हज़रत फ़ातेमा मासूमा स्वर्गवास

Rate this item
(0 votes)

आज ही के दिन महान महिला हज़रत फ़ातेमा मासूमा का स्वर्गवास हुआ। आप अपने भाई हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से मिलने के लिए मदीना से मर्व के लिए चलीं लेकिन घटनाओं से भरे इस सफ़र के कारण आप अपने भाई से न मिल सकीं और अंततः उन्हें पवित्र नगर क़ुम को अपने अमर स्थान के रूप में चुनना पड़ा। इस अवसर पर पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों से श्रद्धा रखने वालों को संवेदना प्रस्तुत करने के साथ ही हज़रत मासूमा के जीवन के कुछ अहम पहलुओं से आपको अवगत करा रहे हैं।

वास्तविक परिपूर्णतः व कल्याण ईश्वर पर दृढ़ आस्था और उसके आदेश के अनुसार शुद्ध कर्म से ही हासिल होता है। यही वजह है कि इस दृष्टि से मर्द और औरत के बीच कोई अंतर नहीं है। मर्द और औरत शारीरिक व आत्मिक दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न होते हैं लेकिन दोनों ही परिपूर्णतः व कल्याण तक पहुंचने की दृष्टि से जो ईश्वर का सामिप्य है, समान संभावना रखते हैं। दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है। औरत भी ईश्वर पर आस्था और शुद्ध कर्म के ज़रिए ईश्वर की निकटता हासिल कर सकती है और इसी तरह मर्दों के लिए वास्तविक कल्याण व परिपूर्णतः तक पहुंचने के लिए मार्ग समतल है। जैसा कि ईश्वर ने नहल नामक सूरे की आयत नंबर 97 में पवित्र जीवन की प्राप्ति को उस पर आस्था और शुद्ध कर्म से सशर्त किया है। इस आयत में ईश्वर कहता है, "जो भी चाहे वह मर्द हो या औरत, अगर ईमान रखता है, तो उसे अमर पवित्र जीवन देंगे। और उन्हें जो बेहतरीन कर्म करते हैं, उसका फल देंगे।"

पूरे इतिहास में ऐसी बहुत सी औरतें गुज़री हैं जो अपने कर्म से ईश्वर पर आस्था व अध्यात्म के उच्च चरण तक पहुंचीं। इनमें से कुछ नमूनों का ईश्वर ने क़ुरआन में उल्लेख किया है ताकि वे उनके बाद के लोगों के लिए आदर्श बनें। हज़रत ईसा मसीह की मां हज़रत मरयम भी उन्हीं औरतों में हैं। ईश्वर ने आले इमरान नामक सूरे की आयत नंबर 42 में हज़रत मरयम के चरित्र की गवाही देते हुए कहा है, "हे मरयम! ईश्वर ने तुम्हें चुना और पवित्र बनाया और तुम्हें दूसरी महिलाओं पर वरीयता दी है।"

महान महिला का एक और नमूना हज़रत आसिया हैं जो फ़िरऔन की बीवी थीं। जिस वक़्त इस महान महिला ने जादूगरों के मुक़ाबले में हज़रत मूसा के चमत्कार को देखा तो उनका हृदय ईश्वर पर आस्था के प्रकाश और हज़रत मूसा की पैग़म्बरी पर आस्था से भर गया। लेकिन वह अपनी इस आस्था को ज़ाहिर नहीं करती थीं यहां तक कि फ़िरऔन को उनकी आस्था की भनक लग गयी। जिसके बाद फ़िरऔन ने हज़रत आसिया के हाथ पैर पर कील ठोंकने, उन्हें धूप में रखने और उनके सीने पर भारी पत्थर रखने का आदेश दिया। इस महान महिला ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में यह दुआ की, "हे पालनहार! मुझे फ़िरऔन और उसके कर्म से मुक्ति दे और मुझे स्वर्ग में अपने पास जगह दे।" ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन की आयत के अनुसार, उनकी इस दुआ को क़ुबूल किया।                  

ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करने व परिपूर्णतः तक पहुंचने वाली महानतम महिलाओं में हज़रत फ़ातेमा मासूमा भी हैं। उन्होंने अपने पिता हज़रत इमाम मूसा काज़िम और अपने भाई हज़रत इमाम रज़ा जैसी दो हस्तियों की छत्रछाया में प्रशिक्षण पाने के साथ ही ईश्वरीय सामिप्य हासिल करने के लिए अद्वितीय प्रयास किया। इसका अंदाज़ा उनके जीवन की एक महा घटना से लगाया जा सकता है। एक बार पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों पर आस्था रखने वालों का एक समूह कई शहरों से मदीना पहुंचा ताकि अपने धार्मिक सवालों व गुत्थियों का हल इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से पूछे। जब वे मदीना में इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के घर के दरवाज़े पर पहुंचे तो उन्हें पता चला कि इमाम सफ़र पर गए हैं। इमाम को ना पाकर इन श्रद्धालुओं की सफ़र की थकान कई गुना बढ़ गयी। वे वापस लौटने के बारे में सोच रहे थे कि अचानक हज़रत फ़ातेमा मासूमा जो उस समय बच्ची थीं, दरवाज़े पर पहुंची और उन लोगों से कहा कि अपने अपने सवाल उन्हें दे दें। हज़रत मासूमा ने उनके एक एक सवाल के जवाब लिख कर उनके ख़त उन्हें लौटा दिए। इन लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी छोटी बच्ची ने धर्मशास्त्र से संबंधित उनके सवालों के जवाब दिए।  

