यहूदी दुनिया को दो भागों में बांटते हैं, इस्राईल-ग़ैर इस्राईल
एतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि हज़रत दाऊद और हज़रत सुलैमान अलैहिमुस्सलाम के दौर में यहूदी, सत्ता के चरम पर थे।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि यहूदी इस काल में सत्ता की दृष्टि से अबतक के सबसे शिखर पर थे। वे तत्कालीन विश्व के महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर हुकूमत किया करते थे। ईश्वर के इन दोनो दूतों के काल के बाद फिर कभी भी यहूदियों को इस प्रकार का वैभव हासिल नहीं हो पाया। प्राचीन किताबों के अनुसार हज़रत सुलैमान का शासन क्षेत्र, बहुत ही विस्तृत था। फोरात नदी के किनारे बसने वाले तत्कालीन सारे ही देश उनकी सत्ता के अधीन थे। इन क्षेत्रों के राजा, हज़रत सुलैमान की आज्ञा का पालन किया करते थे। यही कारण है कि यहूदियों का मानना है कि यह सब यहूदियों को ईश्वर की ओर से एक उपहार था। वे स्वयं को ईश्वर का निकट का मित्र बताया करते थे। यही कारण था कि यहूदी यह मानते थे कि पूरी दुनिया में हुकूमत करने का अधिकार केवल यहूदियों को ही है।
आदिकाल से ही यहूदी स्वयं को संसार की सबसे विशिष्ट जाति मानते रहे हैं। उनकी यह सोच आज भी है। यहूदियों के अनुसार पूरे संसार पर शासन करने का अधिकार केवल यहूदी जाति को ही प्राप्त है। तौरेत और तलमूद नामक किताबों में "चुनी हुई क़ौम" शब्द कई बार आया है। यही कारण है कि यहूदी स्वयं को चुनी हुई क़ौम मानते हैं। वे संसार को इस्राईल और ग़ैर इस्राईल जैसे दो भागों में बांटते हैं। उनका मानना है कि इस्राईल अर्थात यहूदियों को संसार की अन्य जातियों पर वरीयता प्राप्त है। यह अनुचित भावना आज भी यहूदियों के भीतर भरी हुई है। यही कारण है कि जब पैग़म्बरे इस्लाम ने यहूदियों को इस्लाम का निमंत्रण दिया और ईश्वरीय दंड से डराया तो यहूदियों ने कहा था कि हमें मत डराओ। यहूदियों तथा इसाइयों ने कहा कि हम ईश्वर के पुत्र और उसके मित्र हैं। अगर ईश्वर हमसे नाराज़ भी होगा तो वैसा ही है जैसे कोई बाप अपने बच्चे से होता है। अर्थात थोड़ी देर के बाद उसका ग़ुस्सा ख़त्म हो जाता है।
इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार दुनिया के सारे ही लोग एक समान हैं। किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य की तुलना में वरीयता हासिल नहीं है। यही कारण है कि क़ुरआन के हिसाब से कोई व्यक्ति या कोई जाति किसी दूसरे पर वरीयता नहीं रखती। धार्मिक विचारधारा के अनुसार किसी भी व्यक्ति को किसी पर श्रेष्ठता की दृष्टि से पैदा नहीं किया गया है। इन बातों के विपरीत यहूदियों का यह मानना है कि वे सबसे अलग हैं और उनकी जाति संसार की सभी जातियों पर वरीयता रखती है जो ईश्वर के बहुत निकट है। अर्थात ईश्वर उनको बहुत मानता है। अब अगर कोई यहूदी कोई पाप करता है तो ईश्वर उसको हल्का सा दंड देकर माफ कर देगा जबकि यह सोच पूरी तरह से ग़लत है जो सत्य के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है।
