शहर में गरीब हैं तो फितरे की रक़म शहर के बाहर नहीं जानी चाहिए |

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शहर में गरीब हैं तो फितरे की रक़म शहर के बाहर नहीं जानी चाहिए |

फ़ितरा उस धार्मिक कर को कहते हैं जो प्रत्येक मुस्लिम परिवार के मुखिया को अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य की ओर से निर्धनों को देना होता है|  रमज़ान में चरित्र और शिष्टाचार का प्रशिक्षण लिए हुए लोग इस अवसर पर फ़ितरा देने और अपने दरिद्र भाइयों की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं|

इस्लाम इस बात का ख्याल रखता है कि हर वो शख्स जिसने रोज़ा रखा हो चाहे वो अमीर हो या ग़रीब उसके घर मैं ईद मनाई जाए| एक ग़रीब रोज़ा तो बग़ैर किसी कि मदद के रख सकता है और इफ्तार और सहरी किसी भी मस्जिद मैं जा के कर सकता है लेकिन ईद मनाने के लिए नए कपडे, और सिंवई बना के खुशिया मनाने के लिए पैसे कहाँ से लाये?

इस्लाम ने इस बात का ख्याल रखते हुए चाँद रात फितरा देना हर मुसलमान पे फ़र्ज़ किया है| फितरा की रक़म इस बात पे तय कि जाती है कि आप किस दाम का अन्न जैसे गेहूं या चावल खाते हैं ? उसका तीन किलो या सवा तीन सेर अन्न की कीमत आप निकाल के ग़रीबों मैं चाँद रात ही बाँट दें | यह रक़म घर का मुखिया अपने घर के हर एक फर्द की तरफ से अदा करेगा |

यदि आप के इलाके मैं , शहर मैं कोई ग़रीब है जिसके घर ईद ना मन पा रही हो तो फितरे की रक़म शहर के बाहर नहीं भेजी जा सकती| हाँ आप यह रक़म अगर कहीं दूर किसी गरीब को भेजना चाहते हैं तो आप इसे चाँद रात के पहले भी निकाल सकते हैं बस नियत यह होगी की उस शख्स को क़र्ज़ दिया और जैसे ही चाँद आप देखें आप निय्यत कर दें के जो रक़म बतौर क़र्ज़ दी थी वो फितरे मैं अदा किया| इस तरह से आप किसी दूर के ग़रीब रिश्तेदार, दोस्त या भाई तक यह रक़म पहुंचा सकते हैं | इस फितरे की रकम पे सबसे पहले आप के अपने गरीब रिश्तेदार , फिर पडोसी, फिर समाज का गरीब और फिर दूर के रोज़ेदार का हक़ होता है|

 

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