क़ियामत व मौत के बाद की ज़िन्दगी

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मआद (क़ियामत) के बग़ैर ज़िन्दगी बेमफ़हूम है।

हमारा अक़ीदह है कि मरने के बाद एक दिन तमाम इंसान ज़िन्दा होगें और आमाल के हिसाब किताब के बाद नेक लोगों को जन्नत में व गुनाहगारों को

दोज़ख़ में भेज दिया जायेगा और वह हमेशा वहीँ पर रहे गें। “अल्लाहु ला इलाहा इल्ला हुवा लयजमअन्नाकुम इला यौमिल क़ियामति ला रैबा फ़ीहि।”[89] यानी अल्लाह के अलावा कोई माबूद नही है,यक़ीनन क़ियामत के दिन जिस में कोई शक नही है तुम सब को जमा करे गा।

“फ़अम्मा मन तग़ा * व आसरा अलहयाता अद्दुनिया * फ़इन्ना अलजहीमा हिया अलमावा * व अम्मा मन ख़ाफ़ा मक़ामा रब्बिहि व नहा अन्नफ़सा अन अलहवा * फ़इन्ना अलजन्नता हिया अलमावा।”[90] यानी जिस ने सर कशी की और दुनिया की ज़िन्दगी को इख्तियार किया उसका ठिकाना जहन्नम है और जिस ने अपने रब के मक़ाम (अदालत) का खौफ़ पैदा किया और अपने नफ़्स को ख़्वाहिशात से रोका उसका ठिकाना जन्नत है।

हमारा अक़ीदह है कि यह दुनिया एक पुल है जिस से गुज़र कर इंसान आखेरत में पहुँच जाता है। या दूसरे अलफ़ाज़ में दुनिया आख़ेरत के लिए बज़ारे तिजारत है,या दुनिया आख़ेरत की खेती है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम दुनिया के बारे में फ़रमाते हैं कि “इन्ना अद्दुनिया दारु सिदक़िन लिमन सदक़ाहा .........व दारु ग़िनयिन लिमन तज़व्वदा मिनहा,व दारु मोएज़तिन लिमन इत्तअज़ा बिहा ,मस्जिदु अहिब्बाइ अल्लाहि व मुसल्ला मलाइकति अल्लाहि व महबितु वहयि अल्लाहि व मतजरु औलियाइ अल्लाहि ”[91] यानी दुनिया सच्चाई की जगह है उस के लिए जो दुनिया के साथ सच्ची रफ़्तार करे,.....और बेनियाज़ी की जगह है उस के लिए जो इस से ज़ख़ीरा करे, और आगाही व बेदारी की जगह है उस के लिए जो इस से नसीहत हासिल करे, हुनिया दोस्ताने ख़ुदा के लिए मस्जिद, मलाएका के लिए नमाज़ की जगह, अल्लाह की वही के नाज़िल होने का मक़ाम और औलिया-ए- खुदा की तिजारत का मकान है।

35- मआद की दलीलें रौशन हैं।

हमारा अक़ीदह है कि मआद की दलीलें बहुत रौशन हैं क्यों कि-

क) इस दुनिया की ज़िन्दगी इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि ऐसा नही हो सकता कि यह दुनिया जिस में इंसान चन्द दिनों के लिए आता है, मुश्किलात के एक बहुत बड़े अम्बोह के दरमियान ज़िन्दगी बसर करता है और मर जाता है, इंसान की ख़िलक़त का आख़री हदफ़ हो, “अफ़ाहसिब तुम अन्ना मा ख़लक़ना कुम अबसन व अन्ना कुम इलैनाला तुरजाऊना ”[92]यानी क्या तुम यह गुमान करते हो कि हम ने तुम्हें किसी मक़सद के बग़ैर पैदा किया और तुम हमारे पास पलट कर नही आओ गे। यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि अगर मआद का वुजूद न हो तो इस दुनिया की ज़िन्दगी बे मक़सद है।

