हुस्ने अख़लाक़

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بسم الله الرحمن الرحيم

فَبِمَا رَحْمَةٍ مِّنَ اللّهِ لِنتَ لَهُمْ وَلَوْ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ الْقَلْبِ لاَنفَضُّواْ مِنْ حَوْلِكَ

 

सूरः ए आलि इमरान आयतन. 159

तर्जमा ------

हुस्ने अख़लाक़

यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की कामयाबी का राज़ आपके नम्र मिज़ाज को मानती है। इसी वजह से कहा गया है कि अगर आप सख़्त मिज़ाज होते तो लोग आपके पास से भाग जाते। इस बुनियाद पर यह आयत, समाजी ज़िन्दगी में इंसान की कामयाबी का राज़, हुस्ने अख़लाक़ को मानती है।

बेशक पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के पास बहुत से मोजज़े व ग़ैबी इमदाद थी, लोकिन जिस चीज़ ने समाजी ज़िन्दगी में आपकी कामयाबी के रास्ते को हमवार किया वह आपका हुस्ने अख़लाक़ ही था। बस अगर कोई इंसान समाज के दूसरों अफ़राद को अपनी तरफ़ मुतवज्जे करके उनकी नज़रो का मरकज़ बनना चाहता हो तो उसे हुस्ने अख़लाक़ से काम लेना चाहिए। इसी के साथ यह हक़ीक़त भी वाज़ेह करते चलें कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) तमाम ख़ुदा दाद कमालात, किताब व मोजज़ात के बावजूद, अगर सख़्त मिज़ाज होते तो लोग उनके पास से भाग जाते। इससे यह बात भी आशकार हो जाती है कि अगर कोई इंसान इल्म व अक़्ल की तमाम फ़ज़ीलतों से आरास्ता हो लेकिन हुस्ने अख़लाक़ से मुज़य्यन न हो तो वह समाजी ज़िन्दगी में कामयाब नही हो सकता, क्योंकि समाज ऐसे इंसान को क़बूल नही करता। लिहाज़ा मानना पड़ेगा कि समाजी ज़िन्दगी में मक़बूल होने का राज़ हुस्ने अख़लाक़ ही है। एक मक़ाम पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने इस बात की वज़ाहत करते हुए फ़रमाया कि तुम अपने माल व दौलत के ज़रिये हरगिज़ लोगों के दिलों को अपनी तरफ़ मायल नही कर सकते, लेकिन हुस्ने अख़लाक़ के ज़रिये उनको अपनी तरफ़ मुतवज्जे कर सकते हो।

इस से यह साबित होता है कि लोगों के दिलों को न इल्मी फ़ज़ाइल से जीता जा सकता है और न मालो दौलत के ज़रिये, बल्कि सिर्फ़ अच्छा अख़लाक़ है जो लोगों को अपनी तरफ़ जज़्ब करता है। तमाम नबियों का आख़िरी हदफ़ और ख़सूसन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का बुनियादी मक़सद हुस्ने अख़लाक़ था। क्योंकि आपने ख़ुद फ़रमाया है : 

 

بعثت لاتمم مكارم الاخلاق

 

  मैं इस लिए मबऊस किया गया हूँ ताकि अख़लाक़ को कमाल तक पहुँचाऊँ। इससे साबित होता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का मक़सद सीधे सादे अख़लाक़ी मसाइल नही थे, बल्कि वह इंसानी अख़लाक़ के सबसे बलन्द दर्जों को पूरा करने के लिए तशरीफ़ लाये थे।

नेपोलियन का दावा था कि जंग के मैदान में जिस्मानी ताक़त के मुक़ाबेले में रूहानी ताक़त असर अन्दाज़ होती है यानी रूहानी व मअनवी ताक़त के अमल का मुवाज़ेना जंगी साज़ व सामान से नही हो सकता।

मुख़तलिफ़ क़ौमों पर तहक़ीक़ करने से यह बात सामने आती है कि किसी भी क़ौम की तहज़ीब व ताक़त, उस क़ौम के आदाब व अख़लाक़ से वाबस्ता होती है।

समाजी ज़िन्दगी में हर इंसान अपने शख़्सी फ़ायदों की तरफ़ दौड़ता है और हर इंसान का अपने फ़ायदे की तरफ़ दौड़ना एक फ़ितरी चीज़ है। इसी बिना पर यह तबीई रुजहान हर इंसान में पाया जाता है और अपनी ज़ात से मुब्बत की बिना पर हर इंसान अपनी पूरी ताक़त के साथ अपने नफ़े को तलाश करता है।

