सिर्फ़ इंसानियत ही काफ़ी है, अमेरिकी विश्वविद्यालयों की घटनाओं पर ईरानी विश्लेषकों की राय

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सिर्फ़ इंसानियत ही काफ़ी है, अमेरिकी विश्वविद्यालयों की घटनाओं पर ईरानी विश्लेषकों की राय

एक विश्लेषक के अनुसार, पश्चिमी राजनीति ने लोकतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया है और अब यह उस बिंदु पर पहुंच गया है जहां न केवल क्लर स्कीन के लोग नस्लीय भेदभाव के ख़िलाफ लड़ते हैं, बल्कि शिक्षाविद और यहां तक ​​कि कुछ अमेरिकी राजनेता भी इस बुराई से लड़ते नज़र आ रहे हैं यहां तक कि इस देश के अधिकारियों के बच्चों ने भी आवाज़ उठाई है।

कोलंबिया विश्वविद्यालय में सैकड़ों प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी के बाद अमेरिकी विश्वविद्यालय परिसरों में फ़िलिस्तीन समर्थकों के विरोध की लहर फैल गई है और प्रदर्शनों की लहर इस देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में फैलने के बाद यह दुनिया भर के अन्य देशों के विश्वविद्यालयों में भी फैल रही है।

न्यूयॉर्क में कोलंबिया विश्वविद्यालय का विरोध प्रदर्शन 14 दिन पहले यानी (17 अप्रैल) शुरू हुआ और प्रदर्शनकारी छात्रों ने ग़ज़ा युद्ध में शामिल इस्राईली संस्थानों के साथ इस विश्वविद्यालय के संबंध तोड़ने की मांग की जबकि अन्य विश्वविद्यालयों में प्रदर्शनकारियों की ऐसी ही मांगें हैं।

दूसरी ओर, अमेरिकी सरकार ने इन प्रदर्शनों और विरोध प्रदर्शनों को ख़त्म करने के लिए सैन्य कार्यवाही शुरू कर दी है।

यहां हम इन घटनाओं के बारे में कु ईरानी विशेषज्ञों के विश्लेषण पर रोशनी डालेंगे:

 ग़ैर-अप्रवासी अमेरिकियों की मज़बूत उपस्थिति

तेहरान विश्वविद्यालय में विश्व अध्ययन संकाय के एकेडमिक मेंबर फ़ुआद इज़दी:

इस प्रदर्शन में भाग लेने के लिए आपका मुस्लिम होना या वामपंथी विचारधारा से संपन्न होना ज़रूरी नहीं है। इन तस्वीरों को देखने के बाद विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए केवल मानवता ही काफ़ी है।

संभव है कि पश्चिमी मीडिया इन घटनाओं को तबाह कर दे लेकिन इससे काम की प्रवृत्ति नहीं बदलती। यदि इस आबादी का एक प्रतिशत भी मुसलमान है, तो हमें पता होना चाहिए कि वे अप्रवासी नहीं हैं। विदेशी छात्र आमतौर पर विरोध प्रदर्शनों में भाग नहीं लेते क्योंकि उन्हें अमेरिका से निकाले जाने का भय होता है।

प्रदर्शनकारियों में चाहे मुस्लिम हों या नहीं, हमें पता होना चाहिए कि ये लोग अमेरिकी नागरिक हैं।

अमेरिकन होने के कारण ही उनको डबल ड्यूटी का अनुभव होता है।

 उदार लोकतंत्र की प्रेरक चुनौती

ईरान के पयामे नूर विश्वविद्यालय के संकाय सदस्य सईद अब्दुलमलेकी:

2003  में, अमेरिका ने परमाणु बम की तलाश के लिए इराक़ में आप्रेशन किया लेकिन यह झूठ से ज्यादा कुछ नहीं था।

आज ग़ज़ा में 35000 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें से अधिकांश निहत्थी महिलाएं और बच्चे थे।

उदार लोकतंत्र के पास इस नरसंहार का क्या औचित्य है?! वास्तव में, ऐसा कोई तर्क नहीं है जो इस संबंध में आम जनमत और अमेरिका के एकेडमिक वर्ग को आश्वस्त कर सके।

छात्रों और प्रोफेसरों ने एक राष्ट्रीय आंदोलन शुरू कर दिया क्योंकि उन्हें लगता है कि इस व्यवस्था ने उनकी पहचान, गौरव और मानवता का हरण कर लिया है, और वे वास्तव में एक सैन्यवादी और कब्ज़ा करने वाली व्यवस्था का सामना कर रहे हैं।

पश्चिमी राजनीति ने लोकतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया है और अब यह उस बिंदु पर पहुंच गया है जहां न केवल क्लर स्कीन के लोग नस्लीय भेदभाव के ख़िलाफ लड़ते हैं, बल्कि शिक्षाविद और यहां तक ​​कि कुछ अमेरिकी राजनेता भी इस बुराई से लड़ते नज़र आ रहे हैं यहां तक कि इस देश के अधिकारियों के बच्चों ने भी आवाज़ उठाई है।

इस बात की संभावना करना बहुत ही क़रीब है कि विश्वविद्यालयों का यह आंदोलन, एक सामाजिक महामारी बन जाएगा क्योंकि अमेरिकी सरकार की ओर से हत्यारे ज़ायोनी शासन के चौतरफ़ा बचाव और समर्थन, अमेरिका की सामाजिक और राजनीतिक पूंजी को तबाह कर देगी यानी अमेरिकी मूल्यों की प्रतिष्ठा दांव पर लग जाएगी।

