अल्लामा तबातबाई

Rate this item
(0 votes)

अल्लामा तबातबाईकुछ लोग ज्वलित मशाल की भांति दूसरों को प्रकाश देते हैं। ऐसे लोग अज्ञानता व शिथिलता को पसंद नहीं करते इसलिए जिस प्रकार सूर्य फूलों व फलों को पालता है उसी तरह वे भी लोगों का प्रशिक्षण करते हैं और उनके सोए हुए मन को जागृत करते हैं। ऐसे ही लोगों में अल्लामा मोहम्मद हुसैन तबातबाई भी हैं जिन्होंने अपने ज्ञान से बहुत से लोगों को लाभान्वित किया है। वह न केवल एक महान दार्शनिक व क़ुरआन के व्याख्याकार थे बल्कि इस महान हस्ती का व्यवहार व शिष्टाचार प्रशिक्षण के मूल्यवान पाठ के रूप में मौजूद हैं।

अल्लामा तबातबाई का घर में अपनी पत्नी और बच्चों तथा समाज के विभिन्न वर्गों व विद्वानों के साथ व्यवहार, यह सब एक महान हस्ती के जीवन के मूल्यवान आदर्श हैं। आज के कार्यक्रम में इस महान धर्मगुरु के आचरण पर चर्चा करेंगे। आशा है पसंद करेंगे।

 

अल्लामा मोहम्मद हुसैन तबातबाई एक सदाचारी व आत्मज्ञानी व्यक्ति थे। जिनकी अधिकांश रातें ईश्वर की उपासना व वंदना में गुज़र जाती थीं। पवित्र रमज़ान के महीने में सूर्यास्त से सहरी के समय तक वे नमाज़ और उपासना में लीन रहते थे। उनके होठों पर सदैव ईश्वर का स्मरण रहता और कभी भी ईश्वर को नहीं भूलते थे।

इस आडंबररहित उपासक की गहन वैज्ञानिक गतिविधियां पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के वास्ते से ईश्वर से दुआ करने में बाधा नहीं बनती थी। वे इन्हीं वास्तों को अपनी सफलता का श्रेय देते थे। जब भी पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों में से किसी एक हस्ती का नाम उनके सामने लिया जाता तो उनके चेहरे पर विनम्रता के भाव झलकने लगता विशेष तौर पर जब मानवता के अंतिम मोक्षदाता हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का नाम लिया जाता। अल्लामा तबातबाई पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और फ़ातेमा ज़हरा के स्थान को मनुष्य की कल्पना से परे और अलौकिक मानते थे।

अल्लामा तबातबाई की बेटी घर में अपने पिता के शिष्टाचार का इन शब्दों में वर्णन करती हैः घर में उनका व्यवहार व शिष्टाचार पैग़म्बरे इस्लाम जैसा था। कभी भी क्रोधित नहीं होते थे और कभी भी ऊंचे स्वर में उन्हें बात करते नहीं सुना। विनम्रता के साथ साथ बहुत ही दृढ़ थे और नमाज़ को उसके समय पर पढ़ने को बहुत महत्व देते थे। किसी को ख़ाली हाथ नहीं लौटने देते थे इसका कारण उनकी नर्म-दिली थी।

 

अल्लामा तबातबाई अनुशासन को मानवीय आत्मोत्थान का प्रेरक मानते थे। इसलिए वे अपने काम को योजनाबंदी के साथ अंजाम देते थे। घर में उन्हें यह पसंद नहीं था कि कोई उनके व्यक्तिगत काम को अंजाम दे। हालांकि उनके पास समय अधिक समय नहीं रहता था किन्तु इस प्रकार योजनाबंदी करते थे कि हर दिन दोपहर के समय एक घंटा अपने परिवार के सदस्यों के साथ बिताएं। वे अपने बच्चों विशेष रूप से बेटियों को बहुत महत्व देते थे और बेटियों को ईश्वर की अनुकंपा व मूल्यवान उपहार समझते थे। हज़रत अल्लामा चाहते थे कि घर में बच्चों के कान में पवित्र क़ुरआन की तिलावत की आवाज़ पड़े इसलिए वह घर में क़ुरआन की तिलावत ऊंचे स्वर में करते थे। वह जीवधारी को मारने की ओर से बहुत संवेदनशील थे यहां तक कि एक मक्खी को भी नहीं मारते थे और कहा करते थे कि जीवधारियों से जीवन नहीं छीनना चाहिए।

