कुछ इस्लामी देश और हाकिम ऐसे हैं जिन्होंने फ़िलिस्तीन, क़ुद्स और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए न केवल यह कि आवाज़ नहीं उठाई बल्कि आपस में भेदभाव और नफ़रत फैला कर बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले इस्राईल का साथ दे रहे हैं, इसलिए सोंचने और ध्यान देने का समय है और साथ मिल कर क़ुद्स डे पर समाज के इस कैंसर के विरुध्द आवाज़ उठाएं और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी में हिस्सेदार बनें।
जंग का विरोध
ग़ज़्ज़ा में होने वाले वहशी हमलों और वहां पर होने वाली जंग को रोकना इस रैली का सबसे अहम मक़सद है, वहां जंग में अधिकतर आम नागरिकों को शिकार बना कर उनके साथ वहशियाना सुलूक होता है और इस दरिंदगी को इंसानियत के नाते ख़त्म करना ज़रूरी है, क़ुद्स रैली में भाग लेना वहां पर होने वाली जंग और आम जनता के क़त्लेआम के ख़िलाफ़ अपनी नफ़रत को ज़ाहिर करना है।
आप ख़ुद सोंचे और फ़ैसला करें जिन लोगों के ज़ुल्म और अत्याचारों का हाल यह है कि वह घायल और ज़ख़्मी होने वाले आम नागरिकों तक पहुंचने वाली दवाईयों की गाड़ियां और उनके पनाह लेने वाली जगहों को बम से उड़ा देता हो क्या उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना इंसानियत के अलावा कुछ और है? इसी लिए इस रैली में भाग लेना ज़रूरी है ताकि ज़ालिमों के ज़ुल्म और उनकी दरिंदगी उनके अपराधों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा कर अमन, शांति और सुलह की मांग की जा सके।
इंसानियत की रक्षा
बेशक हम सभी इंसानी उसूलों के पाबंद हैं कि जिनमें सबसे अहम किसी भी परिस्तिथि में लोगों की जान को बचाना है, इंसानी जान की क़ीमत इनती ज़्यादा है कि शायद ही दुनिया में उसकी अहमियत के बराबर कुछ हो, और निहत्थे आम शहरियों की जान की हिफ़ाज़त को किसी भी जंग में वरीयता दी जाती है, न ही उनपर कोई हमला करता है न ही उनपर बम बरसाता है,
लेकिन आप निगाह उठा कर देख लीजिए फ़िलिस्तीन के शहरों पर चाहे ग़ज़्जा हो या रफ़ा, चाहे ख़ान यूनुस हो चाहे क़ुद्स, हर जगह के बच्चे और औरतें तक ज़ायोनी दरिंदों के शिकार हैं, कोई भी उनके हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाला नहीं है, डेमोक्रासी और मानवाधिकार का झूठा दावा करने वालों से उनके भेदभाव के बारे में कोई आवाज़ उठाने वाला तक नहीं है। क़ुर्आनी तालीमात की रौशनी में इंसानियत की मदद और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज़ उठाना और ज़ायोनी दरिंदों के ख़िलाफ़ फ़रियाद बुलंद करना करामत और बुज़ुर्गी कहलाता है।
मुसलमानों की रक्षा
इस्लाम ने मुसलमानों की रक्षा को वाजिब क़रार देने के साथ साथ इस्लामी सरहदों की रक्षा को भी ज़रूरी बताया है, वह भी ऐसे मुसलमान जो ग़ज़्ज़ा में पिछले लगभग 10 सालों ज़ायोनी दरिंदों के बीच घिरे हुए हैं जिनकी न कोई पनाहगाह है न कोई उनके हाल पर अफ़सोस करने वाला और उनकी दर्द भरी चीख़ों को आसमान के अलावा कोई सुनने वाला नहीं है, दीनी तालीमात की रौशनी उनकी मदद और उनकी फ़रियाद को सुनना हमारी ज़िम्मेदारी है,
इस्लाम की किसी मज़हब से कोई दुश्मनी नहीं है इस्लाम ज़ुल्म करने और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ ख़ामोश रहने से मना करता है फिर चाहे ज़ुल्म करने और सहने वाला मुसलमान ही क्यों न हो क्योंकि इस्लाम जंग और युध्द का मज़हब नहीं है और जो इस्लाम के नाम पर ख़ून ख़राबा कर रहे हैं वह मुसलमान ही नहीं है, और अगर अरब के देश फ़िलिस्तीनियों की पीठ में छूरा न घोंपे तो फ़िलिस्तीन को किसी दूसरे की मदद की ज़रूरत भी नहीं होगी।
