सैयद अली ख़ामेनई, इस्लामी क्रांति सुप्रीम लीडर

Rate this item
(0 votes)
सैयद अली ख़ामेनई, इस्लामी क्रांति सुप्रीम लीडर

ईरान की इस्लामी क्रांति के दूसरे सुप्रीम लीडर सैयद अली ख़ामेनई पुत्र सैयद जवाद (पैदाइशः 19 अप्रैल 1939 ईसवी/ 29 फ़रवरदीन 1318 हिजरी शमसी/ 28 सफ़र 1358 हिजरी क़मरी)

​सैयद अली हुसैनी ख़ामेनई पुत्र स्वर्गीय हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अलहाज सैयद जवाद हुसैनी ख़ामेनई, 29 फ़रवरदीन सन 1318 हिजरी शमसी बराबर 1358 हिजरी क़मरी (19 अप्रैल 1939 ईसवी) को पवित्र नगर मशहद में पैदा हुए।    

वह अपने भाई बहनों में दूसरे नंबर पर हैं। स्वर्गीय सैयद जवाद ख़ामेनई की ज़िन्दगी भी दूसरे धर्मगुरुओं और धार्मिक शिक्षा केन्द्रों के उस्तादों की तरह बहुत सादा थी। “हमारे पिता मशहूर धर्मगुरू थे, मगर बहुत ही नेक थे। हमारी ज़िन्दगी बहुत कठिनाई में गुज़रती थी। मुझे याद है, ऐसी रातें भी आती थीं जब हमारे घर में रात का खाना नहीं होता था। हमारी माँ बहुत मुश्किल से हमारे लिए रात के खाने का इंतेज़ाम करती थीं। रात के खाने में बस रोटी और किशमिश होती थी।”

जिस घर में सैयद जवाद का परिवार रहता था, वह मशहद के ग़रीबों के मोहल्ले में था। “मेरे वालिद का घर जहाँ मैं पैदा हुआ और 4-5 साल तक जहाँ रहा, 60-70 वर्गमीटर का घर था जो मशहद के ग़रीबों के मोहल्ले में था। उसमें एक कमरा था और घुप अंधेरे वाला तहख़ाना जहाँ घुटन महसूस होती थी।

चूंकि पिता धर्मगुरू थे और लोग उनसे मिलने और धार्मिक सवाल पूछने आते थे, इसलिए आम तौर पर आना जाना रहता था। जब हमारे पिता का कोई मेहमान आ जाता था तो हम सबको मेहमान के जाने तक तहख़ाने में रहना होता था। बाद में कुछ लोगों ने जो पिता को मानते थे, उसी घर से मिली ज़मीन का एक टुकड़ा ख़रीद कर उसी घर में शामिल कर दिया। इस तरह हमारे पास तीन कमरे हो गए।”

1 परिवार

पिता:

उनके पिता सैयद जवाद ख़ामेनेई 20 जमादिस्सानी सन 1313 हिजरी क़मरी, 16 आज़र सन 1274 हिजरी शमसी, बराबर 7 दिसंबर 1895 ईसवी को पैदा हुए। उनका देहांत 14 तीर सन 1365 हिजरी शमसी बराबर 5 जुलाई 1986 ईसवी को हुआ। वह अपने दौर में बड़े धर्मगुरूओं में गिने जाते थे। वह इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ में पैदा हुए और बचपन में अपने परिवार के साथ ईरान के तबरेज़ शहर आ गए। इस्लामी धर्मशास्त्र में इज्तेहाद नामी दर्जे से पहले की शिक्षा पूरी करके क़रीब 1955 में पवित्र नगर मशहद चले गए। (8) वहाँ धर्मगुरू आग़ा हुसैन क़ुम्मी, मीर्ज़ा मोहम्मद आक़ाज़ादे ख़ुरासानी (कफ़ाई) मीर्ज़ा महदी इस्फ़हानी और हाजी फ़ाज़िल ख़ुरासानी से धर्मशास्त्र और उसके नियम की शिक्षा तथा आक़ा बुज़ुर्ग हकीम शहीदी और शैख़ असदुल्लाह यज़्दी से दर्शनशास्त्र की शिक्षा हासिल की। (9) उसके बाद सन 1964 में इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ अशरफ़ चले गए और वहाँ मीर्ज़ा मोहम्मद हुसैन नाईनी, सैयद अबुल हसन इस्फ़हानी और आक़ा ज़ियाउद्दीन इराक़ी से ज्ञान हासिल किया और इन तीनों बड़े धर्मगुरूओं से ‘इज्तेहाद’ की इजाज़त भी ली।(10) उन्होंने ईरान वापस आने का इरादा किया और मशहद गए और फिर वहीं बस गए। वहां पढ़ाने के साथ ही मशहद के बाज़ार की मस्जिद सिद्दीक़ीहा या आज़राबाइजानिहा मस्जिद में इमाम हो गए।(11) वह इसी तरह जामा मस्जिद गौहर शाद के इमामों में भी गिने जाते थे। उन्हें किताबें पढ़ने का बहुत शौक़ था। अपने बराबर के धर्मगुरूओं जैसे हाजी मीर्ज़ा हुसैन अबाई, हाजी सैयद अली अकबर ख़ूई, हाजी मीर्ज़ा हबीब मलेकी वग़ैरह के साथ ग्रुप स्टडी दसियों साल जारी रही। वह बहुत ही परहेज़गार और दुनिया की मोह माया से दूर रहने वाले इंसान थे। उन्होंने संतों की तरह सादा ज़िन्दगी गुज़ारी।(13)

