क़ुरआन सिर्फ पढ़ें नहीं समझें और अमल भी करें

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क़ुरआन सिर्फ पढ़ें नहीं समझें और अमल भी करें

क़ुरआन-ए-करीम के मुताले से ज़ाहिर होता है कि तंगहाल, मुफ़लिसों,मिस्कीनों ,ग़रीबों यतीमों की माली मदद, दीगर मुस्लमानों पर इसी तरह फ़र्ज़ है जिस तरह उन पर नमाज़ फ़र्ज़ है|

अलम ज़ालिक अलकितबु ला रेबा फ़ीहा अलख ,ये वो किताब है जिसमें कोई शक नहीं ये मुत्तक़ियों के लिए हिदायत है जो ग़ैब पर ईमान रखते हैं और नमाज़ पढ़ते हैं और जो कुछ हमने उन्हें रिज़्क़ दिया है इस में से ख़र्च करते हैं ।

वो जो नमाज़ पढ़ते हैं और जो कुछ हमने दिया है इस में से ख़र्च करते हैं वही दर-हक़ीक़त मोमिन हैं अल्लाह के नज़दीक उन्हीं के दर्जात बुलंद हैं (सूरा इन्फ़ाल आयत नंबर ३)सूरा हश्र की आयत नंबर ७ में इस अनवान को मज़ीद वाज़िह करते हुए इरशाद हो है कि जो कुछ भी अल्लाह ने अता किया है यानी इन्सान ने अपनी मेहनत से कमाया है इस में इन लोगों का भी हिस्सा है जो नादार हैं यतीम हैं ,मिस्कीन हैं यानी ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरीयात से महरूम हैं ।

एक ऐसे मुआशरे का तसव्वुर कीजिए कि जिसमें नमाज़ी इसलिए नमाज़ पढ़ता है कि रात और दिन में पाँच वक़्त की इस रेहृ सिल से इस के दिमाग़ में ख़ुद के ख़ालिक़-ओ-मालिक की निगरानी में होने का ये एहसास क़ायम हो जाये कि इस दुनिया वजहां का बनाने वाला हरवक़त हर घड़ी चाहे दिन का उजाला हो या रात का अंधेरा बंदे को देख रहा है और इस की तमाम हरकात-ओ-सकनात को रिकार्ड कर रहा है और फिर एक दिन एक एक बात का गहराई से हिसाब भी देना होगा ,रसूल अल्लाह ने फ़रमाया कि नमाज़ ऐसे पढ़ो कि तुम अल्लाह को देख रहे हो और अगर ऐसा तसव्वुर क़ायम ना कर सको तो वो तो तुम्हें देख ही रहा है , क़ुरआन-ए-करीम की सूरा क आयत नंबर ८ में कहा गया है कि इन्सान जो कुछ बोलता है उसे ( अल्लाह की जानिब से मुक़र्रर करदा फ़रिश्ते ) फोरा लिख लेते हैं ,सूरा कहफ़ की आयत ४९ में है कि जब (रोज़-ए-क़यामत ) इन्सान के सामने उस का ये दफ़्तर खोला जाएगा तो मुजरिमीन घबरा जाएंगे और कहेंगे कि हाय ख़राबी ये कैसा रिकार्ड है जिसने ना कोई छोटी बात छोड़ी ना बड़ी ।

जब इन्सान अल्लाह की किताब में इंतिहाई अक़ीदत और यक़ीन के साथ ये सब पढ़ता है तो एक सही अलद माग़ इन्सान का बुराईयों से रुक जाना ज़रूरी महसूस होता है,बुराईयों से बच कर ज़िंदगी गुज़ारने वाले ये लोग जब अपने में के कमज़ोरों ग़रीबों और मुफ़लिसों की माली मदद कर के उन्हें ऊपर उठाने की बराबर कोशिश भी करते रहें तो यक़ीनन एक बेहतर समाज की तशकील होगी मगर ये तभी मुम्किन है जब उनमें का हर एक क़ुरआन की तालीमात को तिलावत करने के साथ समझता भी हो लेकिन अगर क़ुरआन को समझने से ही लोगों को रोक दिया जाये और नमाज़ और इस के सज्दों के बारे में ये बात ज़हन नशीन करली जाये कि अल्लाह को ये सज्दे इसी तरह उस को राज़ी करने के लिए हैं जैसे एक बुतपरस्त अपने माबूद को अपनी पूजा से ख़ुश करता है,और इस की किताब (क़ुरआन ) के पढ़ने से भी वो ऐसे ही ख़ुश होता है और एक एक हर्फ़ के पढ़ने पर नेकियों के अंबार लगा देता है तो इस फ़िक्र से कोई नाम निहाद मुस्लमान अपनी दानिस्त में चाहे जन्नत में अपने लिए महलात तामीर कर रहा होवह इस दुनिया जहान में क़ुरआन का मतलूब इन्सान नहीं बन सकता ।

एक अच्छा मुस्लमान वो है जिसकी दुनिया भी बेहतर हो और इस की आख़िरत भी बेहतर हो ,यही मतलब है इस दुआ का जो क़ुरआन की सूरा बक़्र आयत नंबर२०१में है( रुबिना अआतिना फ़ी अलदुना ........या अल्लाह हमें दुनिया भी अच्छी दे और आख़िरत भी अच्छी दे

ख़ुदा से देख, कितना डर, रहा हूँ

तिजोरी जेब दोनों भर रहा हूँ

पड़ोसी भूका है, तीसरा दिन है

मैं चौथी बार, उमरा ,कर रहा हूँ

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