ख) अल्लाह का अद्ल इस बात का तक़ाज़ा करता है कि नेक और बद लोग जो दुनिया में एक ही सफ़ में रहते हैं बल्कि अक्सर बदकार आगे निकल जाते हैं वह आपस में अलग हों और हर कोई अपने अपने आमाल की जज़ा या सज़ा पायें। “अम हसिबा अल्लज़ीना इजतरहू अस्सयिआति अन नजअला हुम कल्लज़ीना आमनु व अमलू अस्सालिहाति सवाअन महयाहुम व ममातु हुम साआ मा यहकुमूना ”[93] क्या बुराई इख़्तियार करने वालों ने यह ख़याल कर लिया है कि हम उन्हे ईमान लाने वालों और नेक अमल करने वालों के बराबर क़रार देंगे कि सब की मौत व हयात एक जैसी हो,यह उन्होंने बहुत बुरा फ़ैसला किया है।

ग) अल्लाह की कभी ख़त्म न होने वाली रहमत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि उसका फ़ैज़ और नेअमतें इंसान के मरने के बाद भी कतअ न हों बल्कि इस्तेदाद रखने वाले अफ़राद का तकामुल उसी तरह होता रहे। “कतबा अला नफ़सिहि अर्रहमता लयजमअन्ना कुम इला यौमिल क़ियामति लारौबा फ़ीहि ”[94] यानी अल्लाह ने अपने ऊपर रहमत को लाज़िम क़रार दे लिया है, वह तुम सब को क़ियामत के दिन इकठ्ठा करेगा जिस में शक की कोई गुँजाइश नही है।

जो अफ़राद मआद के बारे में शक करते हैं क़ुरआने करीम उन से कहता है कि कैसे मुमकिन है कि तुम मुर्दों को ज़िन्दा करने के सिलसिले में अल्लाह की क़ुदरत में शक करते हो। जबकि तुम को पहली बार भी उस ने ही पैदा किया है,बस जिस ने तुम्हें इब्तदा में ख़ाक से पैदा किया है वही तुम्हे दूसरी ज़िन्दगी भी अता करेगा। “अफ़ाअयियना बिलख़ल्क़ि अलअव्वलि ,बल हु फ़ी लबसिन मिन ख़ल्क़िन जदीदिन”[95] यानी क्या हम पहली ख़िल्क़त से आजिज़ थे( कि क़ियामत की ख़िल्क़त पर क़ादिर न हों)हर गिज़ नही, लेकिन वह (इन रौशन दलाइल के बावुजूद)नई ख़िल्क़त की तरफ़ से शुब्हे में पड़े हुए हैं। “व ज़रबा लना मसलन व नसिया ख़ल्क़हु क़ाला मन युहयु अलइज़ामा व हिया रमीम* क़ुल युहयिहा अल्लज़ी अव्वला मर्रतिन व हुवा बिक़ुल्लि ख़व्क़िन अलीम”[96] वह हमारे सामने मिसालें पेश करता है,अपनी ख़िल्क़त को भूल गया,कहता है कि इन बोसीदह हड्डियों को कौन ज़िन्दा करेगा ,आप कह दिजीये इन को वही ज़िन्दा करेगा जिस ने इन्हें पहली मर्तबा ख़ल्क़ किया था और वह हर मख़लूक़ का बेहतर जान ने वाला है।

और इसके साथ साथ यह भी कि ज़मीनों आसमान की ख़िल्क़त ज़्यादा अहम है या इनसान का पैदा करना !बस जो इस वसूअ जहान को इसकी तमाम शगुफ़्तगी के साथ ख़ल्क़ करने पर क़ादिर है वह इंसान को मरने के बाद दुबारा ज़िन्दा करने पर भी क़ादिर है। “अवा लम यरव अन्ना अल्लाहा अल्लज़ी ख़लक़ा अस्स,मावाति व अल अर्ज़ा व लम यअया बिख़ल्क़ि हिन्ना बिक़ादिरिन अला अन युहयि अलमौता बला इन्नहु अला कुल्लि शैइन क़दीर”[97] यानी क्या वह नही जानते कि अल्लाह ने ज़मीन व आसमान को पैदा किया और वह उन को ख़ल्क़ करने में आजिज़ नही था, बस वह मुर्दों को ज़िन्दा करने पर भी क़ादिर है बल्कि वह तो हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।