इस्लामी क्रांति की कामयाबी के बाद उनके बेटे उच्च राजनैतिक व प्रशासनिक पदों पर थे, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपनी सादी ज़िन्दगी की शैली बाक़ी रखी। उनकी शख़्सियत उच्च मानवीय गुणों से सुसज्जित थी जिसकी वजह से लोग उनका बहुत सम्मान करते थे। उन्हें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की मुबारक ज़रीह के पीछे बरामदे में दफ़्न किया गया। (14)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के पिता के देहांत पर आपके नाम इमाम ख़ुमैनी ने शोक संदेश में आयतुल्लाह सैयद जवाद ख़ामेनेई को परहेज़गार धर्मगुरू के नाम से याद किया।(15)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के परदादा सैयद मोहम्मद हुसैनी तफ़रेशी थे जिनका शजरा या फ़ैमिली ट्री अफ़तसी सादात से मिलता है और अफ़तसी सादात का फ़ैमिली ट्री सुल्तानुल उलमा अहमद तक जाता है जो सुल्तान सैयद अमहद के नाम से मशहूर थे और फिर पांच नसलों के बाद पैग़म्बरे इस्लाम के चौथे उत्तराधिकारी इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम से मिलता है।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के दादा सैयद हुसैन ख़ामेनेई (पैदाइश क़रीब 1259 हिजरी क़मरी, देहांत 20 रबीउस सानी 1325 हिजरी क़मरी) ख़ामेना में पैदा हुए और नजफ़ अशरफ़ में बड़े धर्मगुरूओं जैसे सैयद हुसैन कोह कमरई, फ़ाज़िल ईरवानी, फ़ाज़िल शर्बियानी, मीर्ज़ा बाक़िर शकी और मीर्ज़ा मोहम्मद हुसैन शीराज़ी से ज्ञान हासिल किया। नजफ़ अशरफ़ के धार्मिक केन्द्र में शिक्षा व तत्वदर्शिता के दर्जे तय करने के बाद, शिक्षकों व वरिष्ठ धर्मगुरुओं के हल्क़े में शामिल हो गए। सन 1316 हिजरी क़मरी में वह तबरेज़ आए (1) और तालेबिया मदरसे में उस्ताद और शहर में जुमे की नमाज़ के इमाम नियुक्त हुए। (2) वह उच्च राजनैतिक व सामाजिक विचार रखने वाले धर्मगुरू थे। वह संवैधानिक क्रांति के समर्थक धर्मगुरूओं में थे। वह लोगों को हमेशा संवैधानिक क्रांति के आंदोलन का समर्थन करने के लिए प्रेरित करते रहते थे। (3) ज्ञान के क्षेत्र में उनकी रचनाओं को जिसमें रियाज़ुल मसाएल, क़वानीनुल उसूल, शैख़ अंसारी की मकासिब, फ़राएदुल उसूल और शरहे लुमा किताबों पर लिखे गए हाशिए को नजफ़ में शूश्तरी इमामबाड़े की लाइब्रेरी में वक़्फ़ कर दिया गया।(4) संवैधानिक क्रांति के क्रांतिकारी धर्मगुरू व संग्रामी शैख़ मोहम्मद ख़याबानी उनके शिष्य और दामाद थे।(5) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के चाचा सैयद मोहम्मद ख़ामेनेई उर्फ़ पैग़म्बर (पैदाइश 1293 हिजरी क़मरी नजफ़ अशरफ़, देहांत शाबानुल मोअज़्ज़म 1353 नजफ़ अशरफ़, आख़ुन्द ख़ुरासानी, शरीअत इस्फ़हानी और नजफ़ के दूसरे बड़े धर्मगुरूओं के शिष्य थे। वह अपने दौर के मामलों के बारे में पूरी तरह जागरुक थे और संवैधानिक क्रांति के समर्थकों में गिने जाते थे। (7)

