रवीन्द्रनाथ टैगोर और ईरान: ईरानी और हिन्दुस्तानी ख़ूबसूरत तसव्वुर की झलक

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रवीन्द्रनाथ टैगोर और ईरान: ईरानी और हिन्दुस्तानी ख़ूबसूरत तसव्वुर की झलक

रवीन्द्रनाथ टैगोर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थक थे और प्रेरणा के लिए अन्य एशियाई देशों की ओर देखते थे। उन्होंने ईरानियों के उपनिवेशवाद-विरोधी दृष्टिकोण को देखा था और यह, उनकी पारिवारिक रुचि के साथ, ईरान और भारत के बीच संबंधों में सुंदर घटनाओं का आधार बन गया।

"रवींद्रनाथ टैगोर" (Rabindranath Tagore) एक लेखक और दार्शनिक के रूप में, न केवल भारत में, बल्कि पूरी दुनिया में बहुत प्रभावी रहे। पश्चिम के साथ टैगोर के संबंधों और उन पर इसके प्रभाव के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन उनके जीवन का एक पहलू जो बहुत कम लोगों को पता है, वह है ईरान से उनका रिश्ता, एक ऐसा देश जिसका भारत के साथ सांस्कृतिक संबंध 2500 साल से भी अधिक पुराना है। यहाँ हम इस संबंध की एक झलक दिखाएंगे।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ईरानी संस्कृति से बहुत प्रभावित थे। उनके दार्शनिक पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर (Debendranath Tagore) की फ़ारसी भाषा पर अच्छी पकड़ थी। उन्हें ईरान से गहरा प्रेम था। अपनी दैनिक प्रार्थनाओं में, उपनिषदों के पाठ के साथ, उन्होंने फ़ारसी भाषा के महान कवि हाफ़िज़ की कविताओं को भी ख़ूब पढ़ा। इसलिए रवींद्रनाथ युवावस्था में ही एक इरानी कवि से परिचित हो गए थे।

ईरानियों के प्राचीन धर्म पारसी धर्म के प्रति भी टैगोर के मन में बहुत सम्मान था। उन्होंने पारसी धर्म के सबसे बड़े धर्मगुरु को भी "सबसे महान प्रेरक दूत" के रूप में सराहा। उन्होंने अनुष्ठानों, प्रार्थना और बलिदान में पारसी और हिंदू धार्मिक नैतिकता के बीच समानताएं बताई हैं। पारसी धर्म आज भी ईरान में मौजूद है और ईरान के पारसी लोग सामाजिक, आर्थिक मामलों की परवाह किए बिना ईरान की संसद मजलिसे शूराए इस्लामी में अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से ईरानी की शासन व्यस्था में भूमिका निभाते हैं।

डॉक्टर. एच. के. शेरवानी की पुस्तक "स्टडीज़ ऑन इंडियाज़ फॉरेन रिलेशंस" (1975) में "रवींद्रनाथ टैगोर" और ईरान शीर्षक अध्याय में, डॉक्टर "मोहम्मद तक़ी मुक़्तदरी" एक दिलचस्प बात लिखते हैं। उन्होंने उल्लेख किया है कि टैगोर के महान परिवार से रवींद्रनाथ के दूर के रिश्तेदारों में से एक "सूमर कुमार टैगोर" (Sumar Kumar Tagore) मुज़फ़्फ़रुद्दीन शाह काजार के शासनकाल के दौरान कलकत्ता, जिसे अब कोलकाता कहा जाता है, में ईरान के मानद वाणिज्य दूत थे। इससे टैगोर परिवार की ईरान से निकटता का पता चलता है।

चूंकि टैगोर साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पूर्व के पहले व्यक्ति थे, इसलिए ईरानी अभिजात वर्ग उनके बारे में जागरूक हो गया। कर्नल मोहम्मद तक़ी ख़ान पेसियान प्रसिद्ध ईरानी राजनीतिक सुधारकों और अधिकारियों में से एक थे, वह जब बर्लिन में रहते थे तब उन्होंने 1918 और 1920 के बीच टैगोर की कविता का फ़ारसी में अनुवाद किया था।