36- मआदे जिस्मानी

हमारा अक़ीदह है कि उस जहान (आख़ेरत) में सिर्फ़ इंसान की रूह ही नही बल्कि रूह व जिस्म दोनो उस पलटाये जायें गे। क्योँ कि इस जहान में जो कुछ भी अन्जाम दिया गया है इसी जिस्म और रूह के ज़रिये अंजाम दिया गया है। लिहाज़ा जज़ा या सज़ा में भी दोनो का ही हिस्सा होना चाहिए।

मआद से मरबूत क़ुरआने करीम की अक्सर आयात में मआदे जिस्मानी का ज़िक्र हुआ है। जैसे मआद पर ताज्जुब करने वाले मुख़ालेफ़ीन के जवाब में जो यह कहते थे कि इन बोसीदह हड्डियों को कौन जिन्दा करेगा? क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “क़ुल युहयिहा अल्लज़ी अनशाअहा अव्वला मर्रतिन ”[98] यानी आप कह दीजिये कि इन्हें वही ज़िन्दा करेगा जिस ने इनको पहली बार ख़ल्क़ किया।

“अयहसबु अलइंसानु अन लन नजमआ इज़ामहु * बला क़ादिरीना अला अन नुसव्विया बनानहु।”[99] यानी क्या इंसान यह गुमान करता है कि हम उसकी (बोसीदह) हड्डियों को जमा (ज़िन्दा) नही करेंगे? हाँ हम तो यहाँ तक भी क़ादिर हैं कि उन की ऊँगलियोँ के (निशानात) को भी मुरत्तब करें और उन को पहला हालत पर पलटा दें)।

यह और इन्हीँ की मिस्ल दूसरी आयते मआदे जिस्मानी के बारे में सराहत करती हैं।

वह आयतें जो यह बयान करती हैं कि तुम अपनी क़ब्रों से उठाये जाओ गे वह भी मआदे जिस्मानी को वज़ाहत से बयान करती हैं।

क़ुरआने करीम की मआद से मरबूत अक्सर आयात मआदे रूहानी व जिस्मानी की ही शरह बयान करती हैं।

37- मौत का बाद का अजीब आलम

हमारा अक़ीदह है कि वह चीज़े जो मौत के बाद उस जहान में क़ियामत,जन्नत ,जहन्नम में रूनुमाँ होंगी हम इस महदूद दुनिया में उस से बाख़बर नही हो सकते चूँकि वह हमारी फ़िक्र से बहुत बलन्द चीज़ें हैं। “फ़ला तअलमु नफ़सुन मा उख़फ़िया लहुम मिन क़ुर्रति आयुनिन”[100] किसी नफ़्स को मालूम नही है कि उस के लिए क्या क्या ख़ुन्की-ए- चश्म का सामान छुपा कर रक्खा गया है जो उन के आमाल की जज़ा है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की एक मशहूर हदीस में इरशाद हुआ है कि “इन्ना अल्लाहा यक़ुलु आदद्तु लिइबादिया अस्सालिहीना मा ला ऐनुन राअत वला उज़नुन समिअत व ला ख़तरा अला क़ल्बि बशरिन। ”[101] यानी अल्लाह तआला फ़रमाता है कि मैनें अपने नेक बन्दों के लिए जो नेअमतें आमादह की हैं वह ऐसी हैं कि न किसी आँख नें ऐसी नेअमते देखी हैं न किसी कान ने उनके बारे में सुना है और न किसी दिल में उन का तसव्वुर पैदा हुआ है।

हक़ीक़त यह है कि हमारी मिसाल इस दुनिया में उस बच्चे की सी है जो अभी अपनी माँ के शिकम में है और पेट की महदूद फ़ज़ में ज़िन्दगी बसर कर रहा है। फ़र्ज़ करो कि अगर यह बच्चा जो अभी माँ के पेट में है अक़्ल व शऊर भी रखता हो तो बाहर की दुनिया में मौजूद चमकता हुए सूरज दमकते हुए चाँद, फूलों के मनाज़िर, हवाओं के हल्के हल्के झोंकों, दरिया की मौजों की सदा जैसे मफ़ाहीम व हक़ाइक़ को दर्क नही कर सकता। बस यह दुनिया भी उस जहान के मुक़ाबिल माँ के पेट की तरह है। इस पर तवज्जोह करनी चाहिए।

