शरणार्थी यहूदियों के ज़रिए फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा यूरोपीय साम्राज्यवादी टैकटिक के समान है और यह क़ब्ज़ा यूरोपीय साम्राज्यवाद की मिसाल है।
यूरोपीय जहां भी गए, चाहे वो अमरीका हो, आस्ट्रेलिया हो, अफ़्रीक़ा हो यही चाल चलीः ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करो, जहां तक संभव हो ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीनें हथिया लो और जो विरोध करे उसे कुचल दो।
इस्राईल कई महीनों से हमास को ख़त्म करने के बहाने ग़ज़ा पट्टी पर बमबारी कर रहा है।
लेकिन वो एक आइडियालोजी को शिकस्त नहीं दे सकते, अगर आपकी धरती पर क़ब्ज़ा कर लिया जाए तो रेज़िस्ट करना आपका अधिकार है, क़ब्ज़ा जारी रहता है तो यह विचार भी जारी रहेगा और एक नस्ल से दूसरी नस्ल में यह विचार और जज़्बा स्थानान्तरित होता रहेगा।
इस्राईल चाहता है कि इस समय ग़ज़ा पट्टी में जो फ़िलिस्तीनी हैं इस इलाक़े को छोड़कर मिस्र चले जाएं। इस्राईल का लक्ष्य बिल्कुल साफ़ है। इस्राईल यहूदियों का विशेष देश बनाने की कोशिश में है जिसमें अरबों और फ़िलिस्तीनियों के लिए कोई जगह न हो। वह चाहता है कि ग़ज़ा पट्टी में आबादी कम हो जाए।
इस समय उत्तरी इलाक़ों में वो एक सेफ़ ज़ोन बनाने की कोशिश कर रहे हैं जहां कोई फ़िलिस्तीनी न हो। वो जबालिया, बैत हानून जैसे इलाक़ों को फ़िलिस्तीनियों से पूरी तरह ख़ाली करा लेना चाहते हैं। ज़ायोनी सोचते हैं कि इस तरह उनके लिए ख़तरा नहीं रहेगा।
जब 1917 में बालफ़ोर घोषणापत्र का एलान किया गया तो उस समय फ़िलिस्तीन में यहूदियों की संख्या मात्र 56 हज़ार थी। 1922 में फ़िलिस्तीन पर ब्रिटेन का मैनडेट लागू हो गया तो फ़िलिस्तीन के दरवाज़े यहूदियों के लिए पूरी तरह खोल दिए गए। 1939से 1945 के बीच जंग के वर्षों में और 1947 में पार्टीशन योजना के एलान तक बड़ी संख्या में यहूदियों ने फ़िलिस्तीन की तरफ़ पलायन किया। उनकी संख्या बढ़कर 6 लाख 65 हज़ार हो गई। इसकी सबसे बड़ी वजह फ़िलिस्तीन का ब्रिटेन के मैनडेट में होना था। इसका मतलब यह था कि ब्रिटेन के पास इस इलाक़े के प्रशासनिक अधिकार थे लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं होता कि ब्रिटेन इस इलाक़े का मालिक बन गया हो। इस इलाक़े का शासन ब्रिटेन को कभी नहीं सौंपा गया।
ब्रिटेन की देखरेख में फ़िलिस्तीन में यहूदियों की संख्या बढ़ती जा रही थी, अरबों को उनकी ज़मीनों से बेदख़ल किया जा रहा था। वर्ष 1948 में इस्राईल की घोषणा होने के समय यहूदियों की संख्या साढ़े सात लाख से ज़्यादा हो गई।