पहली ज़ीक़ादा सन 173 हिजरी क़मरी को मदीना नगर में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन के घर में एक फूल खिला जिसका नाम फ़ातेमा रखा गया।
इस महान महिला के जन्म से इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का घर ख़ुशियों से भर गया। उनकी मां का नाम नजमा था जो अपनी सदाचारिता की वजह से ताहेरा कही जाती थीं जिसका अर्थ होता है पवित्र। हज़रत फ़ातेमा मासूमा की मां अपने समय की महान महिला थीं। हज़रत मासूमा ने अपने पिता इमाम मूसा काज़िम, मां नजमा ख़ातून और भाई इमाम रज़ा की छत्रछाया में ज्ञान व आत्मज्ञान के उच्च चरण को हासिल किया। हज़रत मासूमा का व्यक्तित्व बचपन से ही इतना आकर्षक था कि पूरा परिवार और ख़ास तौर पर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उनका बहुत सम्मान करते थे।
रिवायत में है कि एक दिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के श्रद्धालुओं का एक गुट मदीना पहुंचा ताकि अपनी मुश्किलों का हल उनसे पूछे। जब श्रद्धालुओं का कारवां इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के घर के द्वार पर पहुंचा तो उसे पता चला कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम घर पर नहीं हैं। सफ़र की थकान और फिर इमाम की अनुपस्थिति से कारवां वाले बड़े दुखी थे कि अचानक एक छोटी बच्ची इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के घर से बाहर आयी और उसने कारवां वालों के दुख को यह कहते हुए दूर किया कि आप लोग अपने सवाल पेश कीजिए ताकि मैं उसका जवाब दूं। उन्होंने ऐसा ही किया। यह बच्ची हज़रत मासूमा थी। उन्होंने उस कमसिनी में कारवां वालों के जवाब विस्तार से लिखकर उनके हवाले किये। कारवां वालों ने जवाब देखे तो हैरत में पड़ गए। वे लोग ख़ुशी ख़ुशी अपने वतन की ओर चल पड़े। रास्ते में उनकी मुलाक़ात इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से हुयी तो उन्होंने बताया कि आपकी बेटी ने किस तरह उनके सवालों के जवाब दिए और सारे जवाब इमाम को दिखाए। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने जवाब पढ़े, मुस्कुराए और तीन बार कहाः "बाप क़ुर्बान हो जाए।"
यह घटना हज़रत फ़तेमा मासूमा के बचपन में उनके महान व्यक्तित्व की झलक पेश करती और उनकी बुद्धिमत्ता का बखान करती है।
हज़रत मासूमा अपनी दादी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की तरह जो पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों में एक आदर्श हस्ती हैं, अत्याचार व घुटन भरे दौर में धैर्य व दृढ़ता का बहुत ही सुंदर नमूना पेश किया। हज़रत मासूमा उपासना, सदाचारिता, सच्चाई, उदारता, कठिनाइयों के मुक़ाबले में दृढ़ता, क्षमाशीलता और चरित्रता की दृष्टि से आदर्श हस्ती हैं। हज़रत मासूमा इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के बच्चों में अपने भाई इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के बाद व्यक्तित्व व आत्मोत्थान की दृष्टि से सबसे ऊपर हैं। यह ऐसी हालत में है कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के 18 या 19 बेटियां थीं और उनमें हज़रत मासूमा सबसे प्रतिष्ठित थीं। वरिष्ठ धर्मगुरु शैख़ मोहम्मद तक़ी तुस्तरी ने अपनी किताब "क़ामूसुर रेजाल" में हज़रत मासूमा को आदर्श महिला के रूप में परिचित कराया है और उन्हें इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की संतानों में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के बाद सबसे महान बताया है। वह इस बारे में लिखते हैः "इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम की संतानों में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के बाद, किसी की भी शान हज़रत मासूमा जैसी नहीं है।"
हज़रत मासूमा के जीवन में मिलता है कि आप ईश्वर की उपासना में लीन रहती थीं। आप बहुत ही चरित्रवान हस्ती थीं। आपको मासूमा कहने की वजह शायद यह है कि आपके व्यक्तित्व में आपकी दादी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की पवित्रता झलकती थी। रवायत के अनुसार, इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने आपको मासूमा का लक़ब दिया।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम क़ुम शहर के मशहूर मुहद्दिस सअद बिन सअद अश्अरी को संबोधित करते हुए फ़रमायाः "हे सअद! तुम्हारे यहां हमारे परिजन में से एक की क़ब्र बनेगी। सअद कहते हैं कि मैंने कहाः मेरी जान पर आप पर क़ुर्बान हो, क्या आप इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की बेटी फ़ातेमा की क़ब्र के बारे में फ़रमा रहे है? तो इमाम रज़ा ने फ़रमायाः हां! जो भी मासूमा का उनके हक़ को समझते हुए दर्शन करे, वह स्वर्ग में जाएगा।"