38- मआद व आमाल नामें

हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत के दिन हमारे आमाल नामे हमारे हाथों में सौंप दिये जायें गे। नेक लोगों के नामा-ए- आमाल उन के दाहिने हाथ में और गुनाहगारों के नामा-ए आमाल उनके बायें हाथ में दियो जायें गे। जहाँ नेक लोग अपने नामा-ए-आमाल को देख कर ख़ुश होंगे वहीँ गुनाहगार अफ़राद अपने नामा-ए-आमाल को देख कर रनजीदा हों गे। क़ुरआने करीम ने इस को इस तरह बयान फ़रमाया है। “फ़अम्मा मन उतिया किताबहु बियमिनिहि फ़यक़ूलु हाउमु इक़रऊ किताबियहु * इन्नी ज़ननतु अन्नी मुलाक़िन हिसाबियहु * फ़हुवा फ़ी ईशतिर राज़ियतिन* …..व अम्मा मन उतिया किताबहु बिशिमालिहि फ़

यक़ूलु या लयतनी लम ऊता किताबियहु।”[102] यानी जिस को नामा-ए- आमाल दाहिने हाथ में दिया जायेगा वह (ख़ुशी से) सब से कहेगा कि (ऐ अहले महशर) ज़रा मेरा नामा-ए- आमाल तो पढ़ो , मुझे यक़ीन था कि मेरे आमाल का हिसाब मुझे मिल ने वाला है, फिर वह पसंदीदा जिन्दगी में होगा। ........ लेकिन जिसका नामा-ए- आमाल बायें हाथ में दिया जाये गा वह कहेगा कि काश यह नामा-ए-आमाल मुझे ना दिया जाता।

लेकिन यह बात कि नामा-ए-आमाल की नौय्यत क्या होगी ? वह कैसे लिखे जायें गे कि किसी में उस से इंकार करने की जुर्रत न होगी? यह सब हमारे लिए रौशन नही है। जैसा कि पहले भी इशारा किया जा चुका है कि मआद व क़ियामत में कुछ ऐसी ख़सूसियतें हैं कि जिन के जुज़यात को इस दुनिया में समझना मुश्किल या ग़ैर मुमकिन है। लेकिन कुल्ली तौर पर सब मालूम है और इस से इंकार नही किया जा सकता।

39- क़ियामत में शुहूद व गवाह

हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत में इस के इलावा कि अल्लाह हमारे तमाम आमाल पर शाहिद है कुछ गवाह भी हमारे आमाल पर गवाही दें गे जैसे हमारे हाथ पैर, हमारे बदन की खाल, ज़मीन जिस पर हम ने ज़िन्दगी बसर करते हैं और इस के इलावा भी बहुत से हमारे आमाल पर गवाह हों गे।

“अल यौमा नख़तिमु अला अफ़वाहि हिम व तुकल्लिमुना अयदिहि व तशहदु अरजुलु हुम बिमा कानू यकसिबूना”[103] यानी इस दिन (रोज़े क़ियामत) हम उन के मुँह पर मोहर लगा दें गे और उन के हाथ हम से बाते करें गे। और उन के पैरों ने जो काम अन्जाम दिये हैं वह उन के बारे में गवाही दें गे।

“व क़ालू लिजुलुदि हिम लिमा शहिद्तुम अलैना क़ालू अनतक़ना अल्लाहु अल्लज़ी अनतक़ा कुल्ला शैइन। ”[104] यानी वह लोग अपने बदन की खाल से कहें गे कि हमारे ख़िलाफ़ गवाही क्यों दी ? तो उनको जवाब मिले गा कि जो अल्लाह हर चीज़ में बोलने की सलाहिय्यत पैदा करता है उस ने ही हम को बोल ने ताक़त दी। (और हम को राज़ों के फ़ाश करने की जिम्मेदारी सौंपी)

“यौमाइज़िन तुहद्दिसु अख़बारहा * बिअन्ना रब्बका अवहा लहा।”[105] यानी उस दिन ज़मीन अपनी ख़बरें बयान करेगी इस लिए कि आप के परवर दिगार ने उस पर वही की है( कि इस ज़िम्मेदारी को अन्जाम दे)