पहचान के संघर्ष की गंभीर भूमिका

अमेरिकी मुद्दों के विशेषज्ञ हादी ख़ुसरू शाहीन:

फ्रांसिस फुकुयामा के अनुसार, जिसे उनकी आख़िरी किताब बुक ऑफ आइडेंटिटी के रूप में प्रकाशित किया गया था, लगभग पुख्ता सबूत हैं - ख़ासकर नवम्बर 2016 के बाद - अमेरिका अपनी पहचान के युग में प्रवेश कर चुका है।

इन पहचान संघर्षों के प्रकट होने के कई कारण हैं।

शायद इन संघर्षों के उभरने का सबसे महत्वपूर्ण कारण पश्चिमी उदारवादी लोकतंत्रों में मौजूद कुछ कमियों की ओर पलटता है।

दूसरी ओर, अमेरिकी मुख्यधारा में मूल रूप से विभिन्न आवाज़ों का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता, संभावना या इच्छाशक्ति नहीं है जो पहचान के संघर्षों के ढांचे में परिभाषित होती है।

इसका विश्लेषण इस रूप में किया जा सकता है कि अमेरिका में हालिया विरोध प्रदर्शन बढ़े हैं बल्कि यह प्रदर्शन जारी हैं और साथ ही यह घरेलू राजनीति को भी चुनौती दे रहे हैं। विदेश नीति में अन्य श्रेणियों के विपरीत, ऐसे मुद्दे आमतौर पर अमेरिकी घरेलू नीति में कम ही टारगेटेड होते हैं लेकिन ग़ज़ा में नरसंहार का मुद्दा आखिरकार घरेलू राजनीति को चुनौती देने में सक्षम हो गया। इस एतेबार से इस घटना को पहचान के संघर्ष के युग में अमेरिका के दाख़िल होने के नमूनों में से एक या एक हिस्से के रूप में माना जा सकता है। वास्तव में लगभग दो मुख्य धाराओं के बीच पहचान का टकराव है। एक विचारधारा जो श्वेत अमेरिकियों के प्रभुत्व और संप्रभुता को संरक्षित करने और मूल व ऐतिहासिक अमेरिका की ओर लौटने का समर्थन करता है, यह वह अमेरिका जहां जातीय विविधता और बहुराष्ट्रीय प्रवृत्ति का निशान ही नज़र नहीं आता।

दूसरी ओर, एक और विचारधारा है जिसको एहसास है कि उसकी मांगों और उम्मीदों का घरेलू और विदेश नीति में जवाब ही नहीं मिलता। इसकी वजह यह है कि यह संघर्ष, बुनियादों और सिद्धांतों को लेकर है, यह संघर्ष ख़ुद बा ख़ुद हिंसक हो जाता है। नवम्बर 2020 में अमेरिकी चुनावों में, कुछ सर्वेक्षणों ने संकेत दिया कि दोनों पक्षों ने, चाहे बाइडेन या डेमोक्रेटिक समर्थक या ट्रम्प या रिपब्लिकन समर्थक हो, चुनावी लक्ष्यों को आगे बढ़ाने और पूरा करने के लिए एक निश्चित मात्रा में राजनीतिक हिंसा की अनुमति दी है।

विरोध प्रदर्शनों के आम लोगों तक पहुंचने की संभावना

तेहरान विश्वविद्यालय के फ़िलिस्तीन अध्ययन केन्द्र के प्रोफ़ेसर हादी बुरहानी:

पश्चिमी देशों और अमेरिका में विश्वविद्यालयों को एक विशेष स्थान प्राप्त है और दूसरी ओर ये विरोध प्रदर्शन, अमेरिका के प्रसिद्ध और बड़े विश्वविद्यालयों में हो रहे हैं और यदि ये जारी रहे, तो परिवर्तन की लहरें "आम लोगों" तक पहुंच सकती हैं।

यदि विरोध प्रदर्शन आम लोगों तक पहुंच गए, तो अमेरिकी सरकार इसे रोक नहीं पाएगी, और यह अंततः अमेरिका में ज़ायोनी शासन और उसकी लॉबी के लिए ख़तरा बन जाएगा।

अमेरिका में "पारशल डेमोक्रेसी" है और यदि इस देश में अधिकांश लोग ज़ायोनी शासन के समर्थन के ख़िलाफ़ हैं, तो इस शासन का समर्थन करने की नीति अब टिकाऊ नहीं रहेगी और तेल अवीव के लिए वाशिंगटन का समर्थन ख़तरे में पड़ जाएगा।

 स्रोत:

अमेरिका में छात्रों का विरोध प्रदर्शन "आम लोगों" तक भी पहुंच सकता है। (1403 हिजरी शम्सी) मेहर न्यूज़ संवाददाता

7 अक्टूबर के छात्र आंदोलन की समाजशास्त्री, फ़रहिख़्तगान अखबार ब्रेमानी फ़ातेमा

अमेरिकी विश्वविद्यालयों का आंदोलन, एक सामाजिक आंदोलन बन गया। (1403 हिजरी शम्सी) तस्नीम समाचार एजेंसी

 

 

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