अक़्ल और अख़लाक

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अक़्ल और अख़लाक

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमायाः

احسنكم عقلا احسنكم خلقا

तुम में सबसे ज़्यादा अक़्लमंद वह है जो तुम में सबसे ज़्यादा खुश अख़लाक़ है।

अक़्ल व खुश अखलाक़ी और इन दोनों की फ़ज़ीलत के बारे में बहुत सी हदीसें व रिवायतें मुख़्तलिफ़ ताबीरों के साथ मौजूद हैं। इनमें से हर हदीस या रिवायत पर तवज्जो देने से यह बात सामने आती है कि अक़्ल या खुश अख़लाक़ी आलीतरीन कमालात हैं और इनकी बहुत ज़्यादा अहमयत है। यहाँ पर यह सवाल पैदा होता है कि अक़्लमंदी और ख़ुश अख़लाक़ी के दरमियान क्या राब्ता है? क्या यह दावा किया जा सकता है कि इनमें से एक इल्लतऔरदूसरा मालूल है ? अगर ऐसा है तो क्या इनमें से एक के बढ़ने के बाद दूसरे को बढ़ाया जा सकता है ? इससे भी अहम यह कि अक़्ल इंसान को बद अख़लाक़ी से किस तरह रोकती है ?

जो रिवायतें अक़्ल की अहमियत के बारे पाई जाती हैं वह हस्वे ज़ैल हैं।

रावी ने हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में अर्ज़ किया :

फ़लाँ इंसान इबादत व दीनदारी के एतेबार से बहुत बलंद मर्तबा है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने सवाल किया कि वह अक़ल के एतेबार से कैसा है ? रावी ने जवाब दिया कि मैं नही जानता कि वह अक़्ली लिहाज़ किस मर्तबे पर है। यह सुनकर इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया :

ان الثواب على قدر العقل

बेशक हर इंसान का सवाब उसकी अक़्ल से मरबूत है। यानी अगर कोई अक़्ली के एतेबार से क़वी होगा तो उसका सवाब ज़्यादा होगा और अगर कोई अक़्ली एतेबार से कमज़ोर होगा तो उसका सवाब कम होगा। इसके बाद इमाम अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राईल के उस इंसान की दास्तान बयान फ़रमाई जो एक जज़ीरे में अल्लाह की इबादत में मशग़ूल था। उसने फ़ुरसत के लमहात में एक आह भर कर कहा कि काश मेरे रब के पास जानवर होते तो वह इस जज़ीरे की घास से फ़ायदा उठाता।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने एक दिगर रिवायत में फ़रमाया कि :

من كان عاقلا ختم له بالجنة

जो अक़्लमंद होगा वह आख़िरकार जन्नत में जायेगा।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया:

ما قسم الله للعباد شيئا افضل من العقل فنوم العاقل افضل من سهر الجاهل و افطار العاقل افضل من صوم الجاهل

अल्लाह ने अक़ल से ज़्यादा अहम कोई भी चीज़ बंदों में तक़्सीम नही की है, अक़्लमंद का सोना जाहिल के जागने (जाग कर इबादत करने) से बेहतर है और इसी तरह अक़लमंद का खाना पीना जाहिल के रोज़े रखने से बेहतर है।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से सवाल किया गया कि अक़्ल क्या है ?

قال قلت له ما العقل قال ما عبد به الرحمان واكتب به الجنان

इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि अक़्ल वह है जिसके ज़रिये इंसान अल्लाह की इबादत करके ख़ुद को जन्नत में पहुँचायेगा।

इमाम अलैहिस्सलाम ने हुस्ने अख़लाक़ व नर्मी के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से नक़्ल करते हुए फ़रमाया कि :

ما اصطحب اثنان الا كان اعظمهما اجرا و احبهما الى الله تعالى ارفقهما بصاحبه

जब दो इंसान एक दूसरे के मुसाहिब बनते हैं तो उन दोनों में से अल्लाह का ज़्यादा महबूब और सवाब का ज़्यादा हक़दार वह क़रार पाता है जिसके अन्दर नर्मी ज़्यादा पाई जाती है।

एक दूसरे मक़ाम पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया :

لو كان الرفق خلقا يرى ما كان فيما خلق الله شئ اخسن منه

अगर रिफ़्क़ व मदारा एक जिस्म की सूरत में ज़ाहिर होता तो मख़लूक़ात के दरमियान कोई भी हुस्ने अख़लाक़ से ज़्यादा ख़ूबसूरत न होता।

जो रिवायतें अक़्ल की फ़ज़ीलत के बारे में पाई जाती हैं उनका मुतालेआ करने के बाद और हुस्ने अख़लाक़ की अहमियत पर तवज्जो देने के बाद यह सवाल पैदा होता है कि इन दोनों में से किस की अहमियत ज़्यादा है, अक़ल की या हुस्ने अख़लाक़ की ?

