इस्लाम में मां-बाप के आदर

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इस्लाम में मां-बाप के आदर

मां-बाप की सेवा और उनके साथ भलाई के प्रतिफल के परिणाम स्वरूप इंसान की आयु में वृद्धि होती है, इंसान की आजीविका में वृद्धि होती है, इंसान की मौत के समय का कष्ट आसान हो जाता है।

यद्यपि मां-बाप हर हालत में अपनी संतान का भला चाहते हैं और कभी उसके लिए बुरा नहीं सोचते, लेकिन उनके दिल से उसी संतान के लिए दुआ निकलती है, जो सेवा और आदर से उनका दिल जीत लेती है। ऐसी संतान के हक़ में दुआ के लिए जब मां-बाप के हाथ आसमान की तरफ़ उठते हैं, तो ईश्वर उन्हें कभी ख़ाली हाथ नहीं लौटाता और निराश नहीं करता है। निःसंदेह इंसान को जीवन के हर मोड़ पर ईश्वर से प्रार्थना और बड़ों विशेष रूप से मां-बाप के आशीर्वाद की ज़रूरत होती है। स्वयं ईश्वर ने अपने बंदों से दुआ और प्रार्थना की सिफ़ारिश की है। क़ुराने मजीद के सूरए बक़रा में ईश्वर कहता है, प्रार्थना करने वाला जब मुझे पुकारता है, तो मैं उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लेता हूं। ईश्वर जिन दुआओं को कभी रद्द नहीं करता, उन्हीं में से एक मां-बाप के लिए संतान की दुआ और संतान के लिए मां-बाप की दुआ है। संतान के लिए मां-बाप की दुआ के संबंध में इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, ईश्वर तीन लोगों की दुआ को रद्द नहीं करता है, संतान के लिए बाप की दुआ जब वह उससे कोई भलाई देखे, संतान के लिए बाप की बद-दुआ अर्थात अभिशाप जब संतान से उसे कोई दुख पहुंचे और पीड़ित की बद-दुआ अत्याचारी के लिए।

मां-बाप के साथ भलाई करने का एक प्रतिफल यह है कि ऐसे व्यक्ति के साथ उसकी संतान भी भलाई करती है। इसलिए कि नैतिकता की दृष्टि से मां-बाप का अपनी संतान पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है। इंसान के जीवन में मां-बाप ही पहली वह हस्ती होते हैं, जिसे वह अपना आदर्श बनाता है। इसलिए जो कोई यह चाहता है कि उसकी संतान उसके अधिकारों का सम्मान करे और उसका आदर करे, तो यही काम उसे अपने मां-बाप और बड़ों के साथ करना चाहिए, आरम्भ उसे ही करना होगा, ताकि छोटे भी सीख सकें। जो कोई अपने मां-बाप और बुज़ुर्गों का आदर करेगा, परिणाम स्वरूप उसके छोटे और उसकी संतान उसका आदर करेगी। जब बच्चे देखेंगे कि उनके मां-बाप हमेशा अपने मां-बाप का आदर करते हैं और इस विषय को काफ़ी महत्व देते हैं तो वे भी यही सीखेंगे और इसे अपना आदर्श बनायेंगे। जैसा कि इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने फ़रमाया है, अपने बच्चों के साथ भलाई करो, ताकि वे भी तुम्हारे साथ भलाई करें। 

मां-बाप के साथ भलाई का परलोक में प्राप्त होने वाला एक प्रतिफल स्वर्ग में उच्च स्थान का प्राप्त होना है। ईश्वरीय किताब क़ुरान में उल्लेख है कि हर कर्म का फल है, जैसा इंसान का कर्म होगा वैसा ही उसे उसका फल मिलेगा। मां-बाप की सेवा और उनका आदर ईश्वर के निकट सबसे बड़ा कर्म है, इसलिए उसका प्रतिफल भी सबसे बड़ा होगा। यही कारण है कि मां-बाप की सेवा और उनका आदर करने वाली संतान को ईश्वर न केवल स्वर्ग प्रदान करता है, बल्कि स्वर्ग में वह उच्च स्थान देता है, जो उसके दूतों और विशिष्ट बंदों से विशेष है।