40-सिरात व मिज़ान

हम क़ियामत में “सिरात”व “मिज़ान” के वुजूद के क़ाइल हैं। सिरात वह पुल है जो जहन्नम के ऊपर बनाया गया है और सब लोग उस के ऊपर से उबूर करें गे। हाँ जन्नत का रास्ता जहन्नम के ऊपर से ही है। “व इन मिन कुम इल्ला वारिदुहा काना अला रब्बिका हतमन मक़ज़ियन *सुम्मा नुनज्जि अल्लज़ीना इत्तक़व व नज़रु अज़्ज़लिमीना फ़ीहा जिसिय्यन ”[106] यानी और तुम सब (बदूने इस्तसना) जहन्नम में दाख़िल हों गे यह तुम्हारे रब का हतमी फ़ैसला है। इस के बाद हम मुत्तक़ी अफ़राद को निजात दे दें गे और ज़ालेमीन को जहन्नम में ही छोड़ दें गे।।

इस ख़तरनाक पुल से गुज़रना इंसान के आमाल पर मुनहसिर है, जैसा कि हदीस में बयान हुआ है “मिन हु मन यमुर्रु मिसला अलबर्क़ि, मिन हुम मन यमुर्रु मिस्ला अदवि अलफ़रसि, व मिन हुम मन यमुर्रु हबवन, व मिन हुम मन यमुर्रु मशयन, व मिन हुम मन यमुर्रु मुताअल्लिक़न, क़द ताख़ुज़ु अन्नारु मिनहु शैयन व ततरुकु शैयन।”[107] यानी कुछ लोग पुले सिरात से बिजली की तेज़ी से गुज़र जायेंगे, कुछ तेज़ रफ़्तार घोड़े की तरह, कुछ घुटनियों के बल, कुछ पैदल चलने वालों की तरह, कुछ लोग इस पर लटक कर गुज़रेंगे, आतिशे दोज़ख़ उन में से कुछ को ले लेगी और कुछ को छोड़ दे गी।

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“मीज़ान” इसके तो नाम से ही इस के मअना ज़ाहिर है। यह इंसानों के आमाल को परख ने का एक वसीला है। हाँ उस दिन हमारे तमाम आमाल को तौला जाये गा और हर एक के वज़न व अरज़िश को आशकार किया जाये गा। “व नज़उ मवाज़ीना अलक़िस्ता लियौमि अलक़ियामति फ़ला तुज़लमु नफ़्सा शैयन व इन काना मिस्क़ाला हब्बतिन मिन ख़रदलिन आतैना बिहा व कफ़ा बिना हासिबीना।”[108] यानी हम रोज़े क़ियामत इंसाफ़ की तराज़ू क़ाइम करें गे और किसी पर मामूली सा ज़ुल्म भी नही होगा, यहाँ तक कि अगर राई के एक दाने के वज़न के बराबर भी किसी की (नेकी या बदी) हुई तो हम उस को भी हाज़िर करें गे और (उस को उस का बदला दें गे) और काफ़ी है कि हम हिसाब करने वाले हों गे।

“फ़अम्मा मन सक़ुलत मवाज़ीनहु फ़हुवा फ़ी ईशातिन राज़ियतिन *व अम्मा मन ख़फ़्फ़त मवाज़ीनहु फ़उम्मुहु हावियतिन”[109] यानी (उस दिन) जिस के आमाल का पलड़ा वज़नी होगा वह पसंदीदा ज़िन्दगी में होगा और जिस के आमाल का पलड़ा हल्का होगा उस का ठिकाना दोज़ख में होगा।

हाँ हमारा अक़ीदह यही है कि उस जहान में निजात व कामयाबी इंसान के आमाल पर मुन्हसिर हैं ,न कि उसकी आरज़ुओं व तसव्वुरात पर। हर इँसान अपने आमाल के तहत गिरवी है और तक़वे व परेहज़गारी के बिना कोई भी किसी मक़ाम पर नही पहुँच सकता। “कुल्लु नफ़्सिन बिमा कसबत रहिनतुन”[110] यानी हर नफ़्स अपने आमाल में गिरवी है।