हज़रत मासूमा का एक और लक़ब करीमए अहलेबैत है। जिसका अर्थ है दानी। पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों में यह लक़ब सिर्फ़ हज़रत मासूमा से विशेष है। हज़रत मासूमा का रौज़ा ईरान के पवित्र नगर क़ुम में है और इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के शब्दों में उनके रौज़े से करामात ज़ाहिर होती है। जो भी दूर या निकट से उनका दर्शन करे उसके हिस्से में भी करामात आएगी।
इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "जान लो कि स्वर्ग के आठ द्वार है कि इनमें से 3 क़ुम की ओर हैं। मेरी संतान में एक महिला का वहां देहांत होगा जिनका नाम फ़ातेमा है वह मेरे बेटे मूसा की बेटी है। उनकी सिफ़ारिश से हमारे सभी शिया स्वर्ग में जाएंगे।"
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के बच्चों को अपने पिता की तरह अब्बासी शासक के घोर अत्याचार का सामना करना पड़ा। इन बच्चों की सबसे बड़ी मुसीबत उनके पिता की शासक हारून रशीद की जेल में शहादत थी। मामून के शासक बनते ही जो बहुत ही चालाक और मक्कार था, इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के बच्चों को निर्वासित कर दिया गया और कुछ शहीद हो गए।
हज़रत मासूमा के लिए जो अपने भाई इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से बहुत श्रद्धा रखती थीं, उनकी दूरी बहुत सख़्त थी। मामून के आदेश से इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को ज़बरदस्ती मदीना से मर्व अर्थात मौजूदा मशहद शहर बुलाया जाना, पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के लिए बहुत दुखद घटना थी। इन परिजनों ने ईश्वर की प्रसन्नता के लिए निर्वासन को क़ुबूल किया और धैर्य से काम लिया।
इस बीच हज़रत मासूमा दादी हज़रत ज़ैनब की तरह हुकूमत के दबाव के मुक़ाबले में डट गयीं और ग़दीरे ख़ुम की घटना के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम के कथन को बयान करने और इस्लामी शिक्षाओं के प्रसार के साथ अपने भाई के साथ राजनैतिक-सामाजिक आंदोलन के लिए मैदान में आ गयीं और पलायन को तत्कालीन हालात पर आपत्ति दर्ज कराने के रूप में चुना।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने मर्व पलायन के एक साल बाद अपनी सम्मानीय बहन हज़रत मासूमा को ख़त लिखा जिसे पाते ही हज़रत मासूमा अपने धार्मिक कर्तव्य को अंजाम देने के लिए अपने कुछ भाइयों व भतीजों के साथ ख़ुरासान की ओर चल पड़ीं। हज़रत मासूमा रास्ते में विभिन्न शहरों में इस्लाम की उच्च शिक्षाओं और पैग़म्बरे इस्लाम व उनके पवित्र परिजनों के कथन बयान करतीं, लोगों के सवालों के जवाब देतीं और उनमें जागरुकता पैदा करतीं। हज़रत मासूमा को अपने दौर के हालात की अच्छी समझ थी इसलिए वे मामून की मक्कारी भरी चालों को नाकाम बनाने के लिए हदीसों को ज़्यादा बयान करती थीं। ऐसी हदीसें जिनमें पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की इमामत को अनिवार्य बताया गया है। हज़रत मासूमा अपने पिता के कठिन दौर को अच्छी तरह समझती थीं इसलिए वह इमामत की अहमियत का बहुत ज़्यादा वर्णन करती थीं। जिस समय हज़रत मासूमा के भाई इमाम रज़ा को शासक मामून ने अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के लिए ख़ुरासान बुलाया था, हज़रत मासूमा ने समझ लिया था कि उन्हें भी इस अत्याचार के ख़िलाफ़ हज़रत ज़ैनब की तरह मैदान में आना होगा। यही वजह है कि हज़रत मासूमा जो हदीसें बयान की हैं उनमें ज़्यादातर इमामत की अहमियत के बारे में है।
हज़रत मासूमा इस सफ़र में अपने भाई से न मिल सकीं और वह क़ुम के निकट सावे शहर पहुंची तो बीमार हो गयीं और उसी बीमारी की हालत में वह क़ुम पहुंची। क़ुम शहर के प्रतिष्ठित लोग उनके स्वागत के लिए निकले और अद्वितीय स्वागत किया। हज़रत मासूमा 17 दिन इस शहर में ज़िन्दा रहीं। इस दौरान वह ईश्वर की उपासना करतीं और लोगों के सवालों के जवाब देतीं। हज़रत मासूमा जिस मदरसे में उपासना करती थीं उसका नाम सतिय्या था और अब इसका नाम बैतुन नूर पड़ गया है जिसका हज़रत मासूमा के श्रद्धालु दर्शन करते हैं। अंततः 10 रबीउस्सानी 201 हिजरी क़मरी में हज़रत मासूमा ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा और शिया उनके शोक में डूब गए। आज हज़रत मासूमा का रौज़ा श्रद्धालुओं के दर्शन का केन्द्र बना हुआ है।
हज़रत मासूमा के रौज़े के दर्शन के समय जो ज़ियारत पढ़ी जाती है उसमें आपके 8 लक़ब का उल्लेख है जिससे आपके महान व्यक्तित्व का पता चलता है।