قرآن کریم : يا ويلتى ليتنى لم اتخذ فلانا خليلا
वाय हो मुझ पर, काश फ़लाँ शख़्स को मैंने अपना दोस्त न बनाया होता।
(सूरा ए फ़ुरक़ान आयत न. 28 )
इंसान की कुछ परेशानियाँ, उसके अपने इख़्तियार से बाहर होती हैं जैसे सैलाब व तूफ़ान का आना, वबा जैसी बीमारियों का फैलना वग़ैरा । यह ऐसी मुसीबतें हैं कि इंसान ख़ुद को उसूले इजतेमाई से बहुत ज़्यादा आरास्ता करने के बाद भी इनसे नही बच सकता।
लेकिन इंसानी समाज की कुछ परेशानियाँ ऐसी हैं कि जो ख़ुद इंसान के वुजूद से जन्म लेती हैं। मिसाल के तौर पर इंसान कभी - कभी दिक़्क़त किये बग़ैर कुछ ऐसे फ़ैसले लेता है या अमल अंजाम देता है कि उसकी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जाती है।
ऐसे इत्तेफ़ाक़ बहुत ज़्यादा पेश आते हैं कि इंसान बग़ैर सोचे समझे कोई मुआहेदा कर लेता है, शादी कर लेता है, किसी प्रोग्राम में शरीक हो जाता है, किसा काम को करने पर राज़ी हो जाता है, या किसी ओहदे को क़बूल कर लेता है, इसके नतीजे में जो परेशानियाँ इंसान के सामने आती हैं, उन्हें इंसान खुद ही अपने लिए जन्म देता है।
बतौरे मुसल्लम कहा जा सकता है कि अगर इंसान उनको आसान समझने के बजाये उनमें ग़ौर व ख़ोज़ से काम ले तो परेशानियों में मुबतला न हो।
आल्लाह ने क़ुरआने करीम के सूराए फ़ुरक़ान की आयत न. 28
يا ويلتى ليتنى لم اتخذ فلانا خليلا
में दर हक़ीक़त दोस्त के इन्तेख़ाब के बारे में बरती जाने वाली सहल अन्गेज़ी यानी ग़ौर व ख़ोज़ न करने को बयान फ़रमाया है। इसके बारे में इंसान क़ियामत के दिन समझेगा कि उसने अपने ईमान की दौलत को अपने दोस्त की वजह से किस तरह बर्बाद किया है। उस वक़्त वह आरज़ू करेगा कि काश मैंने उसे अपना दोस्त न बनाया होता।
सहल अंगारी और उसके नुक़्सान
हम में से जब भी कोई अपनी ज़िन्दगी के वरक़ पलटता है तो देखता है कि हमने किसी मौक़े पर जल्दबाज़ी में ग़ौर व ख़ोज़ किये बग़ैर कोई ऐसा काम किया है जिसके बारे में आज तक अफ़सोस है कि काश हमने उसे करने से पहले ग़ौर व ख़ोज़ किया होता ! हमने बाल की खाल निकाली होती और उसके हर पहलु को समझने के बाद उसे अंजाम न दिया होता। ज़िमनन इस बात पर भी तवज्जो देनी चाहिए कि बड़े काम छोटे कामों से वुजूद में आते हैं। समुन्द्र छोटी छोटी नदियों से मिलकर बनता है। अपनी जगह से न हिलने वाले पहाड़ सहरा के छोटे छोटे संगरेज़ों से मिलकर वुजूद में आते हैं।
दुनिया के बड़े बड़े ज़हीन व बेनज़ीर इंसान इन्हीँ छोटे छोटे बच्चों के दरमियान से निकलते हैं। यह इतना बड़ा व बाअज़मत जहान बहुत छोटे छोटे अटमों (ज़र्रों) से मिलकर बना है।
हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि छोटी चीज़, छोटी तो होती है लेकिन उनका अमल बड़ा और बहुत मोहकम होता है।
सिगरेट का एक टोटक या आग की एक चिंगारी एक बहुत बड़े गोदाम या शहर को जलाकर खाक कर सकती है। एक छोटा सा वैरस (जरसूमा) कुछ इंसानों या किसी शहर के तमाम साकिनान की सेहतव सलामती को ख़तरे में डाल सकता है।
मुमकिन है कि किसी बाँध में पैदा होने वाली एक छोटी सी दरार, उस बाँध के किनारे बसे शहर को वीरान करके उसके साकिनान को मौत के घाट उतार सकती है।