इस सवाल का जवाब तलाश करने के लिए हमें इस नुक्ते पर तवज्जो देनी चाहिए कि मुशकिलों और परेशानियों में घिरे हर इंसान का रुझान यह होता है कि नर्मी और बुर्दुबारी के साथ मसाइल को हल किया जाये। इसमें कोई शक नही है कि इस काम में एक गिरोह कामयाब है और वह दूसरों के साथ हुस्ने अख़लाक़ से मिलते हैं। लेकिन दूसरा गिरोह उन लोगों का भी है जो इस तरह का बरताव नही कर पाते हैं।

दक़ीक़ मुताले और तहक़ीक़ से यह बात सामने आती हैं कि नर्मी, अक़्ली रुश्द का नतीजा है। जिन लोगों में अक़्ल ज़्यादा पाई जाती है या जिन्होंने अपनी अक़्ल को मुकम्मल तौर पर परवान चढाया है, उनमें खुद को कन्ट्रोल करने की सलाहियत दूसरों से ज़्यादा होती है। इसके बरअक्स जिन लोगों के पास यह ख़ुदा दाद नेमत कम होती है, उनमी नर्मी भी कम पाई जाती है। इस क़ूवत का राज़ यह है कि आक़्लमंद इंसान मसाइल व मुशकिल को तजज़िये व तहलील के ज़रिये हल करने और टकराव से बचते हुए बारूद के ढेर से गुज़रने की कोशिश करते हैं। हक़ीक़त में इंसान की अक़्ल किसी गाड़ी के फ़नर की तरह होती है। जब गाड़ी ऊँची नीची ज़मीन में दाख़िल होती है तो वह फ़नर नर्मी और लचक के साथ अपनी जगह पर हरकत करते हैं और गाड़ी को टूट फ़ूट से महफ़ूज़ रखते हैं। वह तन्हा आमिल जो इंसान को टकराव व हिजान से बचाते हुए उसके तआदुल को बाक़ी रखता है, उसकी अक़्ल है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया :

احسنكم عقلا احسنكم خلقا

यानी जिसमें अक़्ल ज़्यादा होती है, वह अख़लाक़ी एतेबार से दूसरों से ज़्यादा ख़ुश अख़लाक़ होता है।

इस मज़कूरा हदीस पर तवज्जो देने से मालूम होता है कि तबियत की नर्मी बहुत अहम होती है और इसके ज़ेरे साया इंसान दुनिया और आख़ेरत के तमाम कमाल हासिल करता है।

इससे ज़्यादा वज़ाहत यह कि नर्म तबियत के इंसान के सामने जब कोई मुशकिल आती है तो वह अक़्ल के ज़रिये उस पर ग़ौर व फ़िक्र करता है और आपे से बाहर हुए बग़ैर, मसाइल का तजज़िया व हलील करते हुए, ज़ोर ज़बर्दस्ती व तुन्दी के बिना एक के बाद एक मुश्किल को हल करता है, चाहे यह मुशकिलात उसकी घरेलू ज़िन्दगी से मरबूत हों या समाजी व इजतेमाई ज़िन्दगी से।

इस बिना पर अक़्ल हुस्ने अख़लाक़ की बुनियाद है, लिहाज़ा जिसके पास अक़्ल ज़्यादा होगी उसके अन्दर ख़ुश अख़लाक़ी भी कामिल तौर पर पाई जायेगी। इस दावे का सच्चा गवाह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का वजूद मुबारक है, वह अक़्ले कुल थे और अखलाक़ी एतेबार से भी से सबसे आला थे।

वह अखलाक़ी एतेबार से बहुत नर्म तबियत और तमाम अफ़राद के दरमियान सबसे ज़्यादा ख़लीक़ थे। लिहाज़ा खुश अख़लाक़ बनने के लिए सबसे पहले अक़्ल की परवरिश करनी चाहिए ताकि उसके साये में ख़ुश अख़लाक़ बन सके।

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