यह सिरात व मीज़ान के बारे में मुख़्तसर सी शरह (व्याख्या) थी, जबकि इन के जुजयात के बारे में हमें इल्म नही है। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं कि आख़ेरत एक ऐसा जहान है जो इस दुनिया से जिस में हम ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं बहुत बरतर है। इस माद्दी दुनिया में क़ैद अफ़राद के लिए उस जहान के मफ़हूमों को समझना मुश्किल व ग़ैर मुमकिन है।

41- क़ियामत और शफ़ाअत

हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत के दिन पैग़म्बर, आइम्मा-ए-मासूमीन और औलिया अल्लाह अल्लाह के इज़्न से कुछ गुनाहगारों की शफ़ाअत करें गे और वह अल्लाह की माफ़ी के मुस्तहक़ क़रार पायें गे। लेकिन याद रखना चाहिए कि यह शफ़ाअत फ़क़त उन लोगों के लिए है जिन्होंनें गुनाहों की ज़्यादती की वजह से अल्लाह और औलिया अल्लाह से अपने राब्ते को क़तअ न किया हो। लिहाज़ा शफ़ाअत बेक़ैदव बन्द नही है बल्कि यह हमारे आमाल व नियत से मरबूत है। “व ला यशफ़उना इल्ला लिमन इरतज़ा”[111] यानी वह फ़क़त उन की शफ़ाअत करें गे जिन की शफ़ाअत से अल्लाह राज़ी होगा।

जैसा कि पहले भी इशारा किया जा चुका है कि “शफ़ाअत” इंसान की तरबीयत का एक तरीक़ा है और गुनाहगारों को गुनाहों से रोक ने व औलिया अल्लाह से राब्ते को क़तअ न होने देने का एक वसीला है। इस के ज़रिये इंसान को पैग़ाम दिया जाता है कि अगर गुनाहों में गिरफ़्तार हो गये हो तो फ़ौरन तौबा कर लो और आइन्दा गुनाह अंजाम न दो।

हमारा यक़ीन है कि “शफ़ाअते उज़मा” का मंसब रसूले अकरम (स.) से मख़सूस हैं और आप के बाद दूसरे तमाम पैग़म्बर व आइम्मा-ए-मासूमीन हत्ता उलमा, शोहदा, मोमेनीने आरिफ़ व कामिल को हक़्क़े शफ़ाअत हासिल है। और इस से भी बढ़ कर यह कि क़ुरआने करीम व आमाले सालेह भी कुछ लोगों की शफ़ाअत करें गे।

इमामे सादिक़ अलैहिस्सलाम एक हदीस में फ़रमाते हैं कि “मा मिन अहदिन मिन अलअव्वलीना व अलआख़ीरीना इल्ला व हुवा यहताजु इला शफ़ाअति मुहम्मद (स.) यौमल क़ियामति।”[112] यानी अव्वलीन और आख़ेरीन में से कोई ऐसा नही है जो रोज़े क़ियामत मुहम्मद (स.)की शफ़ाअत का मोहताज न हो।

कनज़ुल उम्माल में पैग़म्बरे अकरम (स.) की एक हदीस है जिस में आप ने फ़रमाया कि “अश्शुफ़ाआउ ख़मसतुन : ]“अलक़ुरआनु व अर्रहमु व अलअमानतु व नबिय्यु कुम व अहलु बैति नबिय्यि कुम। ”[113] रोज़े क़ियामत पाँच शफ़ीअ होंगे : क़ुरआने करीम, सिलह रहम, अमानत, आप का नबी और आपके नबी के अहले बैत।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम एक हदीस में फ़रमाते हैं कि “इज़ काना यौमु अलक़ियामति बअसा अल्लाहु अलआलिमा व अलआबिदा, फ़इज़ा वक़फ़ा बैना यदा अल्लाहि अज़्ज़ा व जल्ला क़ीला लिआबिदि इनतलिक़ इला अलजन्नति,व क़ीला लिलआलिमि क़िफ़ तशफ़अ लिन्नासि बिहुस्नि तादीबिका लहुम।”[114] यानी क़ियामत के दिन अल्लाह आबिद व आलिम को उठायेगा, जब वह अल्लाह की बारगाह में खड़े होंगे तो आबिद से कहा जाये गा कि जन्नत में जाओ ! और आलिम से कहा जाये गा कि ठहरो, तुम ने जो लोगों की सही तरबीयत की है उस की ख़ातिर तुम को यह हक़ है कि तुम लोगों की शफ़ाअत करो।