1931 में, ईरानी अख़बारों ने टैगोर के बारे में लेख प्रकाशित करना शुरू किया और इस लोकप्रिय भारतीय शख़्सियत के बारे में जानकारी का दायरा बढ़ाया। टैगोर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थक थे और प्रेरणा के लिए अन्य एशियाई देशों की ओर देखते थे। उन्होंने ईरानियों के उपनिवेशवाद-विरोधी रवैये को देखा था। टैगोर की पहली ईरान यात्रा अप्रैल 1932 में हुई थी। बूशहर में रहने के बाद, टैगोर ने शीराज़ की यात्रा की, जहाँ उन्होंने महान फ़ारसी कवियों "सअदी" और "हाफ़िज़" के मक़बरों का दौरा किया। उन्होंने "तख़्ते जमशेद" (पर्सेपोलिस( के प्राचीन स्थल का भी दौरा किया और इस्फ़हान और तेहरान की भी यात्रा की।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी ईरान यात्रा के दौरान वह जहां भी गए वहां उन्होंने बुद्धिजीवियों, धार्मिक नेताओं, राजनीतिक हस्तियों और आम लोगों से मुलाक़ात की। स्थानीय अधिकारियों के साथ बातचीत में टैगोर ने लगातार भारत और ईरान के बीच सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंधों पर ज़ोर दिया। टैगोर अपने 70वें जन्मदिन पर तेहरान पहुंचे थे। मलिक अश्शोरा बहार (10 दिसंबर, 1886 - 22 अप्रैल, 1951), एक प्रसिद्ध ईरानी कवि, ने तेहरान में टैगोर के स्वागत के लिए अपनी लिखी एक लंबी कविता पढ़ी और उन्हें समर्पित किया।

इस भारतीय कवि और दार्शनिक को उस समय के कुछ सबसे प्रमुख ईरानी विद्वानों, जैसे अली दश्ती, रशीद यास्मी, अब्बास इक़बाल, सईद नफ़ीसी और नसरुल्लाह फ़लसफ़ी के बारे में भी पता चला। टैगोर ने पहले मस्ऊदिया पैलेस के हॉल में और फिर ईरानी साहित्यिक संघ में भाषण दिया। इसके ठीक दो साल बाद टैगोर ने दूसरी बार ईरान की यात्रा की। इस बार, वह ईरानी कवि फ़िरदौसी की 1000वीं वर्षगांठ थी और तभी फ़िरदौसी के मक़बरे का उद्घाटन भी हुआ था। इस ऐतिहासिक समारोह की वजह से उनकी इस बार की ईरान यात्रा पर मीडिया के ध्यान थोड़ा कम रहा, लेकिन बाद में मीडिया ने उनकी ईरान यात्रा पर फोकस करना शुरु किया।

अपनी ईरान यात्रा के दौरान, टैगोर ने अनुरोध किया कि भारत में फ़ारसी साहित्य पढ़ाने के लिए एक प्रोफेसर भेजा जाए। इब्राहीम पूर दाऊद नामक एक ईरानी विद्वान, को भारत भेजा गया, जहां उन्होंने प्राचीन ईरानी साहित्य का अध्ययन और अध्यापन किया। उन्होंने एक स्थानीय शिक्षक ज़ियाउद्दीन की मदद से टैगोर की कई कविताओं का बंगाली से फ़ारसी में अनुवाद किया और 1935 में कलकत्ता में संग्रह प्रकाशित किया। टैगोर ने ईरानी नौरोज़ को मनाने के लिए एक बड़े समारोह का आयोजन किया। इसमें उन्होंने ईरानी संस्कृति, ईरानी सभ्यता, ईरानी लोगों और उनकी मेहमान नवाज़ी के प्रति अपनी प्रशंसा व्यक्त की।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दोनों देशों और दो सभ्यताओं के बीच आध्यात्मिक संबंधों पर ज़ोर दिया। दोनों देशों के बीच नव स्थापित साहित्यिक संबंध, जिनकी पृष्ठभूमि बेशक कई हज़ार साल पुरानी थी, मज़बूत बनी रहे। 1947 में भारत की आज़ादी के बाद, ईरान ने भारत के साथ अपने मैत्रीपूर्ण संबंध जारी रखे और इसे उपमहाद्वीप के विभाजन के परिणामस्वरूप बने एक नए पड़ोसी पाकिस्तान के साथ जोड़ दिया। 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद भी भारत ने ईरान के साथ अपने अच्छे संबंध जारी रखे, जब पहलवी राजवंश को उखाड़ फेंका गया और ईरान एक गणतंत्र बन गया। 2011 में, रबींद्रनाथ टैगोर की कविता के फ़ारसी संस्करण का अनावरण किया गया था जब भारतीय संसद की पूर्व अध्यक्ष मीरा कुमार ने ईरान का दौरा किया था।

 

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