हज़रत अब्बास (अ) का शुभ जन्म दिवस।

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पैग़म्बरे इस्लाम (स) की बेटी हज़रत फ़ातिमा ज़हरा की शहादत के बाद, हज़रत अली (अ) का विवाह फ़ातिमा किलाबिया यानी हज़रत उम्मुल बनीन से हुआ, जिसका अर्थ है बेटों की मां।

वे सद्गुणों वाली एक विशिष्ट महिला थीं, जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों से प्रेम करती थीं और उनका विशेष सम्मान करती थीं। वे क़ुरान की सिफ़ारिश के मुताबिक़, पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से प्रेम करती थीं। क़ुरान कहता है कि हे पैग़म्बर उन लोगों से कह दो कि मुझे तुम्हारे मार्गदर्शन के बदले में कुछ नहीं चाहिए, केवल यह कि तुम मेरे परिजनों से मोहब्बत करो। उन्होंने इमामे हसन, इमामे हुसैन, हज़रत ज़ैनब और उम्मे कुलसूम को उनके बचपने में मां का प्यार दिया और उनकी सेवा की। इसीलिए पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में उनका एक विशेष स्थान रहा। हज़रत ज़ैनब हमेशा उनके घर उनसे मुलाक़ात के लिए जाती रहती थीं।

अब्बास इब्ने अली (अ) हज़रत उम्मुल बनीन की पहली संतान थे। उनका जन्म 4 शाबान 26 हिजरी को मदीने में हुआ। उनके जन्म से उनके पिता हज़रत अली (अ) बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने उनका नाम अब्बास रखा। हज़रत अब्बास (अ) का पालन-पोषण हज़रत अली (अ) ने किया, जो ख़ुद एक पूर्ण इंसान और सद्गुणों का केन्द्र थे। इतिहास गवाह है कि हज़रत अली (अ) ने अपने बेटे अब्बास की परवरिश पर विशेष ध्यान दिया। हज़रत अब्बास भी अपने दूसरे भाई बहनों की भांति अपने पिता की ख़ास कृपा का पात्र थे। वे हज़रत अली (अ) के बुद्धिजीवी बेटों में से थे। उनकी प्रशंसा में कहा गया है कि हां, हज़रत अब्बास इब्ने अली (अ) ने ज्ञान को उसके स्रोत से प्राप्त किया है।

हज़रत अब्बास (अ) सुन्दर एवं आकर्षण व्यक्तित्व के मालिक थे, उनका सुन्दर चेहरा हर देखने वाले को आकर्षित करता था। वे हाशमी ख़ानदान में एक चांद की भांति चमकते थे। उनके पूर्वज अब्दे मनाफ़ को मक्के का चांद और पैग़म्बरे इस्लाम के पिता अब्दुल्लाह को हरम का चांद कहा जाता था। हज़रत अब्बास (अ) को हाशिम ख़ानदान का चांद कहा जाता था, जो उनके दिलकश चेहरे की सुन्दरता को ज़ाहिर करता है। इसी प्रकार वे शारीरिक रूप से बहुत शक्तिशाली थे और बचपन से ही अपने पिता की भांति बुद्धिमान और साहसी थे। उनके पिता ने उन्हें बचपन में ही तलवारबाज़ी, तीर अंदाज़ी और घुड़सवारी सिखा दी थी।

हज़रत अब्बास (अ) की वीरता और साहस देखकर लोगों को हज़रत अली की वीरता याद आ जाती थी। वे युवा अवस्था से ही अपने पिता हज़रत अली (अ) के साथ कठिन और भयानक अवसरों पर उपस्थित रहे और इस्लाम की रक्षा की। दुश्मनों के साथ युद्ध में आपकी बहादुरी देखने योग्य होती थी। इतिहास ने सिफ़्फ़ीन युद्ध में हज़रत अब्बास की वीरता के दृश्यों को दर्ज किया है। इतिहास के मुताबिक़, सिफ़्फ़ीन की लड़ाई में एक दिन हज़रत अली (अ) की सेना से एक युवा बाहर निकला, उसके चेहरे पर नक़ाब पड़ी हुई थी, चाल ढाल से वीरता, बहादुरी और हैबत झलक रही थी। शाम की फ़ौज से किसी ने इसके मुक़ाबले में आने का साहस नहीं किया। मुआविया ने अपनी फ़ौज के एक योद्धा अबू शक़ा से कहा कि इस जवान का मुक़ाबला करने के लिए मैदान में जाए। उसने कहा हे अमीर मेरी शान इससे कहीं अधिक है कि मैं उसका मुक़ाबला करूं, मेरे सात बेटे हैं, उनमें से किसी एक को भेज देता हूं ताकि उसे जाकर समाप्त कर दे। उसने अपने एक बेटे को भेजा, लेकिन एक ही झटके में उसका काम तमाम हो गया। उसके बाद उसने अपने दूसरे बेटे को भेजा, वह भी तुरंत अपने भाई के पास पहुंच गया। सातों भाई एक दूसरे का बदला लेने के लिए मैदान में उतरे, लेकिन सबके सब मारे गए। मौत के भय से दुश्मन के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थीं, जबकि हज़रत अली की सेना का यह जवान मैदान में पूरी शक्ति और वीरता के साथ डटा हुआ था और अपने मुक़ाबले के लिए दुश्मन को ललकार रहा था। उस समय अबू शक़ा ख़ुद मैदान में उतरा और कुछ देर ज़ोर आज़माने के बाद अपने बेटों की तरह मारा गया। यह देखकर सब हैरत में पड़ गए। दुश्मन की सेना का हर व्यक्ति जानना चाहता था कि यह जवान है कौन। हज़रत अली (अ) ने उस जवान को अपने पास बुलाया और उसके चेहरे से नक़ाब हटाया और उसके माथे को चूम लिया। सभी ने देखा कि यह जवान हज़रत अली (अ) का बेटा अब्बास है।