माँ

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की माँ बानो मीर दामादी (पैदाइश 1239 हिजरी शमसी बराबर 1914 ईसवी, देहांत 1368 हिजरी शमसी बराबर 1989 ईसवी) सादा व पाक जीवन बिताने वाली, इस्लामी शरीआ, क़ुरआन और हदीस की पाबंद, इतिहास और साहित्य से लगाव रखने वाली महिला थीं। वह पहलवी शासन के ख़िलाफ़ आंदोलन के दौरान, अपने संग्रामी व क्रांतिकारी बेटों ख़ास तौर पर सैयद अली ख़ामेनेई के साथ रहीं। (16)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई अपनी माँ के बारे में बताते हैः मेरी माँ बहुत ही समझदार व शिक्षित थी, सेल्फ़ स्टडी और शायरी में लगाव था, हाफ़िज़ शीराज़ी के शेरों की अच्छी समझ थी, कुरआन अच्छी तरह समझती थीं, उनकी आवाज़ बहुत मीठी थी।

जब हम छोटे थे तो सब उनके पास बैठ जाते थे और माँ बहुत ही मधुर व मीठे अंदाज़ में पवित्र क़ुरआन की तिलावत करती थीं। हम सारे बच्चे उनके पास इकट्ठा हो जाते थे और वह ख़ास मौक़ों पर पैग़म्बरों की ज़िन्दगी के बारे में हमें आयतें सुनाती थीं। हम ने ख़ुद हज़रत मूसा की ज़िन्दगी, हज़रत इब्राहीम की ज़िन्दगी और दूसरे पैग़म्बरों की ज़िन्दगी के बारे में आयतें और बातें अपनी माँ से सुनीं। क़ुरआन की तिलावत करते वक़्त जब उन आयतों पर पहुंचती थीं, जिन में पैग़म्बरों के नाम हैं, तो उन आयतों के बारे में तफ़सील से बताती थीं।

आयतुल्लाह सैयद हाशिम नजफ़ाबादी (मीर दामादी, पैदाइश 1303 हिजरी क़मरी, देहांत 1380 हिजरी क़मरी) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के नाना थे। (वह सफ़वी काल के मशहूर दर्शनशास्त्री मीर दामाद के ख़ानदान से थे) वह आख़ुन्द ख़ुरासानी और मीर्ज़ा मोहम्मद हुसैन नाइनी के शिष्यों में थे। उनका बड़े धर्मगुरुओं में शुमार होता था। वह पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकार और गौहर शाद मस्जिद के इमामों में थे। (17) वह लोगों को बुराई से रोकने और अच्छाई के लिए प्रेरित करने पर ख़ास तौर पर अमल करते थे। गौहर शाद मस्जिद में नरसंहार पर एतेराज़ करने पर शासक रज़ा शाह के शासन काल में उन्हें जिला वतन करके सेमनान भेज दिया गया था। (18) माँ के फ़ैमिली ट्री की नज़र से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का फ़ैमिली ट्री इमाम जाफ़र सादिक़ के बेटे मोहम्मद दीबाज से मिलता है। (19)

2 ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में ज़िन्दगी

2.1 शिक्षा हासिल करना और पढ़ाना

मशहद में पढ़ाई

सैयद अली ख़ामेनेई ने 4 साल की उम्र से मकतब में कुरआन की शिक्षा हासिल करना शुरू किया। मशहद के पहले इस्लामी स्कूल दारुत्तालीम दियानती में प्राइमरी की शिक्षा हासिल की। (20) साथ ही उन्होंने मशहद के कुछ क़ारियों के पास जाकर क़ुरआन को पढ़ने के तरीक़े का ज्ञान हासिल किया जिसे क़ेरत व तजवीद कहते हैं। (21) प्राइमरी में पांचवीं क्लास में पहुंचे तो धार्मिक शिक्षा भी शुरू कर दी। धार्मिक शिक्षा ले लगाव और माँ-बाप की तरफ़ से प्रोत्साहन मिलने के नतीजे में प्राइमरी के बाद वह पूरी तरह धार्मिक शिक्षा के छात्र बन गए और सुलैमान ख़ान मदरसे में धार्मिक शिक्षा हासिल करने लगे। उन्होंने कुछ आरंभिक किताबें अपने पिता से पढ़ीं। फिर उन्होंने नव्वाब स्कूल में दाख़िला लिया और इज्तेहाद के दर्जे से पहले की पढ़ाई पूरी की। इसी बीच आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने हाई स्कूल की भी पढ़ाई की। (22)