आयतुल्लाह तबातबाई की बेटी अपने पिता के अपनी मां के साथ व्यवहार के संबंध में कहती हैः मेरे पिता का मेरी मां के साथ व्यवहार मैत्रीपूर्ण व सम्मानजनक था और सदैव इस प्रकार व्यवहार करते थे जैसे मां को देखने को उत्सुक हो। हमने कभी भी उनके बीच मतभेद नहीं पाया। वे आपस में दो मित्र की भांति थे। मेरे पिता मेरी मां के बारे में कहते थेः यदि उनका साथ न होता तो मैं पठन-पाठन और लिखने में सफल न होता। जिस समय मैं विचारों में लीन होता और न लिख रहा होता था तो वह मुझसे बात नहीं करती थीं ताकि मेरे विचारों का क्रम न टूटने पाए और मुझे थकान से बचाने के लिए हर घंटे मेरा कमरा खोल देतीं और चाय रख जाती थीं। इन्हीं महिला ने मुझे यहां तक पहुंचाया। वह मेरी भागीदार थीं। जो कुछ किताबें मैंने लिखी हैं उसका आधा पुण्य मेरी धर्मपत्नी के लिए है।

 

जिस समय अल्लामा तबातबाई की पत्नी वर्ष 1344 हिजरी शम्सी को बीमार हुयीं उस समय अल्लामा तबातबाई अपनी पत्नी को घर के काम के लिए उठने नहीं देते थे। इस संदर्भ में अल्लामा के बेटे कहते हैः मेरी मां मरने से 27 दिन पहले अस्पताल में भर्ती हुयीं और इस दौरान मेरे पिता उनके पास से एक क्षण के लिए नहीं हटे। अपनी समस्त गतिविधियां रोक दीं और उनकी देखभाल की।

ईश्वर की पहचान रखने वालों की एक विशेषता विनम्रता भी है। अल्लामा तबातबाई बहुत ही हल्के क़दम से रास्ता चलते थे और उनका वस्त्र सादा था जिससे घमंड नहीं झलकता था। यह बात भी रोचक है कि रोटी ख़रीदने के लिए पंक्ति में खड़े होते थे और अपना काम किसी के हवाले करने के लिए तय्यार नहीं होते थे।

अल्लामा तबातबाई के एक शिष्य अपने उस्ताद के व्यवहार के बारे में कहते हैः तीस वर्ष मैं उनके साथ रहा हूं। वह ज्ञान की प्राप्ति में इच्छुक लोगों को बहुत पसंद करते और छात्रों के साथ इतना घुल-मिल कर रहते कि हर कोई यह समझता था कि वह अल्लाम का विशेष मित्र है।

उनका शिष्टाचार सबको सम्मोहित करता था क्योंकि वह स्वंय को कभी भी दूसरों से बेहतर नहीं समझते थे। अपनी वैज्ञानिक व दार्शनिक रचनात्मकता को इतने सादे ढंग से बयान करते थे कि हम ये समझते थे कि मानो यह बिन्दु सभी संबंधित किताबों में मौजूद है किन्तु जब किताब देखते तो पता चलता कि यह केवल उन्हीं की खोज थी। वह कभी भी यह नहीं कहते थे कि इस विषय पर इतनी मेहनत की इतना परीश्रम किया या यह मेरी पहल है। अल्लामा तबातबाई के एक और शिष्य उनके पढ़ाने के व्यवहार के बारे में कहते हैः मुझे याद नहीं है कि मैंने अपनी पूरी शिक्षा के दौरान अल्लामा को एक बार भी क्रोधित देखा हो या छात्रों पर चीख़े चिल्लाए हों या तनिक भी अपमान जनक बात कही हो। बहुत ही धीरे और शांत अंदाज़ में पढ़ाते थे। जब कोई उन्हें उस्ताद कह कर संबोधित करता तो कहते थेः यह शब्द पसंद नहीं है। हम यहां इकट्ठा हुए हैं ताकि सहयोग व विचार विमर्श से इस्लामी शिक्षाओं व वास्तविकताओं को समझें।

 