एक छोटा सा जुमला या इबारत दो बस्तियों के लोगों को एकदूसरे का जानी दुश्मन बना सकती है। इसी तरह हवस से भरी एक निगाह या मुस्कुराहट इंसान के ईमान की दौलत को बर्बादकर सकती है।
यतीम की आँख से गिरने वाला एक आँसू या दर्दमंद की एक आह या दुआ किसी इंसान या इंसानों को हलाकत से बचा सकती है।
एक लम्हे का तकब्बुर इंसान के मुस्तक़बिल को बर्बाद कर सकता है इसी तरह एक हिक़ारत भरी निगाह या तौहीन आमेज़ इबारत या ज़िल्लत का बर्ताव किसी इंसान, जवान या बच्चे के मुस्तक़बिल को तारीक बना सकता है।
इन मसालों के बयान करने का मक़सद यह है कि हमें इस बात पर तवज्जो देनी चाहिए कि इस आलम का निज़ाम अज़ीम होते हुए भी छोटो पर मुशतमिल है। छोटे आमाल ही बड़े अमल की बुनियाद बनते हैं। लिहाज़ा जिस तरह हमारी अक़्ल की आँखे इस अज़ीम जहान व इसके नक़्शे को देखती हैं, इसी तरह उनमें ज़रीफ़ व दक़ीक़ मसाइल को देखने की भी ताक़त होनी चाहिए।
इस बिना पर इजतेमाई ज़िन्दगी में हमारा जिस चीज़ से मुजहज़ होना ज़रूरी है और जिससे हर इंसान को मुसलेह होना चाहिए वह ग़ौर व ख़ोज़ की आदत है। क्योंकि कि सहलअंगारी या सुस्ती की वजह से इंसान की ज़िन्दगी के बर्बाद होने के इमकान पाये जाते हैं। मशहूर है कि तसादुफ़ात एक लम्हे में रूनुमा होते हैं। मुमकिन है एक लम्हे की अदमे तवज्जो, एक लम्हे की लापरवाही, एक लम्हे का मज़ाक़, एक लम्हे की नीँद, एक लम्हे का ग़ुस्सा, एक लम्हे का ग़रूर इंसान को जेल की सलाख़ों के पीछे पहुँचा दे या उसे मौत की नीँद सुला दे। जो अफ़राद जेल की चार दीवारी में ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं उनमें से अक़्सर लोग एक लम्हे के सताये हुए हैं, एक लम्हे की सहलअंगारी, एक लम्हे की ग़फ़लत या एक लम्हे की लापरवाही।
इस्लाम, मुसलमानों को तमाम कामों में ग़ौर व ख़ोज़ करने की नसीहत करता है। पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि : "वाय हो उस इंसान पर जो बग़ैर सोचे समझे कोई जुमला अपनी ज़बान पर लाये।" इससे यह साबित होता है कि हर मुसलमान की ज़िम्मेदारी है कि वह जो बात भी कहना चाहे, कहने से पहले उस पर ग़ौर करे। दूसरे लफ़्जों में यह कहा जा सकता है कि जिस तरह हम खाने को इतना चबाते हैं कि वह दहन की राल में मिलकर नर्म हो जाता, इसी तरह हमें हर बात कहने से पहले अपने लफ़्ज़ों व जुमलों पर भी ग़ौर करना चाहिए और ऐब व इश्काल से खाली होने की सूरत में उसे कहना चाहिए।
لسان العاقل وراء قلبه و قلب الاسحمق وراء لسانه
अक़्लमंद की ज़बान उसके दिल के पीछे होती है और अहमक़ का दिल उसकी ज़बान के पीछे होता है। इस रिवायत से यह नुक्ता निकलता है कि अक़लमंद इंसान को चाहिए कि कोई बात कहने से पहले उसके बारे में पूरी तरह तहक़ीक़ करनी चाहिए, अगर दिल उस बात को कहने की ताईद करे तो उसे कहना चाहिए। जब पैग़म्बरे इस्लाम (स.) सअद को दफ़्न कर रहे थे तो मुसलमानों का एक गिरोह इस काम में पैग़म्बर (स.) की मदद कर रहा था। पैग़म्बर (स.) ने एक मुसलमान को अपने काम में सहल अन्गारी करते देखा तो उसे घूरते हुए फ़रमाया मोमिन हर काम को दिक़्क़त व यक़ीन के साथ अंजाम देता है।