सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनई के बयान की रौशनी में

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सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनई के बयान की रौशनी में

उसकी याद

’’يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اذْكُرُوا اللَّ هَ ذِكْرًا كَثِيرًا ۔وَسَبِّحُوهُ بُكْرَةً وَأَصِيلًا ۔هُوَ الَّذِي يُصَلِّي عَلَيْكُمْ وَمَلَائِكَتُهُ لِيُخْرِجَكُم مِّنَ الظُّلُمَاتِ إِلَى النُّورِ وَكَانَ بِالْمُؤْمِنِينَ رَحِيمًا ۔تَحِيَّتُهُمْ يَوْمَ يَلْقَوْنَهُ سَلَامٌ وَأَعَدَّ لَهُمْ أَجْرًا كَرِيمًا ‘‘

ऐ ईमान वालों! अल्लाह को ज़्यादा से ज़्यादा याद करो। और रात दिन उसकी तसबीह करो। वह और उसके फ़रिश्ते तुम पर दुरूद भेजते हैं ताकि वह तुम्हे अंधेरों से निकाल कर रौशनी में ले आएं और अल्लाह मोमिनीन पर मेहरबान है।

जब मैं इस आयत को देखता हूँ तो मुझे लगता है कि मुझे इस आयत को हमेशा पढ़ना चाहिये और इसमें विचार करना चाहिये और पिर इस पर अमल करना चाहिये। मुझे और आप सब को इसकी ज़रूरत है। यह आयतें हिजरत के छठे साल में अवतरित हुईं हैं यानी बद्र, ओहद और अहज़ाब की जंगों के बाद उतरी हैं यानी जब मुसलमानों को कई परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता है इसके बाद यह आयतें आती हैं और उनसे कहती हैं- अल्लाह को ज़्यादा से ज़्यादा याद करो। यानी कहीं ऐसा न हो कि इन जंगों में सफलता के बाद तुम दुनिया में मस्त हो जाओ और ख़ुदा को भूल जाओ बल्कि इसके बाद तुम्हे पहले से ज़्यादा उसकी ओर ध्यान देना है।

यहाँ मुझे इमाम सादिक़ अ. की एक हदीस याद आ रही है। आप फ़रमाते हैं-

’’مَا مِن شَى‌ءٍ إِلَّا وَ لَهُ حَدّ یَنتَهِى إِلَیهِ‘‘

अल्लाह की ओर से हर हुक्म की एक हद है जिस पर उसका अन्त होता है-

’’إِلَّا الذِّكر‘‘

लेकिन उसकी याद के लिये कोई अन्त नहीं है। कोई ऐसी हद नहीं कि जहाँ पहुँच कर इन्सान यह कहे कि उससे आगे अल्लाह को याद करने की ज़रूरत नहीं है। फिर इमाम ख़ुद ही समझाते हुए फ़रमाते हैं-

’’فَرَضَ اللَّهُ عَزَّ وَ جَلَّ الفَرَائِضَ، فَمَن أَدَاهُنَّ فَهُو حَدُّهُنَّ‘‘

अल्लाह नें जो चीज़ वाजिब की है उस पर अमल करते ही उसकी हद ख़त्म हो जाती है।

’’وَ شَهرُ رَمَضَانَ فَمَن صَامَهُ فَهُوَ حَدُّهُ‘‘

जैसे अगर किसी ने रमज़ान में रोज़े रख लिये तो रमज़ान के बाद उस पर रोज़े वाजिब नहीं हैं क्योंकि उसकी हद यही है-

’’وَ الحَجُّ فَمَن حَجَّفَهُو حَدُّهُ ‘‘

किसी पर हज वाजिब हुआ, उसनें हज किया तो उसकी हद का अन्त हो गया। इसी तरह ज़कात दे दी, ख़ुम्स दे दिया तो उसकी हद ख़त्म हो गई यानी उसके बाद वह इस साल वाजिब नहीं होगा। इसी तरह दूसरी चीज़ों की भी हद है और उनका अन्त इसी हद पर हो जाता है।

’’إِلَّا الذِّكرَ فَإِنَّ اللَّهَ عَزَّ وَ جَلَّ لَن یَرضَ مِنهُ بِالقَلِیلِ وَ لَم یَجعَل لَه حَدّاً یَنتَهِى إِلَیهِ ‘‘

लेकिन ख़ुदा की याद की कोई हद नहीं है, इसका कोई अन्त नहीं है इस लिये ख़ुदा इस बात पर राज़ी नहीं है उसको कुछ समय याद किया जाए और बस उस के बाद इमाम नें इस आयत की तिलावत की।

’’يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اذْكُرُوا اللَّهَ ذِكْرًا كَثِيرًا‘‘

अल्लाह को क्यों याद करें?