ईरान के एक बड़ी धर्मगुरु आयतुल्लाह जवादी आमुली को वर्षों अल्लामा तबातबाई के शिष्य रहने का सौभाग्य रहा है। वह अल्लामा के बारे में कहते हैः मुझे याद है कि 1971 में मैं मक्का जाना चाहता था। मैं सलाम करने और विदा होने के लिए गया। अल्लामा से कहाः काबे के दर्शन का इरादा है। कोई नसीहत कीजिए जो यात्रा में मेरे काम आए और रसद रहे। उन्होंने एक आयत मेरे लिए पढ़ा और कहाः ईश्वर कहता हैः मुझे याद करो ताकि मैं तुम्हें याद करूं। और आगे कहाः ईश्वर की याद में रहो ताकि ईश्वर तुम्हें याद रखे। यदि ईश्वर इंसान को याद रखे तो वह अज्ञानता से मुक्ति पाता है और यदि किसी काम में फस गया है तो ईश्वर छोड़ नहीं देता कि वह परेशान हो जाए और यदि नैतिक समस्या में फस जाए तो ईश्वर जिसके अच्छे नाम हैं और अच्छी विशेषताएं उसके अस्तित्व का भाग है, इंसान को याद रखेगा।

एक साम्यवादी विचारधारा वाला व्यक्ति जो अल्लामा तबातबाई के प्रभाव में मुसलमान हो गया था, उनके द्वारा स्वंय के मुसलमान होने के बारे में कहता हैः जनाब तबातबाई ने मुझे एकेश्वरवादी बनाया। आठ घंटे हमने आपस में बहस की। एक साम्यवादी को एकेश्वरवादी बनाया। वह हर नास्तिक की बात को सुनते थे किन्तु कभी अप्रसन्न व क्रोधित नहीं होते।

जब अल्लामा तबातबाई पवित्र क़ुरआन की व्याख्या पर आधारित किताब अलमीज़ान लिख रहे थे तो उस पवित्र नगर क़ुम के धार्मिक केन्द्र के एक धर्मगुरु ने अल्लामा की प्रशंसा की तो उन्होंने उनसे कहाः प्रशंसा मत कीजिए कि संभव है मैं आपकी प्रशंसा से प्रसन्न हो जाउं और मेरी नियत की पवित्रता व निष्ठा समाप्त हो जाए और एक बार धार्मिक केन्द्र के एक धर्मगुरु ने अल्लामा तबातबाई को अपने लेख पर टिप्पणी के लिए दिया तो उन्होंने उसे पढ़ने के बाद कहाः आपने क्यों अपने लिए दुआ की और कहा कि हे प्रभु! मुझे अपनी आयतों को समझने का अवसर प्रदान कर। क्यों ईश्वर की कृपा के दस्तरख़ान पर दूसरों को शामिल न किया... जबसे मैने ख़ुद को पहचाना उस समय से अपने लिए व्यक्तिगत दुआ नहीं की।

 

अल्लामा तबातबाई और ईरान की इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक हज़रत इमाम ख़ुमैनी एक दूसरे के मित्र थे और यह मित्रता बहुत पुरानी थी और अल्लामा तबातबाई इमाम ख़ुमैनी का बहुत सम्मान करते थे।अल्लामा तबातबाई ईरान में इस्लामी क्रान्ति आने से पहले ईरान की सामाजिक स्थिति से बहुत असंतुष्ट थे और शाह और उसके शासन से अप्रसन्न थे...

अमरीका की ओर से अल्लामा को निमंत्रण पर उनका जवाब अल्लामा के व्यवहार का बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है। विश्व साम्राज्य के प्रतीक अमरीका ने अल्लामा के उच्च वैज्ञानिक स्थान के दृष्टिगत शाह से कहा था कि वह अल्लामा से निवेदन करे कि वह अमरीका में पूरब का दर्शनशास्त्र पढ़ाएं। शाह ने अमरीकियों के इस संदेश को उन तक पहुंचा और उन्हें डाक्ट्रेट की मानद उपाधि देने की भी पेशकश की किन्तु अल्लामा तबातबाई ने न तो अमरीका जाना और न ही वहां के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पढ़ाना स्वीकार किया और न ही शाह की ओर से डाक्ट्रेट की मानद उपाधि के प्रस्ताव को। जब शाह के दरबार से उन पर दबाव डाला गया तो उन्होंने कहाः मुझे शाह का कोई डर नहीं है और उसकी ओर से डाक्ट्रेट की मानद उपाधि स्वीकार करने के लिए तय्यार नहीं हूं।

अल्लामा तबातबाई के व्यक्तित्व का एक और रोचक पहलु यह है कि वह शायरी भी करते थे। उन्होंने बहुत सी प्रसिद्ध कविताएं कही हैं जिनमें मुरा तन्हा बुर्द, पयामे नसीम और हुनरे इश्क़ उल्लेखनीय हैं जो अल्लामा की आत्मज्ञान से भरी हुयी कविता है।

Read 1884 times