इंसान के अन्दर बलन्दी, कमाल व अख़लाक़ का पाया जाना ही इंसानियत है। इस सिफ़त के पैदा होने से इंसान हैवानी तबीअत से बाहर निकलता है और इससे इंसान में बलन्दी पैदा होती है, जो इंसान को समाज में मुनफ़रिद बना देती है। लिहाज़ा अगर हम लोगों के दिलों में अपना ऊँचा मक़ाम बनाना चाहते हैं तो पहले हमें इंसान बनना पड़ेगा और अपने अन्दर ईसार, कुर्बानी व इंसानी ख़िदमत का शौक़ व जज़्बा पैदा करना होगा। इस तरह से लोगों ने हैवानी ज़िन्दगी से आगे क़दम बढ़ा कर इंसानी ज़िन्दगी के आख़िरी कमाल को हासिल किया हैं।

इंसाने हक़ीक़ी की बहुत सी निशानियाँ है लेकिन उनमें से सबसे अहम निशानी उसका अपने मातहत लोगों के साथ बरताव है। अगर वह कोई फौजी अफ़सर है तो अपने सिपाहियों से नरमी के साथ, अगर मोअल्लिम है तो अपने शागिर्दों से मुहब्बत से और अगर अफ़सर है तो अपने साथियों से अद्ल व इन्साफ़ से पेश आता है। हाँ जो दूसरों के साथ प्यार मुहब्बत का बरताव करे, अद्ल व इन्साफ़ से काम ले, क़ुरबानियाँ दे और दूसरों की ग़लतियों को माफ़ और नज़र अन्दाज़ करे तो वह इंसान नमूना बन जायेगा और सबको अपनी तरफ़ जज़्ब करेगा।

हाँ! हुस्ने अख़लाक़ यही है कि इंसान अपनी ज़ात में ख़ुद पसन्दी, जाह तलबी, कीनः और हसद जैसे रज़ाइल को न पनपने दे।

समाज़ उन्हीं अफ़राद से मुहब्बत करता है जिनमें ईसार व क़ुरबानी का जज़्बा पाया जाता है। एक मुल्क में एक नदी में बाढ़ आई जिससे उस पर बना पुल टूट गया। फ़कत उसका एक हिस्सा बाक़ी रह गया जिस पर एक ग़रीब फ़क़ीर घराने का ठिकाना था। सबको मालूम था कि यह हिस्सा भी जल्दी ही डूबने वाला है, इस लिए एक मालदार आदमी ने कहा कि जो इस गरीब घराने की जान बचायेगा मैं उसे एक बड़ी रक़म दूंगा। रिआया में से एक सादा लोह इंसान इस काम को अंजाम देने के लिए उठा और उसने एक छूटी सी क़िश्ती दरिया की मौजों के दरमियान डाल दी और बहुत ज़्यादा मेहनत व कोशिश से उस ग़रीब घराने की जान बचाई। जब वह मालदार आदमी उसे रक़म देने लगा तो उसने वह रक़म लेने से इन्कार कर दिया और कहा कि मैंने यह काम पैसों के लिए नही किया, क्योंकि पैसों के लिए अपनी जान को ख़तरों में डालना अक़्लमन्दी नही है, बल्कि मैंने यह ख़तरनाक काम अपने इंसान दोस्ती और कुरबानी के जज़्बे के तहत अंजाम दिया है।

मैं यह चाहता हूँ कि यह रक़म इसी ग़रीब घराने के हवाले कर दी जाये। उस मालदार इंसान का कहना है कि मैं उस इंसान की रूह की अज़मत के सामने अपने अपको बहुत छोटा महसूस कर रहा था और फ़रावान माल व दौलत के होते हुए अपने आपको हक़ीर समझ रहा था।

कोई भी चीज़ अच्छे अख़लाक़ से ज़्यादा वाजिब नही है, हुस्ने अख़लाक़ उलूम व फ़नून से से ज़्यादा ज़रूरी है। हुस्ने अख़लाक़ कामयाबी व कामरानी का सबसे मोस्सिर आमिल है। किसी भी इंसान की कोई भी बलन्दी हुस्ने अख़लाक़ की बराबरी नही कर सकती

 

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