हज़रत अली फ़रमाते थे, बाप अपने बेटों को जो बेहतरीन मीरास देते थे, वह गुण और उत्कृष्टता है। अब्बास ने भी अपने पिता से ज्ञान की बड़ी पूंजी हासिल की और उम्र भर अपने भाई इमाम हुसैन की सेवा और मदद की। वे अपने बड़े भाईयों, इमाम हसन और इमाम हुसैन की उपस्थिति में उनकी बिना अमुमति के नहीं बैठते थे और अपनी 34 साल की उम्र में उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम के बेटे या अपना स्वामी कहकर संबोधित करते रहे।

हज़रत अब्बास पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से मोहब्बत करने वाली एक आदर्श हस्ती थे। वे अपने समय के इमामों का पूर्ण रूप से अनुसरण करते थे और उनके आज्ञाकारी थे, जबकि उनके दुश्मनों से दूरी बनाकर रखते थे। हज़रत अब्बास (अ) ने आख़िरी दम तक अपने इमाम का पूर्ण समर्थन किया और उनके दुश्मनों से डटकर मुक़ाबला किया। उन्होंने अपने पिता की शहादत के बाद, अपने भाईयों इमाम हसन और इमाम हुसैन की सहायता में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। कभी भी उनसे आगे नहीं बढ़े और कभी भी उनकी किसी बात को नहीं टाला।

 

हज़रत अली (अ) के मुताबिक़, समस्त नैतिक सिद्धांतों का उद्देश्य बलिदान और दूसरों को स्वयं पर वरीयता देना है और यही सबसे बड़ी इबादत है। हज़रत अली (अ) हारिस हमदानी के नाम अपने एक पत्र में लिखते हैं, जान लो कि सबसे विशिष्ट मोमिन वह है जो अपनी और अपने परिवार की जान और माल को पेश करके दूसरे मोमिनों पर वरीयता प्राप्त करता है। धर्म की मार्ग में और मानवीय महत्वकंक्षाओं की प्राप्ति में हज़रत अब्बास (अ) की जान-निसारी और क़ुर्बानी को कर्बला में देखा जा सकता है। हज़रत अब्बास (अ) इमाम हुसैन की सेना के सेनापति थे। जब यज़ीद की फ़ौज ने इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों की घेराबंदी कर ली। सातवीं मोहर्रम को हज़रत अब्बास (अ) ने दुश्मन की घेराबंदी तोड़ दी। उसके तीन दिन बाद आशूर के दिन फिर से हज़रत अब्बास एक बार फिर दुश्मनों की घेराबंदी तोड़ते हुए और वीरता से लड़ता हुए फ़ुरात नदी के किनारे पहुंच गए, ताकि इमाम हुसैन (अ) के साथियों और उनके बच्चों के लिए पानी ला सकें। इस समय हज़रत अब्बास (अ) ने अत्यंत वीरता और महानता का परिचय दिया। इमाम हुसैन के साथियों के बच्चों और महिलाओं की प्यास के कारण, अत्यधिक भूख और प्यास के बावजूद फ़ुरात का ठंडा पानी नहीं पिया। बच्चों के लिए पानी लेकर जब वापस लौटे तो दुश्मन ने घात लगाकर हमला कर दिया और उनके हाथों को काट डाला और उन्हें शहीद कर दिया।

अब कर्बला कि वाक़ए को हुए लगभग 1400 वर्ष बीत रहे हैं, लेकिन इतिहास आज भी हज़रत अब्बास (अ) की बहादुरी और साहसपूर्ण कारनामों से जगमगा रहा है। शताब्दियां बीत जाने के बावजूद, आने वाली पीढ़ियां जो सत्य प्राप्त करना चाहती हैं, हज़रत अब्बास के बलिदान और साहस से प्रेरणा ले रही हैं। सलाम हो तुम पर अऐ अबुल फ़ज़्लिल अब्बास, सलाम हो तुम पर या इब्ने अली अबि तालिब (अ)।                              

 

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