इस संदर्भ में इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ) फ़रमाते हैं, अगर किसी व्यक्ति में चार विशेषताएं होंगी तो ईश्वर उसे उत्तम व उच्चतम स्थान प्रदान करेगा। जो कोई किसी अनाथ को शरण देता है और उसे बाप की नज़र से देखता है, जो कोई किसी कमज़ोर और वृद्ध पर कृपा करता है और उसकी पर्याप्त सहायता करता है, जो कोई अपने मां-बाप की सेवा करता है और उनकी ज़रूरतों को पूरा करता है और उनके साथ भलाई करता है और उन्हें दुखी नहीं करता।

मां-बाप की सेवा और उनके साथ भलाई करने वाली संतान को ईश्वर स्वर्ग में अपने विशिष्ट बंदों का साथी बनाता है। उल्लेखनीय है कि धर्म में गहरी आस्था रखने वालों की सबसे महत्वपूर्ण इच्छा लोक व परलोक में ईश्वर के विशिष्ट एवं नेक बंदों की संगत प्राप्त करना है। ईश्वर से उनकी प्रार्थना होती है कि उन्हें उसके नेक बंदों के साथ मौत आए और प्रलय के दिन उन्हीं के साथ उनका हिसाब किताब हो।

धर्म में गहरी आस्था रखने वाला व्यक्ति, ईश्वर की कृपा एवं प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास करता है। ईश्वर की कृपा का पात्र बनने और उसकी प्रसन्नता प्राप्ति के एक मार्ग मां-बाप की सेवा और उनका आदर है। इसके प्रतिफल के रूप में ईश्वर उसे अपने नेक और भले बंदों का साथी बना देता है। पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, जो कोई अपने मां-बाप की ओर से हज करता है और उनका क़र्ज़ अदा करता है, प्रलय के दिन ईश्वर उसे नेक बंदों का साथी बना देता है।

मां-बाप की सेवा और आदर के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाले प्रतिफल के रूप में कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि परलोक में स्वर्ग एवं अन्य ईश्वरीय अनुकंपाओं की प्राप्ति के अलावा, इससे इस दुनिया में भी हमारा जीवन और भाग्य प्रभावित होता है और जीवन के अनेक सुख प्राप्त होते हैं। यहां इस बिंदु की ओर संकेत करना उचित होगा कि मां-बाप की सेवा प्रत्येक स्थिति में एक सराहनीय कार्य है, लेकिन संतान अगर स्वयं अपने हाथों से यह कार्य करती है तो उसका विशेष महत्व होता है। इस्लामी इतिहास में है कि इब्राहीम नामक एक व्यक्ति ने इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की सेवा में उपस्थित होकर कहा, हे इमाम मेरे पिता बहुत बूढ़े और कमज़ोर हैं, इस प्रकार से कि वे अपनी प्राकृतिक ज़रूरतों को भी स्वयं अंजाम देने में असमर्थ हैं, इसी कारण मैं ख़ुद उन्हें अपने कांधों पर उठाता हूं और इस प्रकार उनकी सहायता करता हूं। इमाम ने फ़रमाया, जहां तक संभव हो स्वयं ही यह सेवा करो और भोजन कराते समय स्वयं अपने हाथों से उनके लिए निवाला बनाओ, इसलिए कि इस प्रकार की सेवा प्रलय के दिन नरक की आग की ढाल बनेगी।