मज़लूमों का समर्थन
इस्लामी तालीमात में मज़लूमों के समर्थन पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है, और मज़लूमों के समर्थन में आवाज़ उठाने के लिए सरहदें कभी रुकावट नहीं बनतीं, दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी इंसान पर अगर ज़ुल्म हो रहा है तो उसके समर्थन और ज़ालिम के विरोध में आवाज़ उठाना एक ज़िंदा इंसान की पहचान है वरना हम में और जंगल में पास पास में उगे पेड़ों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं रह जाएगा जैसे वह हैं तो पास पास लेकिन एक दूसरे के हाल चाल से बे ख़बर रहते हैं वैसे ही हमारा हाल होगा।
इंसाफ़ और सुलह की मांग
अगर हम सभी राजनीतिक पार्टियों की सुबह से शाम तक की कोशिशों के पीछे पाए जाने वाले कारण पर ध्यान दें और उसे एक जुमले में बयान करना चाहें तो वह यह होगा कि सभी राजनीतिक पार्टियां जिनमें थोड़ी भी इंसानियत पाई जाती है तो वह लोगों के बीच इंसाफ़ और न्याय प्रणाली को क़ायम करने की पूरी कोशिश करेगा, और यह बात किसी ख़ास जगह ख़ास लोगों या ख़ास विचारधारा से जुड़ें लोगों से विशेष नहीं है, और फ़िलिस्तीनियों की शुरू से आज तक यही कोशिश है कि उनके बीच अदालत इंसाफ़ और सुलह क़ायम हो सके।
जब से लोगों ने पूरी आज़ादी और अधिकार के साथ हमास को ग़ज़्ज़ा में सत्ता के लिए चुना तभी से इस्राईल ने ग़ज़्ज़ा को अपनी मिसाईलों और बमों का निशाना बनाते हुए वहां के मासूम बच्चों तक को अपनी हैवानियत को शिकार बनाया, और हद तो यह है कि अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती ज़ख़्मी लोगों तक को अपनी दरिंदगी का शिकार बना रखा है। पिछले 10 सालों से इस्राईल हुकूमत ने हर तरह की हैवानियत और दरिंदगी को अपना लिया ताकि हमास को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकें लेकिन हमास और कुछ उनके समर्थन करने वाले दूसरे जवान हैं जिनकी प्रतिरोध के आगे ख़ुद इस्राईल घुटने टेकने पर मजबूर दिखाई देता है।
आपसी इत्तेहाद और भाईचारे की अलामत
आज के इस दौर में जहां लोकल से लेकर इंटरनेशनल एजेंसियां लोगों को आपस में तोड़ने की कोशिश में दिन रात लगी हैं वहां कुछ ऐसे लोगों का होना बहुत ज़रूरी है जो एक साथ कंधे से कंधा मिला कर साम्राज्वादी शक्तियों को मुंह तोड़ जवाब देना चाहिए।
ध्यान रहे इस्राईल की दुश्मनी फ़िलिस्तीन या ग़ज़्ज़ा या हमास से नहीं है बल्कि यह दरिंदे हर उस आवाज़ को हमेशा के लिए दबा देना चाहते हैं जो आपसी भाईचारे और इत्तेहाद के पैग़ाम को फैला रही हो, दुश्मन जानता है पूरे इस्लामी जगत की निगाहें इसी क़ुद्स पर टिकी हुई हैं और इसी के नाम से सारे मुसलमान अपने अक़ीदती मतभेद भुला कर एक साथ अपने क़िबल-ए-अव्वल की आज़ादी के लिए सड़कों पर उतर आते हैं।
इस्राईल पिछले कई सालों से ग़ज़्ज़ा की नाकाबंदी और उस पर क़ब्ज़ा किए बैठा है और बैतुल मुक़द्दस पर तो 60 साल से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन अभी तक इतने सारे इस्लामी देश आपस में मिल कर उसे आज़ाद तक नहीं करा सके उसका कारण यही है कि अभी भी कुछ इस्लामी देश और हाकिम ऐसे हैं जिन्होंने फ़िलिस्तीन, क़ुद्स और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए न केवल यह कि आवाज़ नहीं उठाई बल्कि आपस में भेदभाव और नफ़रत फैला कर बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले इस्राईल का साथ दे रहे हैं, इसलिए सोंचने और ध्यान देने का समय है और साथ मिल कर क़ुद्स डे पर समाज के इस कैंसर के विरुध्द आवाज़ उठाएं और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी में हिस्सेदार बनें।