यह हदीस शफ़ाअत के फलसफ़े की तरफ़ एक लतीफ़ इशारा कर रही है।

42- आलमे बरज़ख

हमारा अक़ीदह है कि इस दुनिया और आख़ेरत के बीच एक और जहान है जिसे “बरज़ख़” कहते हैं।मरने के बाद हर इँसान की रूह क़ियामत तक इसी आलमे बरज़ख़ में रहती है।“व मिन वराइहिम बरज़ख़ुन इला यौमि युबअसूना। [115]” और उन के पीछे (मौत के बाद) आलमे बरज़ख़ है जो क़ियामत के दिन तक जारी रहने वाला है

हमें उस जहान के जुज़यात के बारे में ज़्यादा इल्म नही है और न ही हम उस के बारे ज़्यादा जान ने की क़ूवत रखते हैं, अलबत्ता यह जानते हैं कि उन नेक व सालेह अफ़राद की रूहें जिन के मर्तबे बलन्द है(जैसे शोहदा की रूहों) उस जहान में अल्लाह की नेअमतों से माला माल रहते हैं। “व ला तहसाबन्ना अल्लज़ीना क़ुतिलू फ़ी सबीलि अल्लाहि अमवातन वल अहया इन्दा रब्बि हिम युरज़क़ूना।”[116] जो लोग राहे ख़ुदा में शहीद हो गये उन के बारे में हर गिज़ यह ख़याल न करना कि वह मर गये हैं, नही वह ज़िन्दा हैं और अपने रब की तरफ़ से रिज़्क़ पाते हैं।

और इसी तरह से ज़ालिम, ताग़ूत और उन के हामियों की रूहें उस जहान में अज़ाब में मुबतला रहती हैं। जिस तरह क़ुरआने करीम ने फ़िरोन व आले फ़िरोन के बारे मेंबयान फ़रमाया है कि “अन्नारु युअरज़ूना अलैहा ग़ुदुव्वन व अशिय्यन व यौमा तक़ूमु अस्साअतु अदख़िलू आला फ़िरअवना अशद्दा अलअज़ाब।”[117] यानी उन का अज़ाब (बरज़ख़ में )आग (जहन्नम) है जिस में उन को सुबह शाम जलाया जाता है और जिस दिन क़ियामत वाक़े होगी उस दिन (फ़रमान) गिया जायेगा कि आले फ़िरोन को सख़्त तरीन आज़ाब में दाख़िल करो।

लेकिन वह तीसरा गिरोह जिन के गुनाह कम है न वह नेअमतें पाने वालो में हैं और न अज़ाब भुगत ने वालों में बल्कि वह लोग एक क़िस्म की नीँद में रहते हैं और रोज़े क़ियामत बेदार हों गे। “व यौमा त़कूमु अस्सअतु युक़सिमु अलमुजरिमूना मा लबिसू ग़ैरा साअतिन .........व क़ाला अल्लज़ीना ऊतुल इल्मा व अलईमाना लक़द लबिसतुम फ़ी किताबि अल्लाहि इला यौमि अलबअसि फ़हाज़ा यौमु अलबअसि व लकिन्ना कुम कुन्तुम ला तअलमूना।”[118] यानी जिस दिन क़ियामत बरपा होगी उस दिन गुनाहगार लोग क़सम खा-खा कर कहेंगे कि वह आलमें बरज़ख़ मे एक घन्टे से ज़्यादा नही रुके........,और जिन लोगों को इल्म व ईमान दिया गया है वह गुनाहगारों को मुख़ातब करते हुए कहें गे कि तुम अल्लाह के हुक्म से क़ियामत तक (आलमे बरज़ख़ में) रहे हो, और आज रोज़े क़ियामत है लेकिन तुम को इस का इल्म नही है।