अल्लाह को क्यों हमेशा याद करें और याद रखें इसका कारण बाद वाली आयत बताती है-

’’هُوَ الَّذِي يُصَلِّي عَلَيْكُمْ وَمَلَائِكَتُهُ ‘‘

इस लिये कि ख़ुदा और उसके फ़रिश्ते तुम पर दुरूद भेजते हैं। ख़ुदा और फ़रिश्तों की ओर से दुरूद का क्या मतलब है? ख़ुदा की ओर से दुरूद यानी उसकी रहमत और फ़रिश्तों की ओर से दुरूद यानी मोमिनीन के लिये इस्तेग़फ़ार-

’’وَ یَستَغفِرُونَ لِلَّذِینَ آمَنُوا ‘‘

ख़ुदा यह रहमत क्यों भेजता है और फ़रिश्ते मोमिनीन के लिये इस्तेग़फ़ार क्यों करते हैं?

’’لِيُخْرِجَكُم مِّنَ الظُّلُمَاتِ إِلَى النُّورِ ‘‘

ताकि आपको अंधेरों से निकाल कर रौशनी में ले आएं। कौन से अंधेरे? हमारे दिलों के अंधेरे। हमारी सोच के अंधेरे, हमारे अख़लाक़ के अंधेरे और इस तरह के दूसरे अंधेरे।

ख़ुदा की याद के स्टेप

ख़ुदा की याद के कई स्टेप हैं। सब लोग एक स्टेप में नहीं हैं। कुछ सबसे ऊपर हैं जैसे अल्लाह के नबी, नेक लोग, ख़ुदा के ख़ास बंदे। हमारी पहुँच वहाँ तक नहीं है जहाँ यह लोग हैं बल्कि हमें पता भी नहीं कि वहाँ है क्या? उनके बारे में हज़रत अली अ. फ़रमाते हैं-

’’اَلذِّكرُ مَجَالِسَةُ المَحبُوبِ‘‘

ज़िक्र (ख़ुदा की याद) अपने महबूब के संग होना है। उसके साथ बैठना है। यह ख़ुदा के ख़ास बंदों के लिये एक दूसरी जगह फ़रमाते हैं-

’’اَلذِّكرُ لَذَّةُ المُحِبِّینَ‘‘

ज़िक्र मोहब्बत करने वालों के लिये आनन्द है। एक यह स्टेज है जिससे हम जैसे लोग काफ़ी दूर हैं। एक आम स्टेज है यही नमाज़, यही इबादत, यही दुआ, यही तसबीह और इस तरह की चीज़ें। इनके द्वारा हम ख़ुदा का ज़िक्र कर सकते हैं और उसको याद कर सकते हैं।

ख़ुदा की याद के फ़ायदे

इसके भी बहुत फ़ायदे हैं। एक फ़ायदा यह है कि यह हमारे दिल को गंदगियों से पाक करता है। हमारे दिल पर ग़लत अच्छाइयों का जो हमला होता है उनसे दिल को बचाता है। दिल को छोटी छोटी चीज़ों से बहुत ख़तरा है। हमारे दिल पर बहुत सी चीज़ों का असर गोता है । बहुत सी चीज़ों की ओर खिचता है। यह हर चीज़ की ओर खिचना चाहिये. इस पर हर चीज़ का असर नहीं होना चाहिये। यह ख़ुदा का घर है इसमें हर एक को जगह नहीं देना चाहिये। लेकिन हर एक घुसने की कोशिश करता है। दिल को उनसे कैसे बचाया जाए? उसी ख़ुदा की याद द्वारा। जंग के मैदान में कोई सिपाही जम कर लड़ता है, डटकर हमला करता है, बहादुरी के साथ दुश्मन का मुक़ाबला करता है लेकिन बहुत लड़खड़ा जाते हैं, भाग जाते हैं। दिल के मैदान में दुश्मन के वही बहादुरी के साथ लड़ सकता है जो ख़ुदा को याद करता हो। दिल में ख़ुदा की याद बसाने वाला इन्सान उस बहादुर सिपाही की तरह है जो पूरी ताक़त के साथ दुश्मन से लड़ता है और से अपने मुल्क में घुसने नहीं देता। क़ुरआने मजीद तो यहाँ तक फ़रमाता है-

’’إِذَا لَقِيتُمْ فِئَةً فَاثْبُتُواْ وَاذْكُرُواْ اللّهَ كَثِيرًا‘‘

जंग के मैदान में जब दुश्मन से सामना हो तो डटे रहो और अल्लाह को ज़्यादा से ज़्यादा याद करो। यानी जंग के मैदान में भी ख़ुदा की याद ज़रूरी है। फिर फ़रमाता है-

’’لَّعَلَّكُمْ تُفْلَحُونَ‘‘

इससे तुम्हे सफ़लता मिलेगी। अल्लाह की याद किस तरह सफलता दिला सकती है? इस तरह से कि उसकी याद से दिल मज़बूत होगा, जब दिल मज़बूत होगा तो क़दम लड़खड़ाएंगे नहीं। बदन तभी भाग खड़ा होता है जब दिल कमज़ोर हो लेकिन दिल मज़बूत हो तो बदन अपनी जगह जमा रहता है। यह सिद्धांत केवल जंग के मैदान के लिये नहीं है बल्कि अल्लाह की याद हर मैदान में सफलता का कारण बनती है।

