इमाम हादी (अ) की शहादत की बरसी

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पाक व पवित्र है वह ईश्वर, जिसकी प्रशंसा इंसान उस तरह नहीं कर सकता जिस तरह उसकी प्रशंसा करने का हक़ है।

नहीं की जा सकती और जिसके समान कोई चीज़ नहीं है, इसलिए कि उसके जैसा कोई नहीं है और वह सुनने और देखने वाला है। ईश्वर ने जितना वर्णन स्वयं के बारे में किया है, उसके अलावा उसका कोई वर्णन नहीं किया जा सकता। उसने वजूद एवं अस्तित्व को रूप प्रदान किया, लेकिन उसका कोई रूप नहीं है। उसने स्थान की रचना की, लेकिन उसका अपना कोई स्थान नहीं है और वह इस सीमितता से परे है। वह एक है और उसका कोई साथी नहीं है। उसके नाम और गुण पवित्र एवं पाक हैं।

आज पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पोते इमाम अली नक़ी (अ) की शहादत की बरसी है। इमामत ईश्वर का वरदान है। ईश्वर यह वरदान केवल उन लोगों को प्रदान करता है, जिनका विवेक एकेश्वरवाद पर विश्वास के साथ गूंथा हुआ होता है और उनके दामन पर किसी तरह की बुराई का कोई धब्बा नहीं होता है। यही कारण है कि ईश्वर के दूतों के रूप में धरती पर इमामों की ज़िम्मेदारी केवल धार्मिक नियमों एवं क़ुरान की व्याख्या करना नहीं है, बल्कि उनकी ज़िम्मेदारी का दायरा बहुत विस्तृत है और उसमें समस्त इंसानों का मार्गदर्शन शामिल है। वे उस सूर्य की भांति हैं, जिसकी धूप सब पर एक समान पड़ती है, अब अगर कुछ लोग उसकी धूप से लाभ उठाने के बजाए अपने और उसके बीच कोई रुकावट उत्पन्न कर लेंगे तो नुक़सान उन्हीं का होगा और वे ख़ुद ही मार्गदर्शन के केन्द्र से दूर हो जायेंगे। इमाम अपने उपदेशों और मार्गदर्शन से, जीवन के सूखे पौधे को हरा भरा करते हैं।

इमाम अली इब्ने मोहम्मद हादी और नक़ी के नाम से मशहूर हैं। वे 25 रजब और एक दूसरे कथन के मुताबिक़, 25 जमादिल आख़र को इराक़ के सामर्रा शहर में शहीद हुए। अपने पिता की शहादत बाद, केवल 8 साल 5 महीने की उम्र में अपने महान पिता की ही भांति उन्होंने इमामत की ज़िम्मेदारी संभाली और 33 वर्ष तक लोगों का मार्गदर्शन किया। इमाम अली नक़ी (अ) से तत्कालीन दक्ष विद्वानों ने विभिन्न विषयों जैसे कि धर्मशास्त्र, दर्शन एवं इतिहास से संबंधित प्रश्न पूछे, इमाम ने समस्त प्रश्नों के उत्तर इतने सटीक एवं स्पष्ट दिए कि उन्होंने दांतों तले उंगली दबा ली और इमाम की इमामत को स्वीकार किया।

इमाम हादी (अ) की इमामत के दौरान, 6 अब्बासी शासकों ने शासन किया। इन अब्बासी शासकों का व्यवहार, इमाम के साथ विभिन्न रहा। कुछ ने इमाम के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार अपनाया तो कुछ ने संतुलित। हालांकि वे सभी इमाम के हक़ को छीनने और उनके अधिकारों का हनन करने में एक समान थे।