मां-बाप की सेवा और उनके आदर का जहां इंसान को यह प्रतिफल मिलता है, वहीं उन्हें दुख पहुंचाना और उनका अनादर करना, सबसे बड़ा पाप है। यह एक ऐसा पाप है जिसका दंड देने के लिए ईश्वर प्रलय के दिन की प्रतीक्षा नहीं करता है, बल्कि ऐसे पापी को इस दुनिया में ही उसकी कुछ सज़ा मिल जाती है। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं, तीन पाप ऐसे हैं, जिनके दंड के लिए प्रलय की प्रतीक्षा नहीं की जाती है, मां-बाप का अभिशाप, लोगों पर अत्याचार करना और दूसरों की भलाई एवं अच्छाई का आभार व्यक्त नहीं करना।

आज के आधुनिक दौर में चीज़ें तेज़ी से बदल रही हैं। पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्य भी इन परिवर्तनों से अछूते नहीं हैं। कुछ समाजों में पारिवारिक रिश्तों में अब वह गरमी महसूस नहीं की जाती है। मां-बाप और बच्चे एक परिवार में रहते हुए भी कई कई दिन एक दूसरे से नहीं मिल पाते हैं। इस प्रकार की जीवन शैली भावनाओं को समाप्त कर देती है।

दुर्भाग्यवश हम देखते हैं कि इस तरह के माहौल में बड़े होने वाले बच्चे मां-बाप की सेवा भावना से बहुत दूर होते हैं, यहां तक कि उनका आदर तक नहीं करते। वे अपने बूढ़े मां-बाप को अपने पैरों की ज़ंजीर समझते हैं और हमेशा उनसे दूरी बनाकर रखना चाहते हैं। निश्चित रूप से इस स्थिति के लिए मां-बाप ही ज़िम्मेदार होते हैं, इसलिए कि उन्होंने अपने बच्चों के पालन-पोषण में व्यवाहरिक सिद्धांतों की उपेक्षा की है या अपने मां-बाप की अवहेलना करके अपने बच्चों के लिए इस तरह का आदर्श पेश किया है।

नैतिकता की जड़ें परिवार और पालन-पोषण की शैली में होती हैं। परिवार जितना मानवीय एवं नैतिक मूल्यों से दूर होगा परिवार उतना ही बिखरा हुआ होगा। लेकिन इसके लिए केवल मां-बाप को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, बल्कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक नियमों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। उदाहरण स्वरूप, पश्चिम में मां-बाप को अपने बच्चों के निजी जीवन में हस्तक्षेप तक का अधिकार नहीं है। पश्चिम के सामाजिक नियम मां-बाप और संतान को एक दूसरे के मुक़ाबले में ला खड़ा करते हैं।

बहरहाल मां-बाप की सेवा और आदर का जितना महत्व है और संतान के जीवन पर उसका जितना प्रभाव पड़ता है, उन्हें दुखी करने और उनके अनादर का उतना ही अधिक नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। इतिहास में है कि एक युवा की मौत के समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) उसके पास गए और उससे कहा, कहो, अल्लाह के अलावा कोई ईश्वर नहीं है, लेकिन युवक की ज़बान बंद हो गई और वह कुछ बोल नहीं पाया। पैग़म्बरे इस्लाम ने कई बार उससे दोहराने के लिए कहा, लेकिन वह दोहरा नहीं सका। पैग़म्बरे इस्लाम ने निकट बैठी महिला से पूछा, क्या इस युवक की मां है? उस महिला ने कहा, हां, मैं ही इस युवक की मां हूं। पैग़म्बर ने उससे पूछा क्या तुम उससे अप्रसन्न हो? महिला ने उत्तर दिया, हां, 6 वर्ष हो गए हैं, मैंने उससे बात नहीं की है। पैग़म्बरे इस्लाम ने उस महिला से कहा अपने बेटे को क्षमा कर दो, महिला ने कहा हे ईश्वरीय दूत आप की प्रसन्नता के कारण मैंने उसे क्षमा किया। उसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने युवक की ओर देखकर फ़रमाया, कहो अल्लाह के अलावा कोई ईश्वर नहीं है। इस समय युवक ने यह दोहराया और कुछ समय बाद उसका निधन हो गया।

 

 

 

 

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