दो हदीसें

ख़ुदा की याद के बारे में इमाम मोहम्मद बाक़िर अ. की एक हदीस है जिसमें इसका रोल बयान किया गया है। इमाम फ़रमाते हैं-

’’ثَلاثُ مِن أَشدِّ مَا عَمِلَ العِبَادُ‘‘

तीन चीज़ें ऐसी हैं जिन पर अमल करना बड़ा कठिन होता है-

’’اِنصَافُ المُؤمِنِ مِن نَفسِهِ‘‘

यानी जहाँ पर सिचुवेशन यह है कि अपने फ़ायदे में हक़ को छोड़ना हो या हक़ के लिये ख़ुद का नुक़सान पहुंचाना हो वह हक़ का साथ दे चाहे उसमें उसका अपना नुक़सान हो। आपको मालूम हो कि दूसरा सही है और आप ग़लत तो आप ख़ुद को ग़लत कहें। यह बहुत कठिन है लेकिन एक मोमिन को यही करना चाहिये। दूसरा काम क्या है?

’’وَ مَوَاسَاةُ المَرءِ اَخَاهُ ‘‘

यानी हर हाल में, हर सिचुवेशन में अपने मोमिन भाई की सहायता करना। और तीसरी चीज़’

’وَ ذِكرُاللَّهِ عَلىٰ كُلّ حَالٍ ‘‘

हर हाल में ख़ुदा को याद रखना। फिर समझाते हुए फ़रमाते हैं-

’’وَ هُوَ أَن یَّذكُرَ اللَّهَ عَزَّوَجَلَّ عِندَ المَعصِیَةِ یُهِمُّ بِهَا ‘‘

ख़ुदा की याद का मतलब यह है कि जब वह गुनाह करने जाए तो ख़ुदा याद आ जाए और ख़ुदा की याद उसे गुनाह करने से रोक ले। ख़ुदा को याद करे और गुनाहों से दूर हो।

’’فَیَحُولُ ذِكرُ اللَّهِ بَینَهُ وَ بَینَ تِلكَ المَعصِیَةِ وَ هُوَ قُولُ اللَّهِ عَزَّ وَجَلَّ إِنّ الذّین اتَّقَوا إِذَا مَسّهُم طَائِف مِّنَ الشّیطَانِ تَذَكَّرُوا ‘‘

अल्लाह की याद उसके और गुनाह के बीच आ जाती है और उसे गुनाह से रोक देती है। फिर इमाम फ़रमाते हैं यह तप़सीर है क़ुरआन की इस आयत की-

’’إِنّ الذّین اتَّقَوا إِذَا مَسّهُم طَائِف مِّنَ الشّیطَانِ تَذَكَّرُوا ‘‘

जब शैतान उन्हें बहकाता है और उन्हें गुनाह की ओर ले जाता है तो उन्हें ख़ुदा याद आ जाता है-

’’فَإِذَا هُم مُبصِرُونَ‘‘

और ख़ुदा की यह याद इस बात का कारण बनती है कि उनकी आँखें खुल जाती हैं।

इसी से मिलती जुलती एक हदीस इमाम सादिक़ अ. की भी है। इमाम फ़रमाते हैं-

’’وَ ذِكرُ اللَّهِ فِى كُلِّ المَوَاطِنِ ‘‘

हर समय हर जगह ख़ुदा को याद करो-

’’اَمَّا اِنِّى لَا أَقُولُ سُبحَانَ اللَّهِ وَ الحَمدُلِلَّهِ وَ لاَ إِلٰهَ إِلّاَ اللَّهَ وَ اللَّهُ أَكبَرُ‘‘

लेकिन ख़ुदा को याद करने का मतलब यह नहीं है कि इन्सान-

’’سُبحَانَ اللَّهِ وَ الحَمدُلِلَّهِ وَ لاَ إِلٰهَ إِلّاَ اللَّهَ وَ اللَّهُ أَكبَرُ‘‘

पढ़ता है।

’’وَ إِن كَانَ هَذَا مِن ذَاكَ‘‘

अगरचे यह भी ज़िक्र है। लेकिन यहाँ मेरे कहने का मतलब यह ज़िक्र नहीं है।

’’وَلٰكِن ذِكرُهُ فِى كُلِّ مَوطِنٍ إِذَا هَجَمتَ عَلٰى طَاعَتِهِ اَو مَعصِیِتِهِ‘‘

अल्लाह को याद करने का मतलब यह है कि जब तुम ख़ुदा का आज्ञा पालन करो या गुनाह की ओर क़दम बढ़ाओ तो ख़ुदा तुम्हे याद हो। ख़ुदा की यह याद इन्सान को गुनाहों से बचाती है और से अल्लाह का बंदा बनाती है।

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