अब्बासी शासकों में से मुतवक्किल सबसे अधिक पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से दुश्मनी रखता था और उन पर अत्याचार करता था। यहां तक कि उसने आदेश दिया कि शिया मुसलमानों के इमामों विशेषकर इमाम हुसैन (अ) की पवित्र क़ब्रों को ध्वस्त कर दिया जाए। उसके आदेश का पालन करते हुए उसके अधिकारियों ने कर्बला में इमाम हुसैन के पवित्र मज़ार को ध्वस्त कर दिया और उस स्थान पर खेती शुरू कर दी।

मुतवक्किल मदीने में इमाम हादी (अ) की उपस्थिति से भयभीत था, उसे डर था कि कहीं इमाम राजनीतिक गतिविधियां शुरू न कर दें। उसने इसीलिए एक साज़िश रची और इमाम को देश निकाला दे दिया और मदीने से सामर्रा भेज दिया। सामर्रा में इमाम हादी (अ) को क़ैद कर दिया गया। सामर्रा शहर अब्बासी शासकों की सैन्य छावनी थी और कुछ शासकों ने इसे अपनी राजधानी भी बनाया। इसीलिए इमाम को इस शहर भेजा गया, ताकि इमाम की गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखी जा सके। इमाम हादी को असकरी भी कहते हैं, इसलिए कि वे अपने बेटे इमाम हसन असकरी की भांति सामर्रा की सैन्य छावनी में नज़र बंद रहे। किताबों में इन दो इमामों को असकरिएन के नाम से याद किया गया है।

एक इमाम मासूम की विशिष्टता यह है कि वह ज्ञान, पवित्रता और नैतिक गुणों से सुसज्जित होता है और समस्त गुणों में अपने समय के समस्त इंसानों से सर्वश्रेष्ठ होता है। यह समस्त विशिष्टताएं इमाम हादी (अ) में पाई जाती थीं। उत्कृष्टता तक पहुंचने के लिए सर्वश्रेष्ठ ज्ञान का होना ज़रूरी है। इमाम अली नक़ी (अ) का मानना था कि इंसानियत के उत्कृष्ट उद्देश्यों तक पहुंचने के लिए लोगों को ज्ञान हासिल करना चाहिए, इसलिए कि ज्ञान के बिना कोई भी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता। वे फ़रमाते हैं, विद्वान एवं विद्यार्थी विकास में भागीदार होते हैं।

इमाम हादी (अ) विद्वानों का अधिक सम्मान करते थे और उन्हें प्रकाश एवं ज्ञान का स्रोत बताते थे। इमाम (अ) फ़रमाते थे, ईश्वर जिस प्रकार से मोमिन को ग़ैर मोमिन पर प्राथमिकता देता है, वैसे ही ज्ञानी मोमिन को अज्ञानी मोमिन पर विशिष्टता प्रदान करता है। ईश्वर ज्ञानी मोमिनों को उच्च स्थान प्रदान करता है।

इस्लाम के अनुसार, इंसान हर समय और हर स्थान पर ईश्वर के सामने उपस्थित होता है, लेकिन ईश्वर ने अपने बंदों को ख़ुद से अधिक निकट करने और उनकी सुख सविधा के लिए समय और स्थान का निर्धारण कर दिया है। इमाम हादी (अ) पवित्र स्थलों के महत्व को बयान करते हुए फ़रमाते हैं, ईश्वर के निकट कुछ स्थान पवित्र हैं, जहां वह दुआ को स्वीकार करता है। इसलिए जो कोई भी वहां दुआ करता है वह उसे स्वीकार कर लेता है, ऐसे ही स्थानों में से एक इमाम हुसैन (अ) का पवित्र रौज़ा है।