उन्होंने धर्मशास्त्र के नियम की किताब मआलेमुल उसूल आयतुल्लाह सैयद जलील हुसैनी सीस्तानी से पढ़ी और धर्मशास्त्र की अहम किताब शरहे लुमा पिता और मीर्ज़ा अहमद मुदर्रिस यज़्दी से पढ़ी।  धर्मशास्त्र के नियम की एक और अहम किताब रसाएल और धर्मशास्त्र की सबसे बड़ी किताब मकासिब और धर्मशास्त्र के नियम की आख़िरी दर्जे की किताब किफ़ाया अपने पिता और आयतुल्लाह हाजी शैख़ हाशिम क़ज़वीनी से पढ़ी। सन 1334 हिजरी शमसी मुताबिक़ 1955 को आयतुल्लाह सैयद मोहम्मह हादी मीलानी की इज्तेहाद की क्लास में भाग लिया।

नजफ़ में पढ़ाई

सन 1336 हिजरी शमसी बराबर 1957 ईसवी को सैयद अली ख़ामेनेई अपने परिवार के साथ नजफ़ अशरफ़ गए। नजफ़ अशरफ़ के धार्मिक शिक्षा केन्द्र के मशहूर उस्तादों जैसे आयतुल्लाह सैयद मोहसिन अलहकीम, आयतुल्लाह सैयद अबुल क़ासिम अलख़ूई, आयतुल्लाह सैयद महमूद शाहरूदी, आयतुल्लाह मीर्ज़ा बाक़िर ज़न्जानी और आयतुल्लाह मीर्ज़ा हसन बुजनोर्दी की क्लासों में शामिल हुए, मगर पिता वहाँ ठहरना नहीं चाहते थे, इसलिए मशहद वापस आ गए। (23) और एक साल तक आयतुल्लाह मीलानी की क्लास में भाग लेते रहे। उसके  बाद सन 1958 को धार्मिक शिक्षा को जारी रखने के लिए क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में दाख़िला लिया। (24) उसी साल क़ुम जाने से पहले आयतुल्लाह मोहम्मद हादी मीलानी ने आयतुल्लाह ख़ामेनेई को रवायतें सुनाने की इजाज़त दे दी थी। (25)

क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में

सैयद अली ख़ामेनेई ने क़ुम में हाजी आक़ा हुसैन बुरूजर्दी, इमाम ख़ुमैनी, हाजी शैख़ मुर्तज़ा हायरी यज़्दी, सैयद मोहम्मद मोहक़्क़िक़ दामाद और अल्लामा तबातबाई जैसे महान धर्मगुरूओं के शिष्य बनने का गौरव हासिल किया। (26) क़ुम में पढ़ाई के दौरान आयतुल्लाह ख़ामेनेई का ज़्यादातर वक़्त सेल्फ़ स्टडी और पढ़ाने में गुज़रता।

मशहद वापसी

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सन 1964 हिजरी शमसी को पिता की आँखों की रौशनी चली जाने की वजह से उनकी ख़िदमत और मदद के लिए क़ुम से मशहद लौट गए और वहां एक बार फिर आयतुल्लाह मीलानी की क्लास में जाने लगे। यह सिलसिला 1970 तक जारी रहा। मशहद लौटने के फ़ौरन बाद ही आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने धर्मशास्त्र (फ़िक़ह) और धर्मशास्त्र के नियम (उसूले फ़िक़ह) की उच्च स्तरीय किताबें (रसाएल, मकासिब, किफ़ाया) पढ़ाना शुरू कर दिया और तफ़सीर की क्लासें भी शुरू की। इन क्लासों में नौजवान और ख़ास तौर पर यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स शामिल होते थे। (27) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई क़ुरआन की तफ़सीर की क्लास में इस्लाम के नज़रिये और इस्लाम की वैचारिक बुनियादों को बयान करते और उद्दंडी शाही हुकूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष करते और उसे गिराने के लिए कार्यवाही की ज़रूरत के विचार को फैलाते थे। तफ़सीर की क्लास में शामिल होने वाला इस नतीजे पर पहुंच जाता था कि देश में इस्लाम और इस्लामी शिक्षाओं पर आधारित शासन का गठन ज़रूरी है। तफ़सीर की क्लासों का एक अहम मक़सद इस्लामी क्रांति की वैचारिक बुनियादों को समाज में फैलाना था। सन 1968 ईसवी से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने धार्मिक स्टूडेंट्स के लिए तफ़सीर की ख़ास क्लासेज़ शुरू की। ये क्लासें सन 1977 में उनकी गिरफ़्तारी और जिला वतन के रूप में उन्हें ईरान शहर भेजे जाने तक जारी रहीं। (28) बाद में राष्ट्रपति बनने के कुछ बरसों में फिर तफ़सीर की क्लासों का सिलसिला शुरू हुआ।......

 

Read 62 times