इस्लामी रिवायात में भी इस का ज़िक्र मौजूद है जैसे पैग़म्बरे अकरम (स.) की हदीस है कि “अलक़बरु रोज़तु मिन रियाज़िन जन्नति अव हुफ़रतु मिनहुफ़रि अन्नीरानि। ”[119] कब्र या जन्नत के बाग़ों में से एक बाग़ है या फिर जहन्नम के गढ़ों में से एक गढ़ा।

43- माद्दी व मअनवी जज़ा

हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत में मिलने वाली जज़ा में माद्दी और मानवी दोनों पहलु पाये जाते है,और वह इस लिए कि मआद भी रूहानी और जिस्मानी है। क़ुरआने करीम की आयात और इस्लामी रिवायात में भी इस का ज़िक्र हुआ है। जैसा कि जन्नत को बाग़ों के बारे में मिलता है कि उन के दरख़्तों के नीचे से नहरे जारी हैं। “जन्नातिन तजरी मिन तहतिहा अलअनहारु”[120] यानी जन्नत के बाग़ ऐसे हैं जिन के नीचे नहरे जारी हैं। या जन्नत के दरख़्तों के फ़लों व सायों के जावेदानी होने के बारे में क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “उकुलुहा दाइमुन व ज़िल्लुहा ”[121]यानी जन्नत के दरख़्तों के फल व साये दाइमी हैं। या साहिबाने ईमान के लिए फ़रमाया कि जन्नत में उनके लिए अच्छे हमसर होंगे। “व अज़वाजुन मुतह्हरतुन ”[122] यानी जन्नत में पाको पाकीज़ा हमसर होंगे। इसी तरह से और भी बहुत सी आयतें मौजूद है।

इसी तरह जहन्नम की जला डाल ने वाली आग और सख़्त सज़ा के बारे में भी बयान मिलता है,जो उस जहान की माद्दी सज़ा या जज़ा को रौशन करता है।

लेकिन इस से मुहिम मानवी जज़ा है,मारफ़ते अनवारे ईलाही व अल्लाह से रूह का तक़र्रुब और उसके जमालो जलाल के जलवों में पाई जाने वाली लज़्ज़त को बयान कर ने की सलाहियत किसी भी ज़बान में नही है।

क़ुरआने करीम की कुछ आयतों में जन्नत की माद्दी नेअमतों को बयान कर ने के बाद इस जुमले को इज़ाफ़ा किया गया है “व रिज़वानु मिन अल्लाहि अकबरु ,ज़ालिका हुवा अलफ़ौज़ु अलअज़ीम ”[123] यानी अल्लाह की रिज़ा और ख़ुशनूदी इन सब से बरतर है,और सब से बड़ी कामयाबी भी यही है।

हाँ इस से बढ़ कर कोई लज़्ज़त नही है कि इंसान ख़ुद यह महसूस करे कि वह अपने मअबूद व महबूब की बारगाह में क़बूल हो गया है और उस ने अपने रब की रिज़ा हासिल कर ली है।

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अली इब्नुल हुसैन अलैहिमा अस्सलाम फ़रमाते हैं कि “यक़ूलु (अल्लाह) तबारका व तआला रिज़ाया अन कुम व महब्बती लकुम ख़ैरु व आज़मु मिन मा अन्तुम फ़ीहि... ”[124] यानी अल्लाह तबारकु तआला उन से फ़रमाता है कि मेरा तुम से राज़ी होना और मेरा तुम से मुहब्बत करना इस से कहीँ बेहतर है जिन नेअमतों के दरमियान तुम ज़िन्दगी बसर कर रहे हो। ....... वह सब इन बातों को सुनते हैं और तसदीक़ करते हैं।

हक़ीकतन इस से बढ़ कर और क्या लज़्ज़त हो सकती है कि अल्लाह इंसान को इस तरह ख़िताब फ़रमाये “या अय्यतुहा अन्नफ़सु अलमुतमइन्ना इरजई इला रब्बिकि राज़ियतन मरज़ियतन फ़उदखुली फ़ी इबादि व उदख़ुली जडन्नती ”[125] यानी ऐ नफ़्से मुतमइन्ना अपने रब की तरफ़ पलट आ इस हाल में कि तू उस से राजी और वह तुझ से राजी है बस मेरे बन्दों में दाख़िल हो कर मेरी जन्नत में दाख़िल हो जा।

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