ईरान में नव वर्ष या नौरोज़, ऐसे पवित्र स्थलों की ज़ियारत का बेहतरीत अवसर होता है। ईश्वरीय प्रतिनिधियों के अनुसार, ख़ुशी और मनोरंजन, इंसान की प्रवृत्ति में शामिल है और यह उसका जन्म सिद्ध अधिकार है, जिससे उसके मन को ताज़गी प्राप्त होती है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) हमेशा ख़ुश रहते थे और इसके महत्व पर बल देते थे। उनके परिजन भी आत्मा की शुद्धि एवं ख़ुशहाली के लिए ख़ुश रहने पर बल देते थे। वे इसके लिए लोगों का मार्गदर्शन करते थे, जिससे मोमिनों के दिलों में ईश्वर की मोहब्बत की कलियां खिल जाती थीं।

इमाम हादी (अ) जब भी सुनते थे कि किसी शख़्स ने अपने किसी परिजन के साथ भलाई की है या किसी मोमिन को प्रसन्न किया है या अपने किसी भाई की किसी समस्या का समाधान किया है, तो बहुत प्रसन्न होते थे और अपनी इस प्रसन्नता से अपने अनुयाइयों को अवगत कराते थे, ताकि वे भी इसका अनुसरण करें। इसहाक़ जल्लाब का कहना है कि बक़रईद के अवसर पर आठ ज़िलहिज्जा को मैंने इमाम हादी (अ) के लिए एक बड़ी संख्या में भेड़ें ख़रीदीं, उन्होंने इन भेड़ों को अपने रिश्तेदारों में बांट दिया। 

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि खिला हुआ चेहरा, मीठी और सच्ची बात, सुन्दरता, उत्कृष्टता एवं सम्मान मासूम इमामों की लोकप्रियता के कारण थे और इससे लोगों के दिलों में उनका सम्मान था। इमाम हादी (अ) की विशिष्टताओं के बारे में इब्ने शहर आशोब लिखते हैं, ख़ुश अख़लाक़ी के दृष्टिगत, इमाम हादी (अ) सर्वश्रेष्ठ थे, सबसे सच्चे थे, निकट से देखने में बहुत ही सुन्दर और दूर से देखने में संपूर्ण थे। जब वे ख़ामोश रहते थे तो उनका जलाल देखने योग्य होता था और जब बात करते थे तो उनकी महानता उजागर होती थी।

इमाम हादी (अ) के समय में, परिस्थितियां बहुत जटिल थीं, जिसके कारण राजनीतिक गतिविधियों के लिए काफ़ी सीमितताएं थीं, लेकिन हज़रत ने कोई अवसर हाथ से जाने नहीं दिया और अपनी राजनीतिक गतिविधियां भी जारी रखीं। उनका मानना था कि दृष्टिकोण, कर्मों एवं कार्यक्रमों की शुद्धता के लिए एक आईना है। इस दौरान शिया मुसलमानों के दसवें इमाम ने ऐसे विद्वानों की प्रशिक्षण की जिनका नाम इतिहास में दर्ज है। शेख़ तूसी ने इमाम (अ) के शिष्यों और साथियों की संख्या 190 बताई है।

आख़िरकार, अब्बासी शासक मोतिज़ ने इमाम अली नक़ी (अ) के पवित्र वजूद को इससे ज़्यादा सहन नहीं किया और उन्हें ज़हर देकर शहीद कर दिया। धार्मिक ग्रंथों में शहादत को बेहतरीन मौत क़रार दिया गया है। यह वह मौत है जिसे ईश्वर के लिए पूरे विवेक के साथ गले लगाया जाता है। अधिकांश ईश्वरीय दूतों को यह गर्व हासिल रहा है और उन्होंने शहीद होकर मुर्दा समाज में नई रूह फूंकी है।

इमाम हादी (अ) भी अन्य इमामों की भांति, शहीद हुए। उन्हें उनके ही घर में उनके उपास्ना स्थल में दफ़्ना दिया गया। हर साल करोड़ों मुसलमान सामर्रा में उनके भव्य रौज़े की ज़ियारत करने जाते हैं। हम इमाम (अ) के इस सुन्दर कथन के साथ अपनी बात ख़त्म करते हैं, शिष्टाचार, बेहतरीन नेकी और भलाई है।           

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