम ने इस अहसास का सुबूत देते हुए कि एक औरत से पुरसुकून ज़िन्दगी गुज़ारना दुश्नार गुज़ार अमल है। पहले तअद्दुदे अज़वाज की इजाज़त दही और फिर उसके नामुमकिन होने की सूरत में दूसरी ज़ौजा की कमी कनीज़ से पुरी की तो अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूज न हो या इस क़दर क़लील हो कि हर शख़्स की ज़रूरत का इन्तेज़ाम न हो सके तो उस कनीज़ को मुताबादिल क्या होगा और उस ज़रूरत का इलाज किस तरह होगा जिसकी तरफ़ क़ुरआने मजीद ने एक ज़ौजा के साथ कनीज़ के इज़ाफ़े से इशारा किया है।

यही वह जगह है जहाँ से मुतआ के मसले का आग़ाज़ होता है और इंसान यह सोचने पर मजबूर होता है कि अगर इस्लाम ने मुकम्मल जिन्सी हयात की तसकीन का सामान किया है और कनीज़ों का सिलसिला मौक़ूफ़ कर दिया है और तअद्दुदे अज़वाज में अदालत व इंसाफ़ की शर्त लगा दी है तो उसे दूसरा रास्ता तो बहरहाल खोलना पड़ेगा ताकि इंसान अय्याशी और बदकारी से महफ़ूज़ रह सके, यह और बात है कि ज़हनी तौर पर अय्याशी और बदकारी के दिलदादा अफ़राद मुतआ को भी अय्याशी का नाम दे देते हैं और यह मुतआ की मुख़ालेफ़त की बेना पर नही है बल्कि अय्याशी के जवाज़ की बेना पर है कि जब इस्लाम में मुतआ जाएज़ है और वह भी एक तरह की अय्याशी है तो मुतआ की क्या ज़रूरत है सीधे सीधे अय्याशी ही क्यों न की जाये और यह दर हक़ीक़त मुतआ की दुश्वारीयों का ऐतराफ़ है और इस अम्र का इक़रार है कि मुतआ अय्याशी नही है। इसमें क़ानून, क़ायदे की रिआयत ज़रूरी है और अय्याशी उन तमाम क़वानीन से आज़ाद और बेपरवाह होती है।

सरकारे दो आलम(स) के अपने दौरे हुकुमत में और ख़िलाफ़तों के इब्तेदाई दौर में मुतआ का रिवाज क़ुरआने मजीद इसी क़ानून की अमली तशरीह था जबकि उस दौर में कनीज़ों का वुजूद था और उनसे इस्तेफ़ादा मुमकिन था तो यह फ़ौक़ाहा ए इस्लाम को सोचना चाहिये कि जब उस दौर में सरकारे दो आलम(स) ने हुक्मे ख़ुदा के इत्तेबा में मुतआ को हलाल और राएज कर दिया था तो कनीज़ों के ख़ात्मे के बाद उस क़ानून को किस तरह हराम किया जा सकता है। यह तो अय्याशी का ख़ुला हुआ रास्ता होगा कि मुसलमान उसके उसके अलावा किसी रास्ते पर न जायेगा और मुसलसल हरामकारी करता रहेगा जैसा कि अमीरूल मोमीनीन हज़रत अली(अ) ने फ़रमाया था कि अगर मुतआ हराम न कर दिया गया होता तो बदनसीब और शक़ी इंसान के अलावा कोई ज़ेना न करता। गौया आप इस अम्र की तरफ़ इशारा कर रहे थे कि मुतआ पर पाबंदी आएद करने वाले ने मुतआ का रास्ता नही बंद किया है बल्कि अय्याशी और बदकारी का रास्ता खोल दिया है और उसका रोज़े क़यामत जवाबदेह होना पड़ेगा।

इस्लाम अपने क़वानीन में इन्तेहाई हकीमाना रविश इख़्तियार करता है और उससे इन्हेराफ़ करने वालों को शक़ी और बदबख़्त से ताबीर करता है।

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