जब ये लोग मदीना से लौट रहे थे तो रास्ते में उनकी इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात हुयी जो मदीना वापस आ रहे थे। वे लोग बड़ी उत्सुकता से इमाम की ओर बढ़े कि उन्हें सारी घटनाएं बताएं। इन लोगों ने हज़रत मासूमा की दस्तख़त वाला पत्र इमाम को दिखाया। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने ख़त खोला और अपनी बेटी द्वारा सवालों के दिए गए जवाब देख कर कहा, "ऐसी बेटी पर बाप न्योछावर हो जाए।"

इंसान ईश्वर की उपासना व वंदना द्वारा अध्यात्म के ऐसे चरण पर पहुंच सकता है कि ईश्वरीय कृपा के उतरने का माध्यम और उसके इरादे का प्रतीक बन जाए। इस बारे में हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं, "ईश्वर की वंदना व आज्ञापालन ऐसा रत्न है जिससे अन्य प्राणियों पर साम्राज्य हासिल होता है।"

हज़रत फ़ातेमा मासूमा भी ईश्वर की वंदना व आज्ञापालन के ज़रिए जो उच्च स्थान हासिल किया, उसकी वजह से अपने जीवन में भी और उसके बाद भी करिश्मों का स्रोत बन गयीं। यह करिश्मा सिर्फ़ जीवन के भौतिक आयाम तक सीमित नहीं हैं बल्कि वे लोग भी लाभान्वित होते हैं जो आध्यात्मिक स्थान पाना चाहते हैं। मिसाल के तौर पर सफ़वी शासन काल के मशहूर दार्शनिक मुल्ला सदरा कहते हैं, "जब भी दर्शनशास्त्र की कोई गुत्थी नहीं सुलझती थी तो मैं पैदल कहक से क़ुम जाता और हज़रत फ़ातेमा मासूमा की क़ब्र पर खड़ा होकर उनसे मदद मांगता। इस तरह मेरी मुश्किल हल हो जाती और फिर मैं अपने गांव कहक लौट आता।" यह करिश्मा हज़रत मासूमा की महान आत्मा को दर्शाता और यह बताता है कि उनका कृपा के अनन्य स्रोत ईश्वर से संपर्क था। संगीत

हज़रत मासूमा की आत्मिक महानता के पीछे एक वजह उनकी नैतिकता भी थी। उनमें ईश्वर के मार्ग में धैर्य व दृढ़ता और उसके फ़ैसलों के सामने रज़ामंदी जैसी विशेषता पायी जाती थी। वे अपनी छोटी सी उम्र में ही इन विशेषताओं की वजह से मशहूर थीं। हज़रत मासूमा ने अपने परिवार के लोगों के साथ अब्बासी शासकों की ओर से होने वाले अत्याचार सहन किए। सबसे बड़ी मुसीबत जो उन पर पड़ी वह उनके पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का क़ैद होना और बग़दाद की जेल में तत्कालीन अब्बासी शासक हारून रशीद के एजेंटों के हाथों उनका शहीद होना था। इसके बाद इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का मदीना से पूर्वोत्तरी ईरान के मर्व शहर पलायन के लिए मजबूर किया जाना। ये सब हज़रत मासूमा के लिए बहुत बड़ी मुसीबत थी लेकिन उन्होंने अब्बासी शासकों की ओर से होने वाले अत्याचार पर धैर्य से काम लिया और अपनी वैज्ञानिक गतिविधियों को जारी रखा। इसके साथ ही आपने अपने भाइयों के साथ सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन के लिए क़दम उठाया और मौजूदा स्थिति पर आपत्ति जताने के लिए पलायन को इसका माध्यम चुना।

हज़रत मासूमा 201 हिजरी क़मरी में एक कारवां की अगुवाई करती हुयी जिसमें उनके भाई और संबंधी थे, ईरान के लिए निकलीं। आप जिस शहर, गांव व स्थान पर पहुंचतीं, अपने भाई इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की पीड़ा व मज़लूमियत का बखान करतीं और अब्बासी शासन से अपने और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के विरोध को बयान करतीं। इस चीज़ को तत्कालीन अब्बासी शासन सहन नहीं कर पा रहा था क्योंकि उसे डर था कि लोग उसके अत्याचार से अवगत हो जाएंगे तो शासन का वजूद ख़तरे में पड़ जाएगा। जिस वक़्त हज़रत मासूमा का कारवां क़ुम से लगभग 70 किलोमीटर दूर सावेह शहर पहुंचा तो पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के कुछ विरोधियों ने शासन के इशारे पर कारवां पर हमला कर दिया और इस असमान जंग में कारवां के सभी मर्द शहीद हो गए। इस त्रासदी का हज़रत मासूमा के मन पर इतना असर पड़ा कि आप बीमार हो गयीं। आपने बीमारी की हालत में कहा, "मुझे क़ुम शहर ले चलो! क्योंकि मैने अपने पिता से सुना है कि क़ुम शहर शियों का केन्द्र है।" क़ुम शहर के लोगों को जब यह शुभसुचना मिली तो वे हज़रत मासूमा के स्वागत के लिए निकल पड़े। हज़रत मासूमा 23 रबीउल अव्वल सन 201 हिजरी क़मरी में क़ुम पहुंचीं और 16 दिन जीवित रहने के बाद इस नश्वर संसार से सिधार गयीं।

हज़रत मासूमा के पवित्र शव को क़ुम में दफ़्न किया गया ताकि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों से श्रद्धा रखने वाले उन्हें श्रद्धांजलि दे सकें। हज़रत मासूमा के वजूद की बर्कत है कि आज क़ुम इस्लामी शिक्षाओं के प्रसार का केन्द्र बन गया है। आज पूरी दुनिया से इस्लामी शिक्षाओं में रूचि रखने वाले बड़ी संख्या में क़ुम में धार्मिक केन्द्रों में शिक्षा हासिल कर रहे हैं।

 

Read 1998 times