निश्चित रूप में एसी घमण्डी जाति कभी भी किसी एसे व्यक्ति को ईश्वरीय दूत के रूप में स्वीकार नहीं करेगी जिसका संबन्ध उसकी जाति से न हो। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के आगमन से पहले यहूदी, एसे ईश्वरीय दूत की प्रतीक्षा कर रहे थे जो हज़रत सुलैमान के काल को वापस लाए और यहूदियों को उनकी पुरानी स्थिति में पहुंचा दे। इस प्रकार से वे फिर से पूरी दुनिया पर राज करने लगें। यही कारण था कि यहूदी, मक्के वालों से कहा करते थे कि भविष्य के हेजाज़ में ईश्वर का दूत आएगा जिसकी सहायता से हम पूरी दुनिया पर फिर से हुकूमत करेंगे। जब उनको यह पता चला कि जो ईश्वरीय दूत आया है उसका संबन्ध हज़रत इस्माईल की नस्ल से है, तो यह सुनकर वे बहुत दुखी हुए। हालांकि यहूदी अगर वास्तव में तौरेत को मानते तो फिर उनको पैग़म्बरे इस्लाम पर ईमान लाना चाहिए था किंतु उन्होंने ज़िद में एसा नहीं किया। यही कारण था कि यहूदियों ने खुलकर पैग़म्बरे इस्लाम का विरोध शुरू कर दिया।
बहुत सी एतिहासिक घटनाओं को अनेदखा करते हुए यहूदियों ने कभी भी इस्लाम का अनुसरण नहीं किया। उन्होंने कभी भी अपनी ग़लती नहीं मानी और अपनी बुराइयों को ईश्वर से जोड़ दिया। इस संबन्ध में ईश्वर सूरे माएदा की 64वीं आयत में कहता हैः और यहूदियों ने कहा कि ईश्वर के हाथ बंधे हुए हैं जबकि वास्तव में स्वयं उन्हीं के हाथ बंधे हुए हैं और अपने इस कथन के कारण उनपर धिक्कार हुई। बल्कि ईश्वर के हाथ खुले हुए हैं और वह जिस प्रकार चाहता है, प्रदान करता है। और जब भी अपने पालनहार की ओर से आप पर कोई आदेश उतारता है तो अधिकांश यहूदियों में ईमान के स्थान पर उनकी उद्दंडता और कुफ़्र में निश्चित रूप से वृद्धि हो जाती है और हमने (उनकी इसी भावना के कारण) उनके बीच प्रलय तक के लिए द्वेष व शत्रुता डाल दी है। जब भी उन्होंने युद्ध की आग भड़कानी चाही, ईश्वर ने उसे बुझा दिया और वे धरती में बुराई तथा तबाही फ़ैलाना चाहते हैं और ईश्वर बुराई फैलाने वालों को पसंद नहीं करता।
यह आयत ईश्वर के बारे में यहूदियों की एक ग़लत धारणा और उनके अनुचित कथन की ओर संकेत करती है। यहूदियों का विचार था कि सृष्टि के आरंभ में ईश्वर के हाथ खुले हुए थे और वह जिसे जो चाहता था प्रदान करता था परन्तु धीरे-धीरे उसकी शक्ति समाप्त होती गई और मनुष्य, का इरादा ईश्वर की इच्छा से प्रबल हो गया। यह ग़लत धारणा उनके बीच बहुत अधिक प्रचलित हो गई थी। आगे चलकर आयत कहती है कि इस प्रकार की ग़लत आस्थाएं, यहूदियों के बीच द्वेष और शत्रुता फैलाने का कारण बनीं यहां तक कि वे आसमानी किताब रखने वालों और इस्लाम के अनुयाइयों से भी युद्ध करके, उन्हें पराजित करने के बारे में सोचने लगे। परन्तु इस्लाम के आरम्भिक दिनों में यहूदियों ने युद्ध की जो आग भड़काई, ईश्वर ने उसका अंत मुसलमानों के हित में किया। ख़ैबर के युद्ध में यहूदियों की पराजय इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। यह आयत बताती है कि ईश्वर को हर प्रकार के अवगुण, दोष और कमी से मुक्त समझना ही ईमान की शर्त है। बुराई फैलाना और युद्ध की आग भड़काना, पूरे इतिहास में यहूदियों की विशेषता रही है परन्तु वे कभी भी ईश्वर के इरादे पर नियंत्रण नहीं पा सके।
सूरे माएदा की 70वीं आयत में ईश्वर कह रहा हैः निःसन्देह, हमने बनी इस्राईल से परीक्षा ली और उनकी ओर पैग़म्बर भेजे, तो जब भी कोई पैग़म्बर उनकी आंतरिक इच्छाओं के विरुद्ध कोई आदेश लेकर आता तो वे कुछ पैग़म्बरों को झुठला देते और कुछ की हत्या कर दिया करते थे।
इस आयत की व्याख्या में बताया गया है कि जब हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राईल को अत्याचरी फ़िरऔन के अत्याचारों से मुक्ति दिलाकर उन्हें स्वतंत्र करा दिया तो ईश्वर की आज्ञा से उन्होंने बनी इस्राईल से वचन लिया कि वे ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हुए उनपर कटिबद्ध भी रहेंगे। बनी इस्राईल ने यह बात स्वीकार कर ली। परन्तु उन्होंने इस वचन को तोड़ दिया। जैसा कि क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों में कहा गया है कि उन्होंने अपने इस वचन को तोड़ दिया। उन्होंने न केवल ईश्वरीय आदेशों का उल्लंघन किया बल्कि ईश्वर के पैग़म्बरों को इस अपराध के बदले में झुठला दिया कि वे उनकी आंतरिक इच्छाओं के विरुद्ध आदेश लेकर आए हैं उन्होंने यहां तक कि कुछ ईश्वरीय दूतों की हत्या भी कर दी। यह आयत मुसलमानों के लिए एक चेतावनी है कि वे अपने उत्तराधिकारियों के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सिफ़ारिशों को भुला न दें। यह आयत बताती है कि काफ़िरों की ओर से पैग़म्बरे की पैग़म्बरी का इन्कार, बुद्धि तथा तर्क के आधार पर नहीं है। इन विरोधों का असली कारण यह है कि मनुष्य चाहता है कि उसका मन जो चाहे वही करे और वह अपनी ग़लत आंतरिक इच्छाओं की पूर्ति में स्वतंत्र रहे, जबकि ईश्वरीय धर्म, मनुष्य की इच्छाओं और भावनाओं को नियंत्रित करता है ताकि मनुष्य के मानवीय पहलू, प्रगति करके पूर्ण हो जाएं। ग़लत समाजों में पवित्र और भले लोगों के व्यक्तित्व की हत्या की जाती है अर्थात उन्हें झुठलाया जाता है या फिर उनकी हत्या कर दी जाती है।
सूरे माएदा की 66वीं आयत में ईश्वर कह रहा है कि और यदि वे तौरेत, इंजील और जो कुछ उसके पालनहार की ओर से उन पर उतारा गया था सब को क़ाएम करते अर्थात उसपर कार्यबद्ध रहते तो निसन्देह वे अपने ऊपर और पैरों के नीचे से ईश्वरीय विभूतियां प्राप्त करते। उनमें से एक गुट मिथ्याचारी है परन्तु अधिकांश लोग बुरे कर्म करते हैं।
यह आयत कहती हैं कि ईश्वर का मार्ग बंद नहीं है और यदि वे तौबा कर लें और अपने ग़लत व्यवहार और कथनों को छोड़ दें तो ईश्वर उनके पिछले पापों को भी क्षमा कर देगा और भविष्य को भी सुनिश्चित बना देगा। वे इस संसार में भी धरती और आकाश से आने वाली ईश्वरीय विभूतियों से लाभान्वित होंगे और प्रलय में भी स्वर्ग की विभूतियों के पात्र बनेंगे। यहां पर ईश्वर एक महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए कहता है कि अलबत्ता यह बात भी सच है कि आसमानी किताब वालों के बीच ऐसे ईमान वाले मौजूद हैं जो विचारों और कर्मों में हर प्रकार की कमी या अतिशयोक्ति से दूर हैं। वे सही मार्ग पर अग्रसर हैं, परन्तु ऐसे लोग बहुत ही कम हैं। अधिकांश लोग अपने ग़लत मार्ग पर ही अड़े रहते हैं। यद्यपि यह आयतें यहूदियों और ईसाइयों से संबंधित हैं परन्तु स्पष्ट है कि यह ख़तरे मुसलमानों को भी लगे रहते हैं। यदि वे भी यही कर्म करें तो उन्हें भी यही दण्ड भुगतने होंगे और इसी प्रकार यदि वे सही मार्ग पर दृढ़ता से अग्रसर रहें तो उन्हें ईश्वरीय सहायताएं भी प्राप्त होंगी और वे ईश्वरीय विभूतियों के भी पात्र बनेंगे। आयत बताती है कि पवित्रता के बिना ईमान का कोई लाभ नहीं है। ईश्वर से भय, ईमान को सुरक्षित बनाता है। दयावान ईश्वर पापों को क्षमा करने के अतिरिक्त, पापियों के लिए अपनी कृपा के द्वार भी खोल देता है। ईश्वर पर ईमान और भले कर्मों से, लोक-परलोक दोनों में कल्याण प्राप्त होता है। यदि संसार धार्मिक सिद्धातों का विरोध न करे तो धर्म, संसार के विरुद्ध नहीं है। आसमानी किताबों को केवल पढ़ लेना ही काफ़ी नहीं है, उसके आदेशों को जीवन के सभी मामलों में लागू करना आवश्यक है।
सूरे माएदा की आयत संख्या 68 में ईश्वर कह रहा है कि (हे पैग़म्बर!) आसमानी किताब वालों से कह दीजिए कि (ईश्वर के निकट) तुम्हारा कोई महत्त्व और स्थान नहीं है, सिवाए इसके कि तौरैत, इंजील और जो कुछ तुम्हारी ओर ईश्वर ने भेजा है, उसपर कटिबद्ध रहो। (हे पैग़म्बर!) निसन्देह, ईश्वर ने जो क़ुरआन आप पर उतारा है (उसका इन्कार) इनमें से अधिकांश के कुफ़्र और उद्दंडता में वृद्धि कर देगा तो आप काफ़िर गुट के लिए दुखी मत होइए।
यह आयत एक बार फिर इस्लाम और मुसलमानों के संबंध में आसमानी किताब वालों की नीतियों का उल्लेख करती है और पैग़म्बरे इस्लाम को दायित्व सौंपती है कि उनसे कह दें कि केवल हज़रत मूसा और हज़रत ईसा जैसे पैग़म्बरों के अनुसरण का दावा पर्याप्त नहीं है बल्कि वास्तविक ईमान की निशानी सभी व्यक्तिगत व सामाजिक क्षेत्रों में ईश्वरीय आदेशों का पालन है। चूंकि पूरे इतिहास में पैग़म्बरों को भेजना एक ईश्वरीय परंपरा रही है अतः अगले पैग़म्बर को स्वीकार न करना स्वयं एक प्रकार की धार्मिक या जातीय सांप्रदायिक्ता है जो मनुष्य की प्रगति में बाधा और उद्दंडता तथा सत्य छिपाने का कारण बनती है।
ईश्वर इस आयत में सभी आसमानी किताबों को स्वीकार करने और उनपर ईमान लाने पर बल देता है और एक बार फिर पैग़म्बर को संबोधित करते हुए कहता है कि अधिकांश आसमानी किताब वाले क़ुरआन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और यही बात तथा विरोध उनके कुफ़्र का कारण है और चूंकि उन्होंने जान-बूझ कर और ज्ञान के साथ इस मार्ग का चयन किया है अतः आप उनके कुफ़्र पर दुखी मत हों कि उनका हिसाब-किताब ईश्वर के हाथ में है। यह आयत बताती है कि केवल ईमान का दावा काफ़ी नहीं है बल्कि ईमान को व्यवहारिक रूप में सिद्ध करना भी आवश्यक है। जिसके पास कर्म नहीं है वस्तुतः उसके पास धर्म नहीं है। ईश्वर के निकट लोगों का मूल्य और महत्त्व, धार्मिक आदेशों से उनकी प्रतिबद्धता के अनुपात से है। समाज में भी ऐसा ही होना चाहिए। लोगों का महत्त्व, इसी आधार पर निर्धारित होना चाहिए। हमारे भीतर अनुचित सांप्रदायिकता नहीं होनी चाहिए। हमें दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करते हुए अपना मार्ग भी प्रस